Wednesday, 19 February 2014

"अखंड आनंदरूप आत्मा : मस्ती की अलग साधना-पद्धतियां हैं osho

"अखंड आनंदरूप आत्मा को स्वस्वरूप जान कर इस आत्मा में ही बाहर और भीतर सदा आनंद रस का तू स्वाद ले।'

दूसरी बात भी बहुत कीमती है। हम स्वाद लेते हैं। अपने में कभी नहीं लेते, सदा दूसरे में लेते हैं। यह बड़ी मजेदार बात है। हम स्वाद लेते हैं, हम रस भी लेते हैं। हम कभी-कभी सुख भी पाते हैं। लेकिन सदा दूसरे में। कभी आपने अपना स्वाद लिया? नहीं लिया। अपनी तरफ तो हम ध्यान ही नहीं देते! 

यह सूत्र कहता है कि साधक को धीरे-धीरे दूसरे में स्वाद लेना छोड़ कर अपने में स्वाद लेना चाहिए। खाली बैठे हैं, तब आप कभी आनंदित नहीं होते। सोचते हैं, मित्र आ जाएं तो थोड़ा मजा हो; संगी-साथी मिल जाएं तो थोड़ी खुशी हो। अकेले में उदासी पकड़ने लगती है। अकेले में आप खुश नहीं दिखाई पड़ते। अकेले में ऊब हो जाती है; अपने से ऊब हो जाती है। कोई अपने को पसंद करता ही नहीं! और बड़ा मजा यह है कि सब यह चाहते हैं कि दूसरे हमें पसंद करें! और आप खुद अपने को पसंद नहीं करते! खुद से ऊब जाते हैं और चाहते हैं कि दूसरे बड़े प्रसन्न हों जब आपका दर्शन हो। यह कैसे होगा? यह असंभव है। सोचते हैं कि दूसरों को आप बड़ा आनंद दें। अपने को नहीं दे पाते, दूसरों को कैसे देंगे! और जो नहीं है पास अपने, उसे देने का कोई उपाय नहीं है।

यह सूत्र कहता है, अपने स्वभाव में रस, स्वाद, आनंद का अनुभव करें। अकेले बैठे हैं, आनंदित हों। इस अवस्था को फकीरों ने मस्ती कहा है। मस्ती का मतलब यह है, कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता और मस्त हो रहे हैं; प्रसन्न हो रहे हैं। कोई रस की धार जैसे भीतर अपने ही चल रही है; अपना ही आनंद ले रहे हैं; अपने से ही ले रहे हैं; कोई दूसरे का कोई माध्यम नहीं है। 

मस्ती की अलग साधना-पद्धतियां हैं। सूफियों ने बहुत उपयोग किया है मस्ती की साधना का। मस्तों के अलग मार्ग हैं। उनका सूत्र यही है, उनका आधार-सूत्र यही है कि दूसरे से अपने सुख को मत जोड़ो। जो आदमी दूसरे से अपने सुख को जोड़ता है, उसका दुख भी दूसरे से जुड़ जाता है। दूसरे से सुख जोड़ो ही मत, सुख जोड़ो अपने से। खाली वृक्ष के नीचे बैठे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं। बड़ा मुश्किल लगेगा, कैसे प्रसन्न होंगे, जब कोई प्रसन्नता का कारण ही नहीं है! क्योंकि हम सदा कारण से प्रसन्न होते हैं, कि मित्र चला आ रहा है; बहुत दिन बाद दिखाई पड़ा, प्रसन्न हो गए।

हम सदा कारण से प्रसन्न होते हैं। अकारण प्रसन्नता का नाम मस्ती है। कोई कारण नहीं है; कोई विजिबल, कोई दिखाई पड़ने वाली वजह नहीं है। भीतर ही स्वाद ले रहे हैं। पागलों को कभी-कभी ऐसा होता है। इसलिए मस्तों में और पागलों में फर्क करना तक मुश्किल हो जाता है। जिनको हमने मस्त कहा है, उनमें से कई लोग, ठीक उन जैसे लोग, पश्चिम में पागलखानों में पड़े हैं। क्योंकि उनके पास कोई विभाजन करने का उपाय नहीं है। उनके पास कोई उपाय नहीं है कि वे कैसे विभाजन करें। यह आदमी पागल मालूम पड़ता है! क्योंकि उन्होंने इस बात को स्वस्थ होने की परिभाषा बना लिया है कि सुख कारण से होता है तो आपका मस्तिष्क ठीक है, और अकारण सुख हो रहा है तो आपका दिमाग खराब है; क्योंकि अकारण सुख हो कैसे सकता है! 

लेकिन मस्तों की परंपरा कहती है कि अकारण ही सुख हो सकता है, कारण से तो कभी सुख हुआ ही नहीं है। यह बड़ी मुश्किल बात है। मस्तों की परंपरा कहती है कि कारण से तो कभी सुख हुआ ही नहीं है, सिर्फ वहम होता है। कारण से सदा दुख हुआ है। 

इसे समझ लें, इसका पूरा मनस-शास्त्र है। 

जब आप कारण में सुख खोजते हैं--किसी और में, किसी वस्तु में, किसी घटना में, किसी व्यक्ति में--तो अंतिम परिणाम सिवाय दुख के और कुछ नहीं होता; दुख ही दुख होता चला जाता है। पत्नी पति में सुख खोज रही है, मां बेटे में सुख खोज रही है, बाप बेटे में, बेटी में सुख खोज रहा है; संबंधियों में, धन में, पद में, प्रतिष्ठा में--कहीं और। अपने को छोड़ कर हम सब सुख खोज रहे हैं कहीं और। और मजा यह है कि जिनमें हम सुख खोज रहे हैं, वे खुद कहीं और सुख खोज रहे हैं! हम एक खदान खोद रहे हैं जिसको हम सोचते हैं, हीरे की खदान है, और वह खदान खुद हीरों की तलाश में गई है! और वह खदान जहां जाकर तलाश कर रही है, वे खुद कहीं और तलाश में गए हैं।

हम उन बैरंग चिट्ठियों की तरह हैं जिन पर कोई पता ही नहीं है; खोज रहे हैं! किसकी तरफ जा रहे हैं, उसका कोई पता नहीं है! और जिसके घर जा रहे हैं, पहले पूछा भी नहीं है कि वह खुद भी तो कहीं गए हुए नहीं हैं!

हर आदमी कहीं और है, इसलिए किसी से भी मिलना नहीं हो पाता। जिसके घर जाओ, वह वहां नहीं है। जिसका हाथ हाथ में लो, वह वहां नहीं है। जिसको हृदय से लगाओ, वह वहां नहीं है, वह कहीं और गया हुआ है। सब कहीं और गए हुए हैं, इसलिए किसी का किसी से मिलना हो ही नहीं पाता; होगा भी नहीं। और जो कारण में खोज रहा है, वह आज नहीं कल, गहरे से गहरे दुख में पड़ता जाएगा। क्योंकि हर बार आशा बंधेगी कि यह कारण सुख देगा, और जब मिल जाएगा, आशा टूट जाएगी।

मस्ती का शास्त्र कहता है कि दूसरे से तो दुख मिलता है, सुख कभी मिलता नहीं; सुख मिलता है सदा अपने से। और जब कभी आपको दूसरे से भी मिलता हुआ लगता है, तो मस्ती की परंपरा कहती है कि उसका कारण दूसरा नहीं होता, आप ही होते हैं! 



Adhyatma Upanishad Ch. #08

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