Thursday 28 August 2014

खुली मुठी ध्यान



प्रिय मित्र ,

अब तक तो आप जान ही गए होंगे !  मन और बुद्धि  का स्वस्थ  संयोग ही शक्ति देता है , और  विष से प्रभावित  पीड़ा देता है , सब  अपने ही अंदर की शक्ति है , अपनी ही ऊर्जा है , जो सीमित  अति सीमित समय में  बंधी है , और इसी सीमित समय में  चलित  भाव उर्जाये भी गतिशील  रहती है जो  मन और बुद्धि को वेग देती है  आंदोलित करती है।

ध्यान प्रयोग अद्भुत है विलक्षण है , क्यूंकि  ये बेमोल है , इस ऊर्जा का कोई मोल नहीं , ये अपने ही अंदर उत्तर के अपने ही अंदर   नाड़ी  और धमनी में  रक्त के संग बह रहे विष को बाहर निकलने की क्रिया का नाम है।  जो कभी जाना हुआ है तो कभी अंजना किन्तु जन्म के साथ जुड़े  अनेकानेक कारणों से  संस्कारगत हुआ  है , जाना हुआ आसानी से निकलता है , पर संस्कार गत थोड़ा  पहचानना  कठिन होता है , क्यूंकि छद्मी  विष बन  रक्त में मिल जाता है।  और अनायास ही ह्रदय चक्र को  आहत करता रहता है।

और एक रहस्य आपसे बांटती  हूँ , मनुष्य जन्म ही काफी है  इन विष ग्रंथियों के लिए , बस  धुल के कीटाणु जैसी  सूक्ष्म ये ग्रन्थियां प्रवेश पा  ही लेती है।

फर्क सिर्फ संकल्प शक्ति  का है  और तत्जनित  प्रयास का है , इसके अलावा न मैं न  आप न  अन्य कोई , कोई  भी  अछूता नहीं , विष का जन्म अज्ञानतावश होना  स्वाभाविक है ,  पर ज्ञान हो जाना और प्रयास करना ही काफी है , फिर इनकी मात्र संतुलित रहती है।  मनुष्य शरीर  प्रयास से  स्वस्थ रहता है इतना तो आप भी मानेगे ! भाव  भी शरीर के अंदर पैदा हो रहे  रसायन के परिणाम है। और इन भाव से  कुछ प्रभाव भी शरीर पे ही पड  रहा है , ये  अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी।   संभवतः  जीवन की दौड़ या आपाधापी में  इतना सोचने का समय ही कहाँ मिलता है।  और समय मिलता है  तो और सब मनोरंजन में  रहना मन को भी और बुद्धि को भी भाता है।

पर एक  अवस्था  ऐसी भी  है जब मन इतना अधिक विचलित और चलायमान होता है की मानसिक  और शारीरिक  स्वस्थ्य प्रभावित होने लगता  है , रोज मर्रा  की दिनचर्या पे  ये भाव छाने लगते है।  आप स्वयं को भी नहीं पहचान पाते , की आखिर ऐसा क्यों ? यही प्रश्न दिमाग को घेरने लगता है , और तभी  उपाय की तरफ ह्रदय भागता है।


मित्रो ! ये एक ऐसी अवस्था है , जब ह्रदय  किसी भी तरह से  बस सुकून पाना चाहता  है और इसके लिए सिर्फ समय ही नहीं  धन भी मायने नहीं रखता।  पर यही वो पड़ाव भी है  जब आप भटकते है , और सुकून धन दोनों खोते है।  फिर लुटपिट के सोचते है की शायद  मेरा भाग्य ही ऐसा है !

नहीं नहीं !  यहाँ थोड़ा विराम की आवश्यकता है ।   थोडी  गहरी सांँसो  की आवश्यकता है।  और पुनः अंतर्मन मंथन की आवश्यकता है , हारने की नहीं , ये सोचने की आवश्यकता है की शायद  वो रस्ते मेरे नहीं , गलती से गलत रस्ते पे चले गए , तो क्या ,  सही रास्ता  भी है।  कहाँ !  आखिर  कहाँ है वो सही रास्ता ?

कहाँ है   दिया  जला  हुआ ? कहाँ  है वो सुगन्धित बगीचा  जिसका अक्सर  ज्ञानी चर्चा करते है  और अनुभवी अनुभव करते है ?

ओशो का कथन आपको  प्रेरणा  देगा : This pain is not to make you sad, remember. That's where people go on missing....This pain is just to make you more alert 

तो चलिए आज वही  उसी सुगन्धित बगीचे में  सैर को चलते है ,

चलने से पहले  अपने सभी शारीरिक भी  और मानसिक अथवा आत्मिक भी ! सारे अतिरिक्त  बोझ  को रख दीजिये  एक किनारे , वो ही साथ रहिये जो आवश्यक है  , एक दम सरल  और सहज हो के अपना स्थान ले लीजिये , सुन्दर संगीत  हल्का हल्का  धीमा धीमा बजने दे , और शरीर  मन बुद्धि से  पार  करें स्वयं को ! आप स्वयं में  सुन्दर अति सहज और सरल है , ये शरीर  के  तत्व आपकी सरलता का फ़ायदा उठा रहे है , आपको अनावश्यक प्रेरित  करते है  और जिनके परिणाम आपको लेने पड़ते है , जिनके लिए आप बिलकुल राजी नहीं। अपने को सांत्वना नहीं देनी है , वरन  वास्तविक स्वरुप को  देखना है , और स्वयं का ही नहीं अपने स्वरुप को देखने के बाद , सभी में उसी दिव्यता को जानना है।

( आपका यही भाव  आपको  और भी सरल बनाएगा , ज्ञान के आते ही  सभी बाह्य गतिविधिया  जो  घाव देती थी , पीड़ा देती थी , आपका  साक्षी भाव  उनमे  मात्र  पल पल बदलने वाली माया  के दर्शन करेगा )

आईये !

संगीत के साथ , साँसों की लय  को स्थिर करें , धीरे  धीरे , साँसों को गहरा होने दें। . और गहरा। …… और गहरा।  आप सांस  ले भी रहे है ये भी अब आपका कार्य नहीं  साँसे स्वयं को  स्थिर कर रही है ! आप तो
धमनियों में उत्तर चुके है , नदियों के स्पंदन को आप जी रहे है।  एक लौ जीवन की परमात्मा की  थरथरा रही है उसको स्थिर होना है , आपके अपने द्वारा  आपकी ही ऊर्जा को शक्ति मिलेगी

आनंद  है यहाँ  शांति है , कीटाणु सहमे है कोई उनको देख रहा है !

अब  वे कीटाणु  जो विषाक्त है  उनके बाहर  निकलने का समय है , साँसों के द्वारा   शीतल  जीवनदायिनी ऊर्जा अंदर जा रही है ,यदि  मुठी  बंद है तो  मुठी को खोल  दीजिये , भाव कीजिये  आपके  अंदर डेरा डाले विषाणु  बाहर निकल रहे है , और आप हल्का  महसूस कर रहे है।  कुछ देर  तलाश कीजिये  और उनको बाहर जाने दीजिये।  मुठी एकदम खोलनी है  उनके लिए जिनका  आपके शरीर पे  दुष्प्रभाव के अलावा कोई औचित्य ही नहीं।


क्या क्या देखना है !

क्रोध के उपजे कारणों को देखिये , लोभ से ग्रसित  विव्हल मन को देखिये , प्रतिस्पर्धा  विषाक्त  हो रही है उसके मूल कारण को देखिये , अपनी स्वस्थ क्षमता को देखिये ,  दमन  स्वस्थ नहीं  किसी का भी हो , यदि स्वयं के लिए  या बाहर किसी व्यक्ति के लिए , यहाँ तक बच्चे के लिए  यदि शासन का भाव  आरहा है , उसको देखिये , कही  आवश्यकता से अधिक आपने  अपने मस्तिष्क का उपयोग तो नहीं किया ? कष्ट के कारन तो  स्वयं ही जाने जा  सकते है।  यहाँ तो सिर्फ उदाहरण ही है।  बाहर के कारणों पे विमर्श बिलकुल नहीं , सब अपने अंदर बदलाव की स्थति है , स्वीकार की स्थति है , क्रोध  के कारन  जरुर अपने ही अंदर है , लोभ है , मोह है  इनके कारन भी अपने ही अंदर है , स्वयं ही स्वयं को बल देना है।  इसका अवश्य ध्यान रख्हें !

* ध्यान रखियेगा , आप सिर्फ अनावश्यक तत्व को अपने से अलग कर रहे है , अति आवश्यक तत्व  एक ही है और वो है आप स्वयं के लिए।  और आपका सीमित समय।  जो कोई न बढ़ा सकता है न कम कर सकता है। अपना जीवन  स्वयं ही जीना होता है , तो इसकी आवश्यकता को समझ स्वयं की जीवन दिशा को जानना आवश्यक है।  स्वयं से प्रेम करना आवश्यक है।  यदि आप स्वयं से प्रेम नहीं कर पाये  तो और बाहर कैसे मिलेगा ? बाहर तो मात्र दर्पण है  आपके अपने भाव का और कर्म का।

और गहरे उतरिये ,

ध्यान में

अब मुठी बंद करनी  है  उनके लिए  जो आपके लिए हितकारी है ,  जैसे ही अमृत तत्व का विचार बने  मुठी बंद कीजिये ' , इस भाव के साथ ये मेरा अपने  है , और मेरे ही रहेंगे !



धीमा  मनोहारी संगीत  बज रहा है , ध्यान  अति सुखद है , आपकी यात्रा जारी है , दस मिनट , पंद्रह मिनट, पचीस मिनट, जब तक  आपका ह्रदय  कहे   आपको यात्रा  करनी हो कीजिये , फिर सहज वापिस आना है जैसे गए थे।

ध्यान का कुल प्रयोगीक अर्थ  , संसार  बदलने के लिए  नहीं स्वयं के अंदर परिवर्तन के लिए है , वो भी सुखद ! स्वयं को  स्वयं की वास्तविकता  से जोड़ने का दूसरा नाम ध्यान है।  जितना अधिक प्रकति से जुड़ेंगे , उतना अधिक प्रकृति आपको सहयोग करेगी।  

एक दिन  आप पाएंगे की ह्रदय और मन परिवर्तन के साथ ही , परिस्थतियां भी बदलने लग गयी , क्यों ? क्यूंकि बाहर जो भी था , वो आपके  अंतर्मन  के  सुख और दुःख के उद्वेगों के   कारन था , लहरें सिर्फ अनवरत उठती ही नहीं थी , आपको  भिगोती भी थी , और आस पास छींटे भी बिखेरती थी , जिस कारन छोटे छोटे  बदबूदार पानी के  गड्ढे  बन गए थे।

अब आपने उठती  लहरो का स्रोत  जान लिया , तो अब इतना वेग से उठेंगी ही नहीं  शांत जल  है स्थिर जल है। न आपको भिगोयेगा , न चोट पहुंचाएगा  और न ही पानी गड्डो में सड़ेगा।

ध्यान के समय  मनःस्थति  को सिर्फ जानना है , चयन करना है (लोभ से नहीं  बुद्धि से )  जिनको विदा देना है हाँथ  को पूरा खोलना है , हथेली  आसमान की तरफ  और जिनको  अपनानां है  संकल्प के साथ मुठी को बंधना है। आपके  अंदर  समस्त शक्ति है।  ध्यान में परम ऊर्जा आपको  सीधा शक्ति देती है। प्रकृति आपकी साक्षी भी है और सहायक भी।

एक बात  अवश्य ध्यान रखियेगा , ध्यान में असीमित शक्ति है , आपकी ऊर्जा  जिस  तत्व आव्हान करेंगी, आपके अंदर वो ही शक्तियां प्रवेश करेगी।  और ये कोई जादू नहीं , प्रकृति का नियम है , जिसके अंदर आप हम सभी आते है।  और ये हठयोग भी नहीं , सिर्फ ज्ञान योग है , समर्पण योग  है  और भक्ति योग है।


आहिस्ता  आहिस्ता , एक एक करके  ध्यान के साथ  सीढियाँ चढ़ते जाना है , एक दिन जब आप  उस छोटी पे पहुँच  जाये  जहां  मन बुद्धि निर्भार  हो जाये , मन फूल जैसा हल्का , बगीचा आपके हृदय में खिेलगा और दीप भी जल उठेगा ( या यूँ कहिये  की स्वयं को दिखने लगेगा , वस्तुतः था तो पहले से )

* स्वयं को जानिए
* दुर्गुणों  और सगुणो को जानिए
* प्रकृति के साथ एकलयता  बनाइये
* माया  स्पष्ट हो जाएगी

और माया देवी के स्पष्ट होते है , बाकि सब  बाह्य आवरण स्वयं ही गिर जायेंगे , और  ये दिव्य बगीचा काल्पनिक नहीं ! सत्य है !

जो भी  आपको आज तकलीफ देता है  वो मात्र अज्ञानता के कारन !  ज्ञान होना ही कष्टो का समाप्त होना है।

और ये भी की ज्ञानी मूर्ख नहीं होता , बस सहज होता है , और जैसे बालक केखेल से  बड़े विचलित नहीं होते ऐसे ही मूर्खो और अज्ञानियों के खेल से  ज्ञानी विचलित नहीं होते !

असीम शुभकामनाओ के साथ

ओम                     ॐ                       ओम 

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