कहना सुनना भी एक अजीब सी प्रक्रिया है , लोग कहते भी रहते है और लोग सुनते भी रहते है , जिससे भी सुनिये एक ही खलिश है , कि मेरी कोई नहीं सुनता , इस का क्या मतलब ? कि सभी कह रहे है , और सुनिये दूसरी खराश कि मैं तो सुन रहा हूँ तुम को ही बोलना नहीं आया। वाह भाई वाह !! नतीज़ा सभी कह रहे है और सभी सुन रहे है। और यहाँ बोलचाल का गणित कहता है कि सिर्फ शोर पैदा होना चाहिए। और वो ही हो रहा है।
शब्द का अपना मजाक है ,बोलते ही झूठा हो जाता है , कहते कुछ है सुनायी कुछ देता है और समझ में कुछ और ही आता है , पता नहीं क्या अर्थ है भाषा का , जब की एक भी भाव पूरी तरह व्यक्त ही नहीं हो पाते। फिर भी भाषागत साहित्यिक प्रयास चले जा रहे है , पूरे संसार में भाषाएँ और समृध्द होती जा रही है नित नए प्रयोग और शब्द जुड़ते जा रहे है और अभिव्यक्ति उतनी ही दुर्बल।
माँ बाप के लिए बच्चा नासमझ , बच्चे के लिए माँ बाप हठी , संसार के लिए व्यक्ति और व्यक्ति के लिए संसार अभेद्य , स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री अबूझ , गुरु शिष्य के साथ अपना माथा पच्ची कर कर के संसार से विदा ले लेता है और शिष्य अपने ख़राब हुए माथे से अगले का माथा पच्ची करने कि पूरी योजना बना लेता है। धरती के लिए इंसान मुसीबत कर रहा है तो धरती इंसानो के लिए असुरक्षा पैदा कर रही है , एक दूसरे के पूरक हो रहे है सभी लोग , कड़ियों में कड़ियाँ सदियों से जुडी है , एक लम्बी श्रंखला का निर्माण हो चुका है।
मौन जितना समझने योग्य और साहसी प्रयास है , वार्तालाप उतने ही दुर्गम और दुरूह। मौन का एक विचार पता नहीं कब शब्द का रूप लेले और शब्द वाक्य तथा ये वाक्य तर्क में बदल जाये , तर्क पता नहीं कब दर्रे की शक्ल ले ले और सारी उम्र उस दर्रे को भरने में निकल जाये ,
जब भगवान् के प्रयास नहीं सफल हुए तो हम तो इंसान है। देववाणी वेद , धर्म शास्त्र , गीता , भागवद- पुराण रामायण इनकी जितनी व्याख्याएं हुई है , इनको समझने के प्रयास के कारन ही , और मजे कि बात अगर समझ के ही छोड़ देते तो भी इतनी व्याखाएं इकठा न होती , समझाने का प्रयास भी इन्ही में शामिल हो गया। लो जी, हो गया ज्ञान का संग्रह। कृष्ण ने , नितांत घने मौन के क्षणों में अर्जुन को गीता समझायी थी ऐसा चमत्कार मौन और प्रगाढ़ श्रध्हा में ही सम्भव है , शायद उसके बाद उतने मौन में जो सुन सका वो ही समझ पाया , बाकि तो मत और तर्क इकठे होते गए। यही उपहास रामायण के साथ हुआ। जो लिखा गया वो घने आंतरिक क्षणो में लिखा गया , जिसकी व्याख्या करते करते , एक अलग ही रूप धर्म ग्रंथो का बन गया। और हमारे पुरे प्रयास आज भी यही है कि पहले से ही व्याख्यित धर्म ग्रंथो को और अधिक व्याख्या में बांधे जा रहे है , मूल में उतरना है , यदि गंगा का निर्मल शीतल स्वक्छ जल पीना है तो गोमुख जाना ही है। वेद पुराण आज भी शब्दो के माध्यम से समझने और समझाने का सबसे अधिक व्यस्त कार्यक्रम बने हुए है और फिर भी न जान पाने योग्य , क्लिष्ट और अनबूझ है। क्यूँ ?
इसी लिए कहा मैंने कि जब ईश्वर के सीधे प्रयास शब्दो से हमको नहीं समझा पाये , तो हम किसको क्या समझा पाएंगे ? वो भी भाषा से !
शब्द का अपना मजाक है ,बोलते ही झूठा हो जाता है , कहते कुछ है सुनायी कुछ देता है और समझ में कुछ और ही आता है , पता नहीं क्या अर्थ है भाषा का , जब की एक भी भाव पूरी तरह व्यक्त ही नहीं हो पाते। फिर भी भाषागत साहित्यिक प्रयास चले जा रहे है , पूरे संसार में भाषाएँ और समृध्द होती जा रही है नित नए प्रयोग और शब्द जुड़ते जा रहे है और अभिव्यक्ति उतनी ही दुर्बल।
माँ बाप के लिए बच्चा नासमझ , बच्चे के लिए माँ बाप हठी , संसार के लिए व्यक्ति और व्यक्ति के लिए संसार अभेद्य , स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री अबूझ , गुरु शिष्य के साथ अपना माथा पच्ची कर कर के संसार से विदा ले लेता है और शिष्य अपने ख़राब हुए माथे से अगले का माथा पच्ची करने कि पूरी योजना बना लेता है। धरती के लिए इंसान मुसीबत कर रहा है तो धरती इंसानो के लिए असुरक्षा पैदा कर रही है , एक दूसरे के पूरक हो रहे है सभी लोग , कड़ियों में कड़ियाँ सदियों से जुडी है , एक लम्बी श्रंखला का निर्माण हो चुका है।
मौन जितना समझने योग्य और साहसी प्रयास है , वार्तालाप उतने ही दुर्गम और दुरूह। मौन का एक विचार पता नहीं कब शब्द का रूप लेले और शब्द वाक्य तथा ये वाक्य तर्क में बदल जाये , तर्क पता नहीं कब दर्रे की शक्ल ले ले और सारी उम्र उस दर्रे को भरने में निकल जाये ,
जब भगवान् के प्रयास नहीं सफल हुए तो हम तो इंसान है। देववाणी वेद , धर्म शास्त्र , गीता , भागवद- पुराण रामायण इनकी जितनी व्याख्याएं हुई है , इनको समझने के प्रयास के कारन ही , और मजे कि बात अगर समझ के ही छोड़ देते तो भी इतनी व्याखाएं इकठा न होती , समझाने का प्रयास भी इन्ही में शामिल हो गया। लो जी, हो गया ज्ञान का संग्रह। कृष्ण ने , नितांत घने मौन के क्षणों में अर्जुन को गीता समझायी थी ऐसा चमत्कार मौन और प्रगाढ़ श्रध्हा में ही सम्भव है , शायद उसके बाद उतने मौन में जो सुन सका वो ही समझ पाया , बाकि तो मत और तर्क इकठे होते गए। यही उपहास रामायण के साथ हुआ। जो लिखा गया वो घने आंतरिक क्षणो में लिखा गया , जिसकी व्याख्या करते करते , एक अलग ही रूप धर्म ग्रंथो का बन गया। और हमारे पुरे प्रयास आज भी यही है कि पहले से ही व्याख्यित धर्म ग्रंथो को और अधिक व्याख्या में बांधे जा रहे है , मूल में उतरना है , यदि गंगा का निर्मल शीतल स्वक्छ जल पीना है तो गोमुख जाना ही है। वेद पुराण आज भी शब्दो के माध्यम से समझने और समझाने का सबसे अधिक व्यस्त कार्यक्रम बने हुए है और फिर भी न जान पाने योग्य , क्लिष्ट और अनबूझ है। क्यूँ ?
इसी लिए कहा मैंने कि जब ईश्वर के सीधे प्रयास शब्दो से हमको नहीं समझा पाये , तो हम किसको क्या समझा पाएंगे ? वो भी भाषा से !
समझना है, तो सघन मौन में ही समझना होगा, अर्जुन बनना होगा ; तभी कृष्ण गीता कह पाएंगे।
कृष्ण ने जो मौन में अर्जुन से कहा , वो ही मौन में मैं तुमसे कहता हु , वेदो ने जो ऋषियों से कहा , शंकर के वाद्य ने मूल में कहा। …………दुर्लभ नहीं परन्तु एक मौनी ही समझ सकता है ,
देखो जरा मौन जैसा सुंदर शांत और पल में चेतना में प्रवेश करने वाला भी जब शब्दो के फेर में पड़ता है तो कितना गहरा और समंदर जैसा विशाल हो जाता है।
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