धैर्य को ही ध्यान बनाओ; प्रतीक्षा को प्रार्थना। फिर देखो, कितनी जल्दी उसकी घटना घट जाती है। इस क्षण भी घट सकती है। एक क्षणभी रुकने की कोई जरूरत नहीं है अगर रुकना पड़ रहा है, तो इसलिए क्योंकि तुम बहुत जल्दी में हो, अगर तुम पूरी तरह छोड़ दो, तो इसी क्षण घटना घट जाएगी।
सारी ध्यान की विधियां धैर्य सिखाने को हैं, जल्दबाजी सिखाने को नहीं। इतनी जल्दी भी क्या है? प्रकृति बड़ी शांति से बहती है। स्वभाव चुपचाप चलता है। स्वभाव समय को मानता ही नहीं। वह शाश्वत है। फूल जल्दी नहीं करते। वृक्ष जल्दी नहीं पकते--रुकते हैं, राह देखते हैं। चांद त्तारे भागते नहीं, अपनी गति को थिर रखते हैं।
बायजीद जब प्रार्थना करता था, तो कभी उसके होंठ न हिलते थे। शिष्यों ने पूछा, हम प्रार्थना करते हैं, कुछ कहते हैं, तो होंठ हिलते हैं। आपके होंठ नहीं हिलते? आप ऐसे पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं भीतर? क्योंकि भीतर भी आप कुछ कहेंगे, तो होंठ पर थोड़ा कंपन आ जाता है। चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता।
बायजीद ने कहा, कि मैं एक बार एक राजधानी से गुजरता था, और एक राजमहल के सामने सम्राट के द्वार पर मैंने एक सम्राट को भी खड़े देखा, और एक भिखारी को भी खड़े देखा। वह भिखारी बस खड़ा था। फटे-चीथड़े थे शरीर पर। जीर्ण-जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिन से भोजन न मिला हो। शरीर सूखकर कांटा हो गया। बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थीं। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा-अब गिरा--! सम्राट उससे बोला कि बोलो क्या चाहते हो?
उस फकीर ने कहा, "अगर मेरे, आपके द्वार पर खड़े होने से, मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं। क्या कहना है और? मैं द्वार पर खड़ा हूं, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है।'
बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं। वह देख लेगा। मैं क्या कहूं? और अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे? और अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकता, तो मेरे शब्दों को क्या समझेगा?
भक्त जलता है। बड़ी गहन पीड़ा है उसकी। गहनतम पीड़ा है भक्ति की। उससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं। और मिठास भी बड़ी है उस पीड़ा में, क्योंकि वह एक मीठा दर्द है, और परम प्रतीक्षा भी है उसमें। भक्त रुक सकता है, अनंत काल तक रुक सकता है। और जिस दिन तुम अनंतकाल तक रुकने को तैयार हो, उसी क्षण घटना घट जाती है। उसके पहले घटना न घटेगी। क्योंकि उतने धैर्य में ही शांति घटित होती है। उसी शांति में द्वार खुलता है। अधैर्य छोड़ो।
मेरा सूत्र ध्यान रख लो--जो दौड़ेगा, वह चूकेगा। जो रुकेगा, वह पा लेगा। मांगोगे, कभी न मिलेगा। चुप रहो, मिला ही हुआ है।
सारी ध्यान की विधियां धैर्य सिखाने को हैं, जल्दबाजी सिखाने को नहीं। इतनी जल्दी भी क्या है? प्रकृति बड़ी शांति से बहती है। स्वभाव चुपचाप चलता है। स्वभाव समय को मानता ही नहीं। वह शाश्वत है। फूल जल्दी नहीं करते। वृक्ष जल्दी नहीं पकते--रुकते हैं, राह देखते हैं। चांद त्तारे भागते नहीं, अपनी गति को थिर रखते हैं।
बायजीद जब प्रार्थना करता था, तो कभी उसके होंठ न हिलते थे। शिष्यों ने पूछा, हम प्रार्थना करते हैं, कुछ कहते हैं, तो होंठ हिलते हैं। आपके होंठ नहीं हिलते? आप ऐसे पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं भीतर? क्योंकि भीतर भी आप कुछ कहेंगे, तो होंठ पर थोड़ा कंपन आ जाता है। चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता।
बायजीद ने कहा, कि मैं एक बार एक राजधानी से गुजरता था, और एक राजमहल के सामने सम्राट के द्वार पर मैंने एक सम्राट को भी खड़े देखा, और एक भिखारी को भी खड़े देखा। वह भिखारी बस खड़ा था। फटे-चीथड़े थे शरीर पर। जीर्ण-जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिन से भोजन न मिला हो। शरीर सूखकर कांटा हो गया। बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थीं। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा-अब गिरा--! सम्राट उससे बोला कि बोलो क्या चाहते हो?
उस फकीर ने कहा, "अगर मेरे, आपके द्वार पर खड़े होने से, मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं। क्या कहना है और? मैं द्वार पर खड़ा हूं, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है।'
बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं। वह देख लेगा। मैं क्या कहूं? और अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे? और अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकता, तो मेरे शब्दों को क्या समझेगा?
भक्त जलता है। बड़ी गहन पीड़ा है उसकी। गहनतम पीड़ा है भक्ति की। उससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं। और मिठास भी बड़ी है उस पीड़ा में, क्योंकि वह एक मीठा दर्द है, और परम प्रतीक्षा भी है उसमें। भक्त रुक सकता है, अनंत काल तक रुक सकता है। और जिस दिन तुम अनंतकाल तक रुकने को तैयार हो, उसी क्षण घटना घट जाती है। उसके पहले घटना न घटेगी। क्योंकि उतने धैर्य में ही शांति घटित होती है। उसी शांति में द्वार खुलता है। अधैर्य छोड़ो।
मेरा सूत्र ध्यान रख लो--जो दौड़ेगा, वह चूकेगा। जो रुकेगा, वह पा लेगा। मांगोगे, कभी न मिलेगा। चुप रहो, मिला ही हुआ है।
~~~~ Osho ~~~~~
Piv Piv Lagi Pyas - 04
(what else ! )
Om Pranam
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