गुरु स्वेक्छा से अपना समर्पण दे रहा है , क्यूंकि वो तुममे ईश्वर तत्व देख रहा है ! उचित है। परन्तु वास्तविक शिष्य / भक्त / सखा का क्या दायित्व है?
कृष्णा ने कहा था ,' तुम अपनी निजता में आरूढ़ हो जाओ। इस अवस्था को ही स्थिर-प्रज्ञ कहते हैं ' , जब तुम इतने समर्थ और बलशाली हो जाओ कि ईश्वर से प्रेम करने लगो याचना नहीं। जब गुरु पे निर्भरता समाप्त हो जाये। जब मुक्ति के लिए कातर दयनीय प्राथनाएं ईश्वर से समाप्त हो जाएँ। और यदि इस में किसी भी गुरु का सहयोग शामिल है तो वो वास्तविक गुरु है। वास्तविक गुरु आत्म निर्भरता सिखाता है, एक माता के सामान जैसे माँ अपने बालक को चलना सिखाती है ताकि भविष्य में इस बालक को किसी का हाथ पकड़ के चलना न पड़े। ऐसा ही कार्य गुरु भी करते है। इसीलिए गुरु में सारे सम्बन्ध समाये है। पिता का पोषण , माता का स्नेह , भाई का प्रेम और सखा का सहयोग।
पर यदि कोई व्यापारिक दृष्टि से फ़क़ीर की मजार पे व्यवसाय करे , फिर कोई भी मजार हो तो उस पुरोहित / पुजारी कि चालाकियों से और छलों से सावधान हो जाना . क्युकी फ़क़ीर व्यवसायी नहीं हो सकता। सावधान ! ये पुजारी है जो सहारे का प्रलोभन दे रहा है। ........
दूसरे को तो तुम बारबार सचेत कर नहीं सकते चाह के भी नहीं कर पाओगे ,हाँ यदि करुणा के कारण सावधान कर सकते हो , परन्तु ध्यान रहे सूचना से अधिक प्रयास नहीं। सबसे कठिनतम और सरलतम योजना है स्वयं को अनुशासित करना , यहाँ भी स्व चेतना की आवश्यकता है। बीज मंत्र याद रखो ! सजगता , सहजता , सचेतता और सतर्कता।
गुरु यदि स्वेक्छा से अपना समर्पण दे रहा है , तो ये उसका बड़प्पन है इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं कि तुम उसे दास समझो, कुछ यूँ कि सुदामा के प्रेम में अगर कृष्णा ने उसके चरण धोये तो सुदामा को अहंकार नहीं करना चाहिए , और ना ही बेजा फ़ायदा उठाने का खयाल उचित है सुदामा ने ऐसा किया भी नहीं क्यूंकि सुदामा भी कृष्ण से कम नहीं , ईश्वर यदि करुणा युक्त है तो उसका धन्यवाद दो। जीवित या समाधिस्त गुरु यदि करुणावश कृपा करना चाहता है तो उसका भी धन्यवाद दो और आभार महसूस करो। प्रकृति को धन्यवाद दो , जिसने इतनी योजना बनायीं है तुम्हारे लिए।
कृष्णा ने कहा था ,' तुम अपनी निजता में आरूढ़ हो जाओ। इस अवस्था को ही स्थिर-प्रज्ञ कहते हैं ' , जब तुम इतने समर्थ और बलशाली हो जाओ कि ईश्वर से प्रेम करने लगो याचना नहीं। जब गुरु पे निर्भरता समाप्त हो जाये। जब मुक्ति के लिए कातर दयनीय प्राथनाएं ईश्वर से समाप्त हो जाएँ। और यदि इस में किसी भी गुरु का सहयोग शामिल है तो वो वास्तविक गुरु है। वास्तविक गुरु आत्म निर्भरता सिखाता है, एक माता के सामान जैसे माँ अपने बालक को चलना सिखाती है ताकि भविष्य में इस बालक को किसी का हाथ पकड़ के चलना न पड़े। ऐसा ही कार्य गुरु भी करते है। इसीलिए गुरु में सारे सम्बन्ध समाये है। पिता का पोषण , माता का स्नेह , भाई का प्रेम और सखा का सहयोग।
पर यदि कोई व्यापारिक दृष्टि से फ़क़ीर की मजार पे व्यवसाय करे , फिर कोई भी मजार हो तो उस पुरोहित / पुजारी कि चालाकियों से और छलों से सावधान हो जाना . क्युकी फ़क़ीर व्यवसायी नहीं हो सकता। सावधान ! ये पुजारी है जो सहारे का प्रलोभन दे रहा है। ........
दूसरे को तो तुम बारबार सचेत कर नहीं सकते चाह के भी नहीं कर पाओगे ,हाँ यदि करुणा के कारण सावधान कर सकते हो , परन्तु ध्यान रहे सूचना से अधिक प्रयास नहीं। सबसे कठिनतम और सरलतम योजना है स्वयं को अनुशासित करना , यहाँ भी स्व चेतना की आवश्यकता है। बीज मंत्र याद रखो ! सजगता , सहजता , सचेतता और सतर्कता।
गुरु यदि स्वेक्छा से अपना समर्पण दे रहा है , तो ये उसका बड़प्पन है इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं कि तुम उसे दास समझो, कुछ यूँ कि सुदामा के प्रेम में अगर कृष्णा ने उसके चरण धोये तो सुदामा को अहंकार नहीं करना चाहिए , और ना ही बेजा फ़ायदा उठाने का खयाल उचित है सुदामा ने ऐसा किया भी नहीं क्यूंकि सुदामा भी कृष्ण से कम नहीं , ईश्वर यदि करुणा युक्त है तो उसका धन्यवाद दो। जीवित या समाधिस्त गुरु यदि करुणावश कृपा करना चाहता है तो उसका भी धन्यवाद दो और आभार महसूस करो। प्रकृति को धन्यवाद दो , जिसने इतनी योजना बनायीं है तुम्हारे लिए।
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