संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। वह सत्य को देखने के तुम्हारे दो ढंग हैं। दौड़ते-दौड़ते सत्य को देखा तो- संसार..........रुककर, केन्द्रित होकर सत्य को देखा तो- परमात्मा।Osho
हो गयी न दिल्ली से हरिद्वार की फिर से यात्रा !! पर हर बार की तरह इस बार भी अनोखी यात्रा और नए अनुभव के साथ , परन्तु हर बार एक निष्कर्ष बदलता नहीं, ' जो सहज है सरल है तरंगित सुवासित अंतरजगत में उसका वास है '... शब्द में कहा इतनी सामर्थ्य जो अपने कहे को स्पष्ट कर सके , जितने भाव शब्द से बने आज तक सभी अपूर्ण सिर्फ शब्दों से भरे अर्थवान मस्तिष्क के लिए .......................इसीलिए वो अपूर्ण हो गए ।
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हो गयी न दिल्ली से हरिद्वार की फिर से यात्रा !! पर हर बार की तरह इस बार भी अनोखी यात्रा और नए अनुभव के साथ , परन्तु हर बार एक निष्कर्ष बदलता नहीं, ' जो सहज है सरल है तरंगित सुवासित अंतरजगत में उसका वास है '... शब्द में कहा इतनी सामर्थ्य जो अपने कहे को स्पष्ट कर सके , जितने भाव शब्द से बने आज तक सभी अपूर्ण सिर्फ शब्दों से भरे अर्थवान मस्तिष्क के लिए .......................इसीलिए वो अपूर्ण हो गए ।
एक ही सार्वभौमिक सत्य है , " मौन में वो मुखर है , और मन की आँखों से प्रत्यक्ष। "
जहाँ तक दर्शन शास्त्र है .... सभी की तपस्या का परिणाम है ये दर्शन , इसके हर विचार में पवित्र नदियों का संगम है , समुद्र की गहराई और आकाश की अनंत ऊंचाई , परन्तु संसार फिर भी संसार ही है सदैव ही अधूरा अनकहा और अनसुना। वैसे भी जहाँ तर्क पैदा होने लगते है परमात्मा वहां से हट जाते है , सम्पूर्ण जगत में परम का वास है सिर्फ मस्तिष्क को छोड़ के , जब भी मस्तिष्क दौड़ने लगता है , ह्रदय खाली हो जाता है।
परन्तु जो सहज है सरल है वो इतना उलझा हुआ नहीं हो सकता , इस संसार में कोई स्पष्टीकरण पूर्ण नहीं , कोई कर्म पूर्ण नहीं , कोई भाव पूर्ण नहीं , पूर्णता का अनुभव तो सिर्फ परा के पास है , जो मीरा को मिला। जो कबीर को मिला जो रूमी को मिला , सम्पूर्णता , वहां कुछ हारा हुआ नहीं , सब जीता हुआ है। ऐसा वो सब कहते है जो उस पारा अनुभव से रूबरू हो चुके है।
एक नेत्र जो खुला है उससे संसार का दर्शन होता है , एक नेत्र जो तभी सक्रीय होता है जब बाह्य नेत्र बंद हो , उससे एक अलग ही भावयुक्त सत्ता का दर्शन होता है। जहाँ सम्पूर्ण चराचर घुल मिल जाते है बिना किसी भेद भाव के। एक शक्ति , एक दिव्यता , एक भव्यता। एकात्मकता का दर्शन। परम का दर्शन।
शब्दों में क्लिष्टता है , भावो की अभिव्यक्ति में उलझाव है , परिभाषाओं में बिखराव है , परन्तु , मौन में अंतरयात्रा में सरलता है , सहजता है , तरंगो में दिव्यता है , मौन में उपलब्धि है , और सयम वे परमसत्ता का वास है और जहाँ सरलता है वह ईशवरतत्व है , ऐश्वर्य है। तरंगित सुवासित अंतरजगत में परम का वास है
" इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।"~ओशो~
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