यहाँ कोई भी बात व्यर्थ नहीं जान लो और मान लो , इस राह के हर मोड़ पे खड़े सिर्फ मौन इशारे है , समझ सको तो समझ लो , वर्षों की तप और साधना के बाद ऋषियों का प्रसाद अगर तुम्हारी झोली में मुफ्त में गिर गया , तुम पहचान न सके और तर्क कुतर्क में व्यर्थ ही कीमती समय गवा रहे हो।वो व्यर्थ नहीं , तुम्हारी समझ ही नहीं उस गहराई को समझने की .... ये भी बेकार वो भी बेकार का राग गा रहे हो . अरे इतनी बुद्धिमानी क्यूँ दिखा रहे हो ? इतना जान लो जो वो तुमको सौंप गए धरोहर उसका " क खा ग " भी सही से पहचान सके तो बुध्हिमान कहलाओगे , और तुम हो कि बालक के सामन सम्पूर्ण शास्त्र के मूल को ही नकार रहे हो।
इतनी जल्दी न करो परिणाम घोषित करने की।
मित्रों .....समझो अपने अस्तित्व को। पूर्वजों के श्रम को यूँ जाया न करो। उनकी सोच उनके विश्वास उनके ज्ञान का एक धागा भी छू सके तो भाग्यशाली कहलाओगे।
धर्म को समझो ... आडम्बर को त्यागो। ईश्वर एक भी है और अनेक भी। वो द्वैत भी है और अद्वैत भी। ये भी सच उसी का है और वो भी सच उसी का है। संसार के इस तरफ से भी हजारों में वो ही खड़ा और उस तरफ भी अकेला वो ही खड़ा मुस्करा रहा।
तुम्हारी बिसात ही क्या जो उसको परिभाषित कर सको , पहले ध्यान लगाओ और स्वयं का साक्षित्व जगाओ , अपना सच जानो , बाद में उस परम को अपनी परिभाषा गढ़ के बंदी बना लेना। हो सकता है की साक्षित्व साधते साधते तुम्हारी अपने बारे में ही परिभाषा बदल जाये !
वास्तविकता जैसी दर्पण में प्रतिबिंबित होती है , वास्तव में हकीकत में वो उलट ही होती है। समझने और समझाने का कितना बड़ा भरम है ये। बेहतर है अपने और सत्य के बीच से माया रुपी छाया-दर्पण को हटा ले बीच से , फिर सब साफ़ दिखेगा।
ज्ञान से क्या बाँध पाओगे उसको जन्म जन्मान्तर लग जायेंगे। कितना फेरा बाँधोगे बुध्ही से वो फिसल फिसल जायेगा। प्रेम से बांधो अभी यही वो सामने खड़ा मिलेगा। फिर चाहे जिस रूप में बांधो उसी रूप में वो बंध जायेगा।
छोडो व्यर्थ के तर्क , न समय नष्ट करो , कीमती हैं जीवन के जाते हुए पल ....... ध्यान धरो , ध्यान करो , और सारे हल अभी और यही पाओ। न खुद बहलो किसी के झूठ से न दूजे को बहलाओ अपने झूठ से। न खुद अपने को भरमाओ न दूजे को भरमाओ।
एक विशाल हाथी को छू रहे हो अंधे बन के , कभी कहते हो खम्भे जैसा , तो कभी कहते हो पंखे जैसा , कभी एक दूसरे की परिभाषा पे ही लड़ जाते हो ," मैं सही ..नहीं, मैं सही " क्यूंकि किसी ने उस हाथी कि परिभाषा पूूर्ण की ही नहीं , सभी अंधे और सिमित बुध्ही से उसकी विशालता को अधूरा ही परिभाषित कर के झगड़ रहे है।
क्यूँ कर रहे हो ऐसा ,कुछ भी वक्तव्य उस परम की बाबत कहने से पहले। अपने अंधेपन को स्वीकारो पहले .... अपना अधूरापन स्वीकारो।
ॐ प्रणाम
इतनी जल्दी न करो परिणाम घोषित करने की।
धर्म को समझो ... आडम्बर को त्यागो। ईश्वर एक भी है और अनेक भी। वो द्वैत भी है और अद्वैत भी। ये भी सच उसी का है और वो भी सच उसी का है। संसार के इस तरफ से भी हजारों में वो ही खड़ा और उस तरफ भी अकेला वो ही खड़ा मुस्करा रहा।
तुम्हारी बिसात ही क्या जो उसको परिभाषित कर सको , पहले ध्यान लगाओ और स्वयं का साक्षित्व जगाओ , अपना सच जानो , बाद में उस परम को अपनी परिभाषा गढ़ के बंदी बना लेना। हो सकता है की साक्षित्व साधते साधते तुम्हारी अपने बारे में ही परिभाषा बदल जाये !
वास्तविकता जैसी दर्पण में प्रतिबिंबित होती है , वास्तव में हकीकत में वो उलट ही होती है। समझने और समझाने का कितना बड़ा भरम है ये। बेहतर है अपने और सत्य के बीच से माया रुपी छाया-दर्पण को हटा ले बीच से , फिर सब साफ़ दिखेगा।
ज्ञान से क्या बाँध पाओगे उसको जन्म जन्मान्तर लग जायेंगे। कितना फेरा बाँधोगे बुध्ही से वो फिसल फिसल जायेगा। प्रेम से बांधो अभी यही वो सामने खड़ा मिलेगा। फिर चाहे जिस रूप में बांधो उसी रूप में वो बंध जायेगा।
छोडो व्यर्थ के तर्क , न समय नष्ट करो , कीमती हैं जीवन के जाते हुए पल ....... ध्यान धरो , ध्यान करो , और सारे हल अभी और यही पाओ। न खुद बहलो किसी के झूठ से न दूजे को बहलाओ अपने झूठ से। न खुद अपने को भरमाओ न दूजे को भरमाओ।
एक विशाल हाथी को छू रहे हो अंधे बन के , कभी कहते हो खम्भे जैसा , तो कभी कहते हो पंखे जैसा , कभी एक दूसरे की परिभाषा पे ही लड़ जाते हो ," मैं सही ..नहीं, मैं सही " क्यूंकि किसी ने उस हाथी कि परिभाषा पूूर्ण की ही नहीं , सभी अंधे और सिमित बुध्ही से उसकी विशालता को अधूरा ही परिभाषित कर के झगड़ रहे है।
क्यूँ कर रहे हो ऐसा ,कुछ भी वक्तव्य उस परम की बाबत कहने से पहले। अपने अंधेपन को स्वीकारो पहले .... अपना अधूरापन स्वीकारो।
ॐ प्रणाम
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