दूसरा प्रश्न: मोक्ष के पश्चात कभी जन्म नहीं होता, इसकी क्या गारंटी है?
Osho : कोई गारंटी नहीं है। तुम किसी बैंक में आ गए!
इसको मैं कहता हूं, लोभ से भरा हुआ मन। ऐसा मन साधक नहीं हो सकता। गारंटी की बात क्या है? कौन किसको गारंटी देगा? और वह भी मोक्ष के बाद जन्म नहीं होता, इसकी गारंटी? अगर मैं लिखकर भी दे दूं, तो भी किस काम पड़ेगी? फिर तुम मुझे कहां खोजोगे? तुम मेरी लिखी चिट्ठी कहां ले जाओगे?
मोक्ष के बाद दुबारा जन्म नहीं होता इसकी गारंटी चाहिए--क्यों? क्योंकि यदि करोड़ों वर्षों के बाद नई सृष्टि में जन्म लेना होता है, तो इस मोक्ष का फायदा ही क्या?
इसको मैं कहता हूं, लाभ और लोभ की दृष्टि।
साधना का जन्म ही शुरू से गलत हो गया। वह बच्चा मरा ही पैदा हुआ। अब तुम इसको कितना ही सजाओ, संवारो, कितने ही बहुमूल्य वस्त्रों में रखो, दुर्गंध ही आएगी। यह बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। यह तो गर्भपात हो गया। साधक पैदा ही नहीं हो पाया। तुम दुकानदार ही रहे, बाजार में ही रहे। मंदिर तो बाजार में न आ पाया, तुम बाजार को मंदिर में ले आए। तुम गारंटी पूछते हो; कोई गारंटी नहीं है।
और साधक गारंटी पूछता ही नहीं। साधक असल में कल की बात ही नहीं उठाता। साधक कहता है, आज काफी है। यह क्षण पर्याप्त है। इस क्षण में अगर मैं मुक्त हूं, तो...
इस बात को थोड़ा समझने की कोशिश करो। अगर इस क्षण में मैं मुक्त हूं, तो दूसरा क्षण पैदा कहां से होगा? इसी क्षण से पैदा होगा। क्षण में से क्षण लगते हैं। जैसे गुलाब पर गुलाब का फूल लगता है, ऐसे मुक्त क्षण में मुक्त का फूल लगता है। गुलाम क्षण में गुलामी का फूल लगता है। तुम अगर आज गुलाम हो, तो कल भी गुलाम रहोगे। आज का दिन तुम्हारी गुलामी को और मजबूत कर जाएगा। कल तुम और ज्यादा गुलाम हो जाओगे, परसों और ज्यादा गुलाम हो जाओगे।
अगर आज तुम मुक्त हो, तो कल आएगा कहां से? कल घड़ी में से थोड़े ही आता है! कल तो तुम्हारे जीवन में से ही आता है। तुम्हारा कल, तुम्हारा कल है: मेरा कल मेरा कल होगा। उतने ही समय हैं, जितने लोग हैं। समय कोई एक थोड़े ही है। मेरे समय में और तुम्हारे समय में क्या नाता है, क्या संबंध है? तुम्हारा समय तुम्हारे भीतर से निकल रहा है।
जो आदमी सुबह क्रोध से भरा था, उसकी दोपहर में क्रोध की छाया होगी। जो आदमी सुबह प्रार्थना किया है, पूजा किया है, अहोभाव से भरा था, उसकी दुपहर पर अहोभाव की भनक, धुन, सुगंध होगी। तुम्हारा क्षण तुम्हारे ही भीतर से उग रहा है। क्षण ऐसे लगता है तुममें, जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। कल की बात ही क्या करनी है? अगर आज का क्षण मेरा मुक्त है, तो वहीं छिपी है गारंटी! क्योंकि कल का क्षण आएगा कहां से? इसी क्षण से निकलेगा--और भी मुक्त होगा। क्योंकि इतना समय मुक्ति के लिए और भी मिल चुका होगा। फिर परसों उस क्षण से निकलेगा।
इसलिए हम कहते हैं, मोक्ष से कोई वापिस नहीं आता। क्योंकि मोक्ष बड़ा होता जाता है, बढ़ता जाता है; वापिस कैसे लौटोगे? वापिस तो वही लौटता है, जिसकी गुलामी बढ़ती जाती है।
ऐसा हुआ, यूनान में एक बहुत अदभुत फकीर हुआ डायोजनीज। उसने सब त्याग कर दिया था, लेकिन ऐसे वह एक बड़े रईस और कुलीन घराने से आया था। सब छोड़ दिया था, लेकिन कभी अपना काम अपने हाथ से तो किया न था, तो एक गुलाम बचा रखा था। एक नौकर, जो उसकी देखभाल कर देता, सेवा-टहल कर देता। ऐसे वह संन्यासी हो गया था सब छोड़ कर; सिर्फ एक गुलाम बचा लिया था। पुरानी आदत थी, अपना काम कभी किया न था। बिस्तर कौन लगाता, भोजन कौन बनाता? तो एक नौकर रख छोड़ा था।
एक दिन वह नौकर भाग गया। आखिर नौकर को रख छोड़ना आसान मामला नहीं है। जब उस नौकर ने देखा, कि अब यह डायोजनीज बिलकुल फकीर हो गया है, तो वह यह उसको रोक भी कैसे सकेगा? इसके पास कुछ भी रोकने को भी नहीं बचा है। तुम अपने नौकर को रोक पाते हो क्योंकि वहां पुलिस है, कानून है, अदालत है। वे सब रक्षा कर रहे हैं। नहीं तो नौकर भाग जाए, तुम क्या करोगे? अब यह आदमी अकेला जंगल में था, नौकर भाग गया।
दूसरे फकीर जो जंगल में साधना में रत थे, उन्होंने कहा, कि पीछा करो। यह बात ठीक नहीं है। इस नौकर को दंड देना उचित है।
लेकिन डायोजनीज ने कहा, कि मैं सोचता हूं कि अगर नौकर मेरे बिना जी सकता है और मैं उसके बिना नहीं जी सकता, कौन मालिक है, तो कौन नौकर है, यह जरा संदिग्ध हो जाता है। दास मेरे बिना जी सकता है, उसे मेरी कोई जरूरत नहीं और मैं दास के बिना नहीं जी सकता? तो मैं दासानुदास हो गया। नहीं, अब यह भूल मैं न करूंगा। अच्छा हुआ, कि वह भाग गया। अब वह आए भी, तो उसे हाथ जोड़ लूंगा।
यह आदमी मुक्ति की तरफ एक कदम रख रहा है। इसका कल भी तो इसी से निकलेगा।
तब उसके पास सिर्फ एक भिक्षापात्र बचा। एक दिन उसने देखा एक कुत्ते को पानी पीते झरने पर, तो उसने सोचा यह कुत्ता तो मुझसे ज्यादा मुक्त है। यह भिक्षापात्र तो मुझे ढोना पड़ता है और अगर कुत्ता बिना भिक्षापात्र के रह लेता है, तो मैं आदमी होकर न रह सकूं? कुत्ते से गई बीती दशा हो गई। उसने भिक्षापात्र वहीं छोड़ दिया। वह हाथ से ही पानी पीने लगा। वह हाथ में ही भिक्षा लेने लगा। मुक्ति से दूसरा क्षण निकल आया। दृष्टि!
सिकंदर जब भारत आ रहा था, तो इस फकीर को मिला था। तो उस फकीर ने सिकंदर को कहा था, तू व्यर्थ परेशान मत हो। तू किसलिए दुनिया जीतना चाहता है? सिकंदर ने कहा, ताकि मैं आनंद से विश्राम कर सकूं। डायोजनीज हंसने लगा जोर से। वह पहाड़, नदी उसकी हंसी से गूंज उठी होगी। सिकंदर थोड़ा हतप्रभ हुआ। उसने कहा, मैं समझा नहीं; इसमें हंसने की क्या बात है?
डायोजनीज ने कहा, कि हंसने की बात है। मुझे देखो, बिना दुनिया को जीते मैं आराम कर रहा हूं, तो तुम दुनिया को जीतकर आराम करोगे यह मेरी समझ में नहीं आता। अगर आराम ही करना है, तो अभी क्या बिगड़ा है? यह नदी काफी बड़ी है और रेत का घाट बहुत बड़ा है। इस में मेरे लिए भी जगह है, तुम्हारे लिए भी जगह है। सारी दुनिया भी आ जाए, तो विश्राम कर सकती है। तुम लेट जाओ। सुबह कितनी सुंदर है! कहां जाते हो?
डायोजनीज लेटा था नग्न, सुबह धूप ले रहा था। कहते हैं, सिकंदरर् ईष्या से भर गया था डायोजनीज की स्वतंत्रता को देखकर। सिकंदरर् ईष्या से भर जाए, सोचने जैसा है। और सिकंदर ने कहा था, अगर परमात्मा से दुबारा मुझे जन्म लेने का मौका मिला तो मैं कहूंगा इस बार मुझे सिकंदर मत बना, डायोजनीज बना दे। लेकिन अभी तो जाना होगा। अभी तो यात्रा अधूरी है, संसार जीतने को पड़ा है। लेकिन तुम्हारी बात याद रखूंगा। डायोजनीज, तुम्हें भूलूंगा नहीं। तुम्हारे लिए कुछ करना हो, तो मुझे कहो। तुम जो कहोगे करवा दूंगा। मैं खुश हूं।
डायोजनीज ने कहा, ज्यादा से ज्यादा तुम इतना कर सकते हो, कि थोड़ा धूप छोड़कर खड़े हो जाओ। और न कुछ चाहिए, न कोई जरूरत है। सुबह सर्द है और मैं धूप का मजा ले रहा हूं। तुम नाहक बीच में खड़े हो।
और इतना तुमसे कहे देता हूं, कि कोई भी संसार को लौटकर कभी विश्राम नहीं कर पाया। जिसने भी विश्राम किया है, उसने इसी क्षण शुरू किया है। क्योंकि हर क्षण इस क्षण से पैदा होता है।
तुम कहते हो, कल करेंगे। आज तुम कुछ तो करोगे? तुम जो करोगे, उससे तुम्हारा कल पैदा होगा। तुम कहते हो, आज तो दूकान कर लेने दो, फिर कल पूजा कर लेंगे। लेकिन कल आएगा कहां से? आज की दुकानदारी से ही आएगा। फिर पूजा कैसे पैदा होगी? उससे दुकानदारी ही पैदा होगी। एक दिन और बीत गया निद्रा में, निद्रा और मजबूत हो गई।
तुम यह पूछो ही मत, कि मोक्ष के बाद आना होता है? मोक्ष का अर्थ ही यह है, कि जिसमें लौटने का उपाय नहीं रह जाता। मोक्ष का अर्थ क्या है, तुम समझे ही नहीं; इसलिए इस तरह का सवाल उठता है। मोक्ष का अर्थ है, वह व्यक्ति जिसकी अब कोई वासना न रही। लौटता है आदमी वासना के कारण।
थोड़ा समझो: एक बच्चा स्कूल में आता है। और वह स्कूल के प्राचार्य को पूछता है, कि अगर पास हो जाऊंगा, तो मुझे दुबारा तो स्कूल नहीं आना पड़ेगा? तो प्राचार्य कहेगा, कि अगर तुम उत्तीर्ण हो गए तो तुम आना भी चाहो, हम तुम्हें भीतर न घुसने देंगे। क्योंकि इस स्कूल का उपयोग ही इतना है, कि तुम उत्तीर्ण हो गए, बात खत्म हो गई। अगर उत्तीर्ण हुए लोग यहां आने लगें, तो छोटे बच्चों का क्या होगा? वे कहां जाएंगे?
ऐसे ही भीड़-भड़क्का बहुत है। उत्तीर्ण आदमी को तो आने का कोई सवाल नहीं रहा। लेकिन जो असफल हुआ है, उसे वापिस लौटना पड़ता है। संसार एक प्रशिक्षण है परमात्मा को पाने का। जिसने पा लिया, बात खत्म हो गई प्रशिक्षण पूरा हो गया। लौटने का सवाल ही नहीं उठता।
तुम्हारे मन में उठता है, क्योंकि तुम्हारे वह जो कृपण और लोभी मन है, वह हर चीज को पहले से मजबूत और पक्का कर लेना चाहता है; तब कदम उठाओगे तुम। जब तक कि तुम्हें कोई गारंटी न मिल जाए, तब तक तुम ध्यान न करोगे। तुम्हारी इस गारंटी की आकांक्षा ने ही दुनिया में बहुत उपद्रव खड़ा किया है। तब न मालूम कितने तरह के चालाक लोग तुम्हें गारंटी देने के लिए तैयार हो गए हैं। तुम जो मांगते हो, उसको कोई न कोई तो पूर्ति करने के लिए तैयार हो जाएगा।
मैं सूरत में था, तो एक सज्जन ने मुझे आकर कहा, कि उनका धर्मगुरु दऊदी बोहरा लोगों को चिट्ठी लिखकर देता है भगवान के नाम, कि इस आदमी ने एक लाख रुपया दान किया है, यह बड़ा अच्छा आदमी है, इसकी साज-सम्हाल रखना, ढंग से स्वागत वगैरह करवाना। कुछ लिख दी चिट्ठी भगवान के नाम और उस चिट्ठी को वह आदमी जब मरता है, तो उसकी छाती पर रखकर और कब्र में रख दिया जाता है।
तुम गारंटी मांगते हो, देनेवाले मिल जाते हैं। मगर कैसी मूढ़ता है! वह आदमी भी यहीं पड़ा रह जाता है, वह चिट्ठी भी यहीं पड़ी रह जाती है। लेकिन लौटकर इस धर्मगुरु से अदालत में लड़ने का भी तो कोई उपाय नहीं है। कोई कभी लौटता नहीं। कोई कभी शिकायत नहीं करता, कि चिट्ठी काम नहीं आई। यह चिट्ठी बेकार है। न कोई कभी लौट सकता है, न कोई मुकदमा हो सकता है। यह चालाकी और शोषण जारी रहता है।
तुम जब तक मांगोगे, देने वाले मिल जाएंगे। दोष उनका नहीं है, दोष तुम्हारा है।
और तुम पूछते हो, फायदा क्या है अगर फिर लौटना पड़ा? तुम जब भोजन करते हो तब तुम यह नहीं पूछते कि कल फिर भोजन करना पड़ेगा, फायदा क्या है? तुम जब पानी पीते हो तब तुम नहीं पूछते कि फिर पानी पीना पड़ेगा, फायदा क्या है? तुम जब सांस भीतर लेते हो तब तुम नहीं कहते, क्या फायदा? फिर बाहर निकालनी पड़े, फिर भीतर करनी पड़े, फायदा क्या?
जीवन में फायदे की बात ही पूछना नासमझी की है। जीवन कोई धंधा थोड़े ही है! फायदे का दृष्टिकोण ही भूल-भरा है। उससे ही तो तुम भटक रहे हो। जहां जाना चाहिए वहां नहीं पहुंच पाते क्योंकि वहां जाने में कोई फायदा नहीं दिखाई पड़ता। और जहां फायदा दिखाई पड़ता है, वह तुम्हारी नियति नहीं।
मैंने सुना है, कि एक मारवाड़ी सेठ स्टेशन आया। उसने टिकट दफ्तर में खड़े होकर पूछा, कि मुझे रामपुर जाना है, टिकट दे दो। उस टिकट बाबू ने कहा, कि रामपुर तीन है। एक मध्य प्रदेश में, एक उत्तर प्रदेश में, एक बिहार में है, कौन से रामपुर जाना है? सेठ ने कहा, इसमें भी कोई पूछने की बात है? जहां की टिकिट सबसे कम हो!
फायदे का दृष्टिकोण--कहां जाना है, इससे कुछ लेना-देना ही नहीं। तो यह पहुंचेगा तो रामपुर, लेकिन उस रामपुर पहुंच जाएगा, जहां जाना ही नहीं था। फायदे को पूछकर गए तो तुम जीवन को चूक जाओगे।
क्योंकि यह जो अस्तित्व है, यह खेल है, यह लीला है। यहां फायदे का सवाल नहीं है। यह आनंद उत्सव है। यहां कोई साध्य नहीं है। यहां होने में ही आनंद है। अगर तुमने पूछा, कि क्यों सांस लें, तो आत्महत्या करनी पड़ेगी। क्योंकि कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता, क्यों सांस ले। क्यों पानी पीएं, फायदा क्या है? क्योंकि फिर पीना पड़ेगा। फिर फिर पीना पड़ेगा--मत पीयो!
असली सवाल फायदे का है ही नहीं। असली सवाल तो जीवन के आनंद को अनुभव करने का है। जब कंठ में प्यास होती है और तुम पानी पीते हो, तो एक तृप्ति उतरती है। जब तुम भूखे होते हो और भूख निश्चित जलती है, तुम्हारी जठराग्नि उठती है, तब तुम भोजन करते हो, तब एक गहन तृप्ति होती है। जब तुम भीतर नई श्वास ले जाते हो, तो नया प्राण तुम्हारे जीवन में दौड़ता है। जब तुम ध्यान करते हो, तो एक नई समाधि तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है।
ऐसा नहीं है, कि कल नहीं करनी पड़ेगी, तभी तुम आज करोगे। तब तो तुम कभी भी न करोगे। जीवन का प्रत्येक पल उसकी समग्रता में जीने के लिए है। यहां लक्ष्य तो कुछ भी नहीं है। यह संसार कहीं जा नहीं रहा है। यह संसार वहां है ही, जहां इसे पहुंचना है। इसलिए केवल वे ही लोग सत्य को उपलब्ध हो पाते हैं, जिनके जीवन में साधन ही साध्य हो जाता है। इस सूत्र को तुम जितनी गहराई में उतार सको उतार लो।
केवल वे पहुंच जाते हैं परमात्मा तक, केवल वे ही मुक्त हो पाते हैं, जिनके जीवन में साधन ही साध्य हो जाता है।
इसका मतलब? इसको मतलब, कि मंजिल की वे बात ही नहीं करते। वे कहते हैं, राह पर चलना इतना सुखद है, कौन फिक्र करता मंजिल की! वे इसकी बात ही नहीं करते, कि कल क्या मिलेगा; वे कहते हैं, आज इतना मिला है, कल की बात ही क्यों उठानी? आज इतना आपूर मिला है, कि नाच लें, अनुगृहीत हो लें।
ऐसे व्यक्ति को कल और ज्यादा मिलता है। उसके द्वार बड़े होते जाते हैं। एक दिन सारा आकाश उसके हृदय में समा जाता है। एक दिन अनंत उसकी सीमा में उतर आता है। एक दिन उसकी बूंद में पूरा सागर छलांग ले लेता है।
तुम दुकानदार की नजर से परमात्मा की तरफ मत आना। अच्छा है, तुम दुकानदार ही रहो। अच्छे दुकानदारों की वैसे भी जरूरत है। बुरे साधक होने की बजाए अच्छा दुकानदार होना बेहतर है। लेकिन जब साधक होने आओ, तो समझकर आओ।
साधक की दुनिया का गणित ही उलटा है। वहां साधक इसलिए कुछ नहीं करता, कि इससे मिलेगा। वहां साधक इसलिए कुछ करता है, करने में ही मिलता है। करना और मिलना एक साथ, एक ही क्षण में समा जाते हैं। मंजिल और मार्ग एक साथ। मार्ग ही मंजिल हो जाता है।
तुमने प्रार्थना की--तुम दो तरह से कर सकते हो। एक तो दुकानदार की प्रार्थना है, कि वह कहता है प्रार्थना कर रहा हूं, नारियल चढ़ाया है, खयाल रखना। कहीं ऐसा न हो, कि धोखा दे जाओ। मुकदमा जिता देना। लड़के को पास करा देना। पत्नी बीमार पड़ी है, ठीक कर देना।
पांच आने का सड़ा नारियल ले आए हैं, परमात्मा पर बड़ी कृपा कर रहे हैं! मंदिरों में कोई अच्छा नारियल चढ़ाता ही नहीं। मंदिरों के पास नारियल की विशेष दुकान होती है। उसमें सड़े नारियल ही बिकते हैं। और ऐसे नारियल जो लाखों बार चढ़ाए जा चुके हैं, वे फिर वापिस आ जाते हैं। इसलिए दुनिया में नारियलों के दाम बढ़ते जाते हैं लेकिन मंदिर के पास की दूकान पर दाम वही रहते हैं। कोई जरूरत ही नहीं दाम बढ़ाने की। क्योंकि वे नारियल कोई खा नहीं सकता। कोई काम के नहीं है, किसी मतलब के नहीं हैं। वे सिर्फ चढ़ाने योग्य हैं। परमात्मा का तुम चढ़ाते तब हो, जब वह किसी काम का नहीं होता। वे चढ़ते हैं बार-बार, सुबह फिर बिक जाते हैं दुकान पर। फिर चढ़ जाते हैं, फिर दुकान पर आ जाते हैं।
तुम एक सड़ा नारियल चढ़ा देते हो। तुमने बड़ी परमात्मा पर कृपा की। अब तुम कल घर में बैठकर रास्ता देखोगे, कि परिणाम क्या होता है? तुम समझे ही नहीं प्रार्थना का अर्थ।
जहां तक मांग है, वहां तक प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना चढ़ाना मात्र है, मांगना नहीं है। प्रार्थना में फल की आकांक्षा नहीं है। अगर फल की आकांक्षा है, तब वह व्यवसाय है, प्रार्थना नहीं। तुम गए, यह तुम्हारी खुशी थी। यह तुम्हारा आनंद था, कि तुमने चढ़ाया। तुम परमात्मा को थोड़ी भेंट करके आए, इससे तुम यह मत समझना, कि परमात्मा तुम्हारे प्रति अनुगृहीत हुआ। उसने तुम्हें इतना दिया है, उसमें से तुम एक कण जाकर वापिस लौटा आए और तुम सोचते हो परमात्मा अनुगृहीत हो। तुमने चढ़ाया, यह तुम्हारे अनुग्रह की स्वीकृति होनी चाहिए, कि मैं धन्यभागी हूं, कि तूने मुझे इतना दिया। थोड़ा सा चढ़ा जाता हूं, ज्यादा मेरी सामर्थ्य नहीं है।
वास्तविक प्रार्थना करने वाला हमेशा अनुभव करेगा, कि जितना मुझे चढ़ाना था उतना मैं चढ़ा न पाया। जो मुझे देना था, वह मैं दे न पाया। जो मुझे बांटना था, वह मैं बांट न सका। वह हमेशा इस पीड़ा से भरा रहेगा, कि मिला मुझे बहुत, दे मैं कुछ भी न पाया। झूठा प्रार्थी समझेगा, कि मैंने एक नारियल चढ़ाया, अब इसका फल होना चाहिए। अगर फल न हो, तो परमात्मा का होना न होना तुम्हारे सड़े नारियल पर निर्भर है। अगर फल न हुआ, तो तुम कहोगे परमात्मा नहीं है। क्योंकि सड़ा नारियल काम न आया। अगर फल हुआ तो--
एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा, मैं नास्तिक था, लेकिन अब मैं आस्तिक हो गया हूं।
मैंने कहा, इतनी आसानी से कोई नास्तिक से आस्तिक नहीं होता। तू पूरी कहानी बता। जरूर कोई गड़बड़ हो गई। क्योंकि मुश्किल से कभी हजारों साल में कोई नास्तिक, आस्तिक होता है। नास्तिक से आस्तिक होना तो बस, मोक्ष पा लेना है। आस्तिक है कहां? हजारों साल में कभी किसी आस्तिक के दर्शन होते हैं। तब पृथ्वी पर स्वर्ग उतरता है। तू आस्तिक हो गया? जरूर कहीं कुछ भूल हो गई है। क्या मामला है?
उसने कहा, कि मेरे लड़के की नौकरी नहीं लग रही थी, तो मैं जाकर अल्टीमेटम दे आया। अल्टीमेटम! परमात्मा को! कि अगर पंद्रह दिन के भीतर नौकरी न मिली तो समझ ले कि फिर तुझे बिलकुल नहीं मानूंगा। बस यह आखिरी हिसाब है। अगर मिल गई नौकरी, सदा तेरी भक्ति करूंगा।
और नौकरी मिल गई इसलिए वह आदमी आस्तिक हो गया। मैंने उससे कहा, कि अब दुबारा अल्टिमेटम मत देना, नहीं तो नास्तिक हो जाएगा। संयोगवशात यह नौकरी मिल गई है, तेरे अल्टीमेटम के भय के कारण नहीं, कि भगवान को तू डरा आया था तो वे भयभीत होकर कंप गए, कि नहीं देंगे नौकरी, तो तू मानेगा नहीं। ऐसा दीन-हीन भगवान! क्या कोई राजनीतिक नेता है, कि तुम्हारी वोट पर निर्भर है? दो कौड़ी का ऐसा भगवान, जो तुम्हारी अल्टीमेटम से डर जाए। अब तू दुबारा मत देना, तो आस्तिकता तेरी बनी रहेगी। क्योंकि इतनी झीनी चादर है तेरी आस्तिकता की, जरा सी खरोंच में कट जाएगी और नास्तिक बाहर आ जाएगा।
मगर वह न माना, क्योंकि लोभी कैसे मान सकता है? सफल हो गया था। तब पत्नी बीमार हुई, उसने फिर जाकर वही किया। क्योंकि एक दफा कारगर हो गई बात। और पत्नी मर गई, वह ठीक न हुई। कोई दोत्तीन साल बाद यह घटना घटी। वह मेरे पास आया। उसने कहा, आपने ठीक कहा था; मैं महानास्तिक हो गया हूं।
मैंने कहा, तुझे जो होना हो, होता रह; लेकिन यह तेरे मन का ही खेल है। न तू आस्तिक हुआ कभी, न तू कभी नास्तिक हुआ। तेरी नास्तिकता आस्तिकता सब सौदा है। यह तेरी कोई जीवन-दृष्टि नहीं है, तेरा कोई दर्शन नहीं है, तेरी कोई अनुभूति नहीं है। तू नाहक ही आस्तिक हो रहा है, नास्तिक हो रहा है। तू अकेले ही खेल खेल रहा है। इसमें परमात्मा भागीदार नहीं है। अब तू नास्तिक ही रहना। अब दुबारा भूल मत करना। नहीं तो फिर आस्तिक हो जाएगा और ऐसे ही--सुबह होती, शाम होती, ऐसे ही उम्र तमाम होती--और तू कभी कुछ भी न हो पाएगा।
लोभ और लाभ की दृष्टि का परमात्मा से कभी संबंध नहीं जुड़ता। वहां तुम जाना मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में, लेकिन प्रार्थना ही तुम्हारा अहोभाव हो। प्रार्थना अपने आप में अंत हो। तुम इसलिए प्रार्थना करना, कि प्रार्थना करना ऐसा महासुख है। उसके पीछे जरा सी भी रेखा मांग की न हो, तभी तुम्हें स्वाद लगेगा। तभी तुम्हें पहली दफा पता चलेगा, प्रार्थना क्या है। तभी तुम्हें पहली दफा पता चलेगा, ध्यान क्या है।
मेरे पास लोग आते हैं, निरंतर वे कहते हैं, कि आप ध्यान समझाते हैं, फायदा क्या, लाभ क्या, इससे क्या मिलेगा?
उनसे मैं कहता हूं, मिलेगा तो कुछ भी नहीं; बहुत कुछ खो जाएगा। तुम्हारी चिंता, तुम्हारी बेचैनी, तनाव, तुम्हारी दौड़, महत्वाकांक्षा,र् ईष्या, यह सब खो जाएगा और इसके साथ तुम्हारी सारी दुनिया का फैलाव। क्योंकि इसी पर तुम्हारा सारा तंबू तना है--इन्हीं खंभों पर। वह सब गिर जाएगा। मटिया मेट हो जाओगे, अगर ध्यान किया।
ध्यान करने के लिए जुआरी चाहिए, दुकानदार नहीं। वहां दांव पर लगा दिया सब; मांगना क्या है? और यह मैं तुमसे कहता हूं, जो नहीं मांगता, उसे मिलता है, जो मांगता है, वह चूक जाता है। यह उल्टा गणित है। यहां जो मांगेगा, वह खाली हाथ लौट जाएगा। यहां जो बिना मांगे आएगा, उसका प्राण-प्राण, रोआं-रोआं भर जाएगा। -
Piv Piv Lagi Pyas - 02
Osho : कोई गारंटी नहीं है। तुम किसी बैंक में आ गए!
इसको मैं कहता हूं, लोभ से भरा हुआ मन। ऐसा मन साधक नहीं हो सकता। गारंटी की बात क्या है? कौन किसको गारंटी देगा? और वह भी मोक्ष के बाद जन्म नहीं होता, इसकी गारंटी? अगर मैं लिखकर भी दे दूं, तो भी किस काम पड़ेगी? फिर तुम मुझे कहां खोजोगे? तुम मेरी लिखी चिट्ठी कहां ले जाओगे?
मोक्ष के बाद दुबारा जन्म नहीं होता इसकी गारंटी चाहिए--क्यों? क्योंकि यदि करोड़ों वर्षों के बाद नई सृष्टि में जन्म लेना होता है, तो इस मोक्ष का फायदा ही क्या?
इसको मैं कहता हूं, लाभ और लोभ की दृष्टि।
साधना का जन्म ही शुरू से गलत हो गया। वह बच्चा मरा ही पैदा हुआ। अब तुम इसको कितना ही सजाओ, संवारो, कितने ही बहुमूल्य वस्त्रों में रखो, दुर्गंध ही आएगी। यह बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। यह तो गर्भपात हो गया। साधक पैदा ही नहीं हो पाया। तुम दुकानदार ही रहे, बाजार में ही रहे। मंदिर तो बाजार में न आ पाया, तुम बाजार को मंदिर में ले आए। तुम गारंटी पूछते हो; कोई गारंटी नहीं है।
और साधक गारंटी पूछता ही नहीं। साधक असल में कल की बात ही नहीं उठाता। साधक कहता है, आज काफी है। यह क्षण पर्याप्त है। इस क्षण में अगर मैं मुक्त हूं, तो...
इस बात को थोड़ा समझने की कोशिश करो। अगर इस क्षण में मैं मुक्त हूं, तो दूसरा क्षण पैदा कहां से होगा? इसी क्षण से पैदा होगा। क्षण में से क्षण लगते हैं। जैसे गुलाब पर गुलाब का फूल लगता है, ऐसे मुक्त क्षण में मुक्त का फूल लगता है। गुलाम क्षण में गुलामी का फूल लगता है। तुम अगर आज गुलाम हो, तो कल भी गुलाम रहोगे। आज का दिन तुम्हारी गुलामी को और मजबूत कर जाएगा। कल तुम और ज्यादा गुलाम हो जाओगे, परसों और ज्यादा गुलाम हो जाओगे।
अगर आज तुम मुक्त हो, तो कल आएगा कहां से? कल घड़ी में से थोड़े ही आता है! कल तो तुम्हारे जीवन में से ही आता है। तुम्हारा कल, तुम्हारा कल है: मेरा कल मेरा कल होगा। उतने ही समय हैं, जितने लोग हैं। समय कोई एक थोड़े ही है। मेरे समय में और तुम्हारे समय में क्या नाता है, क्या संबंध है? तुम्हारा समय तुम्हारे भीतर से निकल रहा है।
जो आदमी सुबह क्रोध से भरा था, उसकी दोपहर में क्रोध की छाया होगी। जो आदमी सुबह प्रार्थना किया है, पूजा किया है, अहोभाव से भरा था, उसकी दुपहर पर अहोभाव की भनक, धुन, सुगंध होगी। तुम्हारा क्षण तुम्हारे ही भीतर से उग रहा है। क्षण ऐसे लगता है तुममें, जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। कल की बात ही क्या करनी है? अगर आज का क्षण मेरा मुक्त है, तो वहीं छिपी है गारंटी! क्योंकि कल का क्षण आएगा कहां से? इसी क्षण से निकलेगा--और भी मुक्त होगा। क्योंकि इतना समय मुक्ति के लिए और भी मिल चुका होगा। फिर परसों उस क्षण से निकलेगा।
इसलिए हम कहते हैं, मोक्ष से कोई वापिस नहीं आता। क्योंकि मोक्ष बड़ा होता जाता है, बढ़ता जाता है; वापिस कैसे लौटोगे? वापिस तो वही लौटता है, जिसकी गुलामी बढ़ती जाती है।
ऐसा हुआ, यूनान में एक बहुत अदभुत फकीर हुआ डायोजनीज। उसने सब त्याग कर दिया था, लेकिन ऐसे वह एक बड़े रईस और कुलीन घराने से आया था। सब छोड़ दिया था, लेकिन कभी अपना काम अपने हाथ से तो किया न था, तो एक गुलाम बचा रखा था। एक नौकर, जो उसकी देखभाल कर देता, सेवा-टहल कर देता। ऐसे वह संन्यासी हो गया था सब छोड़ कर; सिर्फ एक गुलाम बचा लिया था। पुरानी आदत थी, अपना काम कभी किया न था। बिस्तर कौन लगाता, भोजन कौन बनाता? तो एक नौकर रख छोड़ा था।
एक दिन वह नौकर भाग गया। आखिर नौकर को रख छोड़ना आसान मामला नहीं है। जब उस नौकर ने देखा, कि अब यह डायोजनीज बिलकुल फकीर हो गया है, तो वह यह उसको रोक भी कैसे सकेगा? इसके पास कुछ भी रोकने को भी नहीं बचा है। तुम अपने नौकर को रोक पाते हो क्योंकि वहां पुलिस है, कानून है, अदालत है। वे सब रक्षा कर रहे हैं। नहीं तो नौकर भाग जाए, तुम क्या करोगे? अब यह आदमी अकेला जंगल में था, नौकर भाग गया।
दूसरे फकीर जो जंगल में साधना में रत थे, उन्होंने कहा, कि पीछा करो। यह बात ठीक नहीं है। इस नौकर को दंड देना उचित है।
लेकिन डायोजनीज ने कहा, कि मैं सोचता हूं कि अगर नौकर मेरे बिना जी सकता है और मैं उसके बिना नहीं जी सकता, कौन मालिक है, तो कौन नौकर है, यह जरा संदिग्ध हो जाता है। दास मेरे बिना जी सकता है, उसे मेरी कोई जरूरत नहीं और मैं दास के बिना नहीं जी सकता? तो मैं दासानुदास हो गया। नहीं, अब यह भूल मैं न करूंगा। अच्छा हुआ, कि वह भाग गया। अब वह आए भी, तो उसे हाथ जोड़ लूंगा।
यह आदमी मुक्ति की तरफ एक कदम रख रहा है। इसका कल भी तो इसी से निकलेगा।
तब उसके पास सिर्फ एक भिक्षापात्र बचा। एक दिन उसने देखा एक कुत्ते को पानी पीते झरने पर, तो उसने सोचा यह कुत्ता तो मुझसे ज्यादा मुक्त है। यह भिक्षापात्र तो मुझे ढोना पड़ता है और अगर कुत्ता बिना भिक्षापात्र के रह लेता है, तो मैं आदमी होकर न रह सकूं? कुत्ते से गई बीती दशा हो गई। उसने भिक्षापात्र वहीं छोड़ दिया। वह हाथ से ही पानी पीने लगा। वह हाथ में ही भिक्षा लेने लगा। मुक्ति से दूसरा क्षण निकल आया। दृष्टि!
सिकंदर जब भारत आ रहा था, तो इस फकीर को मिला था। तो उस फकीर ने सिकंदर को कहा था, तू व्यर्थ परेशान मत हो। तू किसलिए दुनिया जीतना चाहता है? सिकंदर ने कहा, ताकि मैं आनंद से विश्राम कर सकूं। डायोजनीज हंसने लगा जोर से। वह पहाड़, नदी उसकी हंसी से गूंज उठी होगी। सिकंदर थोड़ा हतप्रभ हुआ। उसने कहा, मैं समझा नहीं; इसमें हंसने की क्या बात है?
डायोजनीज ने कहा, कि हंसने की बात है। मुझे देखो, बिना दुनिया को जीते मैं आराम कर रहा हूं, तो तुम दुनिया को जीतकर आराम करोगे यह मेरी समझ में नहीं आता। अगर आराम ही करना है, तो अभी क्या बिगड़ा है? यह नदी काफी बड़ी है और रेत का घाट बहुत बड़ा है। इस में मेरे लिए भी जगह है, तुम्हारे लिए भी जगह है। सारी दुनिया भी आ जाए, तो विश्राम कर सकती है। तुम लेट जाओ। सुबह कितनी सुंदर है! कहां जाते हो?
डायोजनीज लेटा था नग्न, सुबह धूप ले रहा था। कहते हैं, सिकंदरर् ईष्या से भर गया था डायोजनीज की स्वतंत्रता को देखकर। सिकंदरर् ईष्या से भर जाए, सोचने जैसा है। और सिकंदर ने कहा था, अगर परमात्मा से दुबारा मुझे जन्म लेने का मौका मिला तो मैं कहूंगा इस बार मुझे सिकंदर मत बना, डायोजनीज बना दे। लेकिन अभी तो जाना होगा। अभी तो यात्रा अधूरी है, संसार जीतने को पड़ा है। लेकिन तुम्हारी बात याद रखूंगा। डायोजनीज, तुम्हें भूलूंगा नहीं। तुम्हारे लिए कुछ करना हो, तो मुझे कहो। तुम जो कहोगे करवा दूंगा। मैं खुश हूं।
डायोजनीज ने कहा, ज्यादा से ज्यादा तुम इतना कर सकते हो, कि थोड़ा धूप छोड़कर खड़े हो जाओ। और न कुछ चाहिए, न कोई जरूरत है। सुबह सर्द है और मैं धूप का मजा ले रहा हूं। तुम नाहक बीच में खड़े हो।
और इतना तुमसे कहे देता हूं, कि कोई भी संसार को लौटकर कभी विश्राम नहीं कर पाया। जिसने भी विश्राम किया है, उसने इसी क्षण शुरू किया है। क्योंकि हर क्षण इस क्षण से पैदा होता है।
तुम कहते हो, कल करेंगे। आज तुम कुछ तो करोगे? तुम जो करोगे, उससे तुम्हारा कल पैदा होगा। तुम कहते हो, आज तो दूकान कर लेने दो, फिर कल पूजा कर लेंगे। लेकिन कल आएगा कहां से? आज की दुकानदारी से ही आएगा। फिर पूजा कैसे पैदा होगी? उससे दुकानदारी ही पैदा होगी। एक दिन और बीत गया निद्रा में, निद्रा और मजबूत हो गई।
तुम यह पूछो ही मत, कि मोक्ष के बाद आना होता है? मोक्ष का अर्थ ही यह है, कि जिसमें लौटने का उपाय नहीं रह जाता। मोक्ष का अर्थ क्या है, तुम समझे ही नहीं; इसलिए इस तरह का सवाल उठता है। मोक्ष का अर्थ है, वह व्यक्ति जिसकी अब कोई वासना न रही। लौटता है आदमी वासना के कारण।
थोड़ा समझो: एक बच्चा स्कूल में आता है। और वह स्कूल के प्राचार्य को पूछता है, कि अगर पास हो जाऊंगा, तो मुझे दुबारा तो स्कूल नहीं आना पड़ेगा? तो प्राचार्य कहेगा, कि अगर तुम उत्तीर्ण हो गए तो तुम आना भी चाहो, हम तुम्हें भीतर न घुसने देंगे। क्योंकि इस स्कूल का उपयोग ही इतना है, कि तुम उत्तीर्ण हो गए, बात खत्म हो गई। अगर उत्तीर्ण हुए लोग यहां आने लगें, तो छोटे बच्चों का क्या होगा? वे कहां जाएंगे?
ऐसे ही भीड़-भड़क्का बहुत है। उत्तीर्ण आदमी को तो आने का कोई सवाल नहीं रहा। लेकिन जो असफल हुआ है, उसे वापिस लौटना पड़ता है। संसार एक प्रशिक्षण है परमात्मा को पाने का। जिसने पा लिया, बात खत्म हो गई प्रशिक्षण पूरा हो गया। लौटने का सवाल ही नहीं उठता।
तुम्हारे मन में उठता है, क्योंकि तुम्हारे वह जो कृपण और लोभी मन है, वह हर चीज को पहले से मजबूत और पक्का कर लेना चाहता है; तब कदम उठाओगे तुम। जब तक कि तुम्हें कोई गारंटी न मिल जाए, तब तक तुम ध्यान न करोगे। तुम्हारी इस गारंटी की आकांक्षा ने ही दुनिया में बहुत उपद्रव खड़ा किया है। तब न मालूम कितने तरह के चालाक लोग तुम्हें गारंटी देने के लिए तैयार हो गए हैं। तुम जो मांगते हो, उसको कोई न कोई तो पूर्ति करने के लिए तैयार हो जाएगा।
मैं सूरत में था, तो एक सज्जन ने मुझे आकर कहा, कि उनका धर्मगुरु दऊदी बोहरा लोगों को चिट्ठी लिखकर देता है भगवान के नाम, कि इस आदमी ने एक लाख रुपया दान किया है, यह बड़ा अच्छा आदमी है, इसकी साज-सम्हाल रखना, ढंग से स्वागत वगैरह करवाना। कुछ लिख दी चिट्ठी भगवान के नाम और उस चिट्ठी को वह आदमी जब मरता है, तो उसकी छाती पर रखकर और कब्र में रख दिया जाता है।
तुम गारंटी मांगते हो, देनेवाले मिल जाते हैं। मगर कैसी मूढ़ता है! वह आदमी भी यहीं पड़ा रह जाता है, वह चिट्ठी भी यहीं पड़ी रह जाती है। लेकिन लौटकर इस धर्मगुरु से अदालत में लड़ने का भी तो कोई उपाय नहीं है। कोई कभी लौटता नहीं। कोई कभी शिकायत नहीं करता, कि चिट्ठी काम नहीं आई। यह चिट्ठी बेकार है। न कोई कभी लौट सकता है, न कोई मुकदमा हो सकता है। यह चालाकी और शोषण जारी रहता है।
तुम जब तक मांगोगे, देने वाले मिल जाएंगे। दोष उनका नहीं है, दोष तुम्हारा है।
और तुम पूछते हो, फायदा क्या है अगर फिर लौटना पड़ा? तुम जब भोजन करते हो तब तुम यह नहीं पूछते कि कल फिर भोजन करना पड़ेगा, फायदा क्या है? तुम जब पानी पीते हो तब तुम नहीं पूछते कि फिर पानी पीना पड़ेगा, फायदा क्या है? तुम जब सांस भीतर लेते हो तब तुम नहीं कहते, क्या फायदा? फिर बाहर निकालनी पड़े, फिर भीतर करनी पड़े, फायदा क्या?
जीवन में फायदे की बात ही पूछना नासमझी की है। जीवन कोई धंधा थोड़े ही है! फायदे का दृष्टिकोण ही भूल-भरा है। उससे ही तो तुम भटक रहे हो। जहां जाना चाहिए वहां नहीं पहुंच पाते क्योंकि वहां जाने में कोई फायदा नहीं दिखाई पड़ता। और जहां फायदा दिखाई पड़ता है, वह तुम्हारी नियति नहीं।
मैंने सुना है, कि एक मारवाड़ी सेठ स्टेशन आया। उसने टिकट दफ्तर में खड़े होकर पूछा, कि मुझे रामपुर जाना है, टिकट दे दो। उस टिकट बाबू ने कहा, कि रामपुर तीन है। एक मध्य प्रदेश में, एक उत्तर प्रदेश में, एक बिहार में है, कौन से रामपुर जाना है? सेठ ने कहा, इसमें भी कोई पूछने की बात है? जहां की टिकिट सबसे कम हो!
फायदे का दृष्टिकोण--कहां जाना है, इससे कुछ लेना-देना ही नहीं। तो यह पहुंचेगा तो रामपुर, लेकिन उस रामपुर पहुंच जाएगा, जहां जाना ही नहीं था। फायदे को पूछकर गए तो तुम जीवन को चूक जाओगे।
क्योंकि यह जो अस्तित्व है, यह खेल है, यह लीला है। यहां फायदे का सवाल नहीं है। यह आनंद उत्सव है। यहां कोई साध्य नहीं है। यहां होने में ही आनंद है। अगर तुमने पूछा, कि क्यों सांस लें, तो आत्महत्या करनी पड़ेगी। क्योंकि कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता, क्यों सांस ले। क्यों पानी पीएं, फायदा क्या है? क्योंकि फिर पीना पड़ेगा। फिर फिर पीना पड़ेगा--मत पीयो!
असली सवाल फायदे का है ही नहीं। असली सवाल तो जीवन के आनंद को अनुभव करने का है। जब कंठ में प्यास होती है और तुम पानी पीते हो, तो एक तृप्ति उतरती है। जब तुम भूखे होते हो और भूख निश्चित जलती है, तुम्हारी जठराग्नि उठती है, तब तुम भोजन करते हो, तब एक गहन तृप्ति होती है। जब तुम भीतर नई श्वास ले जाते हो, तो नया प्राण तुम्हारे जीवन में दौड़ता है। जब तुम ध्यान करते हो, तो एक नई समाधि तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है।
ऐसा नहीं है, कि कल नहीं करनी पड़ेगी, तभी तुम आज करोगे। तब तो तुम कभी भी न करोगे। जीवन का प्रत्येक पल उसकी समग्रता में जीने के लिए है। यहां लक्ष्य तो कुछ भी नहीं है। यह संसार कहीं जा नहीं रहा है। यह संसार वहां है ही, जहां इसे पहुंचना है। इसलिए केवल वे ही लोग सत्य को उपलब्ध हो पाते हैं, जिनके जीवन में साधन ही साध्य हो जाता है। इस सूत्र को तुम जितनी गहराई में उतार सको उतार लो।
केवल वे पहुंच जाते हैं परमात्मा तक, केवल वे ही मुक्त हो पाते हैं, जिनके जीवन में साधन ही साध्य हो जाता है।
इसका मतलब? इसको मतलब, कि मंजिल की वे बात ही नहीं करते। वे कहते हैं, राह पर चलना इतना सुखद है, कौन फिक्र करता मंजिल की! वे इसकी बात ही नहीं करते, कि कल क्या मिलेगा; वे कहते हैं, आज इतना मिला है, कल की बात ही क्यों उठानी? आज इतना आपूर मिला है, कि नाच लें, अनुगृहीत हो लें।
ऐसे व्यक्ति को कल और ज्यादा मिलता है। उसके द्वार बड़े होते जाते हैं। एक दिन सारा आकाश उसके हृदय में समा जाता है। एक दिन अनंत उसकी सीमा में उतर आता है। एक दिन उसकी बूंद में पूरा सागर छलांग ले लेता है।
तुम दुकानदार की नजर से परमात्मा की तरफ मत आना। अच्छा है, तुम दुकानदार ही रहो। अच्छे दुकानदारों की वैसे भी जरूरत है। बुरे साधक होने की बजाए अच्छा दुकानदार होना बेहतर है। लेकिन जब साधक होने आओ, तो समझकर आओ।
साधक की दुनिया का गणित ही उलटा है। वहां साधक इसलिए कुछ नहीं करता, कि इससे मिलेगा। वहां साधक इसलिए कुछ करता है, करने में ही मिलता है। करना और मिलना एक साथ, एक ही क्षण में समा जाते हैं। मंजिल और मार्ग एक साथ। मार्ग ही मंजिल हो जाता है।
तुमने प्रार्थना की--तुम दो तरह से कर सकते हो। एक तो दुकानदार की प्रार्थना है, कि वह कहता है प्रार्थना कर रहा हूं, नारियल चढ़ाया है, खयाल रखना। कहीं ऐसा न हो, कि धोखा दे जाओ। मुकदमा जिता देना। लड़के को पास करा देना। पत्नी बीमार पड़ी है, ठीक कर देना।
पांच आने का सड़ा नारियल ले आए हैं, परमात्मा पर बड़ी कृपा कर रहे हैं! मंदिरों में कोई अच्छा नारियल चढ़ाता ही नहीं। मंदिरों के पास नारियल की विशेष दुकान होती है। उसमें सड़े नारियल ही बिकते हैं। और ऐसे नारियल जो लाखों बार चढ़ाए जा चुके हैं, वे फिर वापिस आ जाते हैं। इसलिए दुनिया में नारियलों के दाम बढ़ते जाते हैं लेकिन मंदिर के पास की दूकान पर दाम वही रहते हैं। कोई जरूरत ही नहीं दाम बढ़ाने की। क्योंकि वे नारियल कोई खा नहीं सकता। कोई काम के नहीं है, किसी मतलब के नहीं हैं। वे सिर्फ चढ़ाने योग्य हैं। परमात्मा का तुम चढ़ाते तब हो, जब वह किसी काम का नहीं होता। वे चढ़ते हैं बार-बार, सुबह फिर बिक जाते हैं दुकान पर। फिर चढ़ जाते हैं, फिर दुकान पर आ जाते हैं।
तुम एक सड़ा नारियल चढ़ा देते हो। तुमने बड़ी परमात्मा पर कृपा की। अब तुम कल घर में बैठकर रास्ता देखोगे, कि परिणाम क्या होता है? तुम समझे ही नहीं प्रार्थना का अर्थ।
जहां तक मांग है, वहां तक प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना चढ़ाना मात्र है, मांगना नहीं है। प्रार्थना में फल की आकांक्षा नहीं है। अगर फल की आकांक्षा है, तब वह व्यवसाय है, प्रार्थना नहीं। तुम गए, यह तुम्हारी खुशी थी। यह तुम्हारा आनंद था, कि तुमने चढ़ाया। तुम परमात्मा को थोड़ी भेंट करके आए, इससे तुम यह मत समझना, कि परमात्मा तुम्हारे प्रति अनुगृहीत हुआ। उसने तुम्हें इतना दिया है, उसमें से तुम एक कण जाकर वापिस लौटा आए और तुम सोचते हो परमात्मा अनुगृहीत हो। तुमने चढ़ाया, यह तुम्हारे अनुग्रह की स्वीकृति होनी चाहिए, कि मैं धन्यभागी हूं, कि तूने मुझे इतना दिया। थोड़ा सा चढ़ा जाता हूं, ज्यादा मेरी सामर्थ्य नहीं है।
वास्तविक प्रार्थना करने वाला हमेशा अनुभव करेगा, कि जितना मुझे चढ़ाना था उतना मैं चढ़ा न पाया। जो मुझे देना था, वह मैं दे न पाया। जो मुझे बांटना था, वह मैं बांट न सका। वह हमेशा इस पीड़ा से भरा रहेगा, कि मिला मुझे बहुत, दे मैं कुछ भी न पाया। झूठा प्रार्थी समझेगा, कि मैंने एक नारियल चढ़ाया, अब इसका फल होना चाहिए। अगर फल न हो, तो परमात्मा का होना न होना तुम्हारे सड़े नारियल पर निर्भर है। अगर फल न हुआ, तो तुम कहोगे परमात्मा नहीं है। क्योंकि सड़ा नारियल काम न आया। अगर फल हुआ तो--
एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा, मैं नास्तिक था, लेकिन अब मैं आस्तिक हो गया हूं।
मैंने कहा, इतनी आसानी से कोई नास्तिक से आस्तिक नहीं होता। तू पूरी कहानी बता। जरूर कोई गड़बड़ हो गई। क्योंकि मुश्किल से कभी हजारों साल में कोई नास्तिक, आस्तिक होता है। नास्तिक से आस्तिक होना तो बस, मोक्ष पा लेना है। आस्तिक है कहां? हजारों साल में कभी किसी आस्तिक के दर्शन होते हैं। तब पृथ्वी पर स्वर्ग उतरता है। तू आस्तिक हो गया? जरूर कहीं कुछ भूल हो गई है। क्या मामला है?
उसने कहा, कि मेरे लड़के की नौकरी नहीं लग रही थी, तो मैं जाकर अल्टीमेटम दे आया। अल्टीमेटम! परमात्मा को! कि अगर पंद्रह दिन के भीतर नौकरी न मिली तो समझ ले कि फिर तुझे बिलकुल नहीं मानूंगा। बस यह आखिरी हिसाब है। अगर मिल गई नौकरी, सदा तेरी भक्ति करूंगा।
और नौकरी मिल गई इसलिए वह आदमी आस्तिक हो गया। मैंने उससे कहा, कि अब दुबारा अल्टिमेटम मत देना, नहीं तो नास्तिक हो जाएगा। संयोगवशात यह नौकरी मिल गई है, तेरे अल्टीमेटम के भय के कारण नहीं, कि भगवान को तू डरा आया था तो वे भयभीत होकर कंप गए, कि नहीं देंगे नौकरी, तो तू मानेगा नहीं। ऐसा दीन-हीन भगवान! क्या कोई राजनीतिक नेता है, कि तुम्हारी वोट पर निर्भर है? दो कौड़ी का ऐसा भगवान, जो तुम्हारी अल्टीमेटम से डर जाए। अब तू दुबारा मत देना, तो आस्तिकता तेरी बनी रहेगी। क्योंकि इतनी झीनी चादर है तेरी आस्तिकता की, जरा सी खरोंच में कट जाएगी और नास्तिक बाहर आ जाएगा।
मगर वह न माना, क्योंकि लोभी कैसे मान सकता है? सफल हो गया था। तब पत्नी बीमार हुई, उसने फिर जाकर वही किया। क्योंकि एक दफा कारगर हो गई बात। और पत्नी मर गई, वह ठीक न हुई। कोई दोत्तीन साल बाद यह घटना घटी। वह मेरे पास आया। उसने कहा, आपने ठीक कहा था; मैं महानास्तिक हो गया हूं।
मैंने कहा, तुझे जो होना हो, होता रह; लेकिन यह तेरे मन का ही खेल है। न तू आस्तिक हुआ कभी, न तू कभी नास्तिक हुआ। तेरी नास्तिकता आस्तिकता सब सौदा है। यह तेरी कोई जीवन-दृष्टि नहीं है, तेरा कोई दर्शन नहीं है, तेरी कोई अनुभूति नहीं है। तू नाहक ही आस्तिक हो रहा है, नास्तिक हो रहा है। तू अकेले ही खेल खेल रहा है। इसमें परमात्मा भागीदार नहीं है। अब तू नास्तिक ही रहना। अब दुबारा भूल मत करना। नहीं तो फिर आस्तिक हो जाएगा और ऐसे ही--सुबह होती, शाम होती, ऐसे ही उम्र तमाम होती--और तू कभी कुछ भी न हो पाएगा।
लोभ और लाभ की दृष्टि का परमात्मा से कभी संबंध नहीं जुड़ता। वहां तुम जाना मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में, लेकिन प्रार्थना ही तुम्हारा अहोभाव हो। प्रार्थना अपने आप में अंत हो। तुम इसलिए प्रार्थना करना, कि प्रार्थना करना ऐसा महासुख है। उसके पीछे जरा सी भी रेखा मांग की न हो, तभी तुम्हें स्वाद लगेगा। तभी तुम्हें पहली दफा पता चलेगा, प्रार्थना क्या है। तभी तुम्हें पहली दफा पता चलेगा, ध्यान क्या है।
मेरे पास लोग आते हैं, निरंतर वे कहते हैं, कि आप ध्यान समझाते हैं, फायदा क्या, लाभ क्या, इससे क्या मिलेगा?
उनसे मैं कहता हूं, मिलेगा तो कुछ भी नहीं; बहुत कुछ खो जाएगा। तुम्हारी चिंता, तुम्हारी बेचैनी, तनाव, तुम्हारी दौड़, महत्वाकांक्षा,र् ईष्या, यह सब खो जाएगा और इसके साथ तुम्हारी सारी दुनिया का फैलाव। क्योंकि इसी पर तुम्हारा सारा तंबू तना है--इन्हीं खंभों पर। वह सब गिर जाएगा। मटिया मेट हो जाओगे, अगर ध्यान किया।
ध्यान करने के लिए जुआरी चाहिए, दुकानदार नहीं। वहां दांव पर लगा दिया सब; मांगना क्या है? और यह मैं तुमसे कहता हूं, जो नहीं मांगता, उसे मिलता है, जो मांगता है, वह चूक जाता है। यह उल्टा गणित है। यहां जो मांगेगा, वह खाली हाथ लौट जाएगा। यहां जो बिना मांगे आएगा, उसका प्राण-प्राण, रोआं-रोआं भर जाएगा। -
Piv Piv Lagi Pyas - 02
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