क्या मैं कुछ ऐसा कह रही हूँ जो पहले किसी ने नहीं कहा , यदि मेरा ऐसा कुछ अनोखा करने का प्रयास है तो उपहास के लायक है , उसका चमत्कार तो इतना विलक्षण है कि हजारों नाम से उसको कहने की कोशिश करो फिर भी उस तक आते आते हर शब्द समाप्त हो जाता है , उसके शुन्य को शब्दो में बांधने का प्रयास ही सिमित है। और चाहे जितने नए शब्द से सजा लो , अर्थ तो फिर भी एक ही रहेगा।
दादू ने कहा , सूरदास के भी यही भाव थे , रहीम के भी और कबीर के भी , मीरा की प्यास भी यही थी ,तुलसीदास की भी प्यास यही थी , नानक की भी , और साईबाबा की भी बुध्ह महावीर अनगिनत नाम इस श्रृंखला के , जो आगे बढ़ते ही चले गए , नाम जुड़ते ही चले गए , सब एक ही बात तो कहते रहे जिसका निचोड़ था "अनन्य प्रेम " अपने प्रेमी के साथ एकलय हो जाना। स्वयं को भूल के स्वयं को जान लेना। ओशो भी यही कहते कहते चलेगये। आगे भी जिनको असंसार का ज्ञान होगा यही कहेंगे।
सम्मोहन में नहीं , निंद्रा में नहीं , बंद नेत्र और परबुध्ही के अंधानुसरण से नहीं ....... जागृत अवस्था में उत्तरदायित्व के साथ सम्पूर्ण जिम्मेदारी स्वयं की और स्वयं के कर्तव्यों की। धर्म को स्वीकार करो जागरण के साथ चाटुकारिता के साथ नहीं , इस चाटुकारिता से किसी को लाभ नहीं मिलने वाला ; स्वयं तुमको भी ....... संसार में स्वागत के समय ख़ाली हाथ थे विदा के वख्त भी ख़ाली ही रह जाये तो ज्यादा अच्छा , कहीं ऐसा न हो ज्यादा बुध्हिमानी के कारन असंतोष , ग्लानि , असुरक्षा , और ईश्वरीय सहानुभूति पाने की लालसा ही रह जाये फिर लालसा तो लालसा ही है, लालसा का अंतिम स्वाभाव अधूरापन ही है। इस संसार में हर एक घटना कि लम्बी श्रृंखला है क्यूंकि आशय रहित कुछ नहीं है भले ही स्वप्नवत है परन्तु इन सपनो में किये गए कर्मो का भी अपना ही संकेत है , संकेत विहीन नहीं है ये स्वप्न।
इन सपनो की निरर्थकता को जान के और अपनी क्षणभंगुरता को समझ के पृथ्वी के लिए यथोचित कर्म करें , सबसे यथोचित कर्म , प्रेम और सद्भाव से शुरू हो के यही ख़त्म हो जाता है।
" मिले हुए के प्रति आभार और वस्तु या भाव के मूल मात्रा की आवश्यकता और संतुलन " का अवश्य ख्याल रखे।
एक फूल को भी अगर वृक्ष से तोड़ रहे है तो अपने कर्म और प्रकर्ति के प्रति अपने इस अनावश्यक योगदान के प्रति जागरूक रहे। फल फूल हवा पानी ये प्रकृति के उपहार है उपकार है , ये हमारे अधिकार नहीं है। वर्चस्व नहीं है। भोजन करे आवश्यकता का ख्याल अवश्य रखे , वस्त्र संरक्षित करे परन्तु चाह के अनुसार नहीं आवश्यकता के अनुसार। इसी प्रकार जीवन के हर वो कर्म जो आपसे जुड़े है आवश्यकता को समझना और उनके प्रति आभार अनुभव करना बहुत आवश्यक है।
सब कुछ यूँ ही सहज सुलभ नहीं होता , बहुतों के योगदान की लम्बी फेरहिस्त है जो सुविधा हमको जीवन_सम्पदा के किसी भी रूप में मिली है।
जरा कभी एकांत में अवसर मिले तो इनको क्रम बद्ध करने का प्रयास कीजियेगा , जिधर से मर्जी हो शुरू कर सकते है , लेकिन यात्रा पूरी होनी चाहिए। जन्म से ले के म्रत्यु , या म्रत्यु से ले के जन्म का पूरा चक्र यानिकि शुन्य से शुरू होके शुन्य पे ही समाप्त अगर हो रही है , तो आपकी यात्रा पूरी है। बीच के पड़ावों को सूचीबद्ध करने से ही धीरे धीरे आभार प्रकट होने लगेगा। कोई पक्ष छूटना नहीं चाहिए , न दैवीय न प्राकृतिक और न मनुष्यता का। तब आपको अहसास होगा कि आप अकेले हो ही नहीं सकते। अकेले इतना कुछ कैसे हो सकता है ? हर विस्तार और विकास व्यक्तिगत नहीं वो तो कहीं बहुत पीछे से जुडी लम्बी श्रंखला का परिणाम है। फिर भी आपका अपना व्यक्तिगत विकास आपके इसी ध्यान में उतरने से सम्भव होगा। हैं न एक ही धागे के दो सिरे , व्यक्तिगत है भी और सम्पूर्ण भी।
मित्रों फिर भी अंत में मैं यही कहूँगी , मेरा कोई भी विचार नवीन नहीं , मुझसे पहले भी था और मेरे बाद भी रहेगा , बस अगर किसी के ह्रदय में उतर गया तो वो ही नवीनता होगी। वर्ना तो हजारो साल से ये विचार आकाश मे तैर रहे है। हजारों मुखों से शब्द प्रकट हुए है , हजारों ग्रंथों में सिमटे है , और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा अनवरत !
किसने कहा क्यूँ कहा कब कहा , इसमें उलझने से ज्यादा अच्छा , अपने अपने योग्य सूत्रों को छांट के , योग्य पा के... सम्भाल के , व्यक्तिगत विकास के उपयोग में लाएं। अन्य , जो उपयोगी नहीं उन को छोड़ दे यूँ ही, जिनके योग्य शब्द होंगे वे स्वयं आके ले लेंगे।
जो व्यक्ति स्वयं अपने गुरु होते है वे यही रास्ता अपनाते है। " सार सार को गहि रहे थोथा देहि उड़ाय" इसी प्रकार अपने चुने हुए पुष्पों से अपने प्रिय के लिए माला बनाते रहिये।
क्यूंकि उन सभी दिव्या आत्माओ का ..... परोक्ष और अपरोक्ष रूप से आपके हमारे आत्म विकास में सहयोग है। और हमारी आपकी प्यास की तीव्रता के अनुसार ही यकीनन , वो स्वयं हमारी पथप्रदर्शक बनती है।
दादू ने कहा , सूरदास के भी यही भाव थे , रहीम के भी और कबीर के भी , मीरा की प्यास भी यही थी ,तुलसीदास की भी प्यास यही थी , नानक की भी , और साईबाबा की भी बुध्ह महावीर अनगिनत नाम इस श्रृंखला के , जो आगे बढ़ते ही चले गए , नाम जुड़ते ही चले गए , सब एक ही बात तो कहते रहे जिसका निचोड़ था "अनन्य प्रेम " अपने प्रेमी के साथ एकलय हो जाना। स्वयं को भूल के स्वयं को जान लेना। ओशो भी यही कहते कहते चलेगये। आगे भी जिनको असंसार का ज्ञान होगा यही कहेंगे।
सम्मोहन में नहीं , निंद्रा में नहीं , बंद नेत्र और परबुध्ही के अंधानुसरण से नहीं ....... जागृत अवस्था में उत्तरदायित्व के साथ सम्पूर्ण जिम्मेदारी स्वयं की और स्वयं के कर्तव्यों की। धर्म को स्वीकार करो जागरण के साथ चाटुकारिता के साथ नहीं , इस चाटुकारिता से किसी को लाभ नहीं मिलने वाला ; स्वयं तुमको भी ....... संसार में स्वागत के समय ख़ाली हाथ थे विदा के वख्त भी ख़ाली ही रह जाये तो ज्यादा अच्छा , कहीं ऐसा न हो ज्यादा बुध्हिमानी के कारन असंतोष , ग्लानि , असुरक्षा , और ईश्वरीय सहानुभूति पाने की लालसा ही रह जाये फिर लालसा तो लालसा ही है, लालसा का अंतिम स्वाभाव अधूरापन ही है। इस संसार में हर एक घटना कि लम्बी श्रृंखला है क्यूंकि आशय रहित कुछ नहीं है भले ही स्वप्नवत है परन्तु इन सपनो में किये गए कर्मो का भी अपना ही संकेत है , संकेत विहीन नहीं है ये स्वप्न।
इन सपनो की निरर्थकता को जान के और अपनी क्षणभंगुरता को समझ के पृथ्वी के लिए यथोचित कर्म करें , सबसे यथोचित कर्म , प्रेम और सद्भाव से शुरू हो के यही ख़त्म हो जाता है।
" मिले हुए के प्रति आभार और वस्तु या भाव के मूल मात्रा की आवश्यकता और संतुलन " का अवश्य ख्याल रखे।
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एक फूल को भी अगर वृक्ष से तोड़ रहे है तो अपने कर्म और प्रकर्ति के प्रति अपने इस अनावश्यक योगदान के प्रति जागरूक रहे। फल फूल हवा पानी ये प्रकृति के उपहार है उपकार है , ये हमारे अधिकार नहीं है। वर्चस्व नहीं है। भोजन करे आवश्यकता का ख्याल अवश्य रखे , वस्त्र संरक्षित करे परन्तु चाह के अनुसार नहीं आवश्यकता के अनुसार। इसी प्रकार जीवन के हर वो कर्म जो आपसे जुड़े है आवश्यकता को समझना और उनके प्रति आभार अनुभव करना बहुत आवश्यक है।
सब कुछ यूँ ही सहज सुलभ नहीं होता , बहुतों के योगदान की लम्बी फेरहिस्त है जो सुविधा हमको जीवन_सम्पदा के किसी भी रूप में मिली है।
जरा कभी एकांत में अवसर मिले तो इनको क्रम बद्ध करने का प्रयास कीजियेगा , जिधर से मर्जी हो शुरू कर सकते है , लेकिन यात्रा पूरी होनी चाहिए। जन्म से ले के म्रत्यु , या म्रत्यु से ले के जन्म का पूरा चक्र यानिकि शुन्य से शुरू होके शुन्य पे ही समाप्त अगर हो रही है , तो आपकी यात्रा पूरी है। बीच के पड़ावों को सूचीबद्ध करने से ही धीरे धीरे आभार प्रकट होने लगेगा। कोई पक्ष छूटना नहीं चाहिए , न दैवीय न प्राकृतिक और न मनुष्यता का। तब आपको अहसास होगा कि आप अकेले हो ही नहीं सकते। अकेले इतना कुछ कैसे हो सकता है ? हर विस्तार और विकास व्यक्तिगत नहीं वो तो कहीं बहुत पीछे से जुडी लम्बी श्रंखला का परिणाम है। फिर भी आपका अपना व्यक्तिगत विकास आपके इसी ध्यान में उतरने से सम्भव होगा। हैं न एक ही धागे के दो सिरे , व्यक्तिगत है भी और सम्पूर्ण भी।
मित्रों फिर भी अंत में मैं यही कहूँगी , मेरा कोई भी विचार नवीन नहीं , मुझसे पहले भी था और मेरे बाद भी रहेगा , बस अगर किसी के ह्रदय में उतर गया तो वो ही नवीनता होगी। वर्ना तो हजारो साल से ये विचार आकाश मे तैर रहे है। हजारों मुखों से शब्द प्रकट हुए है , हजारों ग्रंथों में सिमटे है , और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा अनवरत !
किसने कहा क्यूँ कहा कब कहा , इसमें उलझने से ज्यादा अच्छा , अपने अपने योग्य सूत्रों को छांट के , योग्य पा के... सम्भाल के , व्यक्तिगत विकास के उपयोग में लाएं। अन्य , जो उपयोगी नहीं उन को छोड़ दे यूँ ही, जिनके योग्य शब्द होंगे वे स्वयं आके ले लेंगे।
जो व्यक्ति स्वयं अपने गुरु होते है वे यही रास्ता अपनाते है। " सार सार को गहि रहे थोथा देहि उड़ाय" इसी प्रकार अपने चुने हुए पुष्पों से अपने प्रिय के लिए माला बनाते रहिये।
क्यूंकि उन सभी दिव्या आत्माओ का ..... परोक्ष और अपरोक्ष रूप से आपके हमारे आत्म विकास में सहयोग है। और हमारी आपकी प्यास की तीव्रता के अनुसार ही यकीनन , वो स्वयं हमारी पथप्रदर्शक बनती है।
ॐ
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