Thursday 19 February 2015

आशा - आत्महत्या : कोई ज्ञानी आत्महत्या नहीं कर सकता - Osho


-: आशा - आत्महत्या  लेख ( सारांश ):- 

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आत्महत्या मृत्यु से भी आशा बांधने का नाम है। और ज्ञानी कहते हैं: तुम जीवन से भी आशा छोड़ देना। 
और अज्ञानी कहते हैं: मृत्यु से भी तुम आशा बांधे रखना।...........................................................बुद्ध ने अपने पूरे धर्म को चार हिस्सों में विभाजित किया है। वे ये चार हिस्से हैं।

पहला धर्म है--दुख को जानना। दूसरा धर्म है--दुख के कारण को पहचानना। तीसरा धर्म है--दुख के निरोध की संभावना को जानना। और चौथा धर्म है--दुख-निरोध के जितने उपाय हैं, उनकी साधना। इन चार चरणों में, बुद्ध कहते हैं, पूरा धर्म समाहित हो जाता है। 

इसलिए इनको उन्होंने चार आर्य-सत्य कहा है। आर्य का अर्थ है: श्रेष्ठ। इनसे ऊपर कोई सत्य नहीं है।

लेकिन मैं कहता हूं कि एक और भी सत्य है, जो इन चारों के पूर्व है। मैं पांचवां सत्य भी देखता हूं और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो तो ये चारों भी नहीं रह सकते। 

पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य है--दुख के प्रति मूर्च्छा

तुम्हारी संख्या बड़ी है। बुद्धों की कोई संख्या नहीं है। तुम्हारी भीड़ महान है, अनगिनत है। तुम एक दूसरे की भ्रांति को मजबूत करते हो। 

बुद्ध की आवाज जैसे शून्य में खो जाती है .... 

Osho 
Sahaj Samadhi Bhali - 07






तुम में और बुद्ध में क्या फासला है! जरा-सा फासला है।..............

मैं निरंतर कहता हूं: "वर्तमान में जीओ।' 

लेकिन यह बात थोड़ी गलत है।.................

आदमी अदभुत है। जीवन में तो आशा रखता ही है; मौत में भी आशा रखता है। इसलिए तो लोग आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या मौत से भी आशा बांधनी है। आत्महत्या का अर्थ है: मौत से भी हम कुछ आशा रखते हैं। दुख से छुटकारा हो जाएगा; इस जिंदगी का अंत होगा। शायद इससे कुछ बेहतर शुरू हो। इससे बुरा तो कुछ हो नहीं सकता।

आत्महत्या मृत्यु से भी आशा बांधने का नाम है। और ज्ञानी कहते हैं: तुम जीवन से भी आशा छोड़ देना। और अज्ञानी कहते हैं: मृत्यु से भी तुम आशा बांधे रखना।

इसलिए कोई ज्ञानी आत्महत्या नहीं कर सकता। ज्ञानी जीने तक को तैयार नहीं है, मरने को क्यों तैयार होगा! ज्ञानी की कोई आशा नहीं है। उसे जीवन का सत्य जैसा है, वैसा दिखाई पड़ गया है। इससे लगता है कि ज्ञानी दुखवादी है, जो कि भ्रांति है।

पश्चिम में बुद्ध को लोग पेसिमिस्ट समझते हैं--निराशावादी समझते हैं, जो गलत है। बुद्ध निराशावादी नहीं हैं। ज्ञानी दुखवादी नहीं है; केवल तथ्यवादी है। ऐसा है।

बुद्ध जीवन में दुख को "देख' नहीं रहे हैं; दुख जीवन में है। कुशल तो तुम हो कि जहां दुख है, वहां तुम सुख देख रहे हो! तुमने कोई इंतजाम किया हुआ है; तुमने कोई मानसिक ढांचा बनाया है कि दुख बाहर ही रुक जाता है। दुख भीतर तक नहीं आ पाता।
मैंने सुना है: एक फकीर यात्रा कर रहा है--एक जहाज से। तूफान आया बड़ा; नाव डूबने को होने लगी। अब डूबी, तब डूबी। सारे नाविक घुटने टेककर परमात्मा से प्रार्थना करने लगे। सिर्फ वह फकीर चुपचाप खड़ा रहा। आखिर कप्तान को क्रोध आ गया। उसने कहा, "तुम क्यों खड़े हो? धार्मिक आदमी होकर तुमसे इतना भी नहीं बनता कि तुम प्रार्थना में सम्मिलित हो जाओ?' उसे फकीर ने कहा, "यह नाव क्या मेरे बाप की है? जिसकी है: वह फिक्र करे।'

अजीब लगता है उसका वक्तव्य। लेकिन बड़ा सोचने जैसा है।

कप्तान ने सीधा कहा, "न हो नाव तुम्हारी, लेकिन डूबोगे तो तुम भी?' उस फकीर ने कहा, "जिसको समझ में आ गया है कि नाव मेरी नहीं है, वह कभी डूबता नहीं। "मेरापन' ही डूबता है। न नाव मेरी है, न शरीर मेरा है, न जीवन मेरा है। जिसकी हो वह रोये, चिल्लाये, प्रार्थना करे। हम कुछ बचाने को उत्सुक नहीं हैं। क्योंकि बचाने योग्य कुछ है भी नहीं। हम राजी हैं; जो हो जाए।'

आशा के दो रुख हैं। जो है--आशा उससे तुम्हें कभी राजी नहीं होने देती। और जो नहीं है और जो कभी नहीं होगा, उसका भ्रम बनाए रखती है।

आशा टूटते से ही धार्मिक व्यक्ति का जन्म होता है। आशा खोयी आंख से कि आंखें निर्मल हो जाती है। और दिखाई पड़ने लगता है, वह--जो है।

बुद्ध ने कहे हैं--चार आर्य-सत्य: दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। पहला, कि जीवन में दुख है। दूसरा, कि दुख अकारण नहीं है। क्योंकि जो अकारण हो, उसको मिटाया नहीं जा सकता है।

अगर कोई दीया बिना बाती, बिना तेल के जल रहा हो, तो तुम उसे बुझा नहीं सकते हो! हां, अगर तेल बाती से जल रहा हो, बुझा सकते हो। तेल हटा लो, बुझ जाएगा। लेकिन अगर कोई दीया "बिन बाती बिन तेल' जल रहा हो, फिर तुम उसे कैसे बुझाओगे? जिस आग के जलने का कारण न हो, उस आग को बुझाने का उपाय भी न होगा। "अकारण' को मिटाया नहीं जा सकता है।

बुद्ध कहते हैं: "लेकिन दुख का कारण है, इसलिए भयभीत मत हो जाओ। दुख का कारण है और दुख मिटाया जा सकता है।

दुख-निरोध की स्थिति, ऐसी चेतना की स्थिति है, जहां दुख नहीं होता। क्योंकि यह भी हो सकता है कि तुम एक दुख मिटाओ, लेकिन दुख-निरोध की स्थिति बनती ही न हो। तो दूसरा दुख पैदा होगा--तीसरा दुख पैदा होगा। तुम एक दीया बुझाओ, दूसरा पैदा होगा। तुम तीसरा बुझाओ, चौथा पैदा होगा। तो बुद्ध कहते हैं कि ऐसी भी चेतना की अवस्था है, जहां दुख नहीं होता। इसलिए दुख मिटाया जा सकता है और निर्दुख की अवस्था में रहा जा सकता है। और दुख-निरोध का मार्ग है। और वह रास्ता भी है, जिससे कारण समाप्त किए जाते हैं, उसकी जड़ें काटी जाती हैं।

बुद्ध ने अपने पूरे धर्म को चार हिस्सों में विभाजित किया है। वे ये चार हिस्से हैं। पहला धर्म है--दुख को जानना। दूसरा धर्म है--दुख के कारण को पहचानना। तीसरा धर्म है--दुख के निरोध की संभावना को जानना। और चौथा धर्म है--दुख-निरोध के जितने उपाय हैं, उनकी साधना। इन चार चरणों में, बुद्ध कहते हैं, पूरा धर्म समाहित हो जाता है। इसलिए इनको उन्होंने चार आर्य-सत्य कहा है। आर्य का अर्थ है: श्रेष्ठ। इनसे ऊपर कोई सत्य नहीं है।

लेकिन मैं कहता हूं कि एक और भी सत्य है, जो इन चारों के पूर्व है। मैं पांचवां सत्य भी देखता हूं और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो तो ये चारों भी नहीं रह सकते। पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य है--दुख के प्रति मूर्च्छा।

वही भेद है--बुद्ध में और तुम में।
तुम में और बुद्ध में क्या फासला है! जरा-सा फासला है। जो बुद्ध देख रहे हैं, वह तुम नहीं देख रहे हो। जो बुद्ध को दिखाई पड़ता है, वह तुम्हें सुनाई भी पड़ जाए तो भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम सुन भी लो, समझ भी लो, फिर भी पकड़ में नहीं आता; फिर भी तुम्हारा अपनी प्रत्यभिज्ञा नहीं बनती, तुम्हारी पहचान उससे निर्मित नहीं होती।

क्या कारण है कि बुद्ध चिल्लाये चले जाते हैं और तुम नहीं सुन पाते? शायद तुम्हारी आंख पर कोई परदा है, जिसके कारण जो भी तुम देखते हो, वह विकृत हो जाता है। जैसे पीलिया का मरीज होता है, उसे सब पीला दिखाई पड़ने लगता है।

मेरे दादा निरंतर कहा करते थे कि "सावन के अंधे को हरा-हरा सूझता है।' सावन में अगर कोई अंधा हो जाए, तो फिर उसे जिंदगी भर हरा-हरा ही सूझता है। क्योंकि सावन का वह हरापन आंखों में रह जाता है; और आंख बंद हो गई।

जिंदगी में हमें जो हरा-हरा सूझता है, उसके सूत्र को अगर समझ लें, तो बुद्ध में और तुम में क्या अंतर है, वह साफ हो जाएगा। अंतर जरा-सा है। जैसे कोई सोता हो और कोई जगता हो; बस उतना ही अंतर है।

तुम्हें दुख दिखाई नहीं पड़ रहा है। बुद्ध को सिवाय दुख के कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। तुम्हारी संख्या बड़ी है। बुद्धों की कोई संख्या नहीं है। तुम्हारी भीड़ महान है, अनगिनत है। तुम एक दूसरे की भ्रांति को मजबूत करते हो। बुद्ध की आवाज जैसे शून्य में खो जाती है।

किसी ने जॉन बैप्टिस्ट को पूछा कि "तुम कौन हो?' बप्तिस्मावाले जॉन ने ही जीसस को दीक्षा दी थी। वह जीसस का गुरु था। उसने जीसस को बप्तिस्मा दिया, इसलिए वह जॉन बप्तिस्मावाला कहलाता था। वह अनूठा फकीर था। उससे किसी ने पूछा कि "तुम कौन हो? क्या तुम वही मसीहा हो, जिसके आने का शास्त्रों में उल्लेख है?' उसने कहा कि "नहीं, मैं तो सिर्फ सूने रेगिस्तान में गूंजती हुई एक आवाज हूं। जस्ट ए वायस इन वाइल्डरनेस। बस, एक आवाज--जंगल में गूंजती हुई।' बड़ा ठीक उत्तर दिया। बुद्धों की आवाज जंगल में गूंजती हुई आवाज है। कोई सुननेवाला नहीं है। लोग सुन भी लेते हैं, तो फिर, अपने रास्ते पर चले जाते हैं। उनके चलने से पता चलता है कि वे चूक गए; उन्होंने सुना नहीं।

आंख पर कोई ऐसा परदा है कि हर चीज को विकृत कर जाता है! बुद्ध की बात को सुनकर उसको भी हम विकृत कर लेते हैं। जब हम सुनते हैं: "जीवन में दुख है', तो तत्क्षण हमारे मन में यह आशा बंधती है कि शायद बुद्ध के पास हमें कोई उपाय मिल जाए, जिससे जीवन का दुख मिट जाए। तत्क्षण हम बुद्ध के चरण पकड़ लेते हैं कि "बताओ मार्ग, जीवन का दुख मिट जाए।'

दुख को मिटाने का कोई मार्ग नहीं है। वस्तुतः दुख मिटाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी आशा टूट जाए, तो आशा के साथ ही सुख-दुख सब विलीन हो जाते हैं।

आशा के दो पहलू हैं--भविष्य में सुख और अभी दुख। जैसे ही आशा टूटी कि भविष्य का सुख खो जाता है और अभी का दुख खो जाता है। क्योंकि जो तुम्हें दुख दिखाई पड़ता है, वह इसीलिए तो दुख दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुमने सुख के कोई सपने संजो रखे हैं; उनकी तुलना में ही, उनकी अपेक्षा में ही दुख है।

तुम्हारे सभी दुख तुम्हारे सुख की अपेक्षा से निर्मित होते हैं। इसलिए जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना दुखी आदमी। जिसकी कोई अपेक्षा नहीं, उसका कोई दुख नहीं। लेकिन तुम बुद्ध को सुनकर फिर सुख के सपने बनाते हो। तुम बुद्ध से भी सपना निकाल लेते हो। तुम बुद्ध को भी अपने नींद की दवा बना लेते हो। तुम बुद्ध से भी पूछते हो, "बताओ रास्ता--सुख को पाने का।'

और ध्यान रहे: बुद्ध केवल तुम्हें दुख को देखने का रास्ता बता सकते हैं। सुख को पाने का कोई सवाल ही नहीं है। जिस दिन तुम दुख देखें लेते हो, जिस दिन कोई सुख तुम्हें लुभाता नहीं है; जिस दिन तुम लोभ की वृत्ति से मुक्त हो जाते हो और जान लेते हो कि सब भ्रांति है, जिस दिन तुम दुख के लिए राजी हो जाते हो, उसी दिन दुख विसर्जित हो जाते हैं।

दुख इतना घना होता है कि तुम्हें जगा देता है। एक आदमी की सर्जरी करनी हो अस्पताल में, तो हमें उसे बेहोश करना पड़ता है। बेहोश करके फिर हड्डी-पसलियां काटो, हाथ-पैर तोड़ो, हृदय खोलो, उसे कुछ पता नहीं चलता। वह इतना बेहोश है कि दुख पता नहीं चलता।

बेहोशी दुख को झेलने में समर्थ बनाती है। और जितना बड़ा दुख झेलना हो, उतनी बड़ी बेहोशी चाहिए। अन्यथा बीच में टूट जाए बेहोशी, तो कठिन हो जाए। बड़े दुख के लिए बड़ी बेहोशी चाहिए और छोटे दुख के लिए छोटी बेहोशी। और अगर बिलकुल दुख न झेलना हो, तो पूर्ण होश चाहिए।

होश आते ही जैसे सारे जीवन का रूपांतरण हो जाता है। जहां कल दुख दिखाई पड़ता था, जहां कल सुख दिखाई पड़ता था, वे दोनों एक साथ खो जाते हैं। धूप-छांव दोनों एक साथ खो जाते हैं; रह जाते हो तुम--अकेले। और तुम्हारा वह अकेलापन ही मुक्ति है। तुम्हारे उस अकेलेपन में ही आनंद की वर्षा होती है। तुम्हारे उस अकेलेपन में ही अमृत का पहली बार अनुभव होता है।

जिस दिन कोई आशा नहीं--भविष्य की, उसी दिन वर्तमान की कोई पीड़ा नहीं; भविष्य और वर्तमान एक साथ समाप्त हो जाते हैं।

मैं निरंतर कहता हूं: "वर्तमान में जीओ।' लेकिन यह बात थोड़ी गलत है। लेकिन तुम गलत हो और तुमसे गलत भाषा में बोलना पड़ता है। तुमसे मैं कहता हूं: "वर्तमान में जीओ।' लेकिन कभी तुमने पूछा नहीं, सोचा भी नहीं कि अगर भविष्य नहीं है और अतीत भी जा चुका है और भविष्य अभी आया नहीं, तो वर्तमान कैसे हो सकता है! नदी का "वह' किनारा भी नहीं है, नदी का "यह' किनारा भी नहीं है, तो बीच का सेतु कैसे खड़ा हो सकता है! यह जो वर्तमान का क्षण है, यह हो ही तब सकता है, जब अतीत का क्षण इसे पीछे से सम्हालता हो। और भविष्य का क्षण इसे आगे से सम्हालता हो। दो किनारे हों--अतीत और भविष्य के, तो वर्तमान का सेतु होगा।

तुमसे मैं निरंतर कहता हूं: वर्तमान में जीओ, लेकिन जिस दिन तुम जीओगे, उस दिन अतीत और भविष्य तो खो ही जाएंगे, वर्तमान भी खो जाएगा। क्योंकि जब किनारे ही न रहे, तो बीच का सेतु कैसे रहेगा; उस दिन अचानक तुम पाओगे, कि समय खो गया। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि समाधि कालातीत है। वह वर्तमान में भी नहीं है, क्योंकि वर्तमान तो अतीत और भविष्य के ही बीच की लकीर है।

अगर अतीत और भविष्य दोनों झूठ हैं, तो वर्तमान भी झूठ है। और मध्य कैसे बच सकता है, जब दोनों छोर खो जाएं! मध्य कहां बचेगा? दोनों छोर के खोते ही मध्य भी खो जाता है।

जिस दिन तुम भविष्य की आशा नहीं रखते, जिस दिन तुम अतीत की स्मृति नहीं सम्हालते, उस दिन तुम वर्तमान में रहोगे, यह कहना गलत है। क्योंकि वर्तमान भी नहीं बचेगा। उस दिन तत्क्षण समय खो जाएगा; तुम समयातीत हो जाओगे। तुम अपने को अचानक पाओगे--वहां, जहां कोई समय नहीं है; जहां न कुछ कभी हुआ, न जहां कभी कुछ होनेवाला है; न जहां कुछ हो रहा है।

यह जो अवस्था है, यह अवस्था बुद्ध की अवस्था है। इस अवस्था में कोई दुख नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में सुख की कोई वासना नहीं है। इस अवस्था में कोई विषाद नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में कोई आशा नहीं है। इस अवस्था में तुम कुछ पाना नहीं चाहते, इसलिए तुम पीड़ित भी नहीं हो सकते। इस अवस्था में तुम ही बचते हो--निपट तुम--तुम्हारा "होना' बचता है।

इस अवस्था को बुद्ध मोक्ष कहते हैं, महावीर कैवल्य कहते हैं, क्योंकि केवल तुम ही बच रहते हो। इसे हिंदू ब्रह्म कहते हैं, क्योंकि तुम तो खो जाते हो, केवल समग्र की सत्ता शेष रह जाती है।

ये चार आर्य-सत्य तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, क्योंकि इन चारों के पहले एक परदा तुम्हारी आंख पर है--दुख के प्रति मूर्च्छा का।

तुम दुख को देखती ही नहीं। तुम कभी दुख को आंख भरकर नहीं देखते। तुम सदा दुख से आंखें छिपाते हो। तुमने कभी दुख का आमना-सामना किया है? घर में कोई मर गया हो, तब तुमने उसके पास बैठकर उसकी मृत्यु का आमना-सामना किया है? तुम छाती पीटोगे, रोओगे, चिल्लाओगे--सब करोगे। लेकिन यह सब "बचने' की तरकीबें हैं।

एक घटना घटी है--मृत्यु की, उसको तुम भुलाने के उपाय कर रहे हो। तुम जाओगे सुनोगे ज्ञानियों को, कि "आत्मा अमर है, कोई मरता नहीं; शरीर ही मरता है। पंचतत्व पंचत्तत्वों में मिल गए और भी भीतर छिपा था, वह तो शाश्वत अजन्मा--अभी भी है।' तुम ये सब बातें सुनोगे। तुम रोओगे, दुखी होओगे, पीड़ित होओगे, सांत्वना इकट्ठी करोगे। लेकिन एक बात तुम कभी न करोगे कि मौत सामने खड़ी है, अभी घट रही है, तुम इसे देख लो। क्योंकि उससे तो तुम्हें घबड़ाहट लगेगी।

अगर तुम मौत को एक बार भी देख लो--समय बिना खोये, बिना दूसरी बातों को बीच में लाये--तो तुम्हें दिखाई पड़ जाएंगे बुद्ध के चार आर्यसत्य। क्योंकि मौत तुम्हारी तंद्रा को तोड़ देगी।

यूनान में हुआ--एक बहुत बड़ा विचारशील सम्राट। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि "नासमझ दूसरे के अनुभवों से सीख नहीं सकता। नासमझ अपने अनुभवों से भी मुश्किल से सीख पाता है। समझदार अपने अनुभव के लिए नहीं रुकता है; दूसरे के अनुभव से भी वह सीख लेता है।'

इस सम्राट का नाम था--मारकस आरेलियस। दुनिया में जो विचारशील सम्राट हुए हैं, उनमें इसका कोई मुकाबला नहीं है। न अशोक, न अकबर--कोई उसके मुकाबले नहीं पहुंच सकते। उसकी छोटी-सी किताब "मेडिटेशंस' बहुत गहन रूप से पढ़ने जैसी है। वह कह रहा है कि "नासमझ अपने अनुभव से भी नहीं सीख पाता। नासमझ मरेगा तब भी छाती पीटते हुए, शोरगुल मचाते हुए मर जाएगा, ताकि मौत को देख न पाए। समझदार दूसरे के अनुभव से भी सीख लेता है; दूसरा भी मरेगा तो भी समझदार उसी पीड़ा को अनुभव कर लेगा, जो मृत्यु की पीड़ा है।'

बुद्ध के साथ यही हुआ। दूसरे की लाश देखना बुद्ध को पर्याप्त हो गया। उन्होंने कहा: बस, अब जीवन व्यर्थ है। जब वह आदमी मर गया है और मुझे भी मरना है, तो इन बीच के थोड़े से दिनों को व्यर्थ खोना उचित नहीं है। मैं इन्हें "खोज' में लगाऊंगा। जब मौत आने ही वाली है, दिन दो-दिन की बात है, दिन चार-दिन की बात है--मौत आने ही वाली है, तो इस बचे हुए जीवन को मैं जीवन की खोज में लगाऊंगा। इसके पहले कि मौत आए, कम से कम मैं जान तो लूं कि जीवन क्या है! इसके पहले कि मेरे हाथ से अवसर छीन लिया जाए, मैं झांक तो लूं कि मुझे किस जगत में भेजा गया था और वहां क्या था!

दूसरे की मृत्यु से बुद्ध को ज्ञान हुआ। तुम्हें "तुम्हारी मृत्यु' से भी "ज्ञान' न होगा। और यह दूसरा अजनबी था, परिचित भी न था। तुम्हारे प्रियजन भी मरते हैं, तो भी तुम्हें ज्ञान नहीं होता; क्योंकि तुम बचने की तरकीब जानते हो। तुम आंखें चुराना जानते हो। जहां भी दुख हुआ, तुम तत्क्षण आंख चुराते हो। 

- "ओशो "
Sahaj Samadhi Bhali - 07

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