धर्म , अध्यात्म और दर्शन तीनो में ही इन चित्तवृत्तियों की तुलना बेकाबू भागते घोड़ों से की गयी है। जिनको वश में करना है , परन्तु कैसे ? ये तो इतने बलिष्ठ हैं कि अनुभवहीन अज्ञानी को गिरा के उसके ऊपर से उसको रौंदते हुए निकल जाते है ..... और ये वृत्तियाँ जब रौंदती है , तो सिर्फ आत्मघात के लिए ही नहीं प्रेरित करती वरन मरणासन्न अवस्था में इस उलझी हुई जीवात्मा को रेगिस्तान में ले जा के पटक सकती है , जहाँ अपनी ही बनायीं मृगमरीचिका में जीव उलझा हुआ छटपटाता और भटकता रह जाता है ।
और मजे की बात ये है कि सिर्फ भारतीय दर्शन में ही नहीं संसार के सभी विचारों में इन वृत्तियों की तुलना बेकाबू घोड़ों से गयी है वरन पुरातन संस्कृतियों में स्थापित चीन में भी इसी वृती को सांप और घोड़े की मिली जुली शक्ल से कहने की चेष्टा की गयी है वो भी यही है ," विषैले साँप जैसे जहरीली और हज़ार घोड़ों का बल जिनमे समा गया है ," ऐसी है ये बेकाबू वृत्तियाँ।
पहला स्व_ज्ञान ही इन अश्वों की रफ़्तार पे काबू कर सकता है , दूसरा ; बेकाबू भागते घोड़ों की रफ़्तार पे काबू एक झटके में नहीं , प्यार से सहला सहला के पुचकार के की जाती है। तीसरा अति प्रमुख , ये जितनी भी है सब प्रकति प्रदत्त वृत्तियाँ है , और प्रकृति प्रदत्त का मतलब ही है कि आप इनको मिटा नहीं सकते , समाप्त नहीं होंगी , सिर्फ काबू में होंगी , आपकी पालतू हो सकती है।
तो चित्त वृत्ति निरोध यदि शाब्दिक रूप से समझना चाहे तो बिलकुल गलत है , निरोध तो सम्भव ही नहीं। परन्तु इस अर्थ में ले कि निरोध करते करते एक दिन इनपे काबू पा के सवारी करना आ ही जायेगा। इस अर्थ में चित्त वृत्ति निरोध भी लिया जा सकता है। परन्तु वास्तविकता यही है कि इनपे सिर्फ काबू करके संतुलन ही स्थापित किया जा सकता है।
चित्त वृत्तियाँ ऐसा नहीं कि सिर्फ पीड़ित दुखी या संतप्त की ही होती है। ये वृत्तियाँ इसी लिए प्राकतिक है क्यूंकि इनको बाटने में प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया। ये सभी चराचर जीवों में पायी जाती है। कहीं इनका प्रकटीकरण है तो कहीं सुप्त अवस्था में है।
जीवों में मनुष्यों में इनका प्रकटीकरण बहुआयामी है , अधोगति भी है और उच्च अवस्था भी है। इस भाव के साथ जो उच्च अवस्था है वो भी वृत्तियाँ ही है , वृत्ति से परे जीव है ही नहीं।
अंतर सिर्फ इतना है की अधोगति कि ओर अग्रसर एक जीव वृत्तियों के अंदर ही हिचकोले ले रहा है और उछगति की ओर बढ़ता हुआ जीव वृत्तियों को बाहर से देखने और समझने के योग्य है।
इतना ही अंतर है ज्ञानी और अज्ञानी में। प्रबुद्ध कौन है ! और कैसे हर जीव में प्रबुद्ध होने की सम्भावना है , ये भी समझाना अब इतना कठिन नहीं।
अंत में : --
कठिन अगर कुछ भी है तो स्वयं पे काबू पाना ( जो सरलतम भी है ) और दूसरा ये कि खुद भी जीवन जीना और दूसरे को भी वो ही जीवन जीने की छूट देना , फिर चाहे वो गुरु हो शिष्य हो , अजनबी या मित्र सम्बन्धी । जो भी पञ्च तत्वो की सीमाओं में है , उन सभी को जीवन के सामान अधिकार है।
और मजे की बात ये है कि सिर्फ भारतीय दर्शन में ही नहीं संसार के सभी विचारों में इन वृत्तियों की तुलना बेकाबू घोड़ों से गयी है वरन पुरातन संस्कृतियों में स्थापित चीन में भी इसी वृती को सांप और घोड़े की मिली जुली शक्ल से कहने की चेष्टा की गयी है वो भी यही है ," विषैले साँप जैसे जहरीली और हज़ार घोड़ों का बल जिनमे समा गया है ," ऐसी है ये बेकाबू वृत्तियाँ।
पहला स्व_ज्ञान ही इन अश्वों की रफ़्तार पे काबू कर सकता है , दूसरा ; बेकाबू भागते घोड़ों की रफ़्तार पे काबू एक झटके में नहीं , प्यार से सहला सहला के पुचकार के की जाती है। तीसरा अति प्रमुख , ये जितनी भी है सब प्रकति प्रदत्त वृत्तियाँ है , और प्रकृति प्रदत्त का मतलब ही है कि आप इनको मिटा नहीं सकते , समाप्त नहीं होंगी , सिर्फ काबू में होंगी , आपकी पालतू हो सकती है।
तो चित्त वृत्ति निरोध यदि शाब्दिक रूप से समझना चाहे तो बिलकुल गलत है , निरोध तो सम्भव ही नहीं। परन्तु इस अर्थ में ले कि निरोध करते करते एक दिन इनपे काबू पा के सवारी करना आ ही जायेगा। इस अर्थ में चित्त वृत्ति निरोध भी लिया जा सकता है। परन्तु वास्तविकता यही है कि इनपे सिर्फ काबू करके संतुलन ही स्थापित किया जा सकता है।
चित्त वृत्तियाँ ऐसा नहीं कि सिर्फ पीड़ित दुखी या संतप्त की ही होती है। ये वृत्तियाँ इसी लिए प्राकतिक है क्यूंकि इनको बाटने में प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया। ये सभी चराचर जीवों में पायी जाती है। कहीं इनका प्रकटीकरण है तो कहीं सुप्त अवस्था में है।
जीवों में मनुष्यों में इनका प्रकटीकरण बहुआयामी है , अधोगति भी है और उच्च अवस्था भी है। इस भाव के साथ जो उच्च अवस्था है वो भी वृत्तियाँ ही है , वृत्ति से परे जीव है ही नहीं।
अंतर सिर्फ इतना है की अधोगति कि ओर अग्रसर एक जीव वृत्तियों के अंदर ही हिचकोले ले रहा है और उछगति की ओर बढ़ता हुआ जीव वृत्तियों को बाहर से देखने और समझने के योग्य है।
इतना ही अंतर है ज्ञानी और अज्ञानी में। प्रबुद्ध कौन है ! और कैसे हर जीव में प्रबुद्ध होने की सम्भावना है , ये भी समझाना अब इतना कठिन नहीं।
अंत में : --
कठिन अगर कुछ भी है तो स्वयं पे काबू पाना ( जो सरलतम भी है ) और दूसरा ये कि खुद भी जीवन जीना और दूसरे को भी वो ही जीवन जीने की छूट देना , फिर चाहे वो गुरु हो शिष्य हो , अजनबी या मित्र सम्बन्धी । जो भी पञ्च तत्वो की सीमाओं में है , उन सभी को जीवन के सामान अधिकार है।
ॐ
रोचक
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteChit ke nirbal hone ke karna Bata digiye please
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