चौथा प्रश्न: क्या बुद्धपुरुष के होते हुए साधक को अपना स्वयं का समाधान खोजना अनिवार्य है?
समाधि उधार नहीं हो सकती। कोई तुम्हें दे नहीं सकता। कोई देता हो तो भूलकर लेना मत। वह झूठी होगी। समाधि तो तुम्हें ही खोजनी पड़ेगी। क्योंकि समाधि कोई बाह्य घटना नहीं, तुम्हारा आंतरिक विकास है।
धन में तुम्हें दे सकता हूं। धन बाहरी घटना है। लेकिन ध्यान रखना जो बाहर से दिया जा सकता है, वह बाहर से छीना भी जा सकता है। कोई चोर उसे चुरा लेगा। अगर दिया जा सकता है, तो लिया जा सकता है।
वह समाधि ही क्या, जो ली जा सके। जो चोर चुरा ले, डाकू लूट ले, इन्कम टैक्स, का दफ्तर उसमें कटौती कर ले, वह समाधि क्या! समाधि तो वह है, जो तुम से ली न जा सके। समाधि तो वह है, कि तुम्हें मार भी डाला जाए, तो भी समाधि को न मारा जा सके। तुम कट जाओ, समाधि न कटे। तुम जल जाओ, समाधि न जले। तुम्हारी मृत्यु भी समाधि की मृत्यु न बने। तभी समाधि है। नहीं तो क्या खाक समाधान हुआ!
तो फिर ऐसी समाधि तो कोई भी दे नहीं सकता, तुम्हें खोजनी होगी। बुद्धपुरुष भी नहीं दे सकते। अनिवार्य है, कि तुम अपना विकास खुद खोजो। हां, बुद्धपुरुष सहारा दे सकते हैं, उनकी मौजूदगी बड़ी कीमत की हो सकती है, उनकी मौजूदगी में तुम्हारा भरोसा बढ़ सकता है।
ऐसे ही जैसे मां मौजूद होती है तो छोटा बच्चा खड़े होने की चेष्टा करता है। उसे पता है, अगर गिरेगा तो मां सम्हालेगी। मां नहीं चल सकती बेटे के लिए; बेटे को ही चलना पड़ेगा। बेटे के पैर ही जब शक्तिवान होंगे तभी चल पाएगा। मां के मजबूत पैरों से कुछ न होगा। लेकिन मां कह सकती है कि हां, बेटा चल। डर मत, मैं मौजूद हूं। गिरेगा नहीं। मां थोड़ा हाथ का सहारा दे सकती है। खड़ा तो बेटा अपने ही भरोसे पर होगा, अपने ही बल पर होगा लेकिन मां की मौजूदगी एक वातावरण, एक परिवेश देती है। उस परिवेश में हिम्मत बढ़ जाती है।
मनोवैज्ञानिकों ने बहुत अध्ययन किए हैं। अगर बच्चों के पास परिवेश न हो प्रेम का तो वे देर से चलते हैं। अगर प्रेम का परिवेश हो, जल्दी खड़े होने लगते हैं। अगर प्रेम का परिवेश न हो, तो उन्हें बहुत देर लग जाती है बोलने में। अगर प्रेम का परिवेश हो, तो वे जल्दी बोलने लगते हैं। अगर उन्हें प्रेम बिलकुल भी न मिले तो वे खाट पर पड़े रह जाते हैं। वे पहले से ही रुग्ण हो जाते हैं। फिर उठ नहीं सकते, चल नहीं सकते। किसी ने भरोसा ही न दिया, कि तुम चल सकते हो।
बच्चे को पता भी कैसे चले, कि मैं चल सकता हूं? उसका कोई अनुभव नहीं, कोई पिछली याद नहीं। बच्चे को पता कैसे चले, कि मैं भी बोल सकता हूं? उसने अपने कंठ से कभी कोई शब्द निकलते देखा नहीं। हां, अगर प्रेम का परिवेश हो, कोई उसे उकसाता हो, सहारा देता हो, कोई कहता हो घबराओ मत; आज नहीं होता है, कल हो जाएगा। ऐसे ही हम भी चले, ऐसे ही हम भी गिरे थे, ऐसी चोट खानी ही पड़ती है, यह कोई चोट नहीं है, यह तो शिक्षण है। ऐसा कोई सहारा देता हो, प्रेम की हवा बनाता हो, तो चलना आसान हो जाता है, उठना आसान हो जाता है, बोलना आसान हो जाता है।
जो छोटे बच्चे के लिए सही है, वही साधक के लिए भी सही है। साधक छोटा बच्चा है आत्मा के जगत में। बुद्ध तुम्हें देते नहीं, दे नहीं सकते; सिर्फ तुम्हारे चारों तरफ एक प्रेम का परिवार बना सकते हैं। उस हवा में बहुत कुछ घट जाता है। तुमने कभी सोचा, कभी निरीक्षण किया? अगर दस आदमी प्रसन्न-चित्त बैठे हों, हंस रहे हों। गपशप कर रहे हों, तो तुम उदास भी हो, तो जल्दी ही उदासी भूल जाते हो। उनकी हंसी संक्रामक हो जाती है। वह तुम्हें छू लेती है। तुम भूल ही जाते हो, कि तुम उदास आए थे।
दस आदमी उदास बैठे हों, कोई मर गया हो, रो रहे हों, तुम गीत गुनगुनाते रास्ते से जा रहे थे। अचानक किसी ने कहा, कि कोई मर गया परिचित। वहां घर में गए हो, तुम एकदम उदास हो गए। हृदय बैठ गया। जैसे श्वास बंद हो गई। खून बहता नहीं, जम गया। क्या हो गया? एक हवा है वहां उदासी की।
इसलिए परिवार बनाए हैं बुद्धों ने। बुद्ध ने संघ बनाया। बुद्ध ने संघ के तीन सूत्र बनाए...पहला सूत्र था, बुद्धं शरणं गच्छामि कि मैं बुद्ध की शरण जाता हूं। लेकिन बुद्ध जब तक जीवित हैं, तब तक यह आसान होगा। बुद्ध के जीवित न होने पर साधारण आदमी को मुश्किल हो जाएगा, कि जो बुद्ध नहीं हैं उनकी शरण कैसे जाऊं? कहीं दिखाई नहीं पड़ते, अदृश्य हैं, चरण भी दिखाई नहीं पड़ते, शरण कैसे जाऊं?
तो बुद्ध ने दूसरा सूत्र बनाया--धम्मं शरणं गच्छामि। अगर बुद्ध नहीं हो तो धर्म की शरण जाना। लेकिन धर्म भी बड़ी वायवीय बात है, हवाई बात है। धर्म यानी नियम, जिससे जगत चल रहा है। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता।
तो बुद्ध ने फिर तीसरा सूत्र बनाया--सघं शरणं गच्छामि। संघ का अर्थ है: भिक्षुओं का संघ; परिवार।
बुद्ध सर्वाधिक सूक्ष्म बात है। बुद्धत्व का अर्थ है, धर्म को उपलब्ध, जाग कर उपलब्ध हुआ व्यक्ति। फिर बुद्ध से थोड़ा नीचे आएं, तो नियम, गणित विज्ञान की बात है--धर्म। फिर उससे और नीचे आए तो संघ, परिवार।
मुझसे लोग पूछते हैं, कि आप हजारों लोगों को संन्यास दे रहे हैं, क्या मतलब? क्या प्रयोजन? क्या आप का कोई इरादा है समाज को, दुनिया को बदलने का?
बिलकुल नहीं है। समाज को बदलने का कोई इरादा नहीं। दुनिया को बदलने का कोई इरादा नहीं। दुनिया कभी बदलती नहीं; बदलने की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि दुनिया भी चाहिए। जिनको उस ढंग से रहना है, उनके लिए वैसी दुनिया चाहिए। उतनी स्वतंत्रता चाहिए। बाजार को मिटा दोगे, अच्छा न होगा। रहने दो; कुछ लोगों को बाजार चाहिए। वे बाजार में ही जी सकते हैं, वे बाजार के ही कीड़े हैं। उनको कहीं और ले जाओ, वे मर जाएंगे। संसार जिनको चाहिए उनके लिए संसार है।
नहीं, ये जो हजारों लोगों को मैं संन्यास दे रहा हूं, यह एक संघ है, एक परिवार है, एक हवा है। जहां दस संन्यासी बैठेंगे वहां रंग बदल जाएगा। इसलिए तुम्हें लाल रंग दिया है। वह अग्नि का रंग है। वह लपट का रंग है। जिस को दादू लौ कह रहे हैं, उसका रंग है।
जहां दस संन्यासी बैठेंगे, वहां रस बदल जाएगा, वहां चर्चा बदल जाएगी, वहां हवा और हो जाएगी। तुम बात परमात्मा की करोगे। तुम बीज परमात्मा के बोओगे। तुम नाचोगे, तुम गाओगे, तुम उत्सव मनाओगे। वह जो उदास भी आया था, थका-मांदा आया था, पुनरुज्जीवित हो उठेगा।
एक परिवेश चाहिए। बुद्ध सिर्फ परिवेश देते हैं, इशारा देते हैं, सहारा देते हैं। चलना तुम्हें है, पाना तुम्हें है, खोजना तुम्हें है। मोक्ष कोई दूसरा दे भी कैसे सकता है। अन्यथा वह क्या खाक मोक्ष होगा। वह तुम्हारा अंतर-विकास है। वह तुम्हारे अंतरतम की आत्यंतिक अवस्था है।
इससे निराश मत होना। उसे सहारा दिया जा सकता है, उसे बड़ा सहारा दिया जा सकता है। और अगर तुम अपने गुरु के प्रेम में हो, तो सहारा ही सहारा है।
Piv Piv Lagi Pyas - 08
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