Monday 11 August 2014

ओशो On ज्ञानी-ज्ञान / भक्त-प्रेम

तीसरा प्रश्न:
महावीर ने वैराग्य और ध्यान के मार्ग को चौदह सीढ़ियों में बांटा है। क्या प्रेम के मार्ग की भी ऐसी कोई व्याख्या है? कृपया इस पर कुछ कहें।

ओशो शरनम् गच्छामि"ओशो : प्रेम को बांटने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि प्रेम छलांग है। ज्ञान क्रमिक है, प्रेम छलांग है। ज्ञान इंच-इंच चलता, कदम-कदम चलता। प्रेम इंच-इंच नहीं चलता, कदम-कदम नहीं चलता।

ज्ञान बड़ा होशियार है, प्रेम बड़ा पागल है। इसलिए ये जो गुणस्थान हैं, ज्ञान के साधक के लिए हैं। भक्ति के मार्ग पर कोई गुणस्थान नहीं हैं।

भक्त जानता नहीं विभाजन को। भक्त जानता ही नहीं कोटियों को। भक्त जानता ही नहीं विश्लेषण को। भक्त की पहचान तो संश्लेषण से है–सिन्थेसिस। भक्त की तो पहचान चीजों को जहां-जहां भेद हो वहां अभेद देखने की है।

ज्ञानी की सारी चेष्टा जहां अभेद भी हो, वहां भेद पहचानने की है। महावीर ने तो अपने पूरे शास्त्र को भेद-विज्ञान कहा है। कहा कि यह भेद को पहचानने की कला है। पहचानना है कि शरीर क्या है, आत्मा क्या है। पहचानना है कि संसार क्या है, मोक्ष क्या है। एक-एक चीज पहचानते जाना है। एक-एक चीज का ठीक-ठीक ब्यौरा और ठीक-ठीक विश्लेषण करना है। ठीक विश्लेषण करने से ही कोई मुक्त अवस्था को उपलब्ध होता है। ज्ञान का खोजी विश्लेषण करता है। विश्लेषण उसकी विधि है। वह कैटेगरीज बनाता है, कोटियां बनाता है। उसका ढंग वैज्ञानिक है।

भक्त, प्रेमी कोटियां तोड़ता है। सब कोटियां को गड्डमड्ड कर देता है। दीवाना है, पागल है। पागलों ने कहीं हिसाब लगाए?

तो यह तो पूछो ही मत, कि क्या भक्ति के मार्ग पर भी, प्रेम के मार्ग पर भी इसी तरह की कोटियां हो सकती हैं, विभाजन हो सकता है? संभव नहीं है।

एक आदमी धन इकट्ठा करता है तो धीरे-धीरे करता है। लुटेरा आता है, लूटकर ले जाता है इकट्ठा।

रामकृष्ण के पास एक आदमी हजार सोने की मोहरें लेकर आया। कहा, स्वीकार कर लें। रामकृष्ण ने कहा, अब तुम तो ले आए तो चलो स्वीकार कर लिया। लेकिन मैं क्या करूंगा। तुमने तो अपना बोझा छुड़ाया, मुझ पर डाल दिया। ऐसा करो, मैंने स्वीकार कर लीं। अब मेरी तरफ से इनको बांधकर गंगा में डाल आओ।

उस आदमी ने पोटली बांधी बड़े बेमन से। हजार बार सोचने लगा कि यह क्या हुआ! मगर अब कुछ कह भी न सका। भेंट कर दीं। और यह आदमी पागल है। यह कह रहा है, गंगा में फेंक आ। गया बेमन से। बड़ी देर लगा दी, आया नहीं तो रामकृष्ण ने कहा, जरा पता तो लगओ। वह गंगा पहुंचा कि घर भाग गया? वह है कहां? अब तक लौटा नहीं।

भेजा देखने को, तो देखा कि वह गंगा के किनारे पर बैठकर…बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है। वह पहले पटक- पटककर खनखना-खनखनाकर गिनती कर रहा है। एक-एक गिनकर फेंक रहा है। किसी ने खबर दी रामकृष्ण को। वे गए और उन्होंने कहा, पागल! जोड़ना हो तो गिनती करनी पड़ती है, फेंकने के लिए क्या गिनती कर रहा है? अरे! नौ सौ निन्यानबे हुईं तो भी चलेगा। एक हजार एक हुईं तो भी चलेगा। बांध पोटली, इकट्ठी फेंक! यह क्या गिनती कर रहा है?

वह पुरानी आदत रही होगी–जोड़नेवाले की आदत, गिनती करने की। वह पुराने हिसाब से जैसे अपनी दुकान पर बैठकर खनखनाकर देखता होगा। असली है कि नकली है, वह अभी भी कर रहा है। अब पूरी प्रक्रिया उलटी हो गई।

प्र्रेम तो डूबना जानता है।
यह कौन आया रहजन की तरह
जो दिल की बस्ती लूट गया
आराम का दामन चाक हुआ
तसकीन का रिश्ता टूट गया
यह कौन आया रहजन की तरह
जो दिल की बस्ती लूट गया

डाकू की तरह आता है परमात्मा। इसलिए तो हिंदू परमात्मा को हरि कहते हैं। हरि यानी लुटेरा: हर ले जाए जो; झपट ले। रहजन की तरह आ जाए–डाकू। जो लूट ले।

यह कौन आया रहजन की तरह
जो दिल की बस्ती लूट गया

प्रेम कुछ तुम्हारे बस में थोड़े ही है। ध्यान तुम्हारे बस में है। ज्ञान तुम्हारे बस में है। त्याग, तपश्चर्या तुम्हारे बस में है, प्रेम तुम्हारे बस में थोड़े ही है। किसी अज्ञात क्षण में, किसी अनजानी घड़ी में, किसी सौभाग्य की घड़ी में आ जाता है कोई और लूट ले जाता है।

आराम का दामन चाक हुआ

प्रेम के पहले आदमी आराम से जीता है। प्रेम के बाद फिर आराम नहीं। प्रेम के पहले तो आदमी जानता ही नहीं कि पीड़ा क्या है। प्रेम के बाद ही जानता है कि पीड़ा क्या है। क्योंकि प्रेम में जलता है, पिघलता है, गलता है, मिटता है।

आराम का दामन चाक हुआ
तसकीन का रिश्ता टूट गया

प्रेम के पहले जिंदगी बड़ी धीमी-धीमी चलती है, धीरज से चलती है। कहीं कोई दौड़, छलांग नहीं। आदमी सावधानी से चलता है। प्रेम के बाद मस्ती पकड़ लेती है। फिर कहां धीरज? फिर कहां धैर्य! फिर कैसा आराम।

बुद्धि तो बड़ा सोच-विचारकर कहीं झुकती है। हृदय झुका ही हुआ है। अगर इसे तुम ठीक से समझ सको तो ऐसा समझना, हृदय तो तुम्हारा अभी भी भक्ति में डूबा हुआ है। तुम्हारा अपने हृदय से संबंध छूट गया है। तुम अपनी बुद्धि में समा गए। अपनी खोपड़ी में निवास कर लिया है। वहीं रह गए। अटक गए वहीं। उलझ गए वहीं।

हृदय तो अब भी प्रार्थना कर रहा है। हृदय तो अभी भी नमाज पढ़ रहा है। हृदय तो अभी भी डूबा है। हृदय का होना ही परमात्मा में है।

वे जो बुद्धि में भटक गए हैं और जिनको हृदय का रास्ता नहीं मिलता, उनके लिए चौदह गुणस्थान हैं। जिनको हृदय करीब है और जिन्हें कोई अड़चन नहीं, जो सरलता से हृदय में उतर सकते हैं, उनके लिए कोई गुणस्थान नहीं, कोई भेद-विभाजन नहीं। उनके लिए न कोई शास्त्र है, न कोई साधना है।

जवानी मोहब्बत, वफा नाउम्मीदी
यह है मुख्तसर-सा हमारा फसाना
किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे
जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना
बुद्धि ढूंढ़ती ही रही कि कहां है वह जगह, जहां सिर झुकाऊं।
जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना
देहली ढूंढ़ती ही रही कि कहां सिर को रखूं, कहां माथा टेकूं? कहां मंदिर? कहां मस्जिद?
जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना
किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे

और दिल तो हर जगह तेरी प्रार्थना करता रहा, तेरी पूजा में लीन रहा। दिल तो पूजा में डूबा ही है। वहां तो जल ही रहा दीया। वहां तो धूप उठ ही रही। वहां तो वेदी सजी है।

जो बुद्धि में बहुत बुरी तरह खो गए हैं–बुद्धि के अरण्य में, विचारों के जंगल में, जंजाल में, उनके लिए ज्ञान का रास्ता है।

इसलिए जैन शास्त्र अत्यंत बौद्धिक हैं, रूखे हैं। गणित की तरह हैं। आइंस्टीन की किताब पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, एक से हैं। न्यूटन को पढ़ो कि अरिस्टोटल को पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, एक से हैं।

बहुत बार कई जैनों ने मेरे पास आकर कहा है कि कभी आप कुंदकुंद पर बोलें। कई दफे उनकी बात सुनकर मैं भी कुंदकुंद की किताब उलटाकर देखता हूं, फिर बंद कर देता हूं। बिलकुल रूखा-सूखा है। मैं भी चेष्टा करके कविता उसमें डाल न सकूंगा। बड़ी अड़चन होगी। काव्य है ही नहीं। रसधार बहती ही नहीं। सीधा-सीधा गणित का हिसाब है–दो और दो चार।

जैन शास्त्र पैदा ही तब हुए, जब भारत एक बड़ी बौद्धिक क्रांति से गुजर रहा था। सारा देश बड़े चिंतन में लीन था। सदियों के चिंतन के बाद निष्कर्ष लिए जा रहे थे। ऐसा भारत में ही था ऐसा नहीं, सारी दुनिया में एक महत ऊर्जा उठी थी। भारत में बुद्ध थे, महावीर थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, निगंठनाथपुत्त महावीर थे। यूनान में थेलीस, सुकरात, प्लेटो, अरिस्टोटल। ईरान में जरथुस्त्र। चीन में कन्फ्यूसियस, लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु।

सारी दुनिया में एक बड़ी तीव्र उत्क्रांति हो रही थी। सब तरफ हवा गर्म थी। विचार कसे जा रहे थे। विचार, तर्क, चिंतन, मनन अपनी आखिरी कसौटी छू रहा था, आखिरी ऊंचाई छू रहा था। उस उत्तुंग क्षण में जिन-सूत्र रचे गए। वे उस दिन की पूरी खबर लाते हैं, उस दिन का पूरा वातावरण, उस दिन की पूरी हवा और मौसम उनमें छिपा हुआ है।

भक्त बड़े और ढंग से जीता है। भक्त का मार्ग स्त्रैण है। इसीलिए जैन तो मानते ही नहीं कि स्त्री का मोक्ष हो सकता है। उस मानने में बड़ा विचार है।

एक बात निश्चित है, जैन शास्त्र में स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता। स्त्री का हो सकता है कि नहीं इस पर पूरा, किसी को कोई दावा नहीं कहने का; लेकिन इतनी बात पक्की है कि जैन शास्त्र से तो नहीं हो सकता। क्योंकि जैन शास्त्र से स्त्री का मेल ही नहीं बैठ सकता। वह उनमें हृदय है ही नहीं। उसमें तो सभी पुरुषों का भी बैठ जाए मेल, यह भी कठिन मालूम होता है।

तो जैन शास्त्र ठीक ही कहते हैं कि स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता। क्योंकि जैन शास्त्र पुरुष मन की खोज है–तर्क, चिंतन, मनन। प्रेम की खोज नहीं है। इसलिए एक बड़ी अनूठी घटना घटी। जैनों का एक तीर्थंकर–तेईसवां–एक तीर्थंकर स्त्री थी। नाम है मल्लीबाई। लेकिन जैनों ने मल्लीबाई को मल्लीबाई लिखना भी पसंद न किया। वे उसको मल्लीनाथ लिखते हैं। वह थी तो स्त्री, लेकिन बना दिया पुरुष। वे मानते नहीं कि मल्लीबाई स्त्री थी। वे कहते हैं, मल्लीनाथ। और मुझे भी लगता है, वे ठीक कहते हैं। वह चाहे देखने में स्त्री रही हो, भीतर से पुरुष ही रही होगी। इसलिए नाम बदला तो ठीक ही किया। मल्लीबाई मल्लीनाथ ही रही होगी। हृदय तो नहीं रहा होगा। इसलिए बात तो ठीक ही लगती है।

पुरुष का चित्त तो तर्क की धार है, गणित का हिसाब है, विज्ञान का फैलाव है। विश्लेषण उसका द्वार है। स्त्री का चित्त अलग ढंग से धड़कता। हृदय, प्रेम, रस–“रसो वै सः’। स्त्री के लिए परमात्मा रस-रूप है, कृष्ण-रूप है। सत्य यानी प्रीतम। सत्य यानी सिर्फ गणित का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं। सत्य यानी जहां हृदय झुक जाए।

किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे
जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना

हृदय झुकता ही रहा। जहां गया वहीं अपने प्रीतम को खोज लिया। और बुद्धि खोजती ही रही कि वह जगह कहां है, जहां मैं झुकूं? बुद्धि खोज-खोजकर जगह नहीं पाती कि कहां झुकूं; और हृदय को बिना खोजे जगह मिल जाती है। हृदय की एक छलांग है।

और जब मैं कह रहा हूं स्त्री-चित्त, तो तुम यह मत सोचना कि तुम पुरुष हो तो प्रेम तुम्हारे लिए नहीं। और तुम ऐसा भी मत सोचना कि तुम स्त्री हो तो जिन-सूत्र तुम्हारे लिए नहीं है। शरीर से स्त्री और पुरुष होना एक बात है, चित्त से स्त्री और पुरुष होना बिलकुल दूसरी बात है।

अगर जैनों ने मल्लीबाई को मल्लीनाथ कहा, तो ठीक ऐसे ही चैतन्य महाप्रभु को चैतन्यबाई कहा जा सकता है। वह स्त्रैण चित्त है। वह गौरांग का नाचता हुआ रूप!–जैसे राधा हो गए। किसी ने ऐसी हिम्मत नहीं की। क्योंकि स्त्री को पुरुष बनाना तो आसान मालूम होता है। कहते हैं, “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसीवाली रानी थी।’ लेकिन किसी पुरुष को नामर्द कहो तो झगड़ा खड़ा हो जाता है।

पुरुषों की दुनिया है यह। यहां स्त्री को अगर पुरुष कहो तो मालूम होता है, प्रशंसा कर रहे हो। और अगर पुरुष को स्त्री कहो तो लगता है निंदा हो गई। चूंकि पुरुष ने ही सारे मापदंड तय किए हैं।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, यह बात गलत है। अगर मल्लीबाई मल्लीनाथ कही जा सकती है तो क्यों नहीं चैतन्य को चैतन्यबाई कहो? ज्यादा उचित होगा। ठीक-ठीक खबर मिलेगी।

तो तुम ऊपर शरीर को आईने में देखकर तय मत कर लेना, भीतर खोजबीन करना। अगर तुम हृदय की तरफ झुके हो तो तुम स्त्रैण हो। अगर तुम बुद्धि की तरफ झुके हो तो तुम पुरुष हो। जो मनोवैज्ञानिक मापदंड है वह हृदय और बुद्धि के बीच तय होगा।

हृदय का रास्ता सुगम है। और हृदय का रास्ता अत्यंत उल्लासपूर्ण है। वहां कोई खंड, कोटियां, विभाजन नहीं हैं।

इसलिए महावीर तो कहते हैं, मेरी दृष्टि भेद-विज्ञान की है। और भक्त कहते हैं, हमारी दृष्टि अभेद-विज्ञान की है। हम एक को ही देखते हैं। अनेक में भी एक को ही देखते हैं। हमें एक ही दिखाई पड़ता है। सभी रूप उसके मालूम होते हैं। सभी नाम उसके मालूम होते हैं। रूप के कारण भक्त धोखे में नहीं पड़ता। आकृति के कारण धोखे में नहीं पड़ता। वह सभी आकृतियों में छिपे निराकार को देख लेता है।

और भक्ति को मैं कहता हूं, वह एक छलांग है। इसलिए भक्ति तो एक क्षण में भी घट सकती है। ज्ञान के लिए सदियां लग जाती हैं। तुम्हारी मर्जी! ज्ञान से भी लोग पहुंचते हैं।

कुछ हैं, जो सीधी तरह से कान पकड़ना जानते ही नहीं। करोगे भी क्या? वे चक्कर लगाकर, हाथ से सिर के पीछे से घूमकर कान पकड़ते हैं। कुछ को अपने घर भी आना हो तो वे पहले सारी दुनिया का चक्कर लगाकर फिर घर आते हैं। अगर तुम चलते ही रहो, चलते ही रहो तो जमीन गोल है, एक दिन अपने घर आ जाओगे चलते-चलते-चलते।

मैंने सुना है एक आदमी भागा जा रहा था। राह किनारे बैठे एक बूढ़े से पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है? सभी लोग दिल्ली जा रहे हैं तो वह भी जा रहा होगा। एक बुखार है, दिल्ली चलो। उस बूढ़े ने कहा, जिस तरफ तुम भागे जा रहे हो, अगर उसी तरफ भागे गए तो बहुत दूर है क्योंकि दिल्ली पीछे छूट गई। अगर तुम इसी दिशा में भागे चले जाओ तो पहुंचोगे जरूर एक दिन दिल्ली, लेकिन सारी दुनिया का चक्कर लगाकर पहुंचोगे। हजारों मील की यात्रा है। अगर लौट पड़ो तो दिल्ली बिलकुल पीछे है। आठ मील पीछे छोड़ आए हो।

अगर बुद्धि की तरफ से गए तो बड़ी लंबी यात्रा है। पृथ्वी भी इतनी बड़ी नहीं है। क्योंकि बुद्धि के फैलाव का कोई अंत ही नहीं है। बुद्धि का आकाश बहुत बड़ा है।

मैंने सुना है कि शिव अपने बेटों के साथ खेल रहे हैं–कार्तिकेय और गणेश। और ऐसे ही खेल में उन्होंने कहा कि तुम मानते हो कि मैं ही यह सारी सृष्टि हूं? तो मेरे भक्त को मेरी परिक्रमा कैसी करनी चाहिए, तुम बताओ। तो कार्तिकेय तो बड़े बुद्धिमान रहे होंगे, ज्ञानी रहे होंगे। चले सारी सृष्टि का चक्कर लगाने। शिव की परिक्रमा करनी है। और शिव यानी सारी सृष्टि। सब में व्याप्त परमात्मा। पता नहीं अभी तक लौटे भी कि नहीं कार्तिकेय। कहानी कुछ कहती नहीं। गणेश ने ज्यादा होशियारी की। वजनी शरीर, हाथी की सूंड! अब इतनी बड़ी पृथ्वी का चक्कर क्या? उन्होंने शिव का चक्कर लगाकर जल्दी से वहीं बैठ गए। हो गई! सृष्टि की परिक्रमा हो गई। अगर शिव ही समाए हैं सारी सृष्टि में तो अब सारी सृष्टि की परिक्रमा क्या करनी! शिव की कर ली तो सारी सृष्टि की हो गई। कार्तिकेय ने सोचा ठीक उलटा। वह भी ठीक है, वह भी तर्क ठीक है। कि जब सारी सृष्टि में समाए हैं तो सारी सृष्टि की जब परिक्रमा होगी तभी तो परिक्रमा हो पाएगी।

बुद्धि यानी कार्तिकेय ।  हृदय यानी गणेश । हृदय से तो अभी घट सकता है । 
ऐसा एक चक्कर मारा शिव पार्वती  का और बैठ गए कि हो गई बात पूरी । 

लेकिन बुद्धि से बहुत लंबी यात्रा है–अनंत काल। जो क्षण में हो जाता है, वह शायद अनंत काल में ही हो पाए। तुम पर निर्भर है। किन्हीं-किन्हीं को यात्रा का ही सुख आता है तो उन्हें रोकने का कोई कारण नहीं।

लेकिन अपने भीतर ठीक से जांच कर लेना। भक्त के लिए तो भगवान चुपचाप आ जाता है। अचानक आ जाता है।

एक दिन चुपचाप अपने आप
यानी बिन बुलाए तुम चले आए
मुझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर
इसकी प्रतीक्षा में कि दोनों हाथ फैलाकर
तुम्हें उल्लास से खींचा
सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा
एक दिन चुपचाप अपने आप
यानी बिन बुलाए तुम चले आए

भक्त तो सिर्फ प्रतीक्षा करता है। कहां जाए खोजने? कहां है परमात्मा या कहां परमात्मा नहीं है? कहां खोजने जाए? या तो सब जगह है या कहीं नहीं है। कहां खोजने जाए? परमात्मा की कोई दिशा तो नहीं। भक्त सिर्फ प्रतीक्षा करना जानता है। रोता है, प्रार्थना करता है, आंसू गिराता है।

एक दिन चुपचाप अपने आप
यानी बिन बुलाए तुम चले आए

भक्त तो कहता है हम बुलाएं भी किस जबान से? किस जुबां से? किन ओंठों से लें तेरा नाम? ओंठ हमारे झूठे हैं। और उनसे हम और बहुत नाम ले चुके हैं। कैसे पुकारें तुझे? हमारी सब पुकार बड़ी छोटी है, क्षीण है। कहां खो जाएगी इस विराट में, पता भी न चलेगा।

एक दिन चुपचाप अपने आप
यानी बिन बुलाए तुम चले आए
मुझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर
इसकी प्रतीक्षा में…
और भक्त कहता है, वे जो बीत गईं जीवन की घड़ियां, बस एक रात थी, जो प्रतीक्षा में बीत गई।
कि दोनों हाथ फैलाकर
तुम्हें उल्लास से खींचा
सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा

भक्त को भगवान मिलता है। भक्त को भगवान स्वयं खोजता है। ज्ञानी सत्य की खोज करता है। भक्त को भगवान खोजता है। भक्त कहीं जाता-आता नहीं। किन्हीं सीढ़ियों पर यात्रा नहीं करता…।

पीड़ ऐसी कि घटा छायी है
ठंडी यह सांस की पुरवाई है
तुझको मालूम क्या है आज यहां
बरखा बादल के बिना आयी है

वर्षा हो जाती है बादल के बिना आए। उसका अमृत-घट भर जाता है। बादल भी नहीं उमड़ते-घुमड़ते और वर्षा हो जाती है।

अतक्र्य है भक्त का मिलन परमात्मा से। ज्ञानी का तो तर्क है। ज्ञानी का तो बिलकुल साफ-साफ है। रत्ती-रत्ती का उत्तर है। ज्ञानी अर्जित करता है। भक्त के लिए भगवान प्रसाद-रूप है। भक्त कहता है, मेरे किए मिलेगा यह संभव ही नहीं है। मेरे किए ही तो चूक रहा है। मेरे कारण ही तो बाधा पड़ रही है। भक्त अपनी बाधा हटा लेता है।

ज्ञानी जिस दिन पाता है, उस दिन किसी को धन्यवाद देने की भी जरूरत नहीं है। क्योंकि उसने अर्जित किया है। इसलिए महावीर की संस्कृति का नाम पड़ गया है श्रमण संस्कृति। श्रम से पाया है, चेष्टा से पाया है, पुरुषार्थ से पाया है।

भक्त तो कहता है, भगवान प्रसाद-रूप मिला है। मैंने पाया, ऐसी बात ही गलत है।

ज्ञानी तो कहता है, जब तक मैं पूर्ण न हो जाऊं तब तक कैसे सत्य मिलेगा? इसलिए ज्ञानी अपने को पूर्ण करने में लगता है। ज्ञानी की साधना है, भक्त की तो सिर्फ प्रार्थना है। भक्त कहता है, पूर्ण और मैं? होनेवाला नहीं। मिलोगे तो अपूर्ण में ही मिलन होगा। मर्जी हो तो जैसा हूं, ऐसा ही स्वीकार कर लो। मुझसे यह सधेगा न, कि मैं पूर्ण हो सकूं।

तो ज्ञान में एक खतरा है कि अहंकार बच जाए। भक्ति में अहंकार का खतरा नहीं है। भक्ति का खतरा दूसरा है–कि आलस्य का नाम भक्ति बन जाए। ज्ञान में आलस्य का खतरा नहीं है। दोनों के खतरे हैं, दोनों के लाभ हैं। ज्ञानी का खतरा है कि अहंकारी हो जाए कि मैंने अर्जित किया। भक्त का खतरा है कि आलस्य प्रतीक्षा बन जाए। आलस्य प्रतीक्षा नहीं है। प्रतीक्षा बड़ी सक्रिय चित्त की दशा है, सक्रिय और निष्क्रिय एक साथ। बड़ी तीव्र प्यास की दशा है।

तुमने कभी देखा? ओलंपिक के चित्र देखे होंगे। दौड़ के लिए प्रतियोगी खड़े होते हैं रेखा पर। सीटी बजने की प्रतीक्षा है। दौड़े नहीं हैं अभी। ऊर्जा से भरे खड़े हैं। एक क्षण, एक-एक क्षण सूचना की प्रतीक्षा है, और दौड़ पड़ेंगे। दौड़े नहीं हैं अभी, लेकिन ऊर्जा से भरे खड़े हैं।

ऐसी ही दशा भक्त की है। खोजने नहीं जाता लेकिन आलस्य में नहीं है। बड़ी त्वरा से भरा है।

एक गीत कल मैं पढ़ रहा था। है तो इस संसार के प्रेम का गीत लेकिन प्रेम इस संसार का हो कि उस संसार का, बहुत भेद नहीं।
देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम
प्यार का महूरत निकल जाएगा
कौन शृंगार पूरा यहां कर सका
सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी
हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा
बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी
हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन
पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां
कांच से ही ना नजरें मिलाती रहो
बिंब को मूक प्रतिबिंब छल जाएगा
देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम
प्यार का यह महूरत निकल जाएगा

भक्त कहता है, हम तो अपूर्ण हैं। कब तक सजते-संवरते रहें? तुम हमें ऐसे ही स्वीकार कर लो। हम कभी पूर्ण हो पाएंगे इसकी संभावना भी नहीं। लेकिन हमारा प्रेम पूर्ण है। हम अपूर्ण होंगे, हमारी चाह पूर्ण है। हमारी चाहत देखो।

कौन शृंगार पूरा यहां कर सका
सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी
हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा
बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी
हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन
पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां
कांच से ही नजरें ना मिलाती रहो
बिंब को मूक प्रतिबिंब छल जाएगा

भक्त कहता है, जो अभी मिल सकता है उसे कल पर मत टालो। जो इसी क्षण घट सकता है, उसे कल पर मत टालो। मत कहो कि हम तैयार होंगे। हम सीमित हैं। हमारी सीमाएं हैं। हम अपूर्ण हैं। हमारी चाहत पूर्ण हो सकती है, हमारी अभीप्सा पूर्ण हो सकती है, लेकिन हम पूर्ण नहीं हो सकते।

यहां फर्क तुम समझने की कोशिश करना। ज्ञानी कहता है, चाहत छोड़ो और पूर्ण बनो। भक्त कहता है, चाहत को पूर्ण करो; तुम्हारी पूर्णता-अपूर्णता की चिंता न करो। दोनों विपरीत, लेकिन पहुंच जाते हैं एक ही शिखर पर।

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