भगवान राजगृह में विहरते थे। उसी समय राजगृह में घटी यह घटना है। उस महानगर में दो छोटे लड़के सदा साथ— साथ खेलते थे। उनमें बड़ी मैत्री थी। अनेक प्रकार के खेल वे खेलते थे। आश्चर्य की बात यह थी कि एक सदा जीतता था और दूसरा सदा हारता था। और भी आश्चर्य की बात यह थी कि जो सदा जीतता था वह हारने वाले से सभी दृष्टियों से कमजोर था। हारने वाले ने सब उपाय किए पर कभी भी जीत न सका। खेल चाहे कोई भी हो उसकी हार सुनिश्चित ही थी। वह जीतने वाले के खेल के ढंगों का सब भांति अध्ययन भी करता था— जानना जरूरी था कि दूसरे की जीत हर बार क्यों हो जाती है क्या राज है? — एकांत में अभ्यास भी करता था पर जीत न हुई सो न हुई। एक बात जरूर उसने परिलक्षित की थी कि जीतने वाला अपूर्व रूप से शांत था। और जीत के लिए कोई आतुरता भी उसमें नहीं थी। कोई आग्रह भी नहीं था कि जीतू ही। खेलता था—अनाग्रह से। फलाकांक्षा नहीं थी। और सदा ही केंद्रित मालूम होता था जैसे अपने में ठहरा है। और सदा ही गहरा मालूम होता था छिछला नहीं था ओछा नहीं था। उसके अंतस में जैसे कोई लौ निष्कंप जलती थी। उसके पास एक प्रसादपूर्ण आभामंडल भी था। इसलिए उससे बार— बार हारकर भी हारने वाला उसका शत्रु नहीं हो गया था— मित्रता कायम थी। जीत भी जाता था जीतने वाला तो कभी अहंकार से न भरता था। जैसे यह कोई खास बात ही न थी। खेल अपने में पूरा था जीते कि हारे इससे उसे प्रयोजन नहीं था। मगर जीतता सदा था।
हारने वाले ने यह भी देखा था कि प्रत्येक खेल शुरू करने के पूर्व वह आंखें बंद करके एक क्षण को बिलकुल निस्तब्ध हो जाता था जैसे सारा संसार रुक गया हो। उसके ओंठ जरूर कुछ बुदबुदाते थे— जैसे वह कोई प्रार्थना करता हो या कि मंत्रोच्चार करता हो या कि कोई स्मरण करता हो।
अंतत: हारने वाले ने अपने मित्र से उसका राज पूछा क्या करते हो? उसने पूछा हर खेल शुरू होने के पहले किस लोक में खो जाते हो? जीतने वाले ने कहा भगवान का स्मरण करता हूं। नमो बुद्धस्स का पाठ करता हूं। इसीलिए तो जीतता हूं। मैं नहीं जीतता भगवान जीतते हैं।
उस दिन से हारने वाले ने भी नमो बुद्धस्स का पाठ शुरू कर दिया। यद्यपि यह कोरा अभ्यास ही था फिर भी उसे इसमें धीरे— धीरे रस आने लगा। तोतारटत ही था यह मंत्रोच्चार पर फिर भी मन पर परिणाम होने लगे गहरे न सही तो न सही पर सतह पर स्पष्ट ही फल दिखायी पड़ने लगे। वह थोड़ा शांत होने लगा। थोड़ी उच्छृंखलता कम होने लगी थोड़ा छिछलापन कम होने लगा। हार की पीड़ा कम होने लगी जीत की आकांक्षा कम होने लगी। खेल खेलने में पर्याप्त है ऐसा भाव धीरे— धीरे उसे भी जगने लगा। भगवान के इस स्मरण में वह अनजाने ही धीरे— धीरे डुबकी भी खाने लगा शुरू तो किया था परिणाम के लिए कि खेल में जीत जाऊं लेकिन धीरे— धीरे परिणाम तो भूल गया और स्मरण में ही मजा आने लगा पहले तो खेल के शुरू— शुरू में याद करता था फिर कभी एकांत मिल जाता तो बैठकर नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्स का पाठ करता। फिर तो खेल गौण होने लगा और पाठ प्रमुख हो गया फिर तो जब कभी पाठ करने से समय मिलता तो ही खेलता। रात भी कभी नीद खुल जाती तो बिस्तर पर पड़ा— पड़ा नमो बुद्धस्स का पाठ करता उसे कुछ ज्यादा पता नहीं था कि क्या है इसका राज लेकिन स्वाद आने लगा। एक मिश्री उसके मुंह में धुलने लगी।
छोटा बच्चा था, शायद इसीलिए सरलता से बात हो गयी। जितने बड़े हम हां जाते हैं उतने विकृत हो जाते हैं। सरल था, कूडा—कचरा जीवन ने अभी इकट्ठा न किया था—अभी स्लेट कोरी थी।
जो बच्चे बचपन में ध्यान की तरफ लग जाएं, धन्यभागी हैं। क्योंकि जितनी देर हो जाती है, उतना ही कठिन हो जाता है। जितनी देर हो जाती है, उतनी ही अड़चनें बढ़ जाती हैं। फिर बहुत सी बाधाएं हटाओ तो ध्यान लगता है। और बचपन में तो ऐसे लग सकता है। इशारे में लग सकता है। क्योंकि बच्चा एक अर्थ में तो ध्यानस्थ है ही। अभी संसार पैदा नहीं हुआ है। अभी कोई बड़ी महत्वाकांक्षा पैदा नहीं हुई है। छोटी सी महत्वाकांक्षा थी कि खेल में जीत जाऊं, और तो कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं थी—राष्ट्रपति नहीं होना, प्रधानमंत्री नहीं होना, धनपति नहीं होना, पद—प्रतिष्ठा का मोह नहीं था। गिल्ली—डंडा खेलता होगा, इसमें जीत जाऊं, छोटी सी महत्वाकांक्षा थी, थोड़े ही स्मरण से टूट गयी होगी। थोड़ा सा जाल मन ने फैलाया था, थोडे ही स्मरण से कट गया होगा।
एक खुला आकाश उसे दिखायी पड़ने लगा। धीरे— धीरे उसके सपने खो गए और दिन में भी उठते— बैठते एक शांत धारा उसके भीतर बहने लगी।
एक दिन उसका पिता गाड़ी लेकर उसके साथ जंगल गया और लकड़ी से गाड़ी लाद घर की तरफ लौटने लगा मार्ग में श्मशान के पास बैलों को खोलकर वे थोड़ी देर’ विश्राम के लिए रुके— दोपहरी थी और थक गए थे। लेकिन उनके बैल दूसरों के साथ राजगृह में चले गए— वे तो सोए थे और बैल नगर में प्रवेश कर गए पिता बेटे को वहीं गाड़ी के पास छोड़ गाड़ी को देखने की कह नगर में बैलों को खोजने गया बैल मिले तो लेकिन तब जब कि सूर्य ढल गया था और नगर द्वार— बंद हो गए. थे सो वह नगर के बाहर न आ सका। बेटा नगर के बाहर रह गया बाप नगर के भीतर बंद हो गया अंधेरी रात बाप तो बहुत घबड़ाया। श्मशान में पड़ा छोटा सा बेटा क्या गुजरेगी उस पर! बाप तो बहुत रोया— चिल्लाया लेकिन कोई उपाय न था द्वार बंद हो गए सो द्वार बद हो गए।
और लकड़हारे की सुने भी कौन! और लकड़हारे के बेटे का मूल्य भी कितना! द्वारपालों से सिर फोड़ा होगा, चिल्लाया होगा, रोया होगा, उन्होंने कहा कि अब कुछ नहीं हो सकता, बात समाप्त हो गयी।
अंधेरी रात अमावस की रात और वह छोटा सा लड़का मरघट पर अकेला। लेकिन उस लड़के को भय न लगा। भय तो दूर उसे बड़ा मजा आ गया। ऐसा एकांत उसे कभी मिला ही न था। गरीब का बेटा था छोटा सा घर होगा एक ही कमरे में सब रहते होंगे—और बच्चे होने मां होगी पिता होगा पिता के भाई होने पत्नियां होंगी पिता के भाइयों की बूढ़ी दादी होगी दादा होगे न मालूम कितनी भीड़— भाड़ होगी कभी ऐसा एकांत उसे न मिला था यह अमावस की रात आकाश तारों से भरा हुआ यह मरघट का सन्नाटा जहां एक भी आदमी दूर— दूर तक नहीं नगर के द्वार— दरवाजे बंद सारा नगर सो गया यह अपूर्व अवसर था ऐसी शांति और सन्नाटा उसने कभी जाना नहीं था। वह बैठकर नमो बुद्धस्स का पाठ करने लगा। नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्स कहते कब आधी रात बीत गयी उसे स्मरण नहीं। तार जुड़ गया संगीत जम गया वीणा बजने लगी पहली दफा ध्यान की झलक मिली।
शांति तो मिली थी अब तक, रस भी आना शुरू हुआ था, लेकिन अब तक बूंद—बूंद था, आज डुबकी खा ‘गया, आज पूरी डुबकी खा गया। आज डूब गया, बाढ़ आ गयी।
ऐसा नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्स कहता— कहता गाड़ी के नीचे सरककर सो गया।
यह साधारण नींद न थी, नींद भी थी और जागा हुआ भी था—यह समाधि थी। उसने उस रात जो जाना, उसी को जानने के लिए सारी दुनिया तडुफती है। उस लकड़हारे के बेटे ने उस रात जो पहचाना, उसको बिना पहचाने कोई कभी संतुष्ट नहीं हुआ, सुखी नहीं हुआ। सुख बरस गया। उसका मन मग्न हो उठा। शरीर सोया था और भीतर कोई जागा था—सब रोशन था, उजियारा ही उजियारा था, जैसे हजार—हजार सूरज एक साथ जग गए हों। जैसे जीवन सब तरफ से प्रकाशित हो उठा हो। किसी कोने में कोई अंधेरा न था।
वह किसी और ही लोक में प्रवेश कर गया वह इस संसार का वासी न रहा। जो घटना किसी दूसरे के लिए अभिशाप हो सकती थी उसके लिए वरदान बन गयी मरघट का सन्नाटा मौत बन सकती थी छोटे बच्चे की, लेकिन उस बच्चे को अमृत का अनुभव बन गयी। सब हम पर निर्भर है। वही अवसर मृत्यु में ले जाता है, वही अमृत में। वही अवसर वरदान बन सकता, वही अभिशाप। सब हम पर निर्भर है। अवसर में कुछ भी नहीं होता, हम अवसर के साथ कैसे चैतन्य का प्रवाह लाते हैं, इस पर सब निर्भर होता है।
था मरघट, लेकिन मरघट की तो उसे याद ही न आयी। उसने तो एक क्षण भी सोचा नहीं कि मरघट है। उसने तो सोचा कि ऐसा अवसर, धन्यभाग मेरे। पिता .आए नहीं, बैल लौटे नहीं, सन्नाटा अपूर्व है, द्वार—दरवाजे बंद हो गए, आज इस घडी को भगवान के साथ पूरा जी लू। वह नमो बुद्धस्स कहते —कहते, कहते—कहते, बुद्ध के साथ एकरूप हो गया होगा। जिसका हम स्मरण करते हैं, उसके साथ हम एकरूप हो जाते हैं।
वह निद्रा अपूर्व थी।
इस निद्रा के लिए योग में विशेष शब्द है—योगतंद्रा। आदमी सोया भी होता और नहीं भी सोया होता। इसीलिए तो कृष्ण ने कहा है कि जब सब सो जाते हैं तब भी योगी जागता है। उसका यही अर्थ है। या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी—जब सब सो गए होते हैं, जो सब के लिए अंधेरी रात है, निद्रा है, सुषुप्ति है, योगी के लिए वह भी जागरण है।
उस रात वह छोटा सा बच्चा योगस्थ हो गया, योगारूढ़ हो गया। और अनजाने हुआ यह, अनायास हुआ यह। चाहकर भी नहीं हुआ था, ऐसी कुछ योजना भी न थी। अक्सर यही होता है कि जो योजना बनाकर चलते हैं, नहीं पहुंच पाते, क्योंकि योजना में वासना आ जाती है। अक्सर अनायास होता है।
यहां रोज ऐसा अनुभव मुझे होता है। जो लोग यहां ध्यान करने आते हैं बडी योजना और आकांक्षा से, उन्हें नहीं होता। जो ऐसे ही आ गए होते हैं, सयोगवशात, सोचते हैं कर लें, देख लें, शायद कुछ हो, उन्हें हो जाता है।
और पहली दफा तो जब किसी को होता है तो आसानी से हो जाता है, दूसरी दफे कठिन होता है। क्योंकि दूसरी दफे वासना आ जाती है। पहली दफा तो अनुभव था नहीं, तो वासना कैसे करते? ध्यान शब्द सुना भी था तो भी ध्यान का कुछ अर्थ तो पकड़ में आता नहीं था—क्या है, कैसा है। जब पहली दफा ध्यान उतर आता है और किरण तुम्हें जगमगा जाती है, ऐसा रस मिलता है कि फिर सारी वासना उसी तरफ दौड़ने लगती है।
वह वासना जो बड़े मकान चाहती थी, बड़ी कार चाहती थी, सुंदर स्त्री चाहती थी, शक्तिशाली पति चाहती थी, धन—पद चाहती थी, सब तरफ से वासना इकट्ठी होकर ध्यान की तरफ दौड़ पड़ती है। क्योंकि जो धन से नहीं मिला, वह ध्यान सै मिलता है। जो पद से नहीं मिला, वह ध्यान से मिलता है। जो किसी संभोग से नहीं मिला, वह ध्यान से मिलता है। तो सब तरफ से वासना के झरने इकट्ठे एक धारा में हो जाते हैं और ध्यान की तरफ दौडने लगते हैं। लेकिन ध्यान वासना से नहीं मिलता। ध्यान तो निर्वासना की स्थिति में घटता है। जब तुम चाहोगे, तब तुम चूकोगे।
तो तुम्हें यह हैरानी होगी, इस छोटे से बच्चे ने चाहा तो नहीं था, यह घटना कैसे घट गयी! यह बात सार्थक है। घटना ऐसे ही घटती है, अनायास ही घटती है। इस जगत में जो भी श्रेष्ठ है, वह मांगने से नहीं मिलता। मांगने से तो हम भिखारी हो जाते हैं। बिना मांगे मिलता है। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चूंन। उसने मांगा भी नहीं था। उसे तो एक अवसर मिल गया कि अंधेरी रात, यह आकाश में झिलमिलाते तारे, यह सन्नाटा, यह चुप्पी, यह नीरव ध्वनि, यह मरघट, वह तो बैठ गया! किसी खास वजह से नहीं, कुछ लक्ष्य न था सामने, उसने शास्त्र भी न पढ़े थे, शास्त्र सुने भी न थे, संतों की वाणी भी नहीं सुनी थी, लोभ का कोई कारण भी नहीं था, वह किसी मोक्ष, किसी भगवान के दर्शन करने को उत्सुक भी नहीं था, कोई निर्वाण भी नहीं पाना चाहता था। मगर यह मौका था सन्नाटे का, और धीरे— धीरे उसे नमो बुद्धस्स के अतिरिक्त कुछ बचा भी नहीं था उसके पास, करता भी क्या! बाप आया नहीं, बैल लौटे नहीं, घर जाने का उपाय नहीं, नगर के द्वार—दरवाजे बंद हो गए, करता भी क्या? वह तो बहुत दिन से जब भी मौका मिलता था, एकांत मिलता था, नमो बुद्धस्स करता था, नमो बुद्धस्स करने लगा। डोलने लगा , जैसे सांप डोलने लगता है बीन सुनकर, ऐसा मंत्रोच्चार अगर कोई बिना किसी वासना के करे, तो तुम्हारे भीतर की चेतना डोलने लगती है। एक अपूर्व नृत्य का समायोजन हो जाता है। चाहे शरीर न भी हिले, भीतर नृत्य खड़ा हो जाता है।
डोलते—डोलते लेट गया, गाड़ी के नीचे सो गया। सोया भी था और जागा भी था। इस जगत का जो सब से महत्वपूर्ण अनुभव है वह यही है—सोए भी और जागे भी। अभी तो हालत उलटी है—जागे हो और सोए हो। अभी लगते हो कि जागे हो और बडी गहरी नींद है, आंख खुली हैं और भीतर नींद समायी है। इससे उलटी भी घटना घटती है। अभी तो तुम शीर्षासन कर रहे हो, सिर के बल खड़े हों—जागे हो और सोए हो। जिस दिन पैर के बल खड़े होओगे—वही तो बुद्धत्व का अर्थ है—पैर पर खडे हो जाना। आदमी उलटा खड़ा है। जो सीधा खड़ा हो गया, वही बुद्ध है। वह सोता भी है तो जागता है।
जो रात अभिशाप हो सकती थी, वह वरदान हो गयी। और जो मंत्र मात्र संयोग से मिला था, वह उस रात्रि स्वाभाविक हो गया।
संयोग की ही बात थी कि दूसरा लड़का जीतता था और यह लड़का भी जीतना चाहता था—कौन नहीं जीतना चाहता! के तक जीत के भाव से मुक्त नहीं होते हैं, तो बच्चों से तो आशा नहीं की जा सकती है। बूढों को तो क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि जिंदगी बीत गयी अभी तक इतना भी नहीं सीखें कि जीतने में कुछ सार नहीं है, हारने में कोई हारता नहीं, जीतने में कोई जीतता नहीं—यहां हार और जीत सब बराबर है, क्योंकि मौत सब को एक सा मिटा जाती है। हारे हुए मिट्टी में गिर जाते हैं, जीते हुए मिट्टी में गिर जाते हैं।
यह तो छोटा बच्चा था, इसको तो हम क्षमा कर सकते हैं, यह जीतना चाहता था। इसने सब उपाय कर लिए थे, इसने सब तरह से निरीक्षण किया था कि जीतने वाले की कला क्या है! क्यों जीत—जीत जाता है! मैं क्यों हार—हार जाता हूं। शक्तिशाली था जीतने वाले से, इसलिए बात बड़ी आश्चर्य की थी—इसकी शक्ति का स्रोत कहां है! क्योंकि शरीर से मैं बलवान हूं, जीतना मुझे चाहिए गणित के हिसाब से। लेकिन जिंदगी बडी अजीब है, यहां गणित के हिसाब से कोई बात घटती कहां है? यहां गणित को मानकर जिंदगी चलती कहां है? यहां कभी—कभी कमजोर जीत जाते हैं और शक्तिशाली हार जाते हैं।
देखते हैं, पहाड़ से जल की धारा गिरती है, चट्टान पर गिरती है। जब चट्टान पर पहली दफा जल की धारा गिरती होगी तो चट्टान सोचती होगी—अरे पागल मुझको तोड्ने की कोशिश कर रही है! और जल इतना कोमल है, इतना स्त्रैण है, और चट्टान इतनी परुष, और इतनी कठोर, मगर एक दिन चट्टान टूट जाती है। रेत होकर बह जाएगी चट्टान! जो समुद्रों के तटों पर रेत है, जो नदियों के तटों पर रेत है, वह कभी पहाड़ों में बड़ी—बड़ी चट्टानें थीं। सब रेत चट्टान से बनी है। और चट्टानें टूटती हैं जल की सूक्ष्म धार से, कोमल धार सै। कोमल धार अंततः जीत जाती है। मगर धार में कुछ बात होगी, जीतने का कुछ राज होगा। इस जगत में सब कुछ गणित के हिसाब से नहीं चलता। इस जगत का कुछ सूक्ष्म गणित भी है।
तो सब ऊपर के उपाय कर लिए होंगे उस लडके ने। कैसे खेलता है, उसका एकांत में अभ्यास भी किया था, मगर फिर भी हार—हार गया—न जीता सो न जीता। पूछना नहीं चाहता था उससे, क्योंकि उससे क्या पूछना उसके जीतने का राज! चुपचाप निरीक्षण करता था। जब कोई उपाय न बचा होगा तो उसने पूछा। एक ही बात अनबूझी रह गयी थी कि हर खेल शुरू करने के पहले वह लड़का आंख बंद करके खड़ा हो जाता है, उसके ओंठ कुछ बुदबुदाते हैं, तब एक अपूर्व शांति उसके चेहरे पर मालूम होती है, एक रोशनी झलकती है। अब सिर्फ यही एक राज रह गया था। और सब तो कर लिया था, उससे कुछ काम नहीं हुआ था।
अंततः उसने पूछा कि भाई मुझे बता दो। क्या करते हो? कैसा स्मरण? क्या मंत्र? संयोग की बात थी कि वह लड़का नमो बुद्धस्स का पाठ करता था। वही उसका बल था। सुना है न तुमने वचन—निर्बल के बल राम। निर्बल भी बली हो जाता है अगर राम का साथ हो। और बलवान भी कमजोर हो जाता है अगर राम का साथ न हो। यहां सारा बल राम का बल है। यहां जो अपने बल पर टिका है, हारेगा। जिसने प्रभु के बल पर छोड़ा, वह जीतेगा। जब तक तुम अपने बल पर टिके हो, रोओगे, परेशान होओगे, टूटोगे—तब तक तुम चट्टान हो, तब तक तुम रेत हो —होकर दुख पाओगे। खंड—खंड हो जाओगे।
जिस दिन तुमने राम के बल का सहारा पकड लिया, जिस दिन तुमने कहा, मैं नहीं हूं? तू ही है, यही तो अर्थ होता है स्मरण का, प्रभु—स्मरण का, नाम—स्मरण का। उस लड़के ने कहा कि मैं थोड़े ही जीतता हूं भगवान जीतते हैं। मैं उनका स्मरण करता हूं उन्हीं पर छोड़ देता हूं? मैं तो उपकरण हो जाता हूं। जैसा कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहा कि तू निमित्त मात्र हो जा, तू प्रभु को करने दे जो वह करना चाहते हैं, तू बीच में बाधा मत बन। जैसा कबीर ने कहा कि मैं तो बांस की पोगरी हूं। गीत मेरे नहीं, गीत तो परमात्मा के हैं। जब उसकी मरजी होती, गाता, मैं तो बांस की पोगरी हूं। सिर्फ मार्ग हूं उसके आने का। गीतों पर मेरी छाप नहीं है, गीतों पर मेरा कब्जा नहीं है, गीत उसके हैं, मैं सिर्फ द्वार हूं उसका—उपकरण मात्र।
ऐसा ही उस लड़के ने कहा कि मैं थोड़े ही जीतता हूं! इसमें कुछ राज नहीं है, मैं प्रभु का स्मरण करता हूं, फिर खेल में लग जाता हूं, फिर वह जाने।
मगर इस बात में बडा बल है। क्यौंकि जैसे ही तुम्हारा अहंकार .विगलित हुआ, तुम बलशाली हुए, तुम विराट हुए। अहंकार विगलित होते ही तुम जल की धार हो गए, अहंकार के रहते—रहते तुम चट्टान हो। और अहंकार के विगलित होने का एक ही उपाय है कि किसी भांति तुम अपना हाथ भगवान के हाथ में दे दो। किस बहाने देते हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारा हाथ भगवान के हाथ में हो। तुम निमित्त मात्र हो जाओ।
यह संयोग की ही बात थी कि उस लडके ने कहा, मैं भगवान का स्मरण करता हूं बुद्ध का स्मरण करता हूं—नमो बुद्धस्स।—जीतने के लिए आतुर इस युवक ने इसकी नकलपट्टी शुरू की।
खयाल रखना, कभी—कभी गलत कारणों से भी लोग ठीक जगह पहुंच जाते हैं। कभी—कभी संयोग भी सत्य तक पहुंचा देता है। कभी—कभी तुम जो शुरू करते हो, वह कोई बहुत गहरा नहीं होता, लेकिन शुरू करने से ही यात्रा का पहला कदम पड़ जाता है।
मेरे पास लोग आते हैं, वह कहते हैं, संन्यास हम लेना चाहते हैं, लेकिन कपड़े रंगने से क्या होगा? मैं कहता हूं तुम फिकर छोड़ो, कपड़े तो रंगो, कुछ तो रंगो। वह कहते हैं, कबीर तो कहते हैं—मन न लाए लाए जोगी कपड़ा! मैं कहता हूं, ठीक कहते हैं, मन भी रंग जाएगा, तुम कपड़े रंगाने की हिम्मत तो करो! जो कपड़े रंगाने तक से डर रहा है, उसका मन कैसे रंगेगा? कबीर ठीक कहते हैं। मगर खयाल रखना, कबीर ने जोगियों से कहा था। कबीर ने उनसे कहा था जिन्होंने कपड़े रंग लिए थे और मन अभी तक नहीं रंगा था। उन्होंने कहा था—मन न रंगाए जोगी! जोगियों से कहा था कि तुमने मन तो लाया नहीं, रंगा लिए कपड़ा! इससे क्या होगा? अब मन रंगाओ। तुमने अभी कपड़ा भी नहीं रंगाया; तुम अभी जोगी नहीं हो, कबीर का वचन तुम्हारे लिए नहीं है।
जिन्होंने कपडा रंगा लिया, उनसे मैं भी कहता हूं—मन न लाए लाए जोगी कपड़ा! मगर तुमसे न कहूंगा। तुमसे तो कहूंगा—पहले जोगी तो बनो, कम से कम कपड़ा तो लाओ। एक बार कपड़ा रंग जाए, इतनी हिम्मत तो करो! और तुम कहते हो कि बाहर के कपड़े से क्या होगा!
बाहर और भीतर में जोड़ है। संयोग और सत्य भी जुड़े हैं। जो बाहर है, एकदम बाहर थोड़े ही है, वह भी भीतर का ही फैलाव है। तुम भोजन तो करते न! तो बाहर से ही भोजन लेते हो, वह भीतर पहुंच जाता है। तुम यह तो नहीं कहते, बाहर का भोजन क्या करना? बाहर का जल क्या पीना? भीतर प्यास है, बाहर के जल से क्या होगा? ऐसा तो नहीं कहते। या कहते हो! भीतर की प्यास बाहर के जल से बुझ जाती है, और भीतर की भूख बाहर के भोजन से बुझ जाती है, और भीतर के प्रेम के लिए बाहर प्रेमी खोजते हो, और कभी नहीं कहते कि प्रेम की प्यास तो भीतर है, बाहर के प्रेमी से क्या होगा?
बाहर और भीतर में बहुत फर्क नहीं है। वृक्ष पर जो फल अभी लटका है, बहुत दूर और बाहर है, जब तुम उसे चबा लोगे और पचा लोगे, भीतर हो जाएगा। तुम्हारा खून बन जाएगा, मांस—मज्जा बन जाएगा। आज तुम्हारे भीतर जो मांस—मज्जा है, कल तुम मर जाओगे, तुम्हारी कब बन जाएगी, तुम्हारी मांस—मज्जा मिट्टी में मिल जाएगी और मिट्टी से फिर वृक्ष उगेगा, और वृक्ष में फिर फल लगेंगे—तुम्हारा मांस—मज्जा फिर फल बन जाएगा। बाहर और भीतर अलग— अलग नहीं हैं, संयुक्त हैं, जुड़े हैं।
इसलिए ऐसे मन को धोखा देने के उपाय मत किया करें कि बाहर से क्या होगा! और यह सिर्फ उपाय है। अब भीतर का तो किसी को पता नहीं, तुम लोगे कि नहीं रंगोगे, बाहर का पता चल सकता है। बाहर से घबड़ाते हो कि लोग गैरिक वस्त्रों में देखकर कहेंगे—अरे, पागल हो गए! लोगों का इतना डर है, लोगों के मंतव्य की इतनी चिंता है! सीधी बात नहीं कहते कि मैं लोगों से डरता हूं कायर हूं बहाना खोजते हो कबीर का कि कबीर ने ऐसा कहा है कि बाहर के कपड़े रंगाने से क्या होगा? मैं भी कहता हूं क्या होगा, लेकिन यह कहा उनसे जिन्होंने रंगा लिए थे। उनसे मैं भी कहता हूं।
बाहर की घटना थी, बिलकुल सयोगवशात शुरू हुई थी। कोई लड़के के भीतर ध्यान की तलाश न थी, न भगवान की कोई खोज थी। खेल—खेल में सीख लिया था, खेल—खेल में दाव लग गया। नमो बुद्धस्स, नमो बुद्धस्स रटने लगा। रटंत थी, तोता—रटत थी, किसी बड़े मूल्य की बात नहीं थी। लेकिन रटते—रटते एक बात लगी कि रटते —रटते ही सतह पर कुछ शांति आ जाती है। वह जो उद्विग्नता थी, वह कम होने लगी। विचार थोड़े क्षीण हुए। वह जो जीत की आंकाक्षा थी, वह भी क्षीण होने लगी। अब खेलता था, लेकिन खेल में दूसरे ढंग का मजा आने लगा। अब खेलने के लिए खेलने लगा। पहले जीतने के लिए खेलता था।
जो जीतने के लिए खेलता है, उसकी हार निश्चित है। क्योंकि वह तना हुआ होता है, वह परेशान होता है। उसका मन खेल में तो होता ही नहीं, उसकी आंख गडी होती है आगे, भविष्य में, फल में—जल्दी से जीत जाऊं। जो खेलने में ही डूबा होता है, उसको फल की कोई फिकर ही नहीं होती। वह खेलने में पूरा संलग्न होता है। उसके पूरे संलग्न होने से जीत आती है। और जीत की आंकाक्षा से पूरे संलग्न नहीं हो पाते, तो हार हो जाती है।
तुम देखते न, आमतोर से सब लोग कितनी अच्छी तरह बातचीत करते हैं, गपशप करते हैं। फिर किसी को मंच पर खड़ा कर दो, और बस उनकी बोलती बंद हो गयी, हाथ—पैर कंपने लगे। क्या हो जाता है मंच पर पहुंचकर? कौन सी अड़चन हो जाती है? भले —चंगे थे, सदा बोलते थे, असल में इनको चुप ही करना मुश्किल था, बोल—बोलकर लोगों को उबा देते थे, आज अचानक बोलती बंद क्यों हो गयी? आज पहली दफा लोगों को सामने बैठे देखकर इनको एक खयाल पकड़ गया कि आज कुछ ऐसा बोलना है कि लोग प्रभावित हो जाएं। बस, अड़चन हो गयी। आज बोलने में पूरी प्रक्रिया न रही, लक्ष्य में ध्यान हो गया। लोग प्रभावित हो जाएं! ये इतनी आंखें जो देख रही हैं, ये सब मान लें कि हां, कोई है बोलने वाला! कोई है वक्ता! बस इसी से अड़चन हो गयी।
मंच पर खड़े होकर अभिनेता कंपने लगता है, हाथ—पैर डोलने लगते हैं, पसीना—पसीना होने लगता है। क्यों? पहली दफा कृत्य में नहीं रहा, कृत्य के पार आंकाक्षा दौड़ने लगी। बड़ा अभिनेता वही है जिसको इसकी चिंता ही नहीं होती कि लोगों पर क्या परिणाम होंगे। और बड़ा वक्ता वही है जिसे खयाल भी नहीं आता कि लोग इसके संबंध में क्या सोचेंगे। बड़ा खिलाड़ी वही है जो खेल में पूरा डूब जाता है, समग्रभावेन। उसी से जीत आती है।
धीरे— धीरे इसको भी फिकर छूटने लगी। यह लडका भी रस लेने लगा खेलने में। एक और ही मजा आने लगा। एक और तरह की तृप्ति मिलने लगी। अंतर्निहित हो गयी तृप्ति खेल के भीतर। क्रीड़ा में ही रस हो गया। खेल काम न रहा। खेल पहली दफा खेल हुआ।
इसलिए इस देश में हम कहते हैं— भगवान ने सृष्टि बनायी ; ऐसा नहीं कहते—
पश्चिम में क्रिश्चियनिटी है—ईसाइयत है—जुदाइजम है, इस्लाम है, वे सब कहते हैं, भगवान ने दुनिया बनायी। कृत्य की तरह। छह दिन में बनायी, फिर थक गया। खेल से कोई कभी नहीं थकता, खयाल रखना, इसलिए हिंदुओं के पास छुट्टी का कोई उपाय ही नहीं है भगवान के लिए। छह दिन में थक गया, सातवें दिन विश्राम किया। इसीलिए तो रविवार को छुट्टी मनाते हैं ईसाई। भगवान तक ने छुट्टी ली तो आदमी का क्या! भगवान थक गया छह दिन बना—बनाकर, उस दिन विश्राम किया उसने।
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