च्वाग्त्सू ने सपना देखा ..........! च्वाग्त्सू ने सपना देखा ……… ! अपना सपना देखो ना , कब तक च्वाग्त्सू के सपने से काम चलोओगे ?
याद है न किस ने कहा था ?
चलिए इसी को समझते है , आखिर कहा क्या था ? और क्यूँ कहा था ?
जो भी मिले सहारा ...... लटकने की तो आदत है , नईया मंझधार में डूब रही है पार लगा दो प्रभु ! यही प्रार्थनाये है न हमारी आपकी अधिकतर की ! बनाये हुए मन्त्र भी क्या है ! उध्दार करो , सम्पदा भर जाये और आप तोता बना के बोले चले जा रहे है।
मंदिर में गए झुके से दीखते है हाथ जुड़े हुए से दीखते है , पर अंदर से उतने ही तने एक दम अकड़ के साथ। पैसे दिए काम हो गया। पुजारी को दिए , कुछ तथाकथित भगवान कि मूर्ति को भी दिए। पुजारी ने संकल्प करा दिया रुपये का लें दें हो गया काम ख़तम आब आगे का धंधा पानी देखते है। मंदिर से बाहर निकले अकड़ी हुई गर्दन के साथ , चलो काम हो गया , एक कृत्य हुआ । मस्जिद में घुटने पे बैठ नमाज़ अदा की एक कृत्य हुआ , आत्मा तो झुकी नहीं , समर्पण इतना आसान नहीं। श्रध्हा इतनी हलकी नहीं। चर्च में प्रार्थनाओं में शामिल हुए , कृत्य हुआ ...... अब आगे की रोजी रोटी कि सोचते है। यही साधारण दिनचर्या और यही तथाकथित धर्म कि परिभाषा किसी आम व्यक्ति के लिए। सम्मोहित से जीवन काट रहे है। इसी में दुखी भी है , हताश भी है , सुखी भी है , उत्साहित भी , और सातों रंगो का लुत्फ़ उठा रहे है। खुश हुए तो भगवन (मानसिक ) को वाह वाही मिल गयी , दुखी हुए तो दो चार सुना डाली।
क्या है सपने आपके ? आप की वास्तविक स्थिति का आपको आभास भी तभी होता है , जब आपका सम्मोहन टूटता है। आपको मन्त्र पकड़ा दिए गए , आप रटे जा रहे है , मन में संतुष्ट कि साधना हो रही है।
मंत्रो की वास्तविक स्थिति क्या है क्या आपको आभास है ? यदि आपके ही भाव अनुसार समझने कि चेष्टा करें तो मन्त्र को एक वाहन के रूप में समझा जा सकता है , जिनका कार्य आपको वहाँ तक ले जाना है जहाँ से आपकी अगली यात्रा शुरू होती है। ....... जिनका कार्य आपको आपकी शक्ति से परिचित करना है। ……। यानि कि व्याख्याएं तो संकेत थी ही उन मूल ग्रन्थ को समझने का। मूल ग्रन्थ में वर्णित क्लिष्ट यानि कि/ दुष्कर यानि कि / कठिन भाषाको समझने का कार्य व्याख्याओं ने किये , परन्तु यहाँ ध्यान देने वाली ये बात है कि आप जिन मूल को व्याख्या द्वारा समझने कि चेष्टा कर रहे है , वो मूल भी अंततः संकेत ही है।
मंत्रो ने आपको वहाँ ले जा के खड़ा कर दिया , जहाँ आपको भवन का दरवाजा दिख रहा है , अब इस भवन मे प्रवेश करना है तो , वहाँ मंत्रो को छोड़ना ही पड़ेगा।
ध्यान दीजियेगा , अपनी साधना के पथ पे आपने जिन जिन का भी ( जन्म से मिले संस्कार धर्म या के कर्म से मिले गुरु , पुस्तके कल्पनाये , दिवा स्वप्न ) उपयोग किया है वो सब माध्यम मात्र है। और आपको छोड़ना ही है , उनको पकड़ के आप आगे नहीं बढ़ सकते। अंत में सब मात्र संकेत ही है।
ध्यान तो कही से फलित हो सकता है ;कभी एक जन्म लिए बालक के बढ़ते शरीर को देखिये , आज का पहना वस्त्र , हो सकता है कल काम न आये , शरीर बढ़ गया , अब उसको दूसरे वस्त्रो की आवश्यकता है , पर वस्त्र वस्त्र ही है , आत्मा नहीं ... प्रतीक है , संकेत है । आत्मा के सन्दर्भ में समझाना पड़ेगा ।
इसी प्रकार, साधना में भी आत्मिक विकास के साथ वस्त्र बदलते है , पर वो वस्त्र ही है।
दरअसल जो भी इतना विकसित हो गया , कि स्वप्न और जागरण में भेद करने लग गया , आभास होने लगता है कि स्वप्न के प्रभाव कहाँ_कहाँ जीवन में है और कितने गहरे है। फिर चाहे बुध्ह हो , रामकृषण हो , कृष्णमूर्ति हो या ओशो ......... कोई भी उस स्तर पे पहुँच के उस सत्य को सहज ही महसूस कर सकता है , आप में भी वो ही सम्भावनाये है . ये कोई जादू नहीं। सिर्फ जागरण है।
कृष्ण का भी इशारा ही था जिसने भागवत_गीता को जन्म दिया, ऋषि मुनियो का जागरण था जिनके माध्यम से वेदों को जाना गया , राम ने स्वयं कोई ऐसी उद्घोषणा की ही नहीं | मज़े कि बात मोहम्मद सारी उम्र यही कहते रहे वो अति साधारण उन लोगो जैसे ही है , उनके अंदर कोई चमत्कार जैसा नहीं। पर लोगो ने वो ही सुना जो वो चाहते थे। जीसस यही कहते रहे। बुधः यही कहते रहे , पर इनकी भी धाराये बन गयी , धर्म बन के खड़े हो गए। जैसे आज ओशो कि धाराएं बन गयी है। फिर नया क्या हुआ ? इनके कहने और समझने का समाज पे असर क्या हुआ ? क्या ये सब वो ही समझा पाये जो ये चाहते थे ? आज का सबसे ज्वलंत उद्धरण तो शिर्डी साई बाबा का है , जिनको सब जानते मानते और पहचानते भी है , उनकी ही शिक्षाओ के विपरीत आज सोने से लदे भवन में विराजमान है। और सुबह शाम सेवा उनकी चल रही है , और लोगो को मुक्ति का आभास भी हो रहा है। कैसा सम्मोहन है ये ?
यही जागरण आपको उन सभी तन्दराओं से मुक्त करेगा जिन जिन को आपने अपनी निंद्रा में अभूतपूर्व पूज्यनीय स्थान दिया है , यही जागरण आपको बतायेगा कि वो सिर्फ संकेत है। मृगतृष्णा है , आपके लिए एक ऐसी धर्म की व्यवस्था है , जिस के रेगिस्तान में आप प्यासे भटकते भटकते , दम तोड़ देते है , और देखिये , मजे कि बात , दम तोड़ते वख्त भी आप उसी तन्द्रा में ही दम तोड़ते है।
नानकने कुछ ऐसे कहा है:
नानक दुःखिया सब संसार
ते सुखिया जिन नाम अधार।
तुलसी दास जी ने भी इसी भाव को कुछ ऐसे कहा है :
" कलियुग एके नाम अधारा , सुमरि सुमरि नर उतरें परा "
उस स्तर पे पहुँच के अगर कोई कुछ कह रहा है तो पहली बात इतना हल्का नहीं हो सकता कि , पडोसी का नाम ले ले के तू पार हो जायेगा , नानक कौन से नाम कि बात कह रहे है ? नानक ने एक बार भी नहीं कहा कि मेरा नाम ले , सिर्फ इशारा " ते सुखियां जिन नाम आधार " कृष्णा ने भी इशारा किया , बुधः ने इशारा किया , रामकृष्ण ने , रमन्ना महर्षि ने , ओशो ने ...... पर बुद्धि हमारी ....... हमने समझा वही .........जो हम समझना चाह रहे है , वो बिचारे क्या कहना चाह रहे है !! इस से तो हमें कोई वास्ता ही नहीं। कह_कह के उनके जीवन कम पड़ गए , सुन_सुन के भी हमने वही सुना जो हमारे कान सुनना चाह रहे थे। आज भी हम उतना ही सुनते और पढ़ते है , जितना हम चाहते है।
और यही वजह है कि धर्म का जो रूप हम चाह रहे है वो हमारे सामने है। एकदम तैयार भोजन , इसके लिए ये मन्त्र उसके लिए वो मन्त्र , ये चाहिए तो ये पूजा वो चाहिए तो ये हवन , इस सफलता के लिए इस दिन इस पत्थर को इस तरह से को पूजो उस सफलता के लिए उस पत्थर को उस विधि से पूजो और हो गया सनातन धर्म। सब ताली बजा रहे है , सम्मोहित से। इस से ज्यादा का विचार ही नहीं किया।
विचार आता ही तभी है , जब ये चेतना आती है कि ये भी काम नहीं आरहे ? क्यूँ ?
जिस दिन जागरण फलित होता है , एक भारी सम्मोहन से छुटकारा मिलता है , एक गहरी तन्द्रा से पीछा छूटता है।
क्या सत्य कुछ और है ?
कीजिये... कीजिये...... आप भी विचार कीजिये!
बस आज यही तक।
Om Pranam
याद है न किस ने कहा था ?
चलिए इसी को समझते है , आखिर कहा क्या था ? और क्यूँ कहा था ?
जो भी मिले सहारा ...... लटकने की तो आदत है , नईया मंझधार में डूब रही है पार लगा दो प्रभु ! यही प्रार्थनाये है न हमारी आपकी अधिकतर की ! बनाये हुए मन्त्र भी क्या है ! उध्दार करो , सम्पदा भर जाये और आप तोता बना के बोले चले जा रहे है।
मंदिर में गए झुके से दीखते है हाथ जुड़े हुए से दीखते है , पर अंदर से उतने ही तने एक दम अकड़ के साथ। पैसे दिए काम हो गया। पुजारी को दिए , कुछ तथाकथित भगवान कि मूर्ति को भी दिए। पुजारी ने संकल्प करा दिया रुपये का लें दें हो गया काम ख़तम आब आगे का धंधा पानी देखते है। मंदिर से बाहर निकले अकड़ी हुई गर्दन के साथ , चलो काम हो गया , एक कृत्य हुआ । मस्जिद में घुटने पे बैठ नमाज़ अदा की एक कृत्य हुआ , आत्मा तो झुकी नहीं , समर्पण इतना आसान नहीं। श्रध्हा इतनी हलकी नहीं। चर्च में प्रार्थनाओं में शामिल हुए , कृत्य हुआ ...... अब आगे की रोजी रोटी कि सोचते है। यही साधारण दिनचर्या और यही तथाकथित धर्म कि परिभाषा किसी आम व्यक्ति के लिए। सम्मोहित से जीवन काट रहे है। इसी में दुखी भी है , हताश भी है , सुखी भी है , उत्साहित भी , और सातों रंगो का लुत्फ़ उठा रहे है। खुश हुए तो भगवन (मानसिक ) को वाह वाही मिल गयी , दुखी हुए तो दो चार सुना डाली।
क्या है सपने आपके ? आप की वास्तविक स्थिति का आपको आभास भी तभी होता है , जब आपका सम्मोहन टूटता है। आपको मन्त्र पकड़ा दिए गए , आप रटे जा रहे है , मन में संतुष्ट कि साधना हो रही है।
मंत्रो की वास्तविक स्थिति क्या है क्या आपको आभास है ? यदि आपके ही भाव अनुसार समझने कि चेष्टा करें तो मन्त्र को एक वाहन के रूप में समझा जा सकता है , जिनका कार्य आपको वहाँ तक ले जाना है जहाँ से आपकी अगली यात्रा शुरू होती है। ....... जिनका कार्य आपको आपकी शक्ति से परिचित करना है। ……। यानि कि व्याख्याएं तो संकेत थी ही उन मूल ग्रन्थ को समझने का। मूल ग्रन्थ में वर्णित क्लिष्ट यानि कि/ दुष्कर यानि कि / कठिन भाषाको समझने का कार्य व्याख्याओं ने किये , परन्तु यहाँ ध्यान देने वाली ये बात है कि आप जिन मूल को व्याख्या द्वारा समझने कि चेष्टा कर रहे है , वो मूल भी अंततः संकेत ही है।
मंत्रो ने आपको वहाँ ले जा के खड़ा कर दिया , जहाँ आपको भवन का दरवाजा दिख रहा है , अब इस भवन मे प्रवेश करना है तो , वहाँ मंत्रो को छोड़ना ही पड़ेगा।
ध्यान दीजियेगा , अपनी साधना के पथ पे आपने जिन जिन का भी ( जन्म से मिले संस्कार धर्म या के कर्म से मिले गुरु , पुस्तके कल्पनाये , दिवा स्वप्न ) उपयोग किया है वो सब माध्यम मात्र है। और आपको छोड़ना ही है , उनको पकड़ के आप आगे नहीं बढ़ सकते। अंत में सब मात्र संकेत ही है।
ध्यान तो कही से फलित हो सकता है ;कभी एक जन्म लिए बालक के बढ़ते शरीर को देखिये , आज का पहना वस्त्र , हो सकता है कल काम न आये , शरीर बढ़ गया , अब उसको दूसरे वस्त्रो की आवश्यकता है , पर वस्त्र वस्त्र ही है , आत्मा नहीं ... प्रतीक है , संकेत है । आत्मा के सन्दर्भ में समझाना पड़ेगा ।
इसी प्रकार, साधना में भी आत्मिक विकास के साथ वस्त्र बदलते है , पर वो वस्त्र ही है।
दरअसल जो भी इतना विकसित हो गया , कि स्वप्न और जागरण में भेद करने लग गया , आभास होने लगता है कि स्वप्न के प्रभाव कहाँ_कहाँ जीवन में है और कितने गहरे है। फिर चाहे बुध्ह हो , रामकृषण हो , कृष्णमूर्ति हो या ओशो ......... कोई भी उस स्तर पे पहुँच के उस सत्य को सहज ही महसूस कर सकता है , आप में भी वो ही सम्भावनाये है . ये कोई जादू नहीं। सिर्फ जागरण है।
कृष्ण का भी इशारा ही था जिसने भागवत_गीता को जन्म दिया, ऋषि मुनियो का जागरण था जिनके माध्यम से वेदों को जाना गया , राम ने स्वयं कोई ऐसी उद्घोषणा की ही नहीं | मज़े कि बात मोहम्मद सारी उम्र यही कहते रहे वो अति साधारण उन लोगो जैसे ही है , उनके अंदर कोई चमत्कार जैसा नहीं। पर लोगो ने वो ही सुना जो वो चाहते थे। जीसस यही कहते रहे। बुधः यही कहते रहे , पर इनकी भी धाराये बन गयी , धर्म बन के खड़े हो गए। जैसे आज ओशो कि धाराएं बन गयी है। फिर नया क्या हुआ ? इनके कहने और समझने का समाज पे असर क्या हुआ ? क्या ये सब वो ही समझा पाये जो ये चाहते थे ? आज का सबसे ज्वलंत उद्धरण तो शिर्डी साई बाबा का है , जिनको सब जानते मानते और पहचानते भी है , उनकी ही शिक्षाओ के विपरीत आज सोने से लदे भवन में विराजमान है। और सुबह शाम सेवा उनकी चल रही है , और लोगो को मुक्ति का आभास भी हो रहा है। कैसा सम्मोहन है ये ?
यही जागरण आपको उन सभी तन्दराओं से मुक्त करेगा जिन जिन को आपने अपनी निंद्रा में अभूतपूर्व पूज्यनीय स्थान दिया है , यही जागरण आपको बतायेगा कि वो सिर्फ संकेत है। मृगतृष्णा है , आपके लिए एक ऐसी धर्म की व्यवस्था है , जिस के रेगिस्तान में आप प्यासे भटकते भटकते , दम तोड़ देते है , और देखिये , मजे कि बात , दम तोड़ते वख्त भी आप उसी तन्द्रा में ही दम तोड़ते है।
नानकने कुछ ऐसे कहा है:
नानक दुःखिया सब संसार
ते सुखिया जिन नाम अधार।
तुलसी दास जी ने भी इसी भाव को कुछ ऐसे कहा है :
" कलियुग एके नाम अधारा , सुमरि सुमरि नर उतरें परा "
उस स्तर पे पहुँच के अगर कोई कुछ कह रहा है तो पहली बात इतना हल्का नहीं हो सकता कि , पडोसी का नाम ले ले के तू पार हो जायेगा , नानक कौन से नाम कि बात कह रहे है ? नानक ने एक बार भी नहीं कहा कि मेरा नाम ले , सिर्फ इशारा " ते सुखियां जिन नाम आधार " कृष्णा ने भी इशारा किया , बुधः ने इशारा किया , रामकृष्ण ने , रमन्ना महर्षि ने , ओशो ने ...... पर बुद्धि हमारी ....... हमने समझा वही .........जो हम समझना चाह रहे है , वो बिचारे क्या कहना चाह रहे है !! इस से तो हमें कोई वास्ता ही नहीं। कह_कह के उनके जीवन कम पड़ गए , सुन_सुन के भी हमने वही सुना जो हमारे कान सुनना चाह रहे थे। आज भी हम उतना ही सुनते और पढ़ते है , जितना हम चाहते है।
और यही वजह है कि धर्म का जो रूप हम चाह रहे है वो हमारे सामने है। एकदम तैयार भोजन , इसके लिए ये मन्त्र उसके लिए वो मन्त्र , ये चाहिए तो ये पूजा वो चाहिए तो ये हवन , इस सफलता के लिए इस दिन इस पत्थर को इस तरह से को पूजो उस सफलता के लिए उस पत्थर को उस विधि से पूजो और हो गया सनातन धर्म। सब ताली बजा रहे है , सम्मोहित से। इस से ज्यादा का विचार ही नहीं किया।
विचार आता ही तभी है , जब ये चेतना आती है कि ये भी काम नहीं आरहे ? क्यूँ ?
जिस दिन जागरण फलित होता है , एक भारी सम्मोहन से छुटकारा मिलता है , एक गहरी तन्द्रा से पीछा छूटता है।
क्या सत्य कुछ और है ?
कीजिये... कीजिये...... आप भी विचार कीजिये!
बस आज यही तक।
Om Pranam
No comments:
Post a Comment