इसलिए तो हमने ऐसे व्यक्तियों को परमहंस कहा है.....
मैंने कहा कब कि है? मैं तो शास्त्र-विरोधी हूं। जरूर मैं उन सत्यों का समर्थन करता हूं जो मैंने अनुभव किए हैं। शास्त्रों में हैं, इसलिए समर्थन नहीं करता। मैंने अनुभव किए हैं और अगर शास्त्र भी उनके समर्थन में हैं, तो जरूर मैं शास्त्रों की पीठ भी ठोंक देता हूं कि बच्चा, ठीक कहते हो! बाकी जो मैं कह रहा हूं, अपना अनुभव है। अपने अनुभव के अतिरिक्त मुझे और किसी बात पर भरोसा नहीं है। जो मैंने नहीं जाना है, जो मेरा स्वानुभव नहीं है, वह मैं तुमसे नहीं कहूंगा। शास्त्रों से मुझे क्या लेना-देना?
इसलिए मुझे सुनने वाले थोड़ी अड़चन में भी पड़ते हैं, थोड़ी झंझट में भी पड़ते हैं। क्योंकि कभी मैं उसी शास्त्र के एक वचन का समर्थन कर देता हूं और कभी उसी शास्त्र के दूसरे वचन का खंडन कर देता हूं। स्वभावतः उनकी समझ में यह बात नहीं आती। उनको समझ में आती है यह बात कि या तो मैं पूरे शास्त्र का समर्थन करूं या पूरे शास्त्र का विरोध करूं। नहीं, मुझे पूरे का विरोध या समर्थन इसमें रस नहीं है। मेरी कसौटी पर जो सच उतर आता है, वह फिर कहीं भी हो, वह कुरान में हो कि बाइबिल में हो, कि जेंदावेस्ता में हो कि वेद में हो, कि ताओत्तेह-किंग में हो कि धम्मपद में हो, मुझे कोई अड़चन नहीं। मैं उसके समर्थन में खड़ा हूं। लेकिन अगर तुम गौर से समझोगे तो तुम पाओगे कि मैं उसका समर्थन इसलिए कर रहा हूं कि वह मेरा समर्थन कर रहा है, अन्यथा जहां मुझसे भिन्न कोई बात हुई, फिर मैं संकोच नहीं करता। फिर सत सिरी अकाल! फिर वाहे गुरुजी की फतह, वाहे गुरुजी का खालसा! फिर मैं कोई शिष्टाचार नहीं मानता, कोई सभ्यता नहीं मानता।
मेरे लिए तो सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है। सत्य जहां भी प्रतिध्वनित हुआ हो, मेरा समर्थन है। मगर वह सत्य मेरा अनुभूत सत्य हो, तो ही। मैं उधार सत्यों का समर्थन नहीं करता हूं। इसलिए वे क्यों चिंता में पड़ रहे हैं कि मेरी बातें शास्त्रों के अनुसार नहीं हैं? मैंने कभी कहा ही नहीं। होनी चाहिए, यह भी नहीं कहा। तुम्हारे शास्त्रों का सौभाग्य है अगर कोई बात उनकी मेरे अनुसार पड़ती हो, अन्यथा उनका दुर्भाग्य। जीवित आदमी हूं मैं, मैं मुर्दा शास्त्रों में अपना समर्थन खोजूंगा? मुर्दे खोजते हैं, मुर्दा शास्त्रों में समर्थन। जिनका अपना अनुभव नहीं है वे खोजते हैं।
कालिदास का यह प्रसिद्ध वचन है--
अर्थात कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं हो जाती; न ही कोई काव्य नया होने से निन्दनीय हो जाता है। सतपुरुष नए-पुराने की परीक्षा करके दोनों में से जो गुणयुक्त होता है, उसको ग्रहण करते हैं; मूढ़ की बुद्धि तो दूसरे के ज्ञान से ही संचालित होती है।
मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।
मूढ़ ही केवल दूसरों के ज्ञान से संचालित होते हैं। जिनके पास अपनी प्रज्ञा की कसौटी है, वे तो परीक्षा करते हैं, वे तो जांचते हैं, वे तो प्रयोग करते हैं। सच को सच कहते हैं, झूठ को झूठ कहते हैं। इसलिए तो हमने ऐसे व्यक्तियों को परमहंस कहा है, क्योंकि वे दूध को जल से अलग कर देते हैं; सार को सार, असार को असार कह देते हैं।
और तुम्हारे शास्त्रों में निन्यानबे प्रतिशत असार है, एक प्रतिशत सार है। यह भी चमत्कार है, क्योंकि एक प्रतिशत सत्य भी बच रहा है यह भी अनहोनी घटना है। यह भी कुछ कम नहीं। यह भी न होता तो कोई आश्चर्य की बात न होती। यह है, यही आश्चर्य है। क्योंकि तुम्हारे शास्त्र सदियों-सदियों तक लिखे गए हैं; और किन्हीं एक व्यक्ति ने तो लिखे नहीं हैं, न मालूम कितने व्यक्तियों ने लिखे हैं। उनमें जोड़ होता चला गया है। उनमें जानकारों के वचन हैं, उनमें अज्ञानियों के वचन हैं। उनमें प्रज्ञावानों के वचन हैं, उनमें पंडितों के वचन हैं। और आज उस खिचड़ी में से छांटना बहुत मुश्किल मामला है।
मेरा शास्त्रों में कोई रस नहीं है। हां, जरूर अगर मेरे सत्य से कोई शास्त्र अनुकूल पड़ जाता है तो मैं तुम्हें उसकी याद दिला देता हूं। जैसे कालिदास के इस वचन से मैं राजी हूं कि कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं होती। पुराना होना सत्य होने का कोई प्रमाण नहीं है। और न ही कोई वस्तु नई होने से गलत होती है। नया होना गलत होने का प्रमाण नहीं है। इससे उलटी बात भी सच है। नए होने से ही कोई बात सच नहीं होती और पुराने होने से ही कुछ गलत नहीं होती। गलत और सही का नए और पुराने से क्या लेना-देना है? शराब तो जितनी पुरानी हो उतनी अच्छी होती है और फूल जितना ताजा हो उतना अच्छा होता है। कुछ चीजें पुरानी अच्छी होती हैं, कुछ चीजें नई अच्छी होती हैं। और हमें दोनों में भेद कर लेने चाहिए। और हमारी निष्ठा सत्य के प्रति होनी चाहिए; न तो शास्त्रों के प्रति होनी चाहिए, न अतीत के प्रति होनी चाहिए।
मेरी निष्ठा अतीत में नहीं है। मेरी निष्ठा वर्तमान में है। मेरी निष्ठा शब्दों में नहीं है, अनुभूति में है। मेरी निष्ठा मन में नहीं है, ध्यान में है--अमनी दशा में है।
Peevat Ram Ras Lagi Khumari - 04
मैंने कहा कब कि है? मैं तो शास्त्र-विरोधी हूं। जरूर मैं उन सत्यों का समर्थन करता हूं जो मैंने अनुभव किए हैं। शास्त्रों में हैं, इसलिए समर्थन नहीं करता। मैंने अनुभव किए हैं और अगर शास्त्र भी उनके समर्थन में हैं, तो जरूर मैं शास्त्रों की पीठ भी ठोंक देता हूं कि बच्चा, ठीक कहते हो! बाकी जो मैं कह रहा हूं, अपना अनुभव है। अपने अनुभव के अतिरिक्त मुझे और किसी बात पर भरोसा नहीं है। जो मैंने नहीं जाना है, जो मेरा स्वानुभव नहीं है, वह मैं तुमसे नहीं कहूंगा। शास्त्रों से मुझे क्या लेना-देना?
इसलिए मुझे सुनने वाले थोड़ी अड़चन में भी पड़ते हैं, थोड़ी झंझट में भी पड़ते हैं। क्योंकि कभी मैं उसी शास्त्र के एक वचन का समर्थन कर देता हूं और कभी उसी शास्त्र के दूसरे वचन का खंडन कर देता हूं। स्वभावतः उनकी समझ में यह बात नहीं आती। उनको समझ में आती है यह बात कि या तो मैं पूरे शास्त्र का समर्थन करूं या पूरे शास्त्र का विरोध करूं। नहीं, मुझे पूरे का विरोध या समर्थन इसमें रस नहीं है। मेरी कसौटी पर जो सच उतर आता है, वह फिर कहीं भी हो, वह कुरान में हो कि बाइबिल में हो, कि जेंदावेस्ता में हो कि वेद में हो, कि ताओत्तेह-किंग में हो कि धम्मपद में हो, मुझे कोई अड़चन नहीं। मैं उसके समर्थन में खड़ा हूं। लेकिन अगर तुम गौर से समझोगे तो तुम पाओगे कि मैं उसका समर्थन इसलिए कर रहा हूं कि वह मेरा समर्थन कर रहा है, अन्यथा जहां मुझसे भिन्न कोई बात हुई, फिर मैं संकोच नहीं करता। फिर सत सिरी अकाल! फिर वाहे गुरुजी की फतह, वाहे गुरुजी का खालसा! फिर मैं कोई शिष्टाचार नहीं मानता, कोई सभ्यता नहीं मानता।
मेरे लिए तो सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है। सत्य जहां भी प्रतिध्वनित हुआ हो, मेरा समर्थन है। मगर वह सत्य मेरा अनुभूत सत्य हो, तो ही। मैं उधार सत्यों का समर्थन नहीं करता हूं। इसलिए वे क्यों चिंता में पड़ रहे हैं कि मेरी बातें शास्त्रों के अनुसार नहीं हैं? मैंने कभी कहा ही नहीं। होनी चाहिए, यह भी नहीं कहा। तुम्हारे शास्त्रों का सौभाग्य है अगर कोई बात उनकी मेरे अनुसार पड़ती हो, अन्यथा उनका दुर्भाग्य। जीवित आदमी हूं मैं, मैं मुर्दा शास्त्रों में अपना समर्थन खोजूंगा? मुर्दे खोजते हैं, मुर्दा शास्त्रों में समर्थन। जिनका अपना अनुभव नहीं है वे खोजते हैं।
कालिदास का यह प्रसिद्ध वचन है--
पुराणमित्येव न साधु सर्वं
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
संतः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते
मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।।
मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।
मूढ़ ही केवल दूसरों के ज्ञान से संचालित होते हैं। जिनके पास अपनी प्रज्ञा की कसौटी है, वे तो परीक्षा करते हैं, वे तो जांचते हैं, वे तो प्रयोग करते हैं। सच को सच कहते हैं, झूठ को झूठ कहते हैं। इसलिए तो हमने ऐसे व्यक्तियों को परमहंस कहा है, क्योंकि वे दूध को जल से अलग कर देते हैं; सार को सार, असार को असार कह देते हैं।
और तुम्हारे शास्त्रों में निन्यानबे प्रतिशत असार है, एक प्रतिशत सार है। यह भी चमत्कार है, क्योंकि एक प्रतिशत सत्य भी बच रहा है यह भी अनहोनी घटना है। यह भी कुछ कम नहीं। यह भी न होता तो कोई आश्चर्य की बात न होती। यह है, यही आश्चर्य है। क्योंकि तुम्हारे शास्त्र सदियों-सदियों तक लिखे गए हैं; और किन्हीं एक व्यक्ति ने तो लिखे नहीं हैं, न मालूम कितने व्यक्तियों ने लिखे हैं। उनमें जोड़ होता चला गया है। उनमें जानकारों के वचन हैं, उनमें अज्ञानियों के वचन हैं। उनमें प्रज्ञावानों के वचन हैं, उनमें पंडितों के वचन हैं। और आज उस खिचड़ी में से छांटना बहुत मुश्किल मामला है।
मेरा शास्त्रों में कोई रस नहीं है। हां, जरूर अगर मेरे सत्य से कोई शास्त्र अनुकूल पड़ जाता है तो मैं तुम्हें उसकी याद दिला देता हूं। जैसे कालिदास के इस वचन से मैं राजी हूं कि कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं होती। पुराना होना सत्य होने का कोई प्रमाण नहीं है। और न ही कोई वस्तु नई होने से गलत होती है। नया होना गलत होने का प्रमाण नहीं है। इससे उलटी बात भी सच है। नए होने से ही कोई बात सच नहीं होती और पुराने होने से ही कुछ गलत नहीं होती। गलत और सही का नए और पुराने से क्या लेना-देना है? शराब तो जितनी पुरानी हो उतनी अच्छी होती है और फूल जितना ताजा हो उतना अच्छा होता है। कुछ चीजें पुरानी अच्छी होती हैं, कुछ चीजें नई अच्छी होती हैं। और हमें दोनों में भेद कर लेने चाहिए। और हमारी निष्ठा सत्य के प्रति होनी चाहिए; न तो शास्त्रों के प्रति होनी चाहिए, न अतीत के प्रति होनी चाहिए।
मेरी निष्ठा अतीत में नहीं है। मेरी निष्ठा वर्तमान में है। मेरी निष्ठा शब्दों में नहीं है, अनुभूति में है। मेरी निष्ठा मन में नहीं है, ध्यान में है--अमनी दशा में है।
Peevat Ram Ras Lagi Khumari - 04
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