उस आदमी को मैं योगी कहूंगा, जो जितना लेता है, उतना दे देता है और हिसाब सदा चुकता है। कबीर जब कह सके मरते वक्त कि ज्यों की त्यों रख दीन्हीं चदरिया, तो उसका मतलब है। उसका मतलब है: लेन-देन सब बराबर है। खाते में न कुछ देना बचा, न कुछ लेना बचा। हिसाब-किताब पूरा हो गया, हम जाते हैं। कोई उधारी नहीं है। ऐसा नहीं कि लिया ही हो और दिया न हो।
हम सारे लोग लेते तो हैं, लेकिन दे नहीं पाते, बांट नहीं पाते। और लेने तक में कंजूसी कर जाते हैं तो देने में तो कंजूसी करेंगे ही। लेते तक खुले मन से नहीं हैं, वहां भी दरवाजे बंद रखते हैं, पता ही नहीं। और देने में तो बहुत कठिनाई है।
जैसा मैंने कहा, आनंद में ज्यादा मिलता है, वैसे ही आनंद में ज्यादा दिया जाता है। मौन में ज्यादा मिलता है, मौन में ज्यादा दिया जाता है।
असल में, जब कोई बिलकुल शांत, मौन में होता है, तो ऐसे हो जाता है जैसे पहाड़ों पर ईको प्वाइंट होते हैं। आपने आवाज दी और पहाड़ ने लौटा दी। खाली मंदिर में आप बोले, गूंजी आवाज, लौट कर आप पर बरस गई। खाली, मौन, ध्यान को उपलब्ध आदमी में जो भी आता है, तत्काल रिस्पांस, तत्काल प्रतिध्वनित होकर लौट जाता है। वह प्रतिपल ले रहा है और दे रहा है। लेने और देने में फासला भी नहीं है। जैसे लहर सागर के तट पर आई और वापस लौट गई। और सागर का तट सदा ही ऋणमुक्त खड़ा है; जितना लेता है, उतना लौटा देता है; जो भी लेता है, लौटा देता है।
यह जो मैंने कहा, एस्ट्रन के यंत्र में यह भी पकड़ा जाता है कि आपके बाहर कितनी ऊर्जा गिर रही है। आपके बाहर कितनी एनर्जी वेव्स आपके बाहर जा रही हैं।
दुखी आदमी से बहुत कम बाहर जाती हैं, दुखी आदमी अपने को पकड़ कर खड़ा हो जाता है। चिंतित आदमी से बहुत कम बाहर जाती हैं, चिंतित आदमी की शक्ति उसी के भीतर वर्तुल बन जाती है और घूमने लगती है। जैसे पानी में भंवर बन जाते हैं, ऐसा चिंतित आदमी की ऊर्जा भीतर ही भंवर बन कर घूमने लगती है। और वह उन्हीं-उन्हीं बातों को घूम-घूम कर सोचने लगता है जिन्हें हजार बार सोच चुका है। वह जुगाली करने लगता है, जैसे भैंस करती है। खाना खा लिया है, फिर उसे निकाल कर चबाने लगती है, फिर चबाने लगती है, फिर चबाने लगती है। भैंस के चबाने का तो उपयोग भी है, क्योंकि भैंस इकट्ठा खा लेती है, फिर फुरसत से चबाती रहती है। आदमी, चिंतित आदमी जो चबाता है, उसका चबाना बिलकुल बेमानी है। उसका कोई अर्थ ही नहीं है। वह एक ही बात को लाख दफे सोचने लगता है। उसका मतलब? उसका मतलब हुआ, उसके भीतर रुग्ण भंवर बन गया। अब उसके बस के बाहर है, वह आब्सेस्ड हो गया। अब वह उसी बात को हजार बार सोच रहा है। और यह भी सोचता है कि मैं क्या बेकार बात सोच रहा हूं! लेकिन सोचे जा रहा है। ऊर्जा ने बाहर जाना बंद कर दिया, वह भीतर ही घूमने लगी। ऐसा आदमी रुग्ण हो जाएगा, आध्यात्मिक अर्थों में रुग्ण हो जाएगा।
ऊर्जा आनी भी चाहिए, जानी भी चाहिए। और भीतर सदा ही समतुल, लेन-देन बराबर होना चाहिए। तो व्यक्ति और परमात्मा के बीच जो संबंध बनते हैं, उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। तब सीधे संबंध होते हैं। और तब ऐसा नहीं होता कि व्यक्ति चरणों में होता है, परमात्मा सिर पर होता है। तब ऐसा नहीं होता। तब व्यक्ति परमात्मा हो जाता है, परमात्मा व्यक्ति हो जाता है। तब भगवान भक्त हो जाता है, भक्त भगवान हो जाता है। फर्क-फासले नहीं रह जाते, क्योंकि कोई लेन-देन ही नहीं होता। भगवान भी जोर से नहीं कह सकता, क्योंकि जो लिया था वह दे दिया गया है। कहीं कोई बाकी नहीं रह गई है बात।
दुख में, बेचैनी में, परेशानी में हम देते भी नहीं, लेते भी नहीं, सिकुड़ कर बंद हो जाते हैं और जीवन-स्रोत सूख जाते हैं। ऐसे ही, जैसे कोई कुआं हो और कुआं कह दे कि सागर से अब मैं पानी नहीं लूंगा, झरने बंद करता हूं अपने; और लोगों से कह दे कि अब अपनी गगरियां डालना बंद कर दो, अब मैं दूंगा भी नहीं। स्वभावतः, जो लेना बंद करेगा, वह देना भी बंद करेगा, नहीं तो सूखता जाएगा। और जो देना बंद करेगा, उसे लेना भी बंद करना पड़ेगा, अन्यथा फूट जाएगा, जी नहीं सकता। ये दोनों बातें एक साथ करनी पड़ेंगी।
लेकिन ध्यान रहे, जो कुआं सागर से कह देगा कि नहीं लेता तुझसे और गांव के लोगों से कह देगा कि नहीं देते तुझे, वह सिर्फ सड़ेगा, गंदा होगा, बदबू फेंकेगा। उसकी ताजगी नष्ट हो जाएगी, उसका जीवन खो जाएगा।
हम सब ऐसे ही कुएं हो गए हैं। योग की दृष्टि से हम सड़ते हुए कुएं हैं; जीवित कुएं नहीं हैं, जो सागर से लेते हैं और सागर को बांट देते हैं वापस। क्योंकि वे जो लोग गगरियां लेकर आ गए हैं, वे सागर के साधन हैं, वे वापस सागर तक पहुंचा देंगे। और कुआं ताजे से ताजा बनता जाएगा।
आश्चर्य की बात है योग का यह कहना कि जो जितना लेगा और जितना देगा, उतना जीवंत, उतना लिविंग होगा। जो जितनी बड़ी मात्रा में लेगा और उतनी ही बड़ी मात्रा में लौटा देगा, वह उतना जीवन-ऊर्जा का केंद्र हो जाएगा। उतनी पुलक, उतनी थिरक, उतना जीवन सघन होकर उसमें प्रकट होगा।
कृष्ण हों, कि बुद्ध हों, कि महावीर हों, कि क्राइस्ट हों, ये सारे लोग जो इतने विराट जीवन-ऊर्जा से भरे हुए मालूम पड़ते हैं, उसका कारण? उसका एक ही कारण है, लेने की भी कंजूसी नहीं है, देने की भी कंजूसी नहीं है। लेते भी बड़े पैमाने पर हैं, देते भी उतने ही बड़े पैमाने पर हैं।
जीसस का एक वचन आपसे कहूं। और जीसस पृथ्वी पर हुए थोड़े से उन बड़े योगियों में से एक हैं, जिन्होंने कुछ कीमती सूत्र छोड़े। जीसस का एक वचन है: जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाएगा। जिसके पास थोड़ा है, उससे छीन लिया जाएगा; और जिसके पास बहुत है, उसे बहुत दे दिया जाएगा।
बड़ी उलटी बात कहते हैं न! हम कहेंगे, कैसी ज्यादती कर रहे हो! जिसके पास कुछ नहीं है उसे दो। और जिसके पास बहुत कुछ है उसे क्यों देते हो? उसे न दो तो भी चलेगा। लेकिन जीसस किसी और गहरी बात की बात कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि जिसके पास जितनी ज्यादा ऊर्जा है, उसे उतनी ही ज्यादा दी जाएगी, जिसके पास जितनी कम ऊर्जा है उसे उतनी कम मिलेगी। कम मिलने का कारण यही है कि जिस आदमी के पास कम है, वह आदमी अपने द्वार-दरवाजे बंद किए बैठा है, इसीलिए कम है। उसने देने में कंजूसी की है, इसीलिए लेने में हार गया, थक गया, ले नहीं सकता।
हम सारे लोग लेते तो हैं, लेकिन दे नहीं पाते, बांट नहीं पाते। और लेने तक में कंजूसी कर जाते हैं तो देने में तो कंजूसी करेंगे ही। लेते तक खुले मन से नहीं हैं, वहां भी दरवाजे बंद रखते हैं, पता ही नहीं। और देने में तो बहुत कठिनाई है।
जैसा मैंने कहा, आनंद में ज्यादा मिलता है, वैसे ही आनंद में ज्यादा दिया जाता है। मौन में ज्यादा मिलता है, मौन में ज्यादा दिया जाता है।
असल में, जब कोई बिलकुल शांत, मौन में होता है, तो ऐसे हो जाता है जैसे पहाड़ों पर ईको प्वाइंट होते हैं। आपने आवाज दी और पहाड़ ने लौटा दी। खाली मंदिर में आप बोले, गूंजी आवाज, लौट कर आप पर बरस गई। खाली, मौन, ध्यान को उपलब्ध आदमी में जो भी आता है, तत्काल रिस्पांस, तत्काल प्रतिध्वनित होकर लौट जाता है। वह प्रतिपल ले रहा है और दे रहा है। लेने और देने में फासला भी नहीं है। जैसे लहर सागर के तट पर आई और वापस लौट गई। और सागर का तट सदा ही ऋणमुक्त खड़ा है; जितना लेता है, उतना लौटा देता है; जो भी लेता है, लौटा देता है।
यह जो मैंने कहा, एस्ट्रन के यंत्र में यह भी पकड़ा जाता है कि आपके बाहर कितनी ऊर्जा गिर रही है। आपके बाहर कितनी एनर्जी वेव्स आपके बाहर जा रही हैं।
दुखी आदमी से बहुत कम बाहर जाती हैं, दुखी आदमी अपने को पकड़ कर खड़ा हो जाता है। चिंतित आदमी से बहुत कम बाहर जाती हैं, चिंतित आदमी की शक्ति उसी के भीतर वर्तुल बन जाती है और घूमने लगती है। जैसे पानी में भंवर बन जाते हैं, ऐसा चिंतित आदमी की ऊर्जा भीतर ही भंवर बन कर घूमने लगती है। और वह उन्हीं-उन्हीं बातों को घूम-घूम कर सोचने लगता है जिन्हें हजार बार सोच चुका है। वह जुगाली करने लगता है, जैसे भैंस करती है। खाना खा लिया है, फिर उसे निकाल कर चबाने लगती है, फिर चबाने लगती है, फिर चबाने लगती है। भैंस के चबाने का तो उपयोग भी है, क्योंकि भैंस इकट्ठा खा लेती है, फिर फुरसत से चबाती रहती है। आदमी, चिंतित आदमी जो चबाता है, उसका चबाना बिलकुल बेमानी है। उसका कोई अर्थ ही नहीं है। वह एक ही बात को लाख दफे सोचने लगता है। उसका मतलब? उसका मतलब हुआ, उसके भीतर रुग्ण भंवर बन गया। अब उसके बस के बाहर है, वह आब्सेस्ड हो गया। अब वह उसी बात को हजार बार सोच रहा है। और यह भी सोचता है कि मैं क्या बेकार बात सोच रहा हूं! लेकिन सोचे जा रहा है। ऊर्जा ने बाहर जाना बंद कर दिया, वह भीतर ही घूमने लगी। ऐसा आदमी रुग्ण हो जाएगा, आध्यात्मिक अर्थों में रुग्ण हो जाएगा।
ऊर्जा आनी भी चाहिए, जानी भी चाहिए। और भीतर सदा ही समतुल, लेन-देन बराबर होना चाहिए। तो व्यक्ति और परमात्मा के बीच जो संबंध बनते हैं, उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। तब सीधे संबंध होते हैं। और तब ऐसा नहीं होता कि व्यक्ति चरणों में होता है, परमात्मा सिर पर होता है। तब ऐसा नहीं होता। तब व्यक्ति परमात्मा हो जाता है, परमात्मा व्यक्ति हो जाता है। तब भगवान भक्त हो जाता है, भक्त भगवान हो जाता है। फर्क-फासले नहीं रह जाते, क्योंकि कोई लेन-देन ही नहीं होता। भगवान भी जोर से नहीं कह सकता, क्योंकि जो लिया था वह दे दिया गया है। कहीं कोई बाकी नहीं रह गई है बात।
दुख में, बेचैनी में, परेशानी में हम देते भी नहीं, लेते भी नहीं, सिकुड़ कर बंद हो जाते हैं और जीवन-स्रोत सूख जाते हैं। ऐसे ही, जैसे कोई कुआं हो और कुआं कह दे कि सागर से अब मैं पानी नहीं लूंगा, झरने बंद करता हूं अपने; और लोगों से कह दे कि अब अपनी गगरियां डालना बंद कर दो, अब मैं दूंगा भी नहीं। स्वभावतः, जो लेना बंद करेगा, वह देना भी बंद करेगा, नहीं तो सूखता जाएगा। और जो देना बंद करेगा, उसे लेना भी बंद करना पड़ेगा, अन्यथा फूट जाएगा, जी नहीं सकता। ये दोनों बातें एक साथ करनी पड़ेंगी।
लेकिन ध्यान रहे, जो कुआं सागर से कह देगा कि नहीं लेता तुझसे और गांव के लोगों से कह देगा कि नहीं देते तुझे, वह सिर्फ सड़ेगा, गंदा होगा, बदबू फेंकेगा। उसकी ताजगी नष्ट हो जाएगी, उसका जीवन खो जाएगा।
हम सब ऐसे ही कुएं हो गए हैं। योग की दृष्टि से हम सड़ते हुए कुएं हैं; जीवित कुएं नहीं हैं, जो सागर से लेते हैं और सागर को बांट देते हैं वापस। क्योंकि वे जो लोग गगरियां लेकर आ गए हैं, वे सागर के साधन हैं, वे वापस सागर तक पहुंचा देंगे। और कुआं ताजे से ताजा बनता जाएगा।
आश्चर्य की बात है योग का यह कहना कि जो जितना लेगा और जितना देगा, उतना जीवंत, उतना लिविंग होगा। जो जितनी बड़ी मात्रा में लेगा और उतनी ही बड़ी मात्रा में लौटा देगा, वह उतना जीवन-ऊर्जा का केंद्र हो जाएगा। उतनी पुलक, उतनी थिरक, उतना जीवन सघन होकर उसमें प्रकट होगा।
कृष्ण हों, कि बुद्ध हों, कि महावीर हों, कि क्राइस्ट हों, ये सारे लोग जो इतने विराट जीवन-ऊर्जा से भरे हुए मालूम पड़ते हैं, उसका कारण? उसका एक ही कारण है, लेने की भी कंजूसी नहीं है, देने की भी कंजूसी नहीं है। लेते भी बड़े पैमाने पर हैं, देते भी उतने ही बड़े पैमाने पर हैं।
जीसस का एक वचन आपसे कहूं। और जीसस पृथ्वी पर हुए थोड़े से उन बड़े योगियों में से एक हैं, जिन्होंने कुछ कीमती सूत्र छोड़े। जीसस का एक वचन है: जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाएगा। जिसके पास थोड़ा है, उससे छीन लिया जाएगा; और जिसके पास बहुत है, उसे बहुत दे दिया जाएगा।
बड़ी उलटी बात कहते हैं न! हम कहेंगे, कैसी ज्यादती कर रहे हो! जिसके पास कुछ नहीं है उसे दो। और जिसके पास बहुत कुछ है उसे क्यों देते हो? उसे न दो तो भी चलेगा। लेकिन जीसस किसी और गहरी बात की बात कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि जिसके पास जितनी ज्यादा ऊर्जा है, उसे उतनी ही ज्यादा दी जाएगी, जिसके पास जितनी कम ऊर्जा है उसे उतनी कम मिलेगी। कम मिलने का कारण यही है कि जिस आदमी के पास कम है, वह आदमी अपने द्वार-दरवाजे बंद किए बैठा है, इसीलिए कम है। उसने देने में कंजूसी की है, इसीलिए लेने में हार गया, थक गया, ले नहीं सकता।
YOG NAYE AAYAM 02
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