Wednesday, 26 March 2014

तुम जिस राम की पूजा कर रहे हो उसमें निन्यानबे प्रतिशत तुम्हारी कल्पना है।Osho

गौतम बुद्ध बयालीस वर्ष तक सतत बोले। 

और इस बयालीस वर्ष में उन्होंने क्या  समझाया लोगों को--चोरी मत करो! 

बेईमानी मत करो! पर-स्त्री को न भगाओ! हिंसा न करो! आत्महत्या न करो! 

क्या तुम सोचते हो स्वर्णयुग रहा होगा, जहां गौतम बुद्ध को बयालीस साल निरंतर समझाना पड़ा--

चोरी न करो, बेईमानी न करो, आत्महत्या न करो, 
दूसरे की स्त्री न भगाओ, अपनी ही स्त्री से राजी रहो, इतना ही काफी है! 

अगर स्वर्णयुग था तो इतने चोर बुद्ध को मिले कहां? अगर स्वर्णयुग था 

और कोई किसी की स्त्री भगा ही नहीं रहा  था, तो बुद्ध किसको समझाते थे 

कि दूसरों की स्त्रियां मत भगाओ? दिमाग खराब था? 
होश में थे कि सन्निपात में बक रहे थे? बयालीस साल सन्निपात भी नहीं चलता। 

और  रोज सुबह से सांझ बस यही शिक्षण। और हजारों लोग सुनते थे। 

जरूर बात में कोई सार्थकता  होगी।

पुराने से पुराने ग्रंथ भी तो वही नीति की बातें करते हैं जो आज तुम कर रहे हो।

यहूदियों की पुरानी किताब और उनकी दस आज्ञाएं क्या कहती हैं? यही, जो हम आज कहते हैं।

कोई फर्क नहीं हुआ। अगर इलाज नहीं बदला है तो बीमारी कैसे बदली होगी? 

अगर इलाज वही है तो बीमारी भी वही रही होगी। यह पर्याप्त प्रमाण है। 

और दूसरों की स्त्रियां भगाई जा रही थीं। 

अरे औरों की बात छोड़ दो, राम तक की स्त्री को लोग भगा कर ले गए! और तुम स्वर्णयुग कहते हो।

साधारण गरीब आदमी की, किसी चमार की, किसी भंगी की, इसकी स्त्री की क्या  कीमत! 

जब राम तक की स्त्री को भगा कर ले गए तो जगजीवनराम की स्त्री कौन फिक्र  करेगा! 

कि चौधरी जी, तुम तो चुप रहो! अरे राम की नहीं बची, तुम किस खेती की मूली हो!  

अपने घर बैठो, चरखा कातो!

क्या-क्या खेल हो रहे थे! 

और रावण तो बुरा आदमी था, माने लेते हैं कि बुरा आदमी था, 

जैसा  कि कहानियां कहती हैं, भगा ले गया होगा। 

राम तो भले आदमी थे। लक्ष्मण तो भले आदमी थे। 

शूर्पणखा ने, रावण की बहन ने लक्ष्मण को निवेदन किया कि मुझसे विवाह करो। 

आव देखा न ताव, बड़े भैया की आज्ञा ली कि काट दूं इसकी नाक? और बड़े भैया बोले, हां!
कोई बात हुई, कोई शिष्टाचार हुआ? 

कि हेमामालिनी तुम्हें मिल जाए और कहे कि मुझे आप से  विवाह करना है 

और तुम उसकी नाक काट लो ! 

नहीं करना था, कह देते--नहीं करना।  

कि बाई  माफ कर, कि मैं पहले ही से विवाहित हूं। 

नाक काटने का सवाल ही कहां उठता है? और रामचंद्र 
जी भी स्वीकृति दे दिए कि हां, मत चूक चौहान ! 

ऐसा शुभ अवसर मत चूक ! राम तो अच्छे आदमी हैं। 

इनमें तो कुछ बुराई दिखाई पड़ती नहीं, ये तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। 

लेकिन जब मैं यह पढ़ता हूं कि राम ने आज्ञा दे दी नाक काटने की--

एक स्त्री की, जिसका  कोई कसूर न था। इसमें कोई कसूर है? 

अब किसी को किसी पर प्रेम आ जाए, इसमें कोई  कसूर है? 

अरे सीधा तो रास्ता है कि कह देते कि माफ करो, मैं विवाहित हूं, कहीं और तलाश  करो; 

कि जरा देर से आईं, पहले आतीं तो सोचता। 

लेकिन उसकी नाक काटने का तो कोई भी न्याय नहीं है। 

और ये मर्यादा पुरुषोत्तम ने भी कह दिया कि हां, काट ल
फिर भी मैं देखता हूं कि रावण ने इसका बदला नहीं लिया।

नहीं तो सीता की नाक तो काट ही सकता था। 

यह तो बिलकुल ही न्यायसंगत होता। 

इसमें कोई बुराई की बात न होती। 

लेकिन सीता को रावण ने छुआ भी नहीं। 

और रावण को तुम जलाए चले जा रहे हो और स्वर्णयुगों की बातें कर रहे हो, 

सतयुगों की बातें कर रहे हो!


और पीछे लौटो, परशुराम हुए। 

उन्होंने पृथ्वी को सोलह दफे क्षत्रियों से खाली कर दिया। 

ऐसी कटाई की! घास-पात भी आदमी काटता है तो थोड़ा हिसाब रखता है। 

उन्होंने घास-पात की तरह क्षत्रियों की कटाई कर दी। फिर भी स्वर्णयुग था!

नहीं कभी कोई स्वर्णयुग था। न हीं कभी कोई सतयुग था। 

लेकिन मामला यूं है कि आदमी कामन दुख को विस्मृत करता है। 

दुख ऐसे ही काफी है, अब उसको और क्या स्मरण करना ! 

तो  कांटों को भूलता जाता है, फूलों को चुनता जाता है। 

चुनता ही नहीं, उनको खूब सजाता है, रंगता है, बड़े करता है, सुंदर बनाता है।

तुम जिस राम की पूजा कर रहे हो उसमें निन्यानबे प्रतिशत तुम्हारी कल्पना है। 

तुम जिस  महावीर की पूजा कर रहे हो उसमें निन्यानबे प्रतिशत तुम्हारा सपना है।

तुम पत्थर की बनाईगई मूर्ति की ही पूजा नहीं कर रहे हो, 

कि कारीगर ने पत्थर की मूर्ति बनाई और तुम उसकी पूजा  कर रहे  हो  

तुमने उस मूर्ति में जो प्राण-प्रतिष्ठा की है, वह भी काल्पनिक है। 


जैन कहते हैं कि महावीर के शरीर से पसीना नहीं बहता।
पागल हो गए हो! 

चमड़ी थी कि प्लास्टिक? कुछ होश-हवाश की बातें करो! 

चमड़ी में तो छिद्र हैं। और छिद्रों का उपयोग ही यह है कि उनसे पसीना बहे। 

और बिहार में पसीना न बहता हो, हद हो गई! तो फिर पसीना कहां बहेगा? 

कोई साइबेरिया में बहेगा? तिब्बत में बहेगा?


और महावीर स्नान नहीं करते। 


क्योंकि स्नान करने से, पानी में छोटे-छोटे जीव-जंतु हैं, वे मर जाएंगे।

बिहार की धूल-धवांस से मैं परिचित हूं। 

बिहार की गर्मी, बिहार की धूल-धवांस,  नंग-धड़ंग महावीर का घूमना, कपड़े-लत्ते भी नहीं, 

धूल की पर्तों पर पर्तें जम गई शायद इसीलिए पसीना न बहता हो, 

यह हो सकता है। लेकिन पसीना भीतर ही भीतर कुलबुलारहा होगा 

और दुर्गंध भयंकर उठती होगी। क्योंकि दतौन भी नहीं करते वे, नहाते भी नहीं।


पसीना सफाई कर देता है बह कर, रंध्रों पर जम गई धूल को बहा ले जाता है। 


जैसे आंख में धूल पड़ जाए तो आंसू आ जाते हैं। आंसू का मतलब है कि धूल को बहाने की तरकीब।

वह धूल को बहा कर ले जाता है आंसू। 

ऐसे ही पसीना तुम्हारे शरीर पर जमी हुई धूल को बहा कर ले जाता है। 

वह प्राकृतिक व्यवस्था है। लेकिन हमारी कल्पनाओं के जाल! 

मने ऐसे जाल बिछा रखे हैं--झूठे जाल, जिनमें कोई सचाई नहीं। 

हमारी मूर्तियां झूठी, मूर्तियों में की गई प्राण-प्रतिष्ठा झूठी।

लेकिन कारण है। कारण यह है कि हम इतने दुख में जी रहे हैं कि हमें कोई तो आशा चाहिए, 

कोई तो दीया चाहिए, कहीं से तो रोशनी मिले--काल्पनिक ही सही। 

आंख बंद करके हम कल्पना ही कर लेते हैं दीये की, तो भी राहत मिलती है, 

तो भी थोड़ा भरोसा आता है कि अगर कल दीये जले थे तो कल फिर जल सकते हैं।

आदमी जीता है आशा के भरोसे। 

मगर सचाई यह है कि आदमी दुख ही दुख में जीता है।

सुख मेंतो थोड़े से लोग पहुंचे हैं। वे वे ही लोग हैं जिन्होंने अपने को खोने की हिम्मत की। 

अपने को खोने की हिम्मत का अर्थ होता है: अहंकार को विसर्जित करना। 

यूं समझो कि सारे दुखों को एक शब्द में निचोड़ कर रखा जा सकता है, 

वह शब्द है--अस्मिता, अहंकार, मैं-भाव। 

Osho 
Apui Gai Hira - 01

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