करुणा क्या है कभी विचार किया है आपने ? करुणा ज्ञानी के ज्ञान वृक्ष का सुन्दरतम पुष्प है जो उसके ह्रदय से जुड़ा है , जैसे आपमे भी पुष्प खिला है किन्तु वो दिमाग से जुड़ा है इसलिए आपका पुष्प वेदना का है और इसलिए आकर्षक भी नहीं हो सका , इसीलिए ज्ञानी का भाव महकता है (आपके लिए ) और इसलिए आपका भाव आपको कष्ट देता है।
न भूलिए कि वेदना जैसा ही परम कष्टकारी करुणा का भी भाव है , हो सकता है उसका भाव आपके लिए सुखकारी है पर जिसमे करुणा जन्म ले रही है वो उसकी पीड़ा है।
" वेदना और करुणा एक ही धागे के दो छोर " जैसे गुरु और शिष्य , जैसे ज्ञानी और अज्ञानी , जैसे साधक और पारंगत , कुछ भी शब्द दे दीजिये।
जरा थोडा ज्ञानी अज्ञान से अलग हट के साक्षी भाव से सोचें , तो अंततोगत्वा हम सब ज्ञानी से लेकर अज्ञानी तक एक ही माया की सुंदर थाली में बिखरे हीरे मोती लगते है , चाहे परम ज्ञानी हो या थोडा ज्ञानी या फिर अज्ञानी। वृत्तियाँ सिर्फ अपना रूप बदल लेती है , रंग बदल लेती है ,जीवन यात्रा सभी की है , वेदना करुणा प्रसन्नता , भूख प्यास और सब मानवीय बीजरूप सम्भावनाये गुण दुर्गुण के सिरे ……समस्त संघर्ष की बात वो ही और वहीं की वहीं हैं सिर्फ स्तर और दृष्टि का फर्क है । कोई फर्क नहीं है जीवन यापन में , सिर्फ उनकी दृष्टि में खुलापन आगया है जिससे वो इस जीवन के आगे भी देख पाते है , और हम एक दिन से ज्यादा का भी नहीं सोचना चाहते और स्वार्थ पूर्ति के लिए उम्र भी छोटी लगती है , एक यौवन तो बहुत ही छोटा लगता है , कई कई जन्मो की इक्छा जगी हुई है।
यहाँ फर्क सिर्फ स्तर का है, भाव वो ही है स्वार्थ का , ज्ञानी का स्वार्थ अंतर गामी है , और अज्ञानी का स्वार्थ बाह्यगामी , एक अज्ञानी अपने सूक्ष्मतम घेरे में कैद है और सूक्ष्म उपलब्धियों और अनुपलब्धियों में सुखी और दुखी है। उसके ऊपर थोडा ग्यानी प्रकट हो जाता है , वो घेरा और वृत्तियां जरा बड़े घेरे में है , तो उसकी उपलब्धियां और उसके प्रयास भी बड़े घेरे के है। उसे भी कष्ट है उसे भी वेदना है किन्तु थोडा बड़े स्तर की , वेदना ने अपना रूप बदल लिया और अब वो करुणा नाम का अवतार लेने वाली है। खोज और भी बड़े स्तर पे विश्राम करने वाली है।
एक महा ज्ञानी अंपने " वृहत्तम " (परिभाषा के लिए इससे ज्यादा वर्णन शब्दो में नहीं ) घेरे में कैद है। अब उसकी करुणा संसार से ऊपर उठ के बृह्मांड में तैर रही है , पर है वेदना का सुंदरतम रूप।
करुणा भी वेदना देती है। जिसको ज्ञान नहीं वो स्वयं प्रकति को नष्ट करता है जीव हत्या करता है , परन्तु उसकीवेदनाएं यहाँ नहीं कहीं और है। ज्ञानी की वेदना यहाँ है इस प्रकर्ति के साथ जुड़ गयी है। इसलिए वो नष्ट होती प्रकृति से पीड़ित है , वो इंसान कि बुध्ही की जड़ता से पीड़ित है। वो चाहत में भी कैद है जिसका नाम दया है , वो चाहता है कि सारा संसार उसके अनुभव से लाभ उठा ले। इसमें वो सारा श्रम और शक्ति लगा देता है , जिसको दूसरा नाम करुणा का दिया जाता है।
मेरी दृष्टि में एक ही पीड़ा का भाव अलग अलग वस्त्र पहन के आत्माओं के साथ खेल खेलता है। और हमको श्रेष्ठ लगता है क्युकी हमारा स्वार्थ उस ज्ञानी के साथ निहित हो जाता है। हम ह्रदय से चाहते है , नहीं नहीं , दिमाग से चाहते है कि वो ऐसे ही हम पे अपनी करुणा बरसता रहे।
जरा अब इसी को दूसरे पलड़े में जा के अनुभव करे ! जिस स्तर पे ज्ञानी अपनी करुणा बरसाता है उस स्तर पे उसकी करुणा कितने कष्टों में रहती है , इसका हम हिसाब रखना भी नहीं चाहते। क्या फर्क पड़ता है किसी को ?
जरा सोचिये , इसी वेदनामयी करुणा का स्तर उस ईश्वरत्व तक जाते जाते कितना प्रबल हो जाता होगा। उस ईश्वर से हम दोनों हाथ जोड़ के ,' करुणा कर …… करुणा कर, हे ! करुणा निधि ' की गुहार लगाते ही रहते है। भक्त की कैसी भक्ति है , प्रेमी का ये कैसा प्रेम है और श्रृद्धालू की ये कैसी श्रध्हा है ?
आपको नहीं लगता ; आप स्वयं को ही सबसे बड़ा धोखा दे रहे है ! क्या आपको नहीं लगता कि ज्ञान तत्व ज्ञान और मूढ़ता का भरम सब माया के अंदर है। सांसारिकता पे भरोसा करके स्वयं को छल रहे है , सांसारिकता को समझना है तो माया से ऊपर उठ के तैरना होगा। क्यूंकि माया से बाहर भाव तो है ही नहीं सिर्फ शुन्य है , सन्नाटा है । और सबसे बड़ा सच यही है मान सको तो मान लो !
" माया महा ठगनी हम जानी "
ॐ ॐ ॐ
No comments:
Post a Comment