चाहे जिस तरीके से भी कहूं और जितनी बार भी कहूं , एक ही बात अंत में रह जाती है , कहने को " वो एकाकार , एकलय , सर्व स्वीकार्य, पूर्ण प्रेम , सम्पूर्ण समर्पण है " ये सब भी पर्यायवाची ही है; जी हाँ , यहाँ वर्णित कोई भी एक शब्द आपको पूरा अर्थ दे सकता है ....यहाँ आप कह सकते है कि ,' एक एक बूँद में सागर समाया है ' .. और ये तभी हो पता है जब अपनी सीमितता का आभास मिल जाता है , वर्ना तो दिमाग मन से यही कहता रहता है , ' तू ईश्वर ही है , तू सब कुछ कर सकता है " और अहकार को पोषण मिलने लग जाता है।
तर्क देखिये , उस महान ज्ञानी ने कहा कि बूँद ही सागर है। तो फिर कम कैसे आंके ? पर ये भी तो किसी ज्ञानी ने ही कहा कि " बूँद जो बन गयी मोती ", ये कहना-सुनना बड़ा चमत्कारिक है , और उससे भी बड़ा चमत्कार संयोग में अन्तर्निहित है। किसीने कहा , ' मेरे गुरु " ने " मुझसे " कहा (जरा , घमंड का प्रकोप देखिये ) कि ,'तुम ईश्वर से कम नहीं , एक बूँद में समुंदर समाया है , तुम ईश्वर ही हो ।'
जैसा पहले भी कह चुकी हूँ यहाँ कोई भी भाव सही या गलत के तराजू में नहीं बल्कि तरंगो और उन तरंगो के मेल के स्तर पे समझना चाहिए। यहाँ भी वो ही स्थति है , गुरु ने कहा और आपने सुना , भाव निकले और भाव ग्रहण हुए , फर्क तरंगो का ही है। निश्चित आप जिस मनःस्थति में थे ये भाव आपके लिए नहीं था , क्यूंकि ये भाव तो आपमें दम्भ के बीज बो गया। निश्चित ये भाव उनके लिए है जो निराशा में तैर रहे है , जिनको अपनी सिमित किन्तु खो चुकी शक्तियों को याद दिलाना है।
अहंकार को पोषित करना और स्वयं को उस परमात्मा का अंश मानने में और नैराश्य भाव में शब्द समान हो सकते है सिर्फ एक भाव का अंतर है -- एक तरफ दम्भ कि "मैं शक्तिशाली ईश्वर पुत्र,सर्व संपन्न " दूसरी तरफ ,' समपर्पण " - आपका अंश हूँ, जन्म वश कर्म कर रहा हूँ आपका पुत्र हूँ किन्तु मेरी शक्ति सिमित है। तीसरी तरफ निराशा भी यही इसी भाव से उत्पन्न हो सकती है ,' मैं दीन हीन कर्म हीन आपका पुत्र बेचारा ,चाह के भी कुछ उचित कर ही नहीं पा रहा हूँ, दया करो भगवन।
एक ही प्रकार के शब्दों के झुण्ड से प्रार्थना भी हो सकती है , दम्भ भी छलक सकता है और नैराश्य भाव में निराशा या अवसाद ग्रस्त मस्तिष्क भी हो सकता है। तो शब्दो के समूह जितने भी है , वो आपको इशारा कर सकते है , प्रेरित कर सकते है , पर भाव का चयन बहुत ही निजी आपका अपना ही है। वो ही शब्द और भाव अलग अलग मस्तिष्क पे अलग अलग प्रभाव डालते है।
इसी को अलग अलग व्यक्ति कि मनःस्थिति भी कहते है।
जिसकी मनःस्थति जैसी उसी के अनुसार कहे गए शब्द और सुने गए शब्दो में भेद आ जाता है।
व्यक्तिओं का निजी प्राकतिक ट्रांसमीटर कुछ ऐसे काम करता है , उदाहरण के लिए , एक तरफ से कुछ कहा गया ,जिसमे कुछ शब्द और कुछ भाव सम्मलित है और जिनके गठन में पहले भाव थे .... शब्द बाद में दिए गए , और इस प्रकार भावयुक्त वाक्य प्रकट हुआ। यहाँ दूसरे जितने भी सामने है या प्रभाव में है , उनतक शब्द पहले गए जो उनके अंदर पहले से मौजूद भावों से मेल खाके एक नया मिश्रण तैयार हो जाता है , और ये सिलसिला चलता ही जाता है ...... और इसमें विचित्र कुछ नहीं , सब निहायत ही नैसर्गिक है।
जब भी उचित वातावरण में कोई प्रभावी बीजारोपण किसी उद्देश्य को लेकर किया जाता है , और वो उचित वातावरण और खाद्य से पोषित हो कर सही धरती में प्रवेश पाता है , तो सुंदर परिणाम प्रकट होते है। इसी प्रकार एक ही बीज रुपी बात जब मानव के मानस पे सही वख्त और सही तरंगो के साथ स्थित होती है , तो सुंदर अभिव्यक्ति का जनम होता है।
जिस प्रकार वर्षा तो हजारों बूंदो कि होती है , पर मोती की रचना एक सांयोगिक प्राकृतिक घटना है जो स्वाति नक्षत्र से निकले जल कण से ही होता है। वो भी अगर पहले से खुली हुई और सही सीप के मुह पे गिरे।
ऐसा ही भाव और शब्दों का मेल और उनका सामने वाले पर पड़ने वाले प्रभाव है। और ये दो व्यक्ति तक रुकते नहीं , कभी चुम्बक के टुकड़े और लोहे के कणो का खेल खेला है ! बिलकुल वैसा ही है शब्द और भावों का आदान प्रदान। चाहे व्यक्तिगत रूप से आमने सामने हो या फिर तरंगित जगत में तरंगो द्वारा। शब्द और भाव तो हर जगह उपस्थित रहते ही है।
स्व पात्रता और ग्राह्यता अनुसार तरंगे प्रवाहित होती ही रहती है , इसी कारन इनको नदी के प्रवाह या फिर अति गहन भाव में समुद्र की निरंतर आती जाती लहरो से भी उद्धृत किया जा सकता है।
अंत में :
संतुलन में ही जीवन है , जहाँ संतुलन बिगड़ा उलटे सीधे परिणाम आने लगते है। यहाँ गुरु भी आपके अंदर वो ही संतुलन लाने का प्रयास कर रहा है (यदि गुरु व्यवसायिक नहीं है )। उस मानसिक स्तर पे कोई भी सही गलत के झमेले में पड़ता ही नहीं। क्यूंकि सही गलत जैसे कुछ होते ही नहीं , सिर्फ तरंगो के मेल होते है। हमारी ग्राह्यता सही या गलत के चक्कर में उलझ जाती है।
तर्क देखिये , उस महान ज्ञानी ने कहा कि बूँद ही सागर है। तो फिर कम कैसे आंके ? पर ये भी तो किसी ज्ञानी ने ही कहा कि " बूँद जो बन गयी मोती ", ये कहना-सुनना बड़ा चमत्कारिक है , और उससे भी बड़ा चमत्कार संयोग में अन्तर्निहित है। किसीने कहा , ' मेरे गुरु " ने " मुझसे " कहा (जरा , घमंड का प्रकोप देखिये ) कि ,'तुम ईश्वर से कम नहीं , एक बूँद में समुंदर समाया है , तुम ईश्वर ही हो ।'
जैसा पहले भी कह चुकी हूँ यहाँ कोई भी भाव सही या गलत के तराजू में नहीं बल्कि तरंगो और उन तरंगो के मेल के स्तर पे समझना चाहिए। यहाँ भी वो ही स्थति है , गुरु ने कहा और आपने सुना , भाव निकले और भाव ग्रहण हुए , फर्क तरंगो का ही है। निश्चित आप जिस मनःस्थति में थे ये भाव आपके लिए नहीं था , क्यूंकि ये भाव तो आपमें दम्भ के बीज बो गया। निश्चित ये भाव उनके लिए है जो निराशा में तैर रहे है , जिनको अपनी सिमित किन्तु खो चुकी शक्तियों को याद दिलाना है।
अहंकार को पोषित करना और स्वयं को उस परमात्मा का अंश मानने में और नैराश्य भाव में शब्द समान हो सकते है सिर्फ एक भाव का अंतर है -- एक तरफ दम्भ कि "मैं शक्तिशाली ईश्वर पुत्र,सर्व संपन्न " दूसरी तरफ ,' समपर्पण " - आपका अंश हूँ, जन्म वश कर्म कर रहा हूँ आपका पुत्र हूँ किन्तु मेरी शक्ति सिमित है। तीसरी तरफ निराशा भी यही इसी भाव से उत्पन्न हो सकती है ,' मैं दीन हीन कर्म हीन आपका पुत्र बेचारा ,चाह के भी कुछ उचित कर ही नहीं पा रहा हूँ, दया करो भगवन।
एक ही प्रकार के शब्दों के झुण्ड से प्रार्थना भी हो सकती है , दम्भ भी छलक सकता है और नैराश्य भाव में निराशा या अवसाद ग्रस्त मस्तिष्क भी हो सकता है। तो शब्दो के समूह जितने भी है , वो आपको इशारा कर सकते है , प्रेरित कर सकते है , पर भाव का चयन बहुत ही निजी आपका अपना ही है। वो ही शब्द और भाव अलग अलग मस्तिष्क पे अलग अलग प्रभाव डालते है।
इसी को अलग अलग व्यक्ति कि मनःस्थिति भी कहते है।
जिसकी मनःस्थति जैसी उसी के अनुसार कहे गए शब्द और सुने गए शब्दो में भेद आ जाता है।
व्यक्तिओं का निजी प्राकतिक ट्रांसमीटर कुछ ऐसे काम करता है , उदाहरण के लिए , एक तरफ से कुछ कहा गया ,जिसमे कुछ शब्द और कुछ भाव सम्मलित है और जिनके गठन में पहले भाव थे .... शब्द बाद में दिए गए , और इस प्रकार भावयुक्त वाक्य प्रकट हुआ। यहाँ दूसरे जितने भी सामने है या प्रभाव में है , उनतक शब्द पहले गए जो उनके अंदर पहले से मौजूद भावों से मेल खाके एक नया मिश्रण तैयार हो जाता है , और ये सिलसिला चलता ही जाता है ...... और इसमें विचित्र कुछ नहीं , सब निहायत ही नैसर्गिक है।
जब भी उचित वातावरण में कोई प्रभावी बीजारोपण किसी उद्देश्य को लेकर किया जाता है , और वो उचित वातावरण और खाद्य से पोषित हो कर सही धरती में प्रवेश पाता है , तो सुंदर परिणाम प्रकट होते है। इसी प्रकार एक ही बीज रुपी बात जब मानव के मानस पे सही वख्त और सही तरंगो के साथ स्थित होती है , तो सुंदर अभिव्यक्ति का जनम होता है।
जिस प्रकार वर्षा तो हजारों बूंदो कि होती है , पर मोती की रचना एक सांयोगिक प्राकृतिक घटना है जो स्वाति नक्षत्र से निकले जल कण से ही होता है। वो भी अगर पहले से खुली हुई और सही सीप के मुह पे गिरे।
ऐसा ही भाव और शब्दों का मेल और उनका सामने वाले पर पड़ने वाले प्रभाव है। और ये दो व्यक्ति तक रुकते नहीं , कभी चुम्बक के टुकड़े और लोहे के कणो का खेल खेला है ! बिलकुल वैसा ही है शब्द और भावों का आदान प्रदान। चाहे व्यक्तिगत रूप से आमने सामने हो या फिर तरंगित जगत में तरंगो द्वारा। शब्द और भाव तो हर जगह उपस्थित रहते ही है।
स्व पात्रता और ग्राह्यता अनुसार तरंगे प्रवाहित होती ही रहती है , इसी कारन इनको नदी के प्रवाह या फिर अति गहन भाव में समुद्र की निरंतर आती जाती लहरो से भी उद्धृत किया जा सकता है।
अंत में :
संतुलन में ही जीवन है , जहाँ संतुलन बिगड़ा उलटे सीधे परिणाम आने लगते है। यहाँ गुरु भी आपके अंदर वो ही संतुलन लाने का प्रयास कर रहा है (यदि गुरु व्यवसायिक नहीं है )। उस मानसिक स्तर पे कोई भी सही गलत के झमेले में पड़ता ही नहीं। क्यूंकि सही गलत जैसे कुछ होते ही नहीं , सिर्फ तरंगो के मेल होते है। हमारी ग्राह्यता सही या गलत के चक्कर में उलझ जाती है।
ॐ ॐ ॐ
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