दीपक बारा प्रेम का :
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स्वयं की बुध्ही को दुसरो को पहचाने में न खर्च करो , आंकलन करना ही है तो स्वयं का करो , क्यूंकि स्वयं का आंकलन ही आगे का रास्ता दिखायेगा , दूसरे के लिए किया गया आंकलन फिर से उसी चक्कर में डाल देगा , जिस से बचने का यत्न करते आ रहे हो।
प्रकृति के स्वभाव को समझो , जानो , फिर पूरी ईमानदारी से अपने स्वभाव को समझो , प्रकृति आपको आपके कर्म अनुसार द्वगुणित फल देने के लिए बाध्य है , वहाँ थर्ड पार्टी सिस्टम नहीं चलता , परन्तु आपके समुदाय व्यवस्था में थर्ड पार्टी ही चलता है , शासन जो करना है व्यवस्था के नाम पे , कभी समूह पे तो कभी स्वयं पे।
अब उद्विगनता दुःख और क्षोभ इसलिए कि आप अपने अनुसार थर्ड पार्टी को जाने दीजिये अपने नाक के नीचे फल फूल रहे परिवार को और स्वयं को शासित नहीं कर पा रहे , आपके बस में कुछ नहीं , कुछ भी नहीं। कैसे होगा ? और सब कुछ होगा यदि थोडा प्रकृति के स्वभाव से कदम मिला ले।
प्रकृति के इस नियम को समझे , ' आपको आपके अपने कर्म अनुसार दुगना तिगुना लौटने को बाध्य है प्रकति। प्रकृति ; सहज है , सरल है , निर्दोष है , नियमित है , निष्पक्ष है , मुखर के लिए मौन है , मौन के लिए मुखर है। ॐ ॐ ॐ
इसी को कई धर्मो में भी समझने कि चेष्टा की गयी है कुछ ऐसे ; तुम ईश्वर पुत्र हो ईश्वर ने तुमको कर्म के लिए इस हरी भरी जंगल पुष्प नदी झरनो तथा अन्य भाई बांधव से सजी धरती पे भेजा , जितना कर्म करोगे उतनी सम्पन्नता मिलगी , उसकी धरती में अनगिनत खजाने है।
इसका मात्र उद्देश्य आपको आपके मूल से जोड़ना है , भाई बांधव सभी है एक दूसरे के जीवन चक्र से जुड़े है। कई अध्यात्मिक संप्रदाय भी इस वाक्य को अपनी संस्था का प्रमुख सिद्धांत बना लिया है।
आशय सिर्फ छोटा सा है , कि आप प्रकृति के मूल स्वभाव को जाने और उसके साथ सामजस्य करे। क्यूंकि प्रकृति से युध्ह करना आपकी क्षमता के बाहर है। प्रकृति आपके लिए बाध्य है आपकी दूसरी मायामयी दुनिया के लिए वो बाध्य नहीं , वो आपका अपने लिए फैलाया हुआ जाल है। उदाहरण के लिए यदि कोई फूल ये आग्रह कर बैठे कि उसको तो अपने पौधे पे पुष्प के साथ अंगूर का फल चाहिए ही चाहिए , फिर मंदिर बनाये मस्जिद बनाये चर्च बनाये ग्रन्थ बना ले प्रार्थना शुरू कर दे , १००१ माला फेरें , ध्यान लगाये , योग करे और प्रयास विफल हो तो शोक करे .... कहे कि सब व्यर्थ है , जीवन ही व्यर्थ है आदि आदि। फूल की अपनी सीमा है अपनी सुगंध है और अपना सौंदर्य है। ऐसा ही जीवन हमारा हो गया है , शेर का बल मिल जाये , चिड़िया सा आकाश में उड़ना हो जाये , मछली सा समंदर में तैरना हो जाये और पृथ्वी पे तो पूरा ही शासन चाहिए। फिर घर क्या बला है और बच्चे तो अपने ही अंश है वो हमसे अलग सोचने के हक़दार ही नहीं। जीवन में सफलता मिलनी ही चाहिए दुःख पीड़ा हमारे लिए ही क्यूँ आदि आदि जो कुछ मनोवांछित नहीं मिला तो बालहठ ले के बैठ गए। और जीवन बिता दिया रोज रोज नए बनते और पुराने बटोरते सहेजते भगवानो की प्राथनाओं में।
प्रकृति का सीधा और सच्चा कहना है ," तुम अपने उत्तरदायी स्वयं बनो " तुम ईमानदारी से जो कर्म स्वयं के लिए करोगे तुमको उसका फल मिलगा। कृपया प्रकर्ति के दिया और अपने बनाये में मिलावट न करे। यद्यपि माया जाल दोनों ही है। परिवर्तन प्रकृति का ही नियम है , परन्तु अपनी अपनी क्षमता अनुसार, प्रकृति कि आयु आपकी आयु से कहीं ज्यादा लम्बी है , आपका बनाया मायाजाल कम अवधि के लिए है इसलिए आपके ही जीवन काल में कई कई बार दिखायी और अनुभव किया जा सकता है , जबकि प्रकर्ति के माया जाल को अनुभव करने के लिए , या तो आपको अति संवेदनशील होना पड़ेगा , या फिर पिपासु जो ध्यान में उतरे और प्रकृति से एकाकार हो , तथा सत्य का साक्षात्कार कर सके।
प्रकृति आपको अवश्य देगी आपकी जिज्ञासा का उत्तर। उसका ह्रदय छूना है तो मौन में नितांत मौन में , ऐसा मौन जो प्रकति से मिल सकता है , उसी से उसी के मौन द्वारा ; उससे ही उत्तर मिलेगा। आपको आपकी मनमानियों का भी अंदाजा हो जायेगा
तो सबसे पहले प्रकृति की ह्रदय सत्ता को छूने का यत्न करे , इसके बाद ही परमात्मा की ह्रदय सत्ता तक जाना सम्भव हो सकेगा।
ध्यान दीजियेगा ; बुध्ही नहीं , ह्रदय , यानि तर्क नहीं भाव।
सात परतो के पीछे आपका सत्य इन्तजार कर रहा है , बच्चो की तिस्लिम से भरी कथाओं में अक्सर ऐसा लिखा होता है कि नायक को कथा की शुरुआत में एक प्रभावशाली व्यक्ति संकेत में समझाता है , सात रहस्य को पार करो , सात प्रश्नो के उत्तर पा लो सातवें प्रश्न के समाधान के साथ ही फिर उस दुष्ट का वध सम्भव है। और इन प्रश्नो के उत्तर खोजने में तमाम बाधाओं को सफलता पूर्वक पार करता हुआ नायक अंत में सफल होता है। ये तो कथाये है मस्तिष्क की उपज , परन्तु ब्रह्माण्ड से बाहर का कुछ सोचा भी नहीं जा सकता , हमारी सीमाए है कि हम वो ही सोच सकते है जो की पहले से ही मौजूद है , सिर्फ खोजना पड़ता है , कर्म करना पड़ता है। धरती भी उसी ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा अंश है। आप के सिर्फ प्रयास ही है वस्तुतः जो भी आप अपने कर्म अथवा पुरुषार्थ द्वारा खोज रहे है उसकी उपस्थिति पहले से ही है।
प्रकृति ऐसी ही है , प्यास लगी तो जलस्त्रोत खोजना ही पड़ता है.
यहाँ आप द्वारा बनायीं समुदाय व्यवस्था आपकी सहयोगी नहीं हो सकती , सिर्फ और सिर्फ इशारे ही मिलेंगे , सहयोगियों से भी सिर्फ इशारे ही मिलेंगे। सहयोगी सिर्फ आपके साथ जन्मे मित्र ही नहीं है वो सब है जो हजारो साल से इस पृथ्वी पे जन्म लेते आ रहे है। आप भी उनके सहयोगी है जो आपके साथ और आपके बाद इस धरती पे आयेंगे। यही मात्र प्रकृति का सच है , जो हमारे बनाये सच से थोडा ज्यादा बड़ा है।
ॐ ॐ ॐ
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