Sunday, 16 February 2014

भगवान अवतार : भगवान ओशो

गीता में कृष्ण ने कहा है कि जब—जब धरती पर संकट आता है, मैं अवतार लेता हूं। अवतार लेने के तीन कारण बताए हैं। पहला, साधुओं को रक्षा करना। दूसरा, धर्म की स्थापना करना। तीसरा, पापियों को दंड देना। अर्थात् ये तीन कार्य करने के लिए भगवान धरती पर आते हैं। आप अपने को भगवान कहते हैं। क्या आप ये तीनों कार्य कर रहे हैं?



( मुझे न तो साधु को बचाना है, न असाधु को मिटाना है। न पुण्य फैलाना है, न पाप को मिटाना है। न धर्म की स्थापना करनी है, न अधर्म को उखाड़ना है -ओशो )

पहली बात। पूछा तुमने, ‘गीता में कृष्य ने कहा कि जब—जब धरती पर संकट आता है’; धरती पर कभी भी ऐसा कोई समय है जब संकट नहीं है? धरती संकट है। यहां होना संकट में होना है। कब ऐसा समय था जब संकट नहीं था? ऐसी कोई किताब आज तक नहीं पायी जा सकी है, दुनिया के इतिहास में, जिसमें लिखा हो कि इस समय धरती पर संकट नहीं है। सभी किताबें कहती हैं कि बड़ा संकट है। हालाकि सभी किताबें कहती हैं कि पहले संकट नहीं था। लेकिन वह पहले कब था? क्योंकि उस समय की किताबें कहती हैं कि संकट था। तुम चकित होओगे यह जानकर, संकट सदा से रहा है।


संकट धरती का स्वभाव है। होना ही चाहिए। क्योंकि धरती छोड़नी है; धरती से मुक्त होना है। यहां अगर संकट न होगा तो धरती छोड़ोगे किसीलिए? धरती से मुक्त किसलिए होओगे? यहां अगर संकट न होगा तो धर्म की कोई जरूरत ही न रह जाएगी। बीमारी ही न होगी तो औषधि की क्या जरूरत होगी?


थोड़ा सोचो। धर्म की सदा जरूरत है, क्योंकि संकट सदा है; आदमी सदा बीमार है। तुम सोचते हो, कभी कोई ऐसा युग था, सतयुग, जब लोग बीमार नहीं थे; कोई युग था, रामराज्य, जब लोग बीमार नहीं थे। जरा राम की कहानी देखो! राम के पिता खुद ही बीमार मालूम पड़ते हैं। एक जवान औरत के प्रेम में बेटे को निकाल दिया। अन्याय किया। यह सतयुग था? रावण ही तो नहीं था उस दिन अकेला, बहुत रावण थे; रावण के संगी—साथी भी थे। स्त्रियां उस दिन भी चुरायी जाती थीं। झगड़े उस दिन भी खड़े होते थे। युद्ध उस दिन भी होते थे। कौन—सी हालत बेहतर थी? क्या था जिसके गुणगान करते हो? अगर गौर से देखने जाओगे और ईमानदारी से जांच करोगे तो तुम पाओगे, रामराज्य भी रामराज्य नहीं था। रामराज्य इस धरती पर कभी रहा ही नहीं, कल्पना में है आदमी के। होना चाहिए, आशा है, मगर फलता कभी नहीं।


कृष्य जब थे, तब कौन—सा इस जगत में आनंद था? युद्ध था; भयंकर युद्ध हुआ। तुम कोई स्मरण कर सकते हो? और पीछे लौटो—परशुराम! तो कोई दुनिया में शांति रही होगी? परशुराम ने फरसा लेकर पृथ्वी को अनेक बार क्षत्रियों से समाप्त कर दिया, खाली कर दिया; विधवाएं ही विधवाएं छोड़ी। बुरे आदमी तो बुरे होते ही होंगे, भले आदमी भी बहुत भले नहीं थे। परशुराम कोई बहुत भले आदमी नहीं मालूम पड़ते हैं! तुम किस जमाने की बात कर रहे हो?


बुद्ध को गालिया मिलीं, पत्थर मिले। महावीर को गांव—गांव से हटाया गया, निकाला गया, कानों में खीले ठोके गये। ये भले लोग थे? दुनिया में संकट नहीं था?


मेरे देखे, पृथ्वी संकट है। इसलिए यह बात तो फिजूल है। किसने कही, मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है। और ध्यान रखना, कृष्य ने कुछ कहा हो तो कृष्य को खोजो उनसे उत्तर लो। मैं उनके लिए उत्तरदायी नहीं हूं। मैं कौन हूं जो उनके लिए उत्तर दूं? कृष्य को पकड़ो, उन पर अदालत में मुकदमा चलाओ। मैं जो कह रहा हूं उसके लिये उत्तरदायी हूं। मैं जो कह रहा हूं उसके लिए कृष्ण कैसे उत्तरदायी हो सकते हैं? लेकिन लोग इस ढंग से पूछते हैं जैसे कि कृष्य ने कुछ कह दिया, तो उसके लिए मैं उत्तरदायी हूं या कोई भी उत्तरदायी है। कृष्य ने जो कहा वह कृष्य जानें। तुम उनसे झगडू लेना, कहीं मिल जाएं—शायद इसीलिए मिलते भी नहीं, तुमसे डरते होंगे; तुमसे भयभीत होते होंगे कि हजार सवाल तुम खड़े करोगे।


तुम कहते हो, ‘गीता में कृष्य ने कहा है कि जब—जब धरती पर संकट आता है’ मैं तुमसे कहता हूं धरती पर सदा संकट है। आता नहीं, जाता नहीं, धरती संकट है। छ: हजार साल पुरानी चीन में किताब मिली है, ऐतिहासिक आधार पर सबसे ज्यादा पुरानी है, उसमें जो भूमिका है, वह तुम पढ़ोगे तो चकित हो जाओगे। भूमिका ऐसी लगती है, जैसे आज के सुबह के अखबार में निकली हो। भूमिका के शब्द अगर सुनोगे तो तुम मान ही न सकोगे कि छ: हजार साल पुरानी है भूमिका में लिखा है कि बेटे अपने मा—बाप का आदर नहीं करते हैं। यह कैसा दुखद युग आ गया है। शिष्य गुरु की नहीं मानते। यह किन पापों का फल मनुष्य भोग रहा है। स्त्रिया सती नहीं रहीं, व्यभिचार फैला है। अनाचार है, झूठ है, रिश्वतखोरी है। ये सारी बातें हैं। तो ऐसा लगता है जैसे दिल्ली का कोई अखबार आज ही सुबह छपा हो! राजा भी भरोसे योग्य नहीं रहा, तो प्रजा का क्या होगा? यह छ: हजार साल पुरानी किताब! आदमी वैसा का वैसा है। तुम्हें भ्रांति इसलिए पैदा होती है कि तुम सोचते हो कि वैसा कैसे है? आज का आदमी कार चाहता है। यह बात सच है कि कार आज से छ: हजार साल पहले नहीं थी, लेकिन छ: हजार साल पहले जो था, उसकी चाह इतनी ही थी; फर्क क्या पड़ता है? बैलगाड़ी चाहता था आदमी, शानदार छकड़े की गाड़ी चाहता था। आज फिएट गाड़ी चाहता है; तब एक छकड़ा गाड़ी चाहता था। चाह तो वही है। कल हवाई जहाज चाहने लगेगा उससे क्या फर्क पड़ता है? चाह के विषय बदल गये हैं, चाह नहीं बदल गयी है। वेश्याएं आज ही तो नहीं होती हैं, तब भी होती थीं। और जमीन पर ही नहीं होतीं, स्वर्ग में भी होती हैं—उनको तुम अप्सराएं कहते हो। जिन ऋषि—मुनियों ने स्वर्ग की कल्पना की है, वे स्वर्ग में भी वेश्याओं को नहीं छोड़ सके; वेश्या ऐसा अनिवार्य अंग थी कि होनी ही चाहिए। और यहां ही लोग एक—दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करते हैं। तुम कहानियां पढ़ते हो पुराणों में कि जब भी कोई ऋषि—महर्षि ज्ञान की गहराई में उतरता है, तप में उतरता है, इंद्र का सिंहासन डोलने लेता है। क्यों इंद्र का सिंहासन डोलने लगता है? क्या इंद्र बेचैन हो जाता है?


यह वही की वही कथा है, इसमें फर्क कहां है? जो रोज हो रहा है। और फिर इंद्र करता क्या है? इंद्र वही करता है जो राजनीतिज्ञ अभी कर रहे हैं। इंद्र भेज देता है दो खूबसूरत औरतों को कि जाकर नाचो, ऋषि को भड़काओ, उपद्रव, और फोटो निकलवा लेना, अखबार में छपवा देना कि भ्रष्ट है। रिश्वत दे दो। किसी तरह लालच—लोभ, किसी तरह इसमें कामवासना जगा दो। अब यह बड़े मजे की बात है कि जो इंद्र भेजता है इन वेश्याओं को, अब इसमें कोई पाप नहीं लगता। पुराण इसकी कोई बात ही नहीं कहते कि इसमें कुछ पाप लगता है कि नहीं लगता। ये ऋषि तो भ्रष्ट हो गये, लेकिन भ्रष्ट जिसने करवाया, उसका जुम्मा? और यह ऋषि भी खूब हैं कि दो स्त्रिया आकर नाचने लगती हैं कि भ्रष्ट हो जाता है। जैसे भ्रष्ट होने को ही बैठे थे। प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि हे इंद्र, अब भेजो; कि इतनी देर क्यों हो रही है, अब भेजो, अभी तक तुम्हारा सिंहासन नहीं कंपा?


आदमी वैसा का वैसा है। वही स्पर्धा विश्वामित्र और वशिष्ठ में है, जो आज चलती है। वही संघर्ष अहंकार का, वही दौड़ वही हिंसा, सब वही का वही है। तुम जरा पुराने शास्त्रों में जो शिक्षाएं दी गयी हैं, उनको गौर से देख लो। सब शास्त्र कहते हैं, चोरी मत करो। इनका मतलब है, तब चोरी होती थी जब शास्त्र लिखा गया। नहीं तो पागल थे शास्त्र लिखनेवाले कि चोरी मत करो? सब शास्त्र कहते हैं, झूठ मत बोलो। साफ है कि लोग झूठ बोलते थे। सब शास्त्र कहते हैं, हिंसा मत करो। साफ है कि लोग हिंसक थे। सब शास्त्र कहते हैं, व्यभिचार मत करो। साफ है कि लोग व्यभिचारी थे। और क्या साफ होगा? जो लोग करते हैं उसीको तो रोकने के लिए शास्त्र सूचना देता है। अगर लोग व्यभिचारी थे ही नहीं, लोग चोर थे ही नहीं, झूठ बोलते ही नहीं थे, तो ये शास्त्र लिखनेवालों का दिमाग खराब था, ये पागलों ने लिखे होंगे। चिकित्सक तभी औषधि का नाम लिखता है, ‘प्रसक्रिप्न् ्य’ देता है तुम्हें, नुस्खा देता है, जब तुम बीमार होते हो। कौन—सा फर्क पड़ा है? वही की वही बात है।


तुम कहते हो, ‘गीता में कृष्ण ने कहा है, जब— जब धरती पर संकट आता है’; संकट, मैं तुमसे कहता हूं सदा है। धरती संकट है। यहां होना संकट है। आता नहीं, जाता नहीं। ‘तब— तब मैं अवतार लेता हूं। अवतार लेने के तीन कारण बताए हैं। साधुओं की रक्षा करना। ‘ पहली बात, साधुता में ही रक्षा है, किसी और के आने की जरूरत नहीं है। जो साधुता अपने— आप अपनी रक्षा न कर सके, वह साधुता नहीं है साधुता का मतलब क्या होता है? बड़ी नपुंसक साधुता हुई कि कृष्ण को आना पड़े साधुओं की रक्षा करने। फिर साधुता का अर्थ क्या हुआ? साधुता में बल क्या है? यह तो असाधु से कमजोर हुई। असाधु तो अपनी रक्षा खुद कर लेता है। और साधु के लिए कृष्ण को आना पड़ता है! ये साधु बड़े नपुंसक रहे होंगे। साधुता में रक्षा है। सत्य में बल है। सत्यमेव जयते। अगर यह सच है कि कि सत्य जीतता है तो कृष्ण की क्या जरूरत है? सत्य बलशाली है, असत्य कमजोर है, अपने—आप हारता है। हार ही जाता है। हारेगा ही। उसके असत्य होने में उसकी हार छिपी है। प्रेम जीतता है, घृणा हारती है। मैत्री जीतती है, वैर हारता है। ये साधुता के सूत्र हैं।


तुम कह रहे हो कि कृष्ण तब अवतार लेते हैं जब साधुओं की रक्षा करने का सवाल उठता है। असल में ये बातें साधुओं ने लिख रखी हैं—नपुंसक साधुओं ने। ये साधु—वाधु नहीं हैं। ये असाधु से भी कमजोर हैं। इनका सत्य बिलकुल लचर है, दो कौड़ी का है। सच्चाइयां कुछ और हैं। रामायण कहती है कि रामचंद्र जी साधुओं की रक्षा के लिए दक्षिण भारत गये। बकवास है। वे साधु—वाधु नहीं थे, सब ‘पोलिटिकल एजेंट’ थे। वे राम की सेवा में संयुक्त थे और वहां जासूसी कर रहे थे। दक्षिण में रावण के खिलाफ। साधु—वाधु इसमें कुछ नहीं थे। साधुओं के लिए क्या रक्षा की जरूरत है? कृष्ण की तो कोई जरूरत नहीं आने की। उसका सत्य ही उसकी रक्षा है।


लेकिन ये तरकीबें हैं, ये बहुत पुरानी राजनीति की तरकीबें हैं। ईसाइयत का इतिहास कहता है कि ईसाई पहले अपने पादरी को भेजते हैं किसी देश में बाइबिल लेकर फिर उसकी रक्षा के लिए तलवारें लेकर आ जाते हैं। जब वह बाइबिल लेकर आता है उनका पादरी, तब तुम्हें लगता है, कोई हर्जा नहीं है। लेकिन फिर उसकी रक्षा के लिए तलवार लेकर पीछे सिपाही आ जाते हैं, कि साधु की रक्षा करनी है! इस तरह की भी खबरें उपलब्ध हैं कि ईसाइयों ने अपने साधुओं को भेजकर वहां लोगों को भड़काकर अपने साधुओं पर चोट भी करवायी, ताकि फिर वे सैनिक भेज सकें। और पीछे सैनिक आकर सफाया करता है। वस्तुत: जो साधु है, उसे कृष्ण के आने की कोई प्रतीक्षा नहीं, न कोई जरूरत है। वस्तुत: जो साधु है, उसके भीतर तो परमात्मा का अवतरण हो गया, अब और कृष्ण की क्या जरूरत है? साधु का मतलब क्या होता है? जिसको प्रभु का साक्षात हुआ। जिसको प्रभु का साक्षात हुआ वही तो साधु है। जिसने सत्य जाना वही तो साधु है। जो सरल हुआ वही तो साधु है। तो मैं तुमसे नहीं कहता कि साधु की रक्षा के लिए किसी कृष्ण के आने की जरूरत है। नाहक कष्ट न करें। कोई आवश्यकता नहीं है। साधु अपनी रक्षा है।


और तुम कहते हो, ‘धर्म की स्थापना करने’। धर्म की स्थापना नहीं की जाती है। और न कभी धर्म स्थापित होता है, न अस्थापित होता है। धर्म तो वही है जो शाश्वत है। कृष्ण थोड़े ही धर्म की स्थापना करते हैं। धर्म तो इस जगत का नियम है। धर्म ने इस जगत को धारण किया है—इसलिए उसको ‘धर्म’ कहते हैं। जैसे आग जलाती है और गर्म है, ऐसा ही इस अस्तित्व का स्वभाव धर्म है। धर्म यानी स्वभाव। किसी को आकर स्थापना थोड़े ही करनी पड़ती है। तो कृष्ण के पहले क्या मामला था? धर्म नहीं था? कृष्ण ने स्थापना की? फिर कृष्ण के बाद क्या हुआ? धर्म समाप्त हो गया? धर्म तो इस जगत को संभालने वाले सूत्र का नाम है।
लेकिन तुम्हारे मन में कुछ और बातें हैं; हिंदू—धर्म की रक्षा! हिंदू—धर्म धर्म नहीं है, और न मुसलमान—धर्म धर्म है, ये तो सब राजनीतियो के जाल हैं। धर्म तो एक ही है, न वह हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न बौद्ध है। धर्म तो वह है, जब तुम अपने भीतर परिपूर्ण शांति में उतरते हो तो अनुभव करते हो, उस अनुभूति का नाम धर्म है। जब तुम अपने अंतरतम में डूब जाते हो तो जिसका तुम्हें स्वाद मिलता है, उसका नाम धर्म है। लेकिन हिंदू—धर्म को रक्षा की जरूरत मालूम होती है; इस्लाम को रक्षा की जरूरत मालूम होती है; ईसाई को रक्षा की जरूरत मालूम होती है; ये धर्म नहीं हैं।


तो मैं तुमसे कहता हूं : धर्म तो सदा है। जो सदा है उसी का नाम धर्म है। उसकी न कोई स्थापना करनी होती है, न कभी कोई उसे मिटा सकता है। उसका मिटना संभव ही नहीं है। अगर धर्म मिट जाए तो हम सब बिखर जाएं। अगर धर्म मिट जाए तो चांद—तारे न चलें, सूरज न निकले, पानी न बहे, हवा न उठे, फूल न खिलें, पक्षी न गाएं, लोग न हों। धर्म टूटा कि सब टूट जाए। धर्म तो सबको जोड़े हुए है। धर्म तो वह धागा है जिसमें सब, सारे फूलों को अपने में गूंथा हुआ है और माला बनी है। यह सारा अस्तित्व गुंथा है। जिससे गुंथा है, उस सूत्र का नाम धर्म है। कृष्ण इत्यादि की कोई जरूरत नहीं है कि इसको स्थापित करें। कृष्ण धर्म को स्थापित करने नहीं आते हैं, जो धर्म है उसको जानने से कोई कृष्ण होता है; जो धर्म है उसको पहचान लेने से कोई कृष्ण होता है; जो धर्म है उसके साथ पूरा—पूरा संगीत—बद्ध हो जाने से कोई कृष्ण होता है।
कृष्ण को धर्म की स्थापना करने की कोई जरूरत नहीं है। यह पंडित—पुरोहितों ने लिखा होगा।


कृष्ण ऐसा नहीं कह सकते। तीसरी बात तुम कहते हो, पापियों को दंड देना। पाप में स्वयं ही दंड निहित है। जब तुम पाप करते हो, उसी करने में तुम्हें दुख मिल जाता है। दुख के लिए प्रतीक्षा थोड़े ही करनी पड़ती है कि कृष्ण आएंगे जब तुम्हें दंड देंगे। चोरी तुम करोगे, बेईमानी तुम करोगे, झूठ तुम बोलोगे, हिंसा—हत्या तुम करोगे, फिर कृष्ण आएंगे डंडा लेकर और तुमको दंड देंगे? इसमें तो बड़ी झंझट होगी। और उन पर भी तो कुछ दया करो।


कृष्ण यही धंधा करते रहें? कृष्ण कोई पुलिस वाले हैं? कृष्ण पर थोड़ा तो सदभाव लाओ।
नहीं, इस जगत की व्यवस्था ऐसी है कि तुमने गलती की कि दंड मिला। आग में हाथ डालते हो, जल जाता है न! ऐसा थोड़े ही है कि आग में हाथ डाला, फिर बैठे हैं हाथ डाले, फिर आए कृष्ण, उन्होंने कहा : क्यों जी, तुमने आग में हाथ क्यों डाला? अब हम तुम्हें जलाएंगे। अगर ऐसा होता हो तो तो बड़ी झंझट हो जाए बड़ी मुश्किल हो जाए। आग में हाथ डालने से जलना हो जाता है। तुम जरा सोचो, जब तुम क्रोध करते हो तो जल जाते हो या नहीं? और क्या दंड चाहिए? क्रोध में आग है और क्रोध में नर्क है। भोग लिया नर्क तुमने। तो मैं तुम्हें यह कहना चाहता हूं कि मेरी दृष्टि में पुण्य का फल पुण्य में छिपा है, पाप का दंड पाप में छिपा है। यही धर्म है। यहां जो शुभ करता है, शुभ पाता है। और यहां जो अशुभ करता है, अशुभ पाता है। जहर पीओगे, मर जाओगे। अमृत पीओगे, अमृत हो जाओगे। बीच में किसी की कोई आवश्यकता नहीं है। ये जो नियम हैं, यह जो ऋत है, इसीका नाम धर्म है।


तो तुम पूछ रहे हो— ‘ अर्थात ये तीन कार्य करने के लिए भगवान धरती पर आते हैं। ‘ तो यह भगवान तुम्हारे वहीं से नहीं कर सकते ये कार्य? इनमें इतनी भी अकल नहीं है कि टेलिफोन लगवा लें। अकल बिलकुल बेंच बैठे हैं? इसके लिए धरती पर आना पड़ता है? ये तुम्हारी धारणाएं हैं। इसलिए मैंने कहा, कृष्ण से मिलना हो तो तुम उनसे पूछ लेना। मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है। मैं अपनी बात कहता हूं और अपनी बात के लिए उत्तर देने को तैयार हूं।


अब तुम पूछते हो कि आप अपने को भगवान कहते हैं; क्या आप ये तीनों कार्य कर रहे हैं? मैं इन तीनों कार्यों को करने योग्य मानता ही नहीं। और अपने को भगवान इसलिए नहीं कहता हूं कि मैं भगवान हूं और तुम भगवान नहीं हो। अपने को भगवान इसलिए कहता हूं कि यहां सब भगवान है, यहां भगवान होने के अतिरिक्त उपाय ही नहीं है। भगवान होने में मैं किसी विशिष्टता की घोषणा नहीं कर रहा हूं। उसी से तुम्हें कष्ट होता है; तुम्हें पीड़ा यही है कि एक आदमी ने अपने को भगवान कह दिया, फिर हमारा क्या होगा? तो हम आदमी ही रह गये और आप भगवान हो गये! जब मैं भगवान कह रहा हूं तो यही कह रहा हूं कि आदमी भगवान है, पौधे


भगवान हैं, पक्षी भगवान हैं, पशु भगवान हैं; भगवत्ता हमारा सहज स्वभाव है। भगवान होना हमारी कोई विशिष्ट बात नहीं है। यह हमारा सामान्य गुण— धर्म है। तुम इसे पहचानो; मैंने इसे पहचान लिया है, बस इतना ही फर्क होगा। तुम भी इसमें जागो; मैं इसमें जाग गया हूं। और मैं जो तुमसे कहता हूं कि मैं भगवान हूं इसमें कुछ घोषणा नहीं है, न कोई दावा है। यह सिर्फ इसलिए कहता हूं ताकि तुम्हें भी याद दिला सकूं कि देखो, तुम्हारे जैसे ही हड्डी—मास— मज्जा का व्यक्ति भगवान हो सकता है, तुम क्यों नहीं हो सकते? तुम्हारे जैसी ही भुख लगती है मुझे, प्यास लगती है मुझे, तुम्हारे जैसा ही जीवन है, तुम्हारे जैसे ही मेरी मौत होगी; बिलकुल तुम जैसा हूं तुमसे जरा भी भिन्नता की घोषणा नहीं कर रहा हूं। भगवान कहने के पीछे इतना ही राज है कि तुम्हें याद दिला रहा हूं कि तुम झूठी बातों में पड़ गये हो।


तुम कहते हो, भगवान वह है जो आकर ये तीन कार्य करता है। तो कृष्ण आए थे, साधुओं की रक्षा हुई? कहां हैं वे साधु जिनकी रक्षा हुई? धर्म की स्थापना हुई? कृष्ण के बाद जितना अधर्म इस देश में फैला, कभी नहीं फैला था। क्योंकि भयंकर युद्ध हुआ। और दूसरों की तो छोड़ दो, कृष्ण के अनुयायी, यदुवंशी, इस भयंकर तरह से लड़े एक—दूसरे से, उन्होंने सब विनाश कर डाला। कृष्ण के द्वारा पापियों को दंड मिला? कौन—से पापियों को दंड मिला गया? तुम कहोगे कि मिला, कौरवों को मिला। कौरव पापी थे! और तुम्हारे धर्मराज युधिष्ठिर? यह जुआ खेल रहे हैं, यह पापी नहीं हैं? और ऐसे ही जुआ नहीं खेल रहे हैं, अपनी औरत तक को जुए में दाव पर लगा रहे हैं, ये पापी नहीं हैं? इनको दंड कब मिला? कैसे मिला? इनको धर्मराज कह रहे हो! जरा जाकर अपनी औरतों को दाव पर तो लगाकर देखो। जेल में सडोगे। वहां यह नहीं कह सकोगे कि हम धर्मराज हैं, हम युधिष्ठिर हैं, यह हमारे साथ क्या अन्याय हो रहा है? हे भगवान! आओ, हमारी रक्षा करो! धर्मराज की रक्षा तो करनी ही चाहिए। यह तुम देखते हो, यह जो कौरवों—पांडवों की बीच झंझट थी, इस झंझट में तुम सोचते हो कौरव ही जिम्मेवार थे? तो तुम गलत सोचते हो। इसमें पांडव उतने ही जिम्मेवार थे। धर्मराज में धर्म जैसा कुछ नहीं मालूम होता। और ये पांच पुरुष एक स्त्री के पति बन गये हैं, इसमें तुम्हें कुछ धर्म मालूम होता है? इन्होंने एक अबला को बिलकुल वेश्या में रूपांतरित कर दिया है, इसमें तुम्हें कुछ धर्म मालूम होता है? और ये किसलिए इतने आतुर थे? राज्य के लिए आतुर थे। जैसा दुर्योधन आतुर था, वैसे ही ये भी आतुर थे कि राज्य हमारा हो। राज्य हमारा हो, इसमें तुम्हें कुछ धर्म मालूम होता है? वही बल, वही अहंकार, वही मालकियत, वही कब्जे की आकांक्षा ! इसमें तुम्हें धर्म—जैसा क्या मालूम होता है? ये कोई साधु थे? ये एक ही जैसे थे। वे निश्चित ही चचेरे भाई थे? इनमें कुछ फर्क नहीं था।


तुम अगर अपनी कथाओं को ठीक से समझोगे तो तुम बड़े हैरान हो जाओगे।
और फिर उसके बाद हुआ क्या? महाभारत के बाद इस देश का ऐसा पतन हुआ कि यह अभी तक नहीं सम्हला है। महाभारत के बाद यह देश सम्हला ही नहीं। महाभारत के बाद इस देश ने वह ऊंचाई कभी पायी ही नहीं। और तुम सोचते हो, कृष्ण जब आते हैं तो साधुओं की रक्षा होती है, धर्म की स्थापना होती है, पापियों को दंड मिलता है। यह तो जब कृष्ण आए थे तब भी नहीं हुआ, आगे की व्यर्थ आशाओं में मत पड़ो।


मैं जब कहता हूं तुमसे, तो मेरे कहने का प्रयोजन बहुत ही भिन्न है। लेकिन तुमने और बातें सुनी हैं, उनसे तुम्हारा मन भरा है, इसलिए तुम मेरी बात नहीं समझ पाते। कृष्ण जब कहते हैं कि मैं भगवान हूं तब तुम्हें अड़चन नहीं होती। क्यों तुम्हें अड़चन नहीं होती? पहली तो बात यह है, कृष्ण से इतना फासला हो गया है कि अब तुम उन्हें हड्डी—मांस—मज्जा के मनुष्य की तरह नहीं देख पाते। इतनी कहानियां जुड़ गयी हैं उनके आसपास, इतनी भव्य प्रतिमा निर्मित कर ली गयी है कि अब तुम उनमें मनुष्य नहीं देख पाते। लेकिन कृष्ण तुम जैसे मनुष्य थे। तुम मान लेते हो वह भगवान हैं, लेकिन अर्जुन ने भी मान नहीं लिया था। दुर्योधन ने तो कभी नहीं माना था। नहीं तो युद्ध ही न होता लाखों लोग कृष्ण को भगवान नहीं मानते थे; चालबाज, कूटनीतिज्ञ मानते थे। जो मौजूद थे उन्होंने कृष्ण को भगवान नहीं माना। तुम मान लेते हो, क्योंकि तुम्हें अब असली कृष्ण का कुछ हिसाब नहीं है। मौजूद होते तो न मान पाते। तुम्हारी स्त्री से छेड़खानी करते कृष्ण तो न मान पाते कि भगवान हैं। किसी तुम भी और की स्त्री से की होगी, तुम्हें लेना—देना क्या है?


तुम्हारी पत्नी नहा रही होती और उसके कपड़े उठाकर झाडू पर बैठ जाते तो तुम पूजा और ही अर्थ में करते उनकी! मराठी अर्थ में शिक्षा देते उनको! वही किया था जो लोग मौजूद थे उन्होंने। लेकिन तुम्हारे लिए भगवान हैं। अब बात बहुत दूर हो गयी। पांच हजार साल बीत गये, पांच हजार साल में हजारों कहानियां बीच में खड़ी हो गयी, परदे पर परदे हो गये। अब तुम कृष्ण को देख सकते हो दिव्य।





मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कहानियों के आधार पर किसी को दिव्य देखने से कुछ लाभ नहीं होता, क्योंकि वे कहानियां झूठी हैं। दिव्यता को यहां देखो, अभी देखो, सामान्य में देखो। क्योंकि सामान्य में दिव्यता को देख सको, तो ही तुम्हारी दिव्यता मुक्त हो सकती है। मैं अगर तुमसे कह रहा हूं कि मैं भगवान हूं, तो इसमें मेरा कोई दावा नहीं है; इसमें मुझे कोई रस ही नहीं है। अगर रस है तो तुममें है। और जब तक तुममें मेरा रस है तब तक मैं कहूंगा कि मैं भगवान हूं। जिस दिन मैं देखूंगा कि कोई सार नहीं है तुम में रस लेने में, तुम्हें ही रस नहीं है तुम में तो कब तक मैं रस लूं? उसी दिन भगवान कहना बंद कर दूंगा। उसमें कोई प्रयोजन नहीं है। मुझे कुछ लेना—देना नहीं। मैं जो हूं हूं। भगवान कहूं र न कहूं र इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन अभी मुझे तुम में रस है। अभी और थोड़ी कोशिश करूंगा। अभी तुम्हें और याद दिलाने की चेष्टा करूंगा। शायद इसी बहाने तुम्हें याद आ जाए। लेकिन तुम यह मान नहीं सकते कि तुम भगवान हो। यही तुम्हारे जीवन में भगवत्ता और तुम्हारे बीच बाधा है कि मान नहीं सकते कि तुम भगवान हो। तुम्हें लगता है, मुझ जैसा पापी और भगवान! मुझ जैसा जुआरी और तुम भगवान! मुझ जैसा शराबी और भगवान! मैं तुमसे कहता हूं कि तुम शराब पीते हो तब इतना ही फर्क पड़ता है कि भगवान शराब पी रहे हैं, और कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब तुम जुआ खेलते हो तो इतना ही है कि भगवान जुआ खेल रहे हैं। तुम्हारी भगवत्ता अछूती रहती है। तुम्हारे कृत्य तुम्हारी भगवत्ता को नहीं छूते हैं। तुम्हारे सब कृत्य स्वप्न जैसे हैं। जैसे रात स्वप्न देखा तुमने और तुम भिखारी हो गये; लेकिन जब आंख खुलती है सुबह तो तुम पाते हो कि तुम भिखारी नहीं हो, अपने बिस्तर पर सोए हो। तुम्हारे सारे कृत्य स्वप्न जैसे हैं, यही माया के सिद्धात का अर्थ है। तुमने चोरी की, तुमने शराब पी, तुमने अच्छा किया, तुमने बुरा किया, तुमने मंदिर बनवाया, तुमने पुण्य किया, दान किया, सब—सब के सब तुम्हारे भीतर उठे एक स्वप्न की भाति हैं। जागोगे जिस दिन उस दिन तुम पाओगे, भगवत्ता तुम्हारी है। तुम भगवान हो।


कुछ और बातें इस प्रश्न के संबंध में।


पहली बात, तुमने कहा है कि अवतार तब होता है जब ये तीन काम उसे करने होते हैं। परमात्मा का अवतरण होता है, अवतार नहीं होता। अवतार का तो मतलब होता है, कि बस कृष्ण में हुआ, राम में हुआ—गिनती का। तो दस अवतार हुए, कि चौबीस, या जितनी गिनती तुमने मान रखी है उतने अवतार होंगे। फिर बाकी? बाकी वंचित रह जाएंगे।




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