बचपन में एक कथा सुनी थी ५ अंधे और एक हाथी कि बड़ी प्रतीक कथा थी जो आज भी जीवंत है। पांच अंधे मित्र एक हाथी के विशाल शरीर को एक साथ छू के समझने की चेष्टा कर रहे है कि आखिर ये हाथी क्या है और मिला जुला के भी वो रूप रेखा नहीं बन सकी जो वास्तव में हाथी के शरीर को पूर्णतः विश्लेषित कर सके। किसी ने कान पकडे , तो किसी ने पैर , किसी ने सूंड तो किसी ने पेट। सब सही थे अपन अपने स्तर पे पर अधूरे , पूरा सच कोई बता ही नहीं सकता किसी को। वो आंतरिक नेत्र ही नहीं थे उनके पास जो तीनो आयामो से सम्पूर्ण हाथी को देख सकते अनुभव कर सकते , बड़ी प्रतीक कथा है।
इसी कारन इन विभिन्न पाठशालों की विभिन्न अध्यात्मिक कक्षाओ में प्रवेश लिए हुए भी हर व्यक्ति को उस अमृत का पान नहीं हो पाता . इन धारा का उद्गम पवित्र है , अवश्य ही जो धारा का सूत्रधार है उसने पूर्ण अनुभव किया है उसी की चमक और पवित्रता से उजाला नीचे उतर के आ रहा है , परन्तु उस उजाले को उसी रूप में आत्मसात करना पाठशाला के हर पिपासु में सम्भव नहीं , कुछ विशेष कारण नहीं बस हर पिपासु के ह्रदय के तार के आंदोलन अलग अलग है । उस सूत्रधार का परम उजाले के साक्षात्कार से उत्पन्न उजाला कहाँ तक नीचे उतर के आएगा कहना असम्भव है , कब वो सिर्फ व्यवसाय का जरिया बन जायेगा समझना कठिन है। पर्वत से उतरी नवीन नदी की जलधार शीतल और स्वक्छ तथा शुरूआती ढलान में काफी देर तक प्रबल वेग को साध पाती है , परन्तु धीरे धीरे शांत भी होती है और मलिन भी।
हमारी अध्यात्म दर्शन करने का दावा करती समस्त व्यवसायिक संस्थाएं भी ऐसी ही है , भले ही वो नरसरी कक्षा को चलती हो या फिर विश्वविद्यालय प्रोग्राम , संसार का कोई भी अध्यात्मिक विश्वविद्यालय सिर्फ पद्धति दे सकता है , पढ्यक्रम दे सकता है और आपके लिए निश्चित पद्धतीओ से आपकी परीक्षा लेकर आपको पास होने का सर्टिफिकेट भी दे सकता है। इसी कारन ऐसी संस्थाओं से पास हुए जिज्ञासु बहुत अहंकारी भी देखे गए है। ये अहंकार भी आ सकता है कि अब हम ज्ञानी हो गए।
परन्तु वो अनुभव तो स्वयं की अति_आंतरिक साधना से ही होता है वो अनुभव जहाँ सिर्फ आप और आपका परमात्मा होता है। वो अनुभव मानव रचित किसी धर्म किसी शास्त्र किसी पद्धति में नहीं। सिर्फ सरलता और प्रेम और सहजता में है और इस भाव के साथ इस असार संसार में रहते हुए उस प्रक़ति से एकाकार होता है उसी क्षण आपको उसकी असीम सत्ता का आभास और अनुभव एक साथ हो जाता है।
और एक अनुभव बाँटना चाहती हूँ ये धाराएं भी निर्दोष है क्युकी ये अपने उस गुरु माध्यम से और परंपरा दवरा उस परम से जुड़ना चाहती है। उनको ऐसा परंपरा से करने का आदेश है। पहले से तैयार फॉर्मूले एकदम पूर्व तैयार बनी बनायीं अंग्रेजी दवा क़ी तरह।
कोई भी धारा व्यवसायी हो या अव्यवसायी उनका अप्रत्यक्ष उद्देश्य एक ही है उस परमात्मा का अनुभव उस परम से जुड़ना और एकाकार होना। परन्तु प्रत्यक्ष व्यवसाय के अधीन मूल से भटक के कई निराशाएं उनलोगो को हाथ आती है जो बिना सोचे समझे नियमो का शारीरिक रूप से पालन करते जाते है। जो सोचने समझने के सारे तरीके संस्था को बंधक रख देते है। वो ही निराश होते है।
क्यूंकि ये तो किसी अज्ञानी को भी एकदम साफ़ है कि तरंग को सिर्फ तरंग ही पकड़ती है , शब्द नहीं। ये संसार शब्दो कि पकड़ से बहुत दूर है।
" यही पे और इसी जगह सम्भव है " का फार्मूला है … सही तरँग ... सही पकड़ .... सही ह्रदय … सही स्थान ... और .... सही वख्त ।
हर अनुभव व्यक्तिगत है सार्वजानिक पाठ्यक्रम से संचालित नहीं हो सकता , ये भी एक सोचने वाली बात है कि इक्षुक का उद्देश्य क्या है , प्यास तो है पर संसार कि असारता का सामना नहीं करसकेंगे , क्यूंकि मोह के खूंटे तो अभी भी बंधे है। लालच कि डोर कस के पकड़ी है। ध्यान करते हुए व्यक्ति कि शांति देखना अछा लगता है , परन्तु उस जीवन को जीना अच्छा नहीं लगता , यानि कि माया का विस्तार प्रभावशाली है , जानते हुए भी माया को गले लगाना उसको अच्छा लगता है। परन्तु समय समय पे उपजे दुःख और क्लेश , सिर्फ ध्यान से ही दूर होंगे ऐसा विश्वास भी है मन में। इसी कारन ऐसे ही व्यक्ति अपनी धन सम्पदा को संस्थाओ पे बहाते देखे गए। निर्धारित योजना के अनुसार कुछ दिन रहे आश्रम में थोडा सुख मिल गया ,दिमाग शांत हुआ ,मूल्य चुकाया; काफी है फिर लौट गए अपने संसार में। फिर दोबारा जब आवश्यकता हुई फिर वो ही मूल्य चुकाया और फिर आ गए हरे भरे हो के , जैसे कोई जरूरतमंद गाडी गॅरेजे से मूल्य चूका के साफ़ सुथरी हो के फिर वापिस आ जाये सड़को पे दौड़ने के लिए …… आम इंसान यही कर रहा है , अधिकतर को परमात्मा का साक्षात्कार करना ही नहीं।
म्रत्यु की वेदना जब तक हृदय पे दस्तक नहीं देती तब तक मरना दूर , मरते हुए को देखना भी नहीं चाहते। नजरें फेर के चल पड़ते है अपने काम पे।
पर यदि प्यास सच्ची है , हृदय की पीड़ा सच्ची है , तो यह परम पवित्र एकाकार नितांत एकांत में ही सम्भव है उस एकांत में जहाँ आपके और प्रिय के मध्य फासला ही न रहे वही पे सत्य से आवरण हटते है। धर्म या संस्थागत अध्यात्म की किसी पूर्वरचित योजनाओं में नहीं। ये बहुत आंतरिक लहर है व्यक्ति की नाभि का मूल स्त्रोत जो सीधा परम की नाभि के मूल स्रोत से जुड़ता है। तभी ये आश्चर्यजनक घटना घटती है।
अध्यात्म अपनी अति आंतरिक घटना है , अति निजी , इस कारण ये घटती भी है अति एकांत में , पारलौकिक एकांत में। जब तन और मन दोनों उसकी सत्ता को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने को तैयार होते है। स्वयं को ही ये यात्रा पूरी करनी है , कोई सांसारिकता सहायक नहीं हो सकती। सारी सांसारिकताए छोड़नी ही पड़ेंगी , आत्मा का पुनर नव सर्जन करना ही पड़ेगा। और लौकिकता का विसर्जन।
और फिर अंत में वो ही अंतिम कारगर सूत्र ; शुध्ह अंतर्मन से ध्यान दवरा उस महान को अपने ह्रदय में उतारना , और शुध्ह मौन से निमत्रण देना . कभी उसको उतारना कभी उसके ह्रदय में उतरना। कभी उसको निमंत्रण देना तो कभी उसके निमंत्रण को स्वीकार करना , सब कुछ परम मौन से सम्भव है।
ॐ प्रणाम
इसी कारन इन विभिन्न पाठशालों की विभिन्न अध्यात्मिक कक्षाओ में प्रवेश लिए हुए भी हर व्यक्ति को उस अमृत का पान नहीं हो पाता . इन धारा का उद्गम पवित्र है , अवश्य ही जो धारा का सूत्रधार है उसने पूर्ण अनुभव किया है उसी की चमक और पवित्रता से उजाला नीचे उतर के आ रहा है , परन्तु उस उजाले को उसी रूप में आत्मसात करना पाठशाला के हर पिपासु में सम्भव नहीं , कुछ विशेष कारण नहीं बस हर पिपासु के ह्रदय के तार के आंदोलन अलग अलग है । उस सूत्रधार का परम उजाले के साक्षात्कार से उत्पन्न उजाला कहाँ तक नीचे उतर के आएगा कहना असम्भव है , कब वो सिर्फ व्यवसाय का जरिया बन जायेगा समझना कठिन है। पर्वत से उतरी नवीन नदी की जलधार शीतल और स्वक्छ तथा शुरूआती ढलान में काफी देर तक प्रबल वेग को साध पाती है , परन्तु धीरे धीरे शांत भी होती है और मलिन भी।
हमारी अध्यात्म दर्शन करने का दावा करती समस्त व्यवसायिक संस्थाएं भी ऐसी ही है , भले ही वो नरसरी कक्षा को चलती हो या फिर विश्वविद्यालय प्रोग्राम , संसार का कोई भी अध्यात्मिक विश्वविद्यालय सिर्फ पद्धति दे सकता है , पढ्यक्रम दे सकता है और आपके लिए निश्चित पद्धतीओ से आपकी परीक्षा लेकर आपको पास होने का सर्टिफिकेट भी दे सकता है। इसी कारन ऐसी संस्थाओं से पास हुए जिज्ञासु बहुत अहंकारी भी देखे गए है। ये अहंकार भी आ सकता है कि अब हम ज्ञानी हो गए।
परन्तु वो अनुभव तो स्वयं की अति_आंतरिक साधना से ही होता है वो अनुभव जहाँ सिर्फ आप और आपका परमात्मा होता है। वो अनुभव मानव रचित किसी धर्म किसी शास्त्र किसी पद्धति में नहीं। सिर्फ सरलता और प्रेम और सहजता में है और इस भाव के साथ इस असार संसार में रहते हुए उस प्रक़ति से एकाकार होता है उसी क्षण आपको उसकी असीम सत्ता का आभास और अनुभव एक साथ हो जाता है।
और एक अनुभव बाँटना चाहती हूँ ये धाराएं भी निर्दोष है क्युकी ये अपने उस गुरु माध्यम से और परंपरा दवरा उस परम से जुड़ना चाहती है। उनको ऐसा परंपरा से करने का आदेश है। पहले से तैयार फॉर्मूले एकदम पूर्व तैयार बनी बनायीं अंग्रेजी दवा क़ी तरह।
कोई भी धारा व्यवसायी हो या अव्यवसायी उनका अप्रत्यक्ष उद्देश्य एक ही है उस परमात्मा का अनुभव उस परम से जुड़ना और एकाकार होना। परन्तु प्रत्यक्ष व्यवसाय के अधीन मूल से भटक के कई निराशाएं उनलोगो को हाथ आती है जो बिना सोचे समझे नियमो का शारीरिक रूप से पालन करते जाते है। जो सोचने समझने के सारे तरीके संस्था को बंधक रख देते है। वो ही निराश होते है।
क्यूंकि ये तो किसी अज्ञानी को भी एकदम साफ़ है कि तरंग को सिर्फ तरंग ही पकड़ती है , शब्द नहीं। ये संसार शब्दो कि पकड़ से बहुत दूर है।
" यही पे और इसी जगह सम्भव है " का फार्मूला है … सही तरँग ... सही पकड़ .... सही ह्रदय … सही स्थान ... और .... सही वख्त ।
हर अनुभव व्यक्तिगत है सार्वजानिक पाठ्यक्रम से संचालित नहीं हो सकता , ये भी एक सोचने वाली बात है कि इक्षुक का उद्देश्य क्या है , प्यास तो है पर संसार कि असारता का सामना नहीं करसकेंगे , क्यूंकि मोह के खूंटे तो अभी भी बंधे है। लालच कि डोर कस के पकड़ी है। ध्यान करते हुए व्यक्ति कि शांति देखना अछा लगता है , परन्तु उस जीवन को जीना अच्छा नहीं लगता , यानि कि माया का विस्तार प्रभावशाली है , जानते हुए भी माया को गले लगाना उसको अच्छा लगता है। परन्तु समय समय पे उपजे दुःख और क्लेश , सिर्फ ध्यान से ही दूर होंगे ऐसा विश्वास भी है मन में। इसी कारन ऐसे ही व्यक्ति अपनी धन सम्पदा को संस्थाओ पे बहाते देखे गए। निर्धारित योजना के अनुसार कुछ दिन रहे आश्रम में थोडा सुख मिल गया ,दिमाग शांत हुआ ,मूल्य चुकाया; काफी है फिर लौट गए अपने संसार में। फिर दोबारा जब आवश्यकता हुई फिर वो ही मूल्य चुकाया और फिर आ गए हरे भरे हो के , जैसे कोई जरूरतमंद गाडी गॅरेजे से मूल्य चूका के साफ़ सुथरी हो के फिर वापिस आ जाये सड़को पे दौड़ने के लिए …… आम इंसान यही कर रहा है , अधिकतर को परमात्मा का साक्षात्कार करना ही नहीं।
म्रत्यु की वेदना जब तक हृदय पे दस्तक नहीं देती तब तक मरना दूर , मरते हुए को देखना भी नहीं चाहते। नजरें फेर के चल पड़ते है अपने काम पे।
पर यदि प्यास सच्ची है , हृदय की पीड़ा सच्ची है , तो यह परम पवित्र एकाकार नितांत एकांत में ही सम्भव है उस एकांत में जहाँ आपके और प्रिय के मध्य फासला ही न रहे वही पे सत्य से आवरण हटते है। धर्म या संस्थागत अध्यात्म की किसी पूर्वरचित योजनाओं में नहीं। ये बहुत आंतरिक लहर है व्यक्ति की नाभि का मूल स्त्रोत जो सीधा परम की नाभि के मूल स्रोत से जुड़ता है। तभी ये आश्चर्यजनक घटना घटती है।
अध्यात्म अपनी अति आंतरिक घटना है , अति निजी , इस कारण ये घटती भी है अति एकांत में , पारलौकिक एकांत में। जब तन और मन दोनों उसकी सत्ता को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने को तैयार होते है। स्वयं को ही ये यात्रा पूरी करनी है , कोई सांसारिकता सहायक नहीं हो सकती। सारी सांसारिकताए छोड़नी ही पड़ेंगी , आत्मा का पुनर नव सर्जन करना ही पड़ेगा। और लौकिकता का विसर्जन।
और फिर अंत में वो ही अंतिम कारगर सूत्र ; शुध्ह अंतर्मन से ध्यान दवरा उस महान को अपने ह्रदय में उतारना , और शुध्ह मौन से निमत्रण देना . कभी उसको उतारना कभी उसके ह्रदय में उतरना। कभी उसको निमंत्रण देना तो कभी उसके निमंत्रण को स्वीकार करना , सब कुछ परम मौन से सम्भव है।
ॐ प्रणाम
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