Sunday, 30 March 2014

ओशो दर्शन : धार्मिकता कहां है? + 5 More Discourses In Hindi




धार्मिकता कहां है?

मंदिर जाने से धर्म तक जाने का कोई संबंध नही है। मंदिर तक जाना एक बिलकुल भौतिक घटना है, शारीरिक घटना है। धर्म तक जाना एक आत्मिक घटना है
भारत इसी अर्थों में धार्मिक है, जिस अर्थों में वह नगर धार्मिक था, क्योंकि उस नगर में एक चर्च था। भारत धार्मिक है, क्योंकि भारत में बहुत मंदिर हैं, मस्जिद हैं, गुरुद्वारे हैं। भारत इसी अर्थो में धार्मिक है जिस अर्थों में उस गांव के लोग धार्मिक थे। इसलिए नहीं कि वे मंदिर जाते थे, बल्कि वे मंदिर जाने से बचने की कोशिश करते थे। भारत इसी अर्थों में धार्मिक है कि हर आदमी धर्म से बचने की चेष्टा कर रहा है।
लेकिन उस गांव के लोग थोड़े ईमानदार रहे होंगे। वे मंदिर नहीं जाते थे, तो उन्होंने यह मान लिया था हम नहीं जाते हैं। उन्होंने यह मान लिया था कि मंदिर पुराना है और उसके नीचे जान गंवाई जा सकती है, जीवन नहीं पाया जा सकता। लेकिन भारत के लोग इतने भी ईमानदार नहीं है कि वे यह मान लें कि धर्म पुराना हो गया है, जान गंवाई जा सकती है उससे, लेकिन जीवन नहीं पाया जा सकता।
हम थोड़े ज्यादा बेईमान हैं। हम धर्म से सारा संबंध भी तोड़ लिए हैं, लेकिन हम ऊपर से यह भी दिखाने की चेष्टा करते हैं कि हम धर्म से संबंधित हैं। हमारा कोई आंतरिक नाता धर्म से नहीं रह गया है। हमारे कोई प्राणों के अंतर्संबंध धर्म से नहीं हैं, लेकिन हम ऊपर से दिखावा जारी रखते हैं। हम ऊपर से यह प्रदर्शन जारी रखते हैं कि हम धर्म से संबंधित हैं, हम धार्मिक हैं।
यह और भी खतरनाक बात है। यह अधर्म को छिपा लेने की सबसे आसान और कारगर तरकीब है। अगर यह भी स्पष्ट हो जाए कि हम अधार्मिक हो गए हैं, तो शायद इस अधर्म को बदलने के लिए कुछ किया जा सके। लेकिन हम अपने को यह धोखा दे रहे हैं, एक आत्मवंचना में हम जी रहे हैं कि हम धार्मिक हैं।
और यह आत्मवंचना रोज मंहगी पड़ती जा रही है। किसी न किसी को यह दुखद सत्य कहना पड़ेगा कि धर्म से हमारा कोई भी संबंध नहीं है। हम धार्मिक भी नहीं हैं और हम इतने हिम्मत के लोग भी नहीं हैं कि हम कह दें कि हम धार्मिक नहीं हैं। हम धार्मिक भी नहीं हैं और अधार्मिक होने की घोषणा कर सकें , इतना साहस भी हमारे भीतर नहीं है।
तो हम त्रिशंकु की भांति बीच में लटके रह गए हैं। न हमारा धर्म से कोई संबंध है, न हमारा विज्ञान से कोई संबंध है। न हमारा अध्यात्म से कोई संबंध है, न हमारा भौतिकवाद से कोई संबंध है। हम दोनों के बीच में लटके हुए रह गए हैं। हमारी कोई स्थिति नहीं है। हम कहां हैं, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि हमने यह बात जानने की स्पष्ट कोशिश नहीं की है कि हम क्या हैं और कहां हैं। हम कुछ धोखों को बार -बार दोहराए चले जाते हैं और उन धोखों को दोहराने के लिए हमने तरकीबें ईजाद कर ली हैं। हमने डिवाइसेज बना ली हैं और उन तरकीबों के आधार पर हम विश्वास दिला लेते हैं कि हम धार्मिक हैं।
एक आदमी रोज सुबह मंदिर हो आता है और वह सोचता है कि मैं धर्म के भीतर जाकर वापस लौट आया हूं।
मंदिर जाने से धर्म तक जाने का कोई संबंध नही है। मंदिर तक जाना एक बिलकुल भौतिक घटना है, शारीरिक घटना है। धर्म तक जाना एक आत्मिक घटना है। मंदिर तक जाना एक भौतिक यात्रा है। मंदिर तक जाना एक आध्यात्मिक यात्रा नहीं है। सच तो यह है कि जिनकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है, उन्हें सारी पृथ्वी मंदिर दिखाई पड़ने लगती है। फिर उन्हें मंदिर को खोजना बहुत मुश्किल हो जाता है कि वह कहां है।
नानक ठहरे थे मदीना में और सो गए थे राम मंदिर की तरफ पैर करके। पुजारियों ने आकर कहा था कि हटा लो ये पैर अपने! तुम पागल हो, या कि नास्तिक हो, या कि अधार्मिक हो? तुम पवित्र मंदिर की तरफ किए हुए हो? नानक ने कहा था, मैं खुद बहुत चिंता में हूं कि अपने पैर कहा करूं! तुम मेरे पैर वहां कर दो जहां परमात्मा न हो, जहां उसका पवित्र मंदिर न हो। वे पुजारी ठगे हुए खड़े रह गए। कोई रास्ता न था कि नानक के पैर कहां करें, क्योंकि जहां भी था, अगर था तो परमात्मा था। जहां भी जीवन है, वहां प्रभु का मंदिर है।
तो जिन्हें धर्म की यात्रा का थोड़ा-सा भी अनुभव हो जाता है, उन्हें तो सारा जगत मंदिर दिखाई पड़ने लगता है। लेकिन जिन्हें उस यात्रा से कोई भी संबंध नहीं है, वे दस कदम चल कर जमीन पर और एक मकान तक पहुंच जाते हैं और लौट आते हैं, और सोचते हैं कि धार्मिक हो गए हैं। ऐसे हम धार्मिक होने का धोखा देते हैं अपने को।
एक आदमी रोज सुबह बैठ कर भगवान का नाम ले लेता है। निश्चित ही, बहुत जल्दी में उसे नाम लेने पड़ते हैं, क्योंकि और बहुत काम है, और भगवान के लायक फुर्सत किसी के पास नहीं है। बहुत जल्दी में, एक जरूरी काम है, वह भगवान के नाम लेकर निपटा देता है और चल पड़ता है। और कभी उसने अपने से नहीं पूछा कि जिस भगवान को मैं जानता नहीं, उस भगवान के नाम का मुझे कैसे पता है? मै क्या दोहरा रहा हूँ? मैं भगवान का नाम दोहरा रहा हूं?
भगवान का स्मरण हो सकता है, भगवान का नाम स्मरण नहीं हो सकता, क्योंकि भगवान का कोई नाम नहीं है। भगवान की प्यास हो सकती है, भगवान को पाने की तीव्र आकांक्षा हो सकती है, लेकिन भगवान का नाम स्मरण नहीं हो सकता। क्योंकि नाम उसका कोई भी नहीं है। एक आदमी बैठ कर राम-राम दोहरा रहा है, दूसरा आदमी जिनेंद्र-जिनेंद्र कर रहा है, तीसरा आदमी नमो बुद्धाय, और कोई चौथा आदमी कुछ और नाम ले रहा है। ये सब नाम हमारी अपनी ईजादें हैं। इन नामों से परमात्मा का क्या संबंध है?।
परमात्मा का कोई नाम नहीं है। जब तक हम नाम दोहरा रहे हैं, तब तक हमारा परमात्मा से कोई संबंध नहीं होगा। हम आदमी के जगत के भीतर चल रहे हैं। हम मनुष्य की भाषा के भीतर यात्रा कर रहे हैं। और वहां जहां मनुष्य की सारी भाषा बंद हो जाती है, सारे शब्द खो जाते हैं, वहां हम किन नामों को लेकर जाएंगे?
सब नाम आदमियों के दिए हुए हैं। सच तो यह है कि आदमी खुद भी बिना नाम के पैदा होता है। आदमी के नाम भी सब झूठे हैं, कामचलाऊ हैं, यूटिलिटेरियन हैं, उनका सत्य से कोई सबंध नहीं है। हम जब पैदा होते हैं तो बिना नाम के, और जब हम मृत्यु में प्रविष्ट होते हैं तब फिर बिना नाम के। बीच में नाम का थोड़ा-सा-संबंध हम पैदा कर लेते हैं और उस नाम को हम मान लेते हैं कि यह हमारा होना है। हमने अपने लिए नाम देकर एक धोखा पैदा किया है। वहां तक ठीक था, आदमी क्षमा किया जा सकता था। उसने भगवान को भी नाम दे दिए! और नाम देने से एक तरकीब मिल गई उसे कि उस नाम को वह दोहरा लेता है दस मिनट और सोचता है कि मैंने परमात्मा का स्मरण किया।
नाम से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। आप बैठ कर कुर्सी, कुर्सी दोहरा लें दस मिनट; दरवाजा, दरवाजा दोहरा लें; पत्थर, पत्थर दोहरा लें; या आप कोई और नाम लेकर दोहरा लें, इस शब्द से कोई भी धर्म का संबंध नहीं है। शब्दों को दोहराने से धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध है निःशब्द से, धर्म का संबंध है परिपूर्ण भीतर जब विचार शून्य हो जाते हैं और शांत हो जाते हैं तब, तब धर्म की यात्रा शुरू होती है।
-ओशो
पुस्तक: एक एक कदम
प्रवचन नं. 3 से संकलित
पूरा प्रवचन एम. पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है


धर्म और विज्ञानः एक बीज तो दूसरा वृक्ष!
विज्ञान का तो धर्म से विरोध हो भी सकता है, लेकिन धर्म का विज्ञान से विरोध असंभव है। बाह्य का आंतरिक विरोध हो सकता है,लेकिन आंतरिक के लिए तो बाह्य है ही नहीं। पुत्र का मां से विरोध हो सकता है, लेकिन मां के लिए तो पुत्र का होना उसका स्वयं का होना ही है
धर्म परिभाष्य नहीं है। जो बाह्य है उसकी परिभाषा हो सकती है। जो आंतरिक है उसकी परिभाषा नहीं हो सकती है। वस्तुतः जहां से परिभाषा शुरू होती है वहीं से विज्ञान शुरू हो जाता है, क्योंकि वहीं से बाह्य शुरू जाता है। विज्ञान है शब्द में, धर्म है शून्य में। क्योंकि परिधि है अभिव्यक्ति और केंद्र है अज्ञात और अदृश्य और अप्रगट। वृक्ष और बीज की भांति ही वे हैं। विज्ञान वृक्ष है, धर्म बीज है। विज्ञान को जाना जा सकता है धर्म को जाना नहीं जा सकता है, लेकिन धर्म में हुआ जा सकता है और धर्म में जिया जा सकता है। विज्ञान ज्ञान है, धर्म जीवन है। इसलिए विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती है।
विज्ञान है ज्ञात और ज्ञेय की खोज। धर्म अज्ञात है और अज्ञेय में निम्मजन। विज्ञान है पाना, धर्म है मिटना। इसलिए विज्ञान बहुत हैं, लेकिन धर्म एक ही है। इसलिए ही विज्ञान विकासशील, किंतु धर्म शाश्वत है।
जीवन की परिधि की ओर जाने से तो केंद्र से दूर निकल जाते हैं। लेकिन एक बड़ा आश्चर्य है कि जो केंद्र की ओर जाता है वह परिधि से दूर नहीं निकलता है, उल्टे परिधि और निकट आती जाती है। और ठीक केंद्र पर पहुंचने पर तो परिधि विलीन हो जाती है, क्योंकि केंद्र भी विलीन हो जाता है। परिधि पर परिधि भी है और केंद्र भी है। केंद्र पर न केंद्र है, न परिधि है। आंतरिक तो अंततः उसका द्वार बन जाता है जो कि न आंतरिक है, न बाह्य है।
इसलिए मैं कहता हूं कि विज्ञान का तो धर्म से विरोध हो भी सकता है, लेकिन धर्म का विज्ञान से विरोध असंभव है। बाह्य का आंतरिक विरोध हो सकता है, लेकिन आंतरिक के लिए तो बाह्य है ही नहीं। पुत्र का मां से विरोध हो सकता है, लेकिन मां के लिए तो पुत्र का होना उसका स्वयं का होना ही है।
धर्म विज्ञान के विरोध में नहीं हो सकता है, और जो हो वह धर्म नहीं है। धर्म संसार के विरोध में भी नहीं है। संसार धर्म के विरोध में हो सकता है, लेकिन धर्म संसार के विरोध में नहीं हो सकता है। धर्म सर्व अविरोध है और इसलिए तो धर्म मुक्ति है। जहां विरोध है, वहां बंधन है। और जहां विरोध है, वहां अशांति है, वहां अग्नि है। वह बूढ़ी हृदय सही तो चिल्लाती थी-‘मेरा घर जल रहा है, मेरे जीवन में आग लगी है’।
और लोग पहुंचे थे विज्ञान की बाल्टियां लेकर, बाह्य का जल लेकर, तो वह हंसने लगी थी। वह आज भी हंस रही है, क्योंकि जीवन में आग आज भी लगी है, रात्रि आज भी अमावस की है। गांव आज भी सोते से जाग पड़ा है, पड़ोसी आज भी दौड़े चले आये हैं, लेकिन फिर वे ही बातें पूछ रहे हैं। वे पूछते हैं, आग कहां है? दिखायी तो नहीं देती, बताओ, हम उसे बुझा दें, हम पानी की बाल्टियां ले आये हैं। हर रात्रि यही हो रहा है, वही बात हर रात दुहरती है।
लेकिन आग है भीतर और पानी है बाहर का। अब आग बुझे कैसे? आग और बढ़ती ही जाती है और हर आदमी उसमें झुलसता ही जा रहा है। यह भी हो सकता है कि आग के चरम उत्ताप में आदमी परिवर्तित हो जाये और उसकी नींद टूट जाये। और इस आग से वह और भी निखरा हुआ स्वर्ण होकर बाहर निकले। यह स्मरण रहे कि विज्ञान आग को नहीं बुझा सका है, उल्टे विज्ञान की सभी खोजें आग को और प्रज्वलित करने में ही सहयोगी हो गयी हैं।
अज्ञान के हाथों में शक्ति आत्मघाती हो उठे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? मुझे तो पिछले दो महायुद्ध में मनुष्यता द्वारा सार्वलौकिक आत्मघात की पूर्ण तैयारियां ही मालूम पड़ते हैं। दो महायुद्धों में शायद दस करोड़ लोगों की हत्या हुई है और तैयारी आगे भी जारी है। तीसरा महायु़द्ध होगा अंतिम।
इसलिए नहीं कि फिर मनुष्य युद्ध नहीं करेगा, वरन इसलिए कि फिर मनुष्य यु़द्ध करने को बचेगा ही नहीं।
स्वयं को नष्ट करने की मनुष्यता की आतुरता अकारण भी नहीं है। शायद बाह्य की एकांगी खोज से जो विफलता हाथ आई है, उसके विवाद में ही आत्मघात का यह विराट आयोजन चल रहा है। मनुष्य के हाथ सारी दौड़-धूप के बाद भी खाली के खाली हैं। जीवन ही रिक्त, अर्थहीन और खाली है। सिंकदर ने मरते समय ही जाना कि उसके हाथ खाली हैं, इसलिए मरने की जिम्मेदारी उसने स्वयं अपने ऊपर नहीं ली। शायद अब मनुष्य ने जीते जी जो यह जान लिया है, इसलिए वह स्वयं ही अपने को मारने का तैयार है। वह मृत्यु के लिए परमात्मा को भी कष्ट नहीं देना चाहता है। जब हाथ खाली हैं, और आत्मा ही खाली है तो जीने का प्रयोजन ही क्या है...अर्थ ही क्या है...अभिप्राय ही क्या है?
जीवन है अर्थहीन, क्योंकि जीवन से मनुष्य परिचित ही नहीं है। और जिसे उसने जीवन जाना है वह निश्चित ही अर्थहीन है, क्योंकि वह जीवन ही नहीं है। जीवन आंतरिक को खोकर बाह्य की ही दौड़ हो तो निश्चित ही अर्थहीन जाता है। क्योंकि तब बच जाती है वस्तुएं और वस्तुएं। आत्मा को बेचकर जो इन वस्तुओं को इकट्ठा कर लेता है, वह अपने हाथों ही मृत्यु जुटा लेता है।
और बाह्य के विरोध और शत्रुता में जो आंतरिक की ओर चलता है, वह भी पंगु हो जाता है। क्योंकि उसका जीवन भी अंतर्द्वंद्व में शांति और संगीत को खो देता है। और आत्मा तो केवल उन्हें ही मिलती है जो संगीत में और सौंदर्य में जीते हैं। बाह्य की शत्रुता एक भांति कुरूपता पैदा करती है। और बाह्य का विरोध एक भांति की जड़ता ले आता है। अंतद्र्वंद्व अहंकार को तो पुष्ट करता है लेकिन इससे आत्मा उपलब्ध नहीं होती है।
-ओशो
पुस्तक: शिक्षा में क्रांति
प्रवचन नं. 2 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है


वास्तविक धर्म क्या है?
काश पूरी धरती पर यदि धार्मिकता फैल सके तो सारे धर्म विदा हो जाएंगे! और यह मनुष्य जाति के लिए एक महान वरदान होगा, जब मनुष्य केवल मनुष्य होगा-न ईसाई,न मुसलमान,न हिंदू
सच्ची धार्मिकता को मसीहाओं, उद्धारकों, पवित्र-ग्रंथों, पादरियों, पोपों और चर्चों की कोई आवश्यकता नही हैं। क्योंकि धार्मिकता तुम्हारे हृदय की खिलावट है। वह तो स्वयं की आत्मा के, अपनी ही सत्ता के केन्द्र बिंदु तक पहुंचने का नाम है। और जिस क्षण तुम अपने अस्तित्व के ठीक केंद्र पर पहुंच जाते हो, उस क्षण सौंदर्य का, आनंद का, शांति का और आलोक का विस्फोट होता है। तुम एक सर्वथा भिन्न व्यक्ति होने लगते हो। तुम्हारे जीवन में जो अंधेरा था वह तिरोहित हो जाता है, और जो भी गलत था वह विदा हो जाता है। फिर तुम जो भी करते हो वह परम सजगता और पूर्ण समग्रता के साथ होता है।
मैं तो बस एक ही पुण्य जानता हूं और वह हैःसजगता।
काश पूरी धरती पर यदि धार्मिकता फैल सके तो सारे धर्म विदा हो जाएंगे! और यह मनुष्य जाति के लिए एक महान वरदान होगा, जब मनुष्य केवल मनुष्य होगा-न ईसाई, न मुसलमान, न हिंदू। ये विभाजन, ये सीमाएं, ये भेद पूरे इतिहास में हजारों-हजारों युद्धों के कारण बने हैं। यदि तुम पीछे लौटकर मनुष्य के अतीत पर नजर डालो तो तुम्हें यह कहना ही पड़ेगा कि अतीत में हम विक्षिप्त ढंग से जीते रहे हैं। परमात्मा के नाम पर, मंदिर-मस्जिद और गिरजों के नाम पर, सिद्धांतों के नाम पर, जिनका कोई प्रमाण भी नहीं है, उन सबके नाम पर आदमी आदमी का खून बहाता रहा है।
इस संसार में अभी तक वास्तविक धर्म घटित ही नहीं हुआ है।
जब तक धार्मिकता की हवा पैदा नहीं होती और मनुष्यता उस हवा में, उस वातावरण में नहीं डूब जाती, तब तक वास्तविक धर्म पैदा नहीं हो सकता। लेकिन मेरा जोर उसे धार्मिकता कहने पर है, ताकि वह संगठित न हो पाए, संप्रदाय न बन जाए। तुम प्रेम को संगठित नहीं कर सकते। क्या तुमने कभी प्रेम के मंदिर, प्रेम की मस्जिदें और प्रेम के गिरजे सुने हैं? प्रेम है दो व्यक्तियों के बीच घटने वाली एक व्यक्तिगत घटना। और धार्मिकता है एक व्यक्ति की समग्र अस्तित्व के प्रति, समष्टि के साथ होने वाली और महत प्रेम की घटना।
जब कोई व्यक्ति संपूर्ण अस्तित्व के साथ-इन वृक्षों, पर्वतों, तारों, सरिताओं और सागरों के प्रेम में पड़ जाता है, तब पहली दफे वह जानता है कि प्रार्थना क्या है? वह शब्दातीत है...हृदय में एक गहन नृत्य सा उमड़ता है और कोई संगीत सा उठता है जिसमें स्वर नहीं हैं, कोई ध्वनि नहीं है। वह पहली बार उस शाश्वत का, उस अमृत का अनुभव करता है जो हर परिवर्तन में हमेशा मौजूद रहता है, और जो जीवन को सदा ताजा और फिर-फिर नवीन करता जाता है। कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, मुस्लिम, जैन, ईसाई और बौद्ध इन सारे मतों को छोड़कर प्रमाणिक रूप से धार्मिक हो जाता है, वह पहली बार अपनी निजता की घोषणा करता है।
धार्मिकता एक व्यक्तिगत और निजी मामला है। वह व्यक्ति के द्वारा समष्टि को प्रेषित प्रेम-संदेश है।
धार्मिकता की हवा फैले तो ही दुनिया में शांति हो सकती है, और सारी नासमझियां व भ्रांतियां मिट सकती हैं। अन्यथा ये समस्त धर्म मनुष्य का शोषण करने वाले परजीवी रहे हैं। ये धर्म लोगों को गुलाम बनाते रहे, उन्हें विश्वास करने के लिए विवश करते रहे-और स्मरण रहे सभी विश्वास बुद्धिमता के दुश्मन हैं। वे लोगों को ऐसे-ऐसे शब्दों में प्रार्थना करने को बाध्य करते रहे, जिनमें कोई भाव नहीं, अर्थ नहीं; क्योंकि वे शब्द तुम्हारे हृदय की गहराइयों से नहीं, वरन स्मृति से आते हैं।
लियो टालस्टाय की एक कथा बहुत प्यारी है, कई बार मैंने तुमसे कही है। यह कहानी तीन अनपढ़ और असंस्कृत लोगों के बारें में, जो एक बड़ी झील के बीचोंबीच स्थित एक छोटे से द्वीप पर निवास करते थे। लाखों लोग उनके पास आते और उन्हें पूजते थे। यह रूस की क्रांति से पूर्व की बात है। उनकी प्रसिद्धि की बात सुनकर पुराने रूस का आर्च बिशप बड़ी चिंता में पड़ गया। चर्च खाली पड़े थे; आर्च बिशप के पास कोई आता नहीं था। और खयाल रहे, रूसी चर्च व्यवस्था विश्व की सबसे प्राचीन चर्च व्यवस्था है-अत्यंत रूढ़िवादी; और लोग उन तीन ग्रामीणों के सत्संग को जा रहे थे, जो परंपरानुसार अभी ईसाइयत में दीक्षित तक नहीं हुए थे! फिर वे संत कैसे हो गए?
भारत में संत होना आसान है, पर ईसाइयत में यह इतना सरल मामला नहीं है। संत के लिए अंग्रेजी में शब्द है ‘सेंट’ वह ग्रीक भाषा के मूल स्रोत ‘सेंक्टस’ से आता है। उसका मतलब है ‘सेंक्शन’ अर्थात् जब तक पोप अथवा आर्च बिशप किसी को संत की मान्यता नहीं देते, प्रमाणित नहीं करते, जब तक उसे संत की तरह स्वीकृति नहीं मिल सकती।
लेकिन लोग खबर लाते कि वे तीनों इतने संत जैसे हैं...।
आखिर एक दिन गुस्से में आकर आर्च बिशप ने मोटरबोट ली और उन तीनों से मिलने पहुंचा। वे एक पेड़ के नीचे बैठे थे। उसने उन्हें देखा तो भरोसा न आया कि ये किस प्रकार के संत हैं? सबसे पहले पहले अपना परिचय देते हुए उसने घोषणा की कि ‘‘मैं आर्च बिशप हूं।’’ उन तीनों ने उसके चरण स्पर्श किए। अब आर्च बिशप ने थोड़ी राहत की सांस ली, आश्वस्त हुआ कि ये तो बिल्कुल गंवार और मूढ़ लगते हैं, और अभी बात इतनी दूर नहीं गई है कि हाथ से बाहर हो जाए, कि नियंत्रण न किया जा सके।
उसने पूछा, ‘‘क्या तुम संत हो?’’
वे एक-दूसरे की तरफ ताकने लगे और बोले, ‘‘क्षमा करें, हमने तो कभी यह शब्द ही नहीं सुना। हम लोग तो अशिक्षित ग्रामीण हैं। हमसे ग्रीक भाषा में न बोलें, कृपया सीधे-सीधे कहें कि आपका क्या अभिप्राय है?’’
‘‘हे भगवान! आर्च बिशप ने कहा, ‘‘तुम्हें यह तक मालूम नहीं कि संत का क्या अर्थ होता है? अच्छा, चलो यह बताओ कि तुम लोगों को ईसाई प्रार्थना भी आती है या नहीं?’’
वे फिर एक-दूसरे को देखने लगे और एक-दूसरे को कोहनी मारेने लगे। जैसे इशारे से कह रहे हों कि ‘तू बता’, ‘तू जवाब दे’। यह देख आर्च बिशप की हिम्मत और बढ़ गई। वह अकड़कर बोला, ‘‘मुझे बताओ कि तुम्हारी प्रार्थना कैसी है?’’
उन्होंने निवेदन किया कि ‘‘हम बिलकुल अनपढ़ हैं। हम ईसाई प्रार्थना तो नहीं जानते मगर हमने अपनी खुद की एक छोटी सी प्रार्थना गढ़ ली है।’’
यह सुनकर आर्च बिशप को हंसी आ गई। उसने कहा, ‘‘कोई अपनी प्रार्थना भी बनाता है क्या! अरे प्रार्थना तो चर्च के द्वारा बताई हुई होनी चाहिए, चर्च से अधिकृत होनी चाहिए। फिर भी जरा सा सुनुं तो आखिर तुम्हारी प्रार्थना है कैसी।
वे बड़ी शर्मिदगी और घबराहट महसूस करने लगे। अंततः एक ने कहा, ‘‘चूंकि आप पूछ रहे हैं, अतः हम इंकार भी नहीं कर सकते। पर हमारी प्रार्थना, कुछ खास प्रार्थना जैसी नहीं है...हमने सुना है कि परमात्मा के तीन रूप हैं-परम पिता ईश्वर, पवित्र आत्मा, और ईश्वरपुत्र ईसा मसीह। सो हमने अपनी खुद की प्रार्थना बनाने की सोची। बड़ी सरल सी प्रार्थना है हमारीः तुम तीन हो, हम तीन हैं, हम पर कृपा करो।’’
आर्च बिशप बोला, मूर्खो, तुम सोचते हो यह प्रार्थना है! मैं तुम्हें चर्च के द्वारा मान्यता प्राप्त प्रार्थना सिखाऊंगा।’’
लेकिन प्रार्थना अत्यंत लंबी और क्लिष्ट थी। उसे सुनकर वे तीनों एक साथ बोल पड़े, ‘‘इतनी लंबी प्रार्थना हमें याद न रहेगी। हम अपनी पूरी कोशिश करेंगे, लेकिन कृपाकर इसे एक बार और दोहरा दीजिए।’’ फिर उन्होंने उसे तीसरी दफा भी दोहराने की विनती की, क्योंकि प्रार्थना वास्तव में कठिन थी। ‘‘यदि हम शुरुआत याद रखते हैं तो अंतिम हिस्सा भूल जाते हैं। अगर अंत स्मरण हो जाता है तो प्रारंभ भूल जाते हैं। और यदि किसी तरह आदि और अंत दोनों कंठस्थ कर लेते हैं तो मध्य विस्मृत हो जाता है।’’ आर्च बिशप ने कहा, ‘‘तुम्हें शिक्षा की आवश्यकता है। वे बोले, ‘‘हम लिख नहीं सकते, वरना हम आपकी प्रार्थना लिख लेते। हम अपनी तरफ से भरसक प्रयत्न करेंगे, बस केवल एक बार और बता दीजिए।’’
आर्च बिशप अत्यंत प्रसन्न था कि उसने तीन मूर्खों को जो लाखों लोगों द्वारा पूजे जा रहे थे, उन्हें परिवर्तित कर लिया, ईसाई बना लिया। उसने तीसरी बार प्रार्थना दोहराई। उन लोगों ने फिर उसके पैर छुए। और वह अपनी मोटर बोट में वापस लौट पड़ा।
जब वह झील के मध्य में ही था कि तभी उसने एक बड़े से बवंडर को अपनी ओर आते देखा... वह भरोसा न कर सका कि यह क्या हो सकता है! डर के मारे वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। जब वे कुछ नजदीक आए तब वह समझा कि ये तो वही तीनों बेवकूफ हैं-पानी पर पैदल चलते हुए। ‘‘हे भगवान!’’ उसने सोचा, ‘‘पानी पर तो केवल ईसा मसीह ही चले थे!’’
वे लोग हाथ जोड़े हुए आए और बोले, ‘‘हम वह प्रार्थना भूल गए सो हमने सोचा...एक बार और! उन्हें झील पर खड़े देखकर आर्च बिशप को अब सत्य का अहसास हुआ; कुछ समझ आई। उसने कहा, ‘‘नहीं, तुम्हें मेरी प्रार्थना की जरूरत नहीं है। तुम अपनी ही प्रार्थना करो, वही ठीक है। क्योंकि मैं जिंदगी भर से इसे कर रहा हूं, और रूस के इस पारंपरिक चर्च में सर्वोच्च पद पर पहुंच गया हूं; किंतु मैं पानी पर नहीं चल सकता। ऐसा लगता है कि परमात्मा तुम्हारे साथ है। तुम्हारी प्रार्थना सुन ली गई है। तुम जाओ और अपनी प्रार्थना जारी रखो।’’ वे बड़े खुश हुए और कहने लगे कि ‘‘हम आपके बहुत अनुगृहीत है; क्योंकि वह लंबी प्रार्थना तो हमारे प्राण ही ले लेती।’’
यह कथा बड़ी प्रीतिकर है, जो कहती है कि रूढ़िवादी और दकियानूसी धर्म मर चुके हैं।
धार्मिकता तुम्हारे हृदय में से एक सुगंध की भांति उठेगी-इसे समूचे अस्तित्व के प्रति अर्पित तुम्हारे प्रेम के फूल की सुवास। धार्मिक व्यक्ति के लिए ईश्वर भी अनावश्यक है। क्योंकि ईश्वर एक अप्रमाणित परिकल्पना है, और कोई भी प्रामाणिक रूप से धार्मिक आदमी किसी अप्रमाणित चीज को स्वीकार नहीं कर सकता। वह तो केवल उसे स्वीकार करता है, जिसे वह स्वयं अनुभव करते हो? यह श्वास, यह हृदय की धड़कन...यह अस्तित्व ही श्वास भीतर खींच रहा है और बाहर छोड़ रहा है। अस्तित्व ही प्रतिपल तुम्हें जीवन प्रदान किए चला जाता है। लेकिन तुमने कभी इन वृक्षों की तरफ नहीं निहारा। तुमने कभी फूलों और उनके सौंदर्य में गौर से नहीं झांका, और न तुमने कभी यह सोचा कि वे दिव्य हैं।
सच पूछो तो यह अस्तित्व ही एकमात्र परमात्मा है। जो है-वह दिव्य है। यह संपूर्ण अस्तित्व भगवत्ता से पूर्ण है । यदि तुम धार्मिकता से ओत-प्रोत हो, तो सारा अस्तित्व तत्क्षण भगवत्ता से आपूरित हो जाता है।
मेरी दृष्टि में यही धर्म है।
-ओशो
पुस्तकः मैं धार्मिकता सिखाता हूं धर्म नहीं
प्रवचन नं. एक से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध
 है


परमात्मा एक रूप अनेक!
‘‘यह कहा जाता है कि यह दृष्टांत-कथा सूफ़ी सद्गुरु इमाम मुहम्मद बाकिर से ही संबंधित है। यह बोध होने पर कि मैं चीटियों की भाषा बोल और समझ सकता हूं, मैंने उनमें से एक चींटी से सम्पर्क किया और पूछा-‘तुम्हारा परमात्मा किस आकृति का है? क्या वह चींटी से मिलता जुलता है?
उसने उत्तर दियाः परमात्मा? नहीं, वास्तव में हम लोगों के पास एक डंक होता है, लेकिन परमात्मा, उसके पास दो डंक होते हैं।’’
अल हिलाज-मंसूर कहता हैः
विचार और सिद्धांतों का मवाद इकट्ठा होकर फोड़ा बना, फूटाः
और फिर चारों ओर शांति छा गई एक सन्नाटा और मौन छा गया। विचारे गये, तो शब्द भी मिट गए और रह गया केवल होश।
तब विचारों और सिद्धांतों के वस्त्र उतार कर। मैं उसके सामने नग्न खड़ा हो गया।
पहिले मेरे इश्क की भट्ठी में देह की मिट्टी जली,
और फिर आग भी बुझ गई
तब सभी कुछ स्पष्ट हो गया, और चारों ओर शीतलता छा गई।
और उस विश्राम में चारों ओर अंधकार
तब फिर शीतल प्रकाश वाले बोध का सूरज उगा।
मैं इश्क की शराब पीकर मदमस्त बना नाचता रहा
तब उस तक मेरे पहुंचने, पाने
और उससे मिलने वाला आनंद भी मिट गया।
उस तलाश और खोज के मिट जाने पर
मैं पूर्ण विश्राम को उपलब्ध हुआ।
उसके अप्रकट होने और उसकी जुदाई की तड़प के बाद ही पूर्ण एकत्व घटित हुआ
पिघल कर उस पूर्ण मिलन में, मैं पूरी तरह मिट गया,
जैसे बूंद सागर में समाहित हो गई।
परमात्मा क्या है ?
यह तुम्हीं पर निर्भर करता है। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारा होगा, मेरा परमात्मा, मेरा परमात्मा होगा। इस बारें में उतने ही अधिक परमात्मा हैं, जितनी वहां परमात्मा की ओर देखने की सम्भावनाएं हैं। और यह स्वाभाविक है। हम अपने तल और स्तर के पार नहीं जा सकते, हम अपनी आंखों और मन के द्वारा परमात्मा के प्रति केवल सचेत हो सकते हैं। हमारे शरीर और मन के छोटे से दर्पण में परमात्मा एक विचार या प्रतिच्छाया की भांति होगा। इसी वजह से वहां परमात्मा के बारें में इतनी अधिक धारणाएं है।
यह आकाश में पूर्णमासी की चांदनी रात में दमकते चंन्द्रमा की भांति है। अस्तित्व में लाखों करोड़ों सरिताएं झीलें, समुद्र और छोटे झरने, सोते और तालाब है और इन सभी का जल परमात्मा को ही प्रतिबिम्बित करता है। उन सभी के जल में चन्द्रमा की ही छाया बनती है। एक छोटे से पोखर में चन्द्रमा की अपने ढंग से प्रतिच्छाया बनेगी और विशाल सागर उसे अपने ढंग से प्रतिबिम्बित करेगा।
तब इस बारें में वहां बहुत बड़े-बड़े विवाद हैं। हिन्दू कुछ कहते हैं, मुसलमान कुछ दूसरी चीज कहते हैं, ईसाई फिर कुछ और ही बात कहते हैं। और इसी तरह से कितनी ही तरह की बातें कही जाती हैं। सारा विवाद ही मूर्खतापूर्ण है। पूरा विवाद ही अर्थहीन है। परमात्मा लाखों दर्पणों में लाखों तरह से अपने को प्रतिबिम्बित करता है। प्रत्येक दर्पण अपने ढंग से उसे प्रतिबिम्बित करता है। सभी बुनियादी बातों में पहली चीज यही समझ लेनी जैसी है। इस बुनियादी बात को न समझने के कारण ही धर्मो के मध्य इस बारें में विवाद होना स्वाभाविक है, क्योंकि वे सभी यह सोचते हैं-’यदि हमारा दृष्टिकोण ठीक है, तब दूसरों का गलत होगा ही। उनके दृष्टिकोण का ठीक होना, दूसरों के गलत होने पर निर्भर होता है। यह मूढ़ता है। परमात्मा तो अनंत है और तुम अनेक तरह से और बहुत सी खिड़कियों के द्वारा देख सकते हो-और यह स्वाभाविक है कि तुम केवल उसे स्वयं के माध्यम से ही देख सकते हो-तुम ही वह खिड़की बनोगे। तुम्हारा परमात्मा, परमात्मा को उतना ही प्रतिबिम्बित करेगा जितना कि वह तुम्हें करेगा; तुम दोनों ही वहां होगे।
जब मंसूर कुछ भी कहता है, तो वह कुछ भी बात अपने ही बारे में कह रहा है। यह अत्यंत ही प्रभावी और आकर्षक वक्तव्य है-‘तब वह एकत्व और मिलन घटित हुआ, तब पिघल कर एकरूपता घटित हुई’। यह वक्तव्य परमात्मा की अपेक्षा अल हिलाज मंसूर के बारे में अधिक कहता है। मंसूर का यही है परमात्मा। यह मंसूर का अनूठा अनुभव है।
मंसूर को कत्ल कर दिया गया, जीसस की तरह उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया मुसलमान उसे न समझ सके। ऐसा हमेशा ही होता है। तुम कोई भी महत्वपूर्ण चीज, स्वयं अपने से ऊंचे तल की नहीं समझ सकते। यह तुम्हारे लिए एक खतरा बन जाता है। यदि तुम उसे स्वीकार करते हो, तब तुम्हें यह ही स्वीकार करना होगा कि वहां कुछ ऐसी भी संभावना है, जो तुम्हारी अपेक्षा अधिक उच्चतम तल की है। इससे अहंकार आहत होता है, इससे तुम्हारा अपमान होता है, तुम्हें हीनता का अनुभव होता है। तुम मंसूर को, क्राइस्ट को, अथवा सुकरात को केवल एक इसी कारण से मार देना चाहते हो, क्योंकि तुम यह सोच भी नहीं सकते, तुम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि तुम्हारे दृष्टिकोण की अपेक्षा, इस बारें में किसी अन्य दृष्टिकोण की भी संभावना है। तुम यह विश्वास हुए प्रतीत होते हो कि इस अस्तित्व में तुम्हीं अंतिम सत्य हो, तुम्ही एक नायाब उदाहरण हो, कि तुम पराकाष्ठा पर हो और इस बारें में तुम्हारे पार कहीं कुछ भी नहीं है। यह अधार्मिक चित्त का मूढ़तापूर्ण दृष्टिकोण है। एक धार्मिक मन हमेशा ही हर चीज के लिए खुला हुआ होता है। एक धार्मिक चित्त कभी भी अपनी सीमाओं से आबद्ध नहीं होता। वह सदा यह स्मरण रखता है कि विकास का कहीं कोई अंत नहीं है, और प्रत्येक विकसित हुए चला जाता है।
-ओशो
पुस्तकः अभी, यहीं, यह
प्रवचनमालाः 3 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री एवं पुस्तक में उपलब्ध है


राम और रावण में वास्तविक भेद?
राम तो हम अपने को नहीं कह पाते। कहना तो चाहते हैं, कह नहीं पाते, वास्तविक कठिनाइयां हैं, लेकिन रावण मानने का भी मन नहीं होता। तो बीच का हम मार्ग खोज लेते हैं। हम कहते हैं, न हम राम हैं अभी न रावण हैं, मध्य में हैं, अभी हम बीच में है। अभी परम् ज्ञान नहीं हुआ बुद्धत्व उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन हम कोई मूढ़ और अज्ञानी भी नहीं है
या तो रावण हो सकते हैं या राम, मध्य में होने का कोई उपाय नहीं। हमारे मन की तकलीफ यह है कि यह तो हम भी समझते हैं कि राम हम नहीं हैं, मगर अहंकार को चोट होती है कि तो फिर रावण ही बचते हैं, वह मानने को मन राजी नहीं होता। मन कहता है, माना कि राम नहीं हैं, क्योंकि इतनी घोषणा करनी भी जरा मुश्किल मालूम पड़ती है। और चारों तरफ लोग जानते हैं कि राम हम नहीं हैं..., किसके सामने घोषणा करें? लोग सिर्फ हंसेंगे। तो राम तो हम अपने को नहीं कह पाते। कहना तो चाहते हैं, कह नहीं पाते, वास्तविक कठिनाइयां हैं, लेकिन रावण मानने का भी मन नहीं होता। तो बीच का हम मार्ग खोज लेते हैं। हम कहते हैं, न हम राम हैं अभी न रावण हैं, मध्य में हैं, अभी हम बीच में है। अभी परम् ज्ञान नहीं हुआ बुद्धत्व उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन हम कोई मूढ़ और अज्ञानी भी नहीं है।
यह जो बीच का ख्याल है, यह बहुत खतरनाक है, क्योंकि यह तुम्हें तुम्हारी स्थिति से परिचित ही न होने देगा। अच्छा है कि तुम समझ लो कि तुम रावण हो। और रावण में खराबी क्या है, जिसकी वजह से तुम डरते हो ? अगर रावण के व्यक्तित्व को समझो, तो तुम पाओगे कि तुम मध्य में तो हो ही नहीं सकते, छोटे या बड़े रावण हो सकते हो। यह हो सकता है कि तुम छोटे रावण हो।
पर तुम्हारा ढंग और तुम्हारी चेतना का गुण, एक बूंद हो कि सागर, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर की एक बूंद भी खारी है, पूरा सागर भी खारा है। बुद्ध कहते थे, सागर की एक बूंद चख लो, तुमने पूरा सारा सागर चख लिया। वैज्ञानिक कहते हैं, सागर की एक बूंद का विश्लेषण कर लो, तुमने पूरे सागर का विश्लेषण कर लिया। जो एक बूंद संकुचित है, बस उसी का संकोच है। तो यह हो सकता है कि तुम सागर न हो, बूंद हो, पर तुम्हारा मूल गुणधर्म वही है।
रावण की क्या कठिनाई है? रावण में क्या है, जो तुम पाते हो, तुममें नहीं है। इससे थोड़ा हम समझें। रावण धन का दीवाना है, साम्राज्य के विस्तार की आकांक्षा है। स्त्रियों के लिए लोलुप है। वे चाहे स्त्रियां परायी हो, दूसरों की स्त्रियां ही क्यों न हों, अगर उसे पसंद पड़ जाएं, तो उन्हें उसके राजमहल में ही होना चाहिए। पंडित है बड़ा, शास्त्र का ज्ञाता है।

रावण में ये जो गुणधर्म हैं, इनमें कौन सा है, जो हम कोशिश करें तो अपने में न पाएं, खोजे तो न पाएं! हृदय आकर्षित करती है। और सच तो यह है कि अपनी हृदय कम आकर्षित करती है, दूसरे की ही सदा आकर्षित करती है। क्योंकि अपनी से तो हम धीरे-धीरे आदी हो जाते हैं। और मन अपने से तो ऊब जाता है। खुद की पत्नी में कभी कोई आकर्षण होता है? खुद की पत्नी में कोई आकर्षण रह ही नहीं जाता। आकर्षण तो उसमें होता है, जो उपलब्ध नहीं है। और जितना कठिन हो पाना, उतना ही आकर्षण बढ़ता है।
राम की हृदय में रावण का रस कठिनाई के कारण है। कठिनाई निश्चित बड़ी थी और कठिनाई बड़ी गहरी थी। कठिनाई क्या थी? राम की हृदय को चुराना बहुत कठिन नहीं था, वह तो रावण ने किया ही। राम की हृदय को झुकाना कठिन था, जो रावण नहीं कर पाया। वही कठिनाई थी, वही चुनौती थी। सीता का लगाव राम की तरफ ऐसा परिपूर्ण था कि सीता के ह्नदय में जरा सी भी रंध्र न थी, जिसमें से रावण भीतर प्रवेश कर जाए-यह चुनौती थी।
वेश्या में थोड़े ही आकर्षण होता है! सती में आकर्षण होता है। वेश्या में क्या आकर्षण है? थोड़ा आपका खीसा हल्का होगा और वेश्या उपलब्ध हो जाएगी। वेश्या खरीदी जा सकती है। उसमें क्या रस हो सकता है? रस था सीता में, उसे खरीदना असंभव था। कोई उपाय न था, जिससे उसे खरीदा जा सके। और कोई उपाय न था कि उसके ह्नदय में प्रवेश किया जा सके।
इसलिए पूरब की स्त्रियों में जो आकर्षण है, वह पश्चिम की हृदय में नहीं है। पश्चिम के लिए लोग भी अनुभव करते हैं कि पूरब की हृदय में जो आकर्षण है, वह पश्चिम की हृदय में नहीं है। पश्चिम की हृदय ज्यादा सुंदर हो सकती है, उसके शरीर का अनुपात ज्यादा ढंग का हो सकता है, लेकिन फिर भी उसमें वह आकर्षण नहीं जो पूरब की साधारण हृदय में होगा। क्योंकि पूरब की हृदय के प्रवेश में प्रवेेश असंभव है। चुनौती बड़ी है।
रावण के पास सुंदर स्त्रियों की कमी न थी, सीता से शायद ज्यादा सुंदर रही हों। लेकिन सीता की जो अनन्य भक्ति है राम के प्रति, वह चुनौती बन रावण को।
तुम्हारे लिए भी सदा वहीं चुनौती है। दूसरे की हृदय में रस है। वह रावण की चेतना का गुणधर्म है। जो दूसरे के पास है उसमें रस है, जो अपने पास है उसमें रस नहीं है।
राम को किसी दूसरी हृदय में कोई रस नहीं, जैसे सीता में सारा संसार पूरा हो गया। यह राम की चेतना का हिस्सा है कि जो अपने पास है, वह सब है; जो अपने पास है, वह पूरा है; जो अपने पास है, उसमें संतोष है, उसमें संतुष्टि गहन है, उससे ज्यादा की कोई मांग नहीं है। उससे ज्यादा दिखाई ही नहीं पड़ता, सब उसमें समाया हुआ है। जैसे सारी दुनिया की हृदय का हृदयत्व सीता में समा गया है। सीता मिल गई, तो सब स्त्रिया मिल गई।
रावण की चेतना, जब तक सारी स्त्रियां न मिल जाएं, तब तक तृप्ति नहीं होती। और तब भी तृप्ति होगी, कहना कठिन है। व्यक्ति का मूल्य रावण को नहीं है, खुद के स्वार्थ और खुद की संवेदना का मूल्य है।
जिसके पास हम रहते हैं, उसके प्रति हमारी संवेदना बोथली हो जाती है। रोज उसे देखते हैं, फिर उसे देखने योग्य कुछ नहीं बचता; रोज उसे खोजते हैं, फिर खोजने योग्य कुछ नहीं बचता। फिर उसके पूरे व्यक्तित्व से हम परिचित हो जाते हैं, तो सब बासा हो जाता है। यही सभी इंद्रियों का ढंग है। आज भोजन मिला, वहीं कल भी मिला। आज कहा, बहुत अच्छा है; लेकिन कल उतना अच्छा नहीं कह सकेंगे, वही भोजन। फिर तीसरे दिन भी वही भोजन फिर मिला, तो ऊब पैदा हो गई। चौथे दिन थाली सरका देंगे। वही है, जो पहले दिन बहुत अच्छा कहा था, लेकिन चार दिन में ऊब गए।

इंद्रिया पुराने से ऊबती है। इंद्रियों का ढंग है, रोज नए की तलाश। क्योंकि इंद्रियों को उत्तेजना चाहिए। उत्तेजना नए से मिलती है। इसलिए जितने ऐंद्रिक समाज होंगे, नए की खोज उनका सूत्र होगा। जितने आध्यात्मिक समाज होंगे, पुराने के साथ तृप्ति उनका स्वभाव होगा। चेतना तो सनातन की खोज करती है, इंद्रिया नवीन की।
तो राम ने सीता में सनातन को खोज लिया। वह जो शाश्वत है, जो कभी पुराना नहीं पड़ता और जिसे नया करने की कोई जरूरत नहीं, जिससे ऊब कभी पैदा ही नहीं होती।
प्रेम से कभी ऊब पैदा नहीं होती, काम से ऊब पैदा होती है। क्योंकि प्रेम है ह्नदय का और काम है इंद्रियों का। इसलिए अगर कामवासना आपका केंद्र है, तो रोज आपको नई हृदय चाहिए, नया पुरूष चाहिए, नया भोजन चाहिए, रोज! क्योंकि शरीर तो प्रतिपल नए में जी सकता है, उससे उत्तेजना मिलती है, चुनौती मिलती है। लेकिन चेतना तो सनातन में जीती है, शाश्वत में जीती है। इसलिए प्रेम शाश्वत हो सकता है।
-ओशो
पुस्तकः भारत एक सनातन यात्रा
पूरा प्रवचन एम. पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध


मनुष्य का नैतिकता से संबंध कैसा हो?
नैतिकता न तो किसी स्वर्ग से संबधित है, न किसी नर्क से। नैतिकता न तो किसी पुण्य से संबंधित है, न किसी पाप से। नैतिकता न तो किसी दंड से संबंधित है, न किसी प्रलोभन से। नैतिकता ढंग से जीने की व्यवस्था का नाम है।
क्या हम ऐसी नीति, और ऐसा अनुशासन, और ऐसी डिसीप्लिन, और ऐसी शिष्टता विकसित कर सकते हैं जिसमे व्यक्ति मरता न हो, पूरी तरह होता हो और फिर जीवन एक नैतिक जीवन बन सके? मेरी दृष्टि में ऐसा विकास हो सकता है। बल्कि सच तो यह है की व्यक्ति ही नैतिक हो सकता है। पुराने समाजों को मैं नैतिक नहीं मानता। वे मजबूरी में नैतिक थे। क्योंकि व्यक्ति ही न था। पुराने समाज में व्यक्ति का आभाव नीति थी। नए समाज में व्यक्ति का प्रादुर्भाव होगा, व्यक्ति पूरी तरह प्रकट होगा। और नैतिक कैसे वह व्यक्ति हो सकें, यह हमे सोचना होगा। दो तीन बातें मेरे ख्याल में आती हैं जो हम सोचें तो उपयोगी हो सकती हैं।

पहली बात तो हमे यह समझनी चाहिए की नैतिकता न तो किसी स्वर्ग से संबधित है, न किसी नर्क से। नैतिकता न तो किसी पुण्य से संबंधित है, न किसी पाप से। नैतिकता न तो किसी दंड से संबंधित है, न किसी प्रलोभन से। नैतिकता ढंग से जीने की व्यवस्था का नाम है। नैतिकता जीवन को ढंग, विज्ञान और विधि देने का नाम है। अगर किसी व्यक्ति को अधिकतम जीना हो तो वह नैतिक होकर ही जी सकता है। अगर उसे कम जीना हो तो वह अनैतिक हो सकता है। जितना ज्यादा जीना हो उतना लोगो का साथ जरुरी है। जितना गहरा जीना हो उतना ज्यादा लोगों की शुभाकांक्षाएं जरुरी है। जितना अधिक जीना हो उतने लोगों का सहयोग जरुरी है। आनेवाली नैतिकता जीवन की एक विधि होगी। जो सुसाइडल हैं, वे अनैतिक हो सकते हैं, जो आत्मघाती हैं, वे नीति के विपरीत जा सकते हैं। लेकिन जीना है उन्हें तो सबके साथ जीना होगा। सबके साथ जीने का मतलब यह होता है की मैं सबको साथ देने वाला बन सकूं, तो ही सारे लोग मुझे साथ देनेवाले बन सकते हैं।

एक पुरानी व्यवस्था थी-शिक्षक था, क्लास में पढ़ा रहा है डंडा है। उसके हाथ में और बच्चे चुप हैं। वह चुप होना बड़ा बेहूदा था, अग्ली कुरूप था। क्योंकि डंडे के बल पर किसी को चुप करना अनैतिक है। वह अनुशासनबद्ध ही क्लास, एक बच्चा बोल न सकता था क्योंकि बोलना खतरनाक और महंगा पड सकता था। वह अनुशासन व्यक्ति को खोकर था। नई कक्षा में नये बच्चों के बीच डंडा लेकर शिक्षक अनुशासन पैदा नहीं कर सकता, न करना चाहिए, न वह उचित है। अब नयी कक्षा में कैसे अनुशासन हो? डंडा खो गया, शिक्षक की ताकत खो गयी। नयी कक्षा में विद्यार्थी हैं। उनके बीच अनुशासन कैसे हो?

अब नयी कक्षा में अनुशासन का एक अर्थ होगा कि विद्यार्थी यह समझ पायें कि वहां कुछ सीखने को उपस्थित है। और सीखना केवल सहयोग, शांति और मौन में ही संभव है। अगर इतना विवेक हम न जगा पायें तो अब भविष्य में अनुशासन कभी भी नहीं हो सकेगा। अब अनुशासन का एक ही अर्थ होगा कि विद्यार्थी को यह पता चले कि अनुशासन मेरे हित में है। अनुशासन के मार्ग से ही मैं सीख सकूंगा, अनुभव कर सकूंगा, खोज सकूंगा। क्योंकि अनुशासन मुझे दूसरों के अंतर्संबंध में प्रीतकर बन देगा, अप्रीतिकर नहीं। मैं इन तीस लोगों के साथ मित्र होकर ही जीत सकूंगा, अमित्र होकर नहीं। शिक्षक गुरु नहीं है, अब वह मित्र है। और उसके साथ सीखना हो तो मैत्री चाहिए।

शिक्षक को पुराना ख्याल छोड़ देना चाहिए गुरु होने का। गुरुडम की बात अब आगे नहीं चल सकती। और अगर वह गुरुडम स्थापित करने की कोशिश करेगा तो बच्चे उसके गुरुडम को तोड़ने की हर चेष्टा करेंगे। अब उसके गुरुडम को स्थापित करने की कोशिश, गुरुडम को तुड़वाने के लिए चुनौती देने की चेष्टा है। वह उसे छोड़ देनी चाहिए। अब वह मित्र होकर ही जी सकता है और उचित भी है यह कि शिक्षक मित्र हो। वह मित्र जो हमसे दस साल आगे है। जिसने जिंदगी को दस साल देखा है, पढ़ा है, सुना है, समझा है और वह हमें भी उस जिंदगी के रास्ते पर ले जा रहा है, जहां वह गया है।

मेरे एक मित्र रुस गये थे। और एक छोटे से कालेज को देखने गये थे। वहां वे बड़े परेशान हुए। देखा कि एक लड़का सामने कि ही बैंच पर दोनों जूते रखे हुए टिका हुआ बैठा है, पैर फैलाये हुए। वह मित्र मेरे शिक्षक हैं, उनके बर्दाश्त के बाहर हो गया। वे पुराने ढंग के शिक्षक हैं। उनको क्रोध आया। उन्होंने उस कालेज के प्रोफेसर को जो पढ़ा रहा था, बाहर निकलकर कहा कि यह क्या बेहूदगी है, यह कैसी अनुशासनहीनता है? सामने ही बैंच पर लड़का जूते टिकाये बैठा है और टिका है आराम से। यह कोई आराम कि जगह है। यह कोई विश्राम स्थल है, यह कोई वेटिंग रूम है? ढंग से बैठना चाहिए। उस शिक्षक ने कहा, आप समझें नहीं। मेरे लड़के मुझे इतना प्रेम करते हैं, मैं कोई उनका दुश्मन थोड़े ही हूं कि वे मेरे सामने डरे हुए और अकड़े हुए बैठें। मैं उनका मित्र हूं। वे आराम से बैठ सकते हैं। और फिर मुझे उनके बैठने से प्रयोजन नहीं। वे किस तरह बैठकर ज्यादा से ज्यादा सीख सकते हैं, यह सवाल है। अगर उस लड़के को इतने आराम से बैठकर सुनने में सुविधा हो रही है, तो बात खत्म हो गयी। उसके बैठने से क्या प्रयोजन?

यह एक दूसरा माहौल है, एक मित्रता का माहौल है। जहां हम विद्यार्थी को मित्र मान कर जी रहे हैं और तब एक नये तरह कि शिस्त और एक नये तरह का अनुशासन विकसित होगा। क्योंकि शिक्षक यह कह रहा है कि वे इतना प्रेम करते हैं मुझे कि अपने घर में जैसे अपनी मां के पास पैर फैलाकर बैठ सकते हैं, वह मेरे पास भी बैठे हुए है। मैं उनका दुश्मन नहीं हूं और मेरा काम यह है कि मैं उन्हें कुछ सिखाने को यहां आऊं। वे कितने आराम में, जितनी सुविधा से बैठ सकें, सीख सकें, वह मेरा फर्ज है। मैं उतनी उन्हें मुक्ति देता हूं। यह एक बुनियादी फर्क है।

रूस में पिछले तीस वर्षों से परीक्षा करीब करीब विदा हो गयी है। और सारी दुनिया से विदा होनी चाहिए, क्योंकि परीक्षा पुराने तंत्र से संबंधित है जहां हम डंडे के बल सिखा रहे थे और डंडे के बल परीक्षा ले रहे थे। परीक्षा भी बहुत बड़ा टीचर है, बहुत बडा अत्याचार है। और परीक्षा के आधार पर सिखाना एक बहुत भयग्रस्त व्यवस्था थी, फीयर पर खड़ी हुई थी क्योंकि लड़का सीख रहा था कि कहीं असफल न हो जाये। असफलता का भय उसे घेरे हुए था। सफलता का प्रलोभन घेरे हुए था। वही स्वर्ग और नर्क की व्यवस्था थी। अगर वह हार जाता, असफल हो जाता तो खो जायेगा-निंदित, अपमानित, व्यर्थ! अगर जीत जायेगा, सफल हो जायेगा तो स्वर्ग का पृथ्वी पर अधिकारी हो जायेगा।
-ओशो
पुस्तकः भारत समस्याएं व समाधान




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