एक जिज्ञासु ने साधक से प्रश्न किया , इक्षाओं को कैसे छोड़ा जाये , जबकि जब तक वो आनंद देती है उनके होने का पता ही नहीं चलता , कष्ट के पलों में लगता है कि इनसे पीछा छूट जाये।
उत्तर में मौन ही साधक ने वृक्ष की तरफ संकेत किया जिज्ञासु ने उसी दिशा में देखना शुरू किया ,एक घंटे बीत गया इसी तरह , कुछ नहीं हुआ तो वो जिज्ञासु बेचैन हो गया , बोला मैं क्या पूछ रहा हु और आप क्या इशारा कर रहे है मेरी तो समझ में नहीं आया। साधक मुस्कराया बोला तुमने गिरते पीले पत्तो को देखा , सहज ही वृक्ष को छोड़ रहे है , बिना प्रयास के , उनको ज्ञान हो गया कि अब और जीवन शेष नहीं। इसी प्रकार जब इक्षाएं चाहे सुख कि हो या दुःख कि वासनाओ से जुडी है तो जीवन है , जिस पल वासनाये साथ छोड़ती है इक्षाएं खुद ब खुद गिर जाती है , क्यूंकि उनका जीवन अब इस व्यक्ति के मानस में शेष नहीं।
वासना ही जड़ है 'इक्षाओं की' । इक्षाएं न सुख जानती है न दुःख , वो वासनाओ के दबाव से उठती है। और परिणाम का सामना करना पड़ता है आत्मन को। माया के सम्पूर्ण खेल यही से चलते है , क्यूंकि वासनाये आपकी नहीं माया की दास हैं। जिस दिन वासनाये आपकी दास हो जाती है। आप माया मुक्त हो जाते है। और सिर्फ कर्म और आनंद दो ही अर्थ रह जाते है।
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दो भिक्षुक साथ साथ चल रहे थे , पैदल मीलों चलते चलते थकान लगी तो एक पास मौजूद तालाब के मुहाने पे वृक्ष कि छाया में बैठ गए , ठंडी ठंडी हवा का आंनद लेते हुए , एक भिक्षुक छोटी छोटी कांकरिया हाथ से उठा के तालाब के शांत पानी में फेंकने लगा , धीरे धीरे शांत ठहरे पानी में छोटी और फिर बड़ी बड़ी तरंगे चलने लगी , फिर थोड़ी देर बाद कंकड़ फेंकना रोक दिया , पानी पे तरंगे चलती रही , दोनों तरंगो को उठता और फिर धीरे धीरे शांत होता देखते रहे , और जब जल सहज स्थिर हो गया , तो दोनों ने एक दूसरे को देखा मुस्कराये और आगे कि यात्रा पे चल पड़े।
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एक कौवा मुह में मांस का टुकड़ा दबाये उड़ा जा रहा था , और उसके पीछे हजारों कौवे पड़े थे , वो पुरे श्रम से उस मांस के टुकड़े को बचने के लिए कभी बहुत ऊपर जाता फिर शक्तिहीन सा होके नीचे उतर आता , परन्तु वो टुकड़ा उसको भी प्यारा था , कैसे छोड़ता ? अन्य कौवे उसको घायल कर रहे थे , खून बह रहा था , दर्द से तड़प रहा था। अचानक उसकी पकड़ ढीली पड़ी और मांस का टुकड़ा जमीं पे गिर पड़ा। वो ही हजारो कौवे जो उसकी जान के दुश्मन बने थे , वो सब उसको छोड़ मांस के टुकड़े के पीछे दौड़ पड़े। अब ये कौवा उस लड़ाई से बाहर था। और उन सब पीड़ाओं से भी , जो उस मांस के टुकड़े के कारण थी।
Om Pranam
उत्तर में मौन ही साधक ने वृक्ष की तरफ संकेत किया जिज्ञासु ने उसी दिशा में देखना शुरू किया ,एक घंटे बीत गया इसी तरह , कुछ नहीं हुआ तो वो जिज्ञासु बेचैन हो गया , बोला मैं क्या पूछ रहा हु और आप क्या इशारा कर रहे है मेरी तो समझ में नहीं आया। साधक मुस्कराया बोला तुमने गिरते पीले पत्तो को देखा , सहज ही वृक्ष को छोड़ रहे है , बिना प्रयास के , उनको ज्ञान हो गया कि अब और जीवन शेष नहीं। इसी प्रकार जब इक्षाएं चाहे सुख कि हो या दुःख कि वासनाओ से जुडी है तो जीवन है , जिस पल वासनाये साथ छोड़ती है इक्षाएं खुद ब खुद गिर जाती है , क्यूंकि उनका जीवन अब इस व्यक्ति के मानस में शेष नहीं।
वासना ही जड़ है 'इक्षाओं की' । इक्षाएं न सुख जानती है न दुःख , वो वासनाओ के दबाव से उठती है। और परिणाम का सामना करना पड़ता है आत्मन को। माया के सम्पूर्ण खेल यही से चलते है , क्यूंकि वासनाये आपकी नहीं माया की दास हैं। जिस दिन वासनाये आपकी दास हो जाती है। आप माया मुक्त हो जाते है। और सिर्फ कर्म और आनंद दो ही अर्थ रह जाते है।
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दो भिक्षुक साथ साथ चल रहे थे , पैदल मीलों चलते चलते थकान लगी तो एक पास मौजूद तालाब के मुहाने पे वृक्ष कि छाया में बैठ गए , ठंडी ठंडी हवा का आंनद लेते हुए , एक भिक्षुक छोटी छोटी कांकरिया हाथ से उठा के तालाब के शांत पानी में फेंकने लगा , धीरे धीरे शांत ठहरे पानी में छोटी और फिर बड़ी बड़ी तरंगे चलने लगी , फिर थोड़ी देर बाद कंकड़ फेंकना रोक दिया , पानी पे तरंगे चलती रही , दोनों तरंगो को उठता और फिर धीरे धीरे शांत होता देखते रहे , और जब जल सहज स्थिर हो गया , तो दोनों ने एक दूसरे को देखा मुस्कराये और आगे कि यात्रा पे चल पड़े।
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एक कौवा मुह में मांस का टुकड़ा दबाये उड़ा जा रहा था , और उसके पीछे हजारों कौवे पड़े थे , वो पुरे श्रम से उस मांस के टुकड़े को बचने के लिए कभी बहुत ऊपर जाता फिर शक्तिहीन सा होके नीचे उतर आता , परन्तु वो टुकड़ा उसको भी प्यारा था , कैसे छोड़ता ? अन्य कौवे उसको घायल कर रहे थे , खून बह रहा था , दर्द से तड़प रहा था। अचानक उसकी पकड़ ढीली पड़ी और मांस का टुकड़ा जमीं पे गिर पड़ा। वो ही हजारो कौवे जो उसकी जान के दुश्मन बने थे , वो सब उसको छोड़ मांस के टुकड़े के पीछे दौड़ पड़े। अब ये कौवा उस लड़ाई से बाहर था। और उन सब पीड़ाओं से भी , जो उस मांस के टुकड़े के कारण थी।
Om Pranam
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