Saturday, 12 April 2014

स्त्री (Note)



कहा से शुरू करे ? त्रेता युग से , द्वापर युग और कलियुग ........... !!

इतिहास के पन्नो में लिपटा स्त्री का इतिहास , आज फिर से याद आया है , कुछ चर्चा चली , कुछ ख़बरों में पढ़ा , और इस नोट का को लिखने का विचार आया। 
मुझे भी पता है की जब त्रेता युग से आज तक मूल स्थति में बदलाव संभव नहीं हो पाया , वो आज मेरे इस छोटे से नोट से पूरा नहीं होगा , परन्तु भाव है सो आप सबसे बाटना चाहती हूँ ,

एक स्त्री को माना गया है की वो भाव प्रधान होती है , प्राकतिक संरचना के कारन देह से बलशाली नहीं होती (अपवाद छोड़ के ) , जन्म दात्री है , परिवार को अपनी भावनाओं से जोड़ के रखती है। प्रेम का दूसरा रूप मानी जाती है स्त्री। इतनी सारी योग्यताएं जो स्त्री को प्रक्रति से मिली है वो नैसर्गिक है , यानि कि सृष्टि के संचार में और समाज के बहाव में महत्वपूर्ण योगदान है।

परन्तु साथ के साथ अद्भुत साक्ष्य से भी आमना सामना होता है की स्त्री को मात्र भोग्या का स्तर मिला , आज से नहीं सृष्टि के आरम्भ से , ये स्तर निर्धारित करने वाले और कोई नहीं पुरुष ही है , और इसका सीधा सम्बन्ध उनके अपने आंतरिक भय से है , चूँकि उनकी दृष्टि का दोष है , और स्त्री को काबू में करने का और कोई उपाय नहीं सुझा। सूझता तो भाव से भाव काबू हो सकते थे।

बलशाली समाज का अपना इतिहास है जहाँ स्त्रीओं की नारी शक्ति को अलग अलग तरीके उपयोग में लाया जाता रहा है। यहाँ इस नोट में हम उन सन्यासी प्रवृत्ति के पुरुषो का उदाहरण ले रहे है , जिन्होंने संन्यास की आड़ में स्त्री का सिर्फ भरपूर तिरस्कार ही नहीं वरन उसके जीवन को नरक से बदतर बना दिया। 

                

नीचे सिर्फ वो उदाहरण है जो अति प्रसिद्द है तथा जिनका इतिहास में उल्लेख है अथवा समाज में चर्चित है 

श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम काल , तत्कालीन पुरुष समाज रचित कायदे कानून। त्रेता युग लगभग वाल्मीकि रामायण के अनुसार लगभग 12960000 वर्ष पूर्व , अग्नि परीक्षा के बाद भी गर्भवती सीता का निष्कासन आज भी चर्चित है और आलोचना का विषय है । १४ साल का वन वास सिर्फ राम का नहीं था , वो तो नायक बन गए कथा के , इन १४ सालों की पीड़ाओं में लक्ष्मण भी साथ थे , जिनकी पत्नी को बिना पति के संरक्षण के , उतना ही समय व्यतीत करना था , जंगल में सूर्पनखा नाम की स्त्री का अपराध की प्रेम जाहिर किया , और राम की आज्ञा से नाक काट ली गयी। एक और ऋषि पत्नी अहिल्या का जिक्र आता है जिनको धोके से इंद्र नाम के पुरुष ने अपनी वासना का शिकार बनाया , और ऋषि ने बिना वजह उनको शिला बना दिया , ऐसी भी स्त्री का जिक्र है जिनके रोगी पति की इक्षा अनुसार उनकी स्त्री को नियम से रोजाना वैश्यालय लेके जाना पड़ता था। ऋषि वाल्मीकि बुद्धिमान थे , उनके नायक सामान्य गुणों से युक्त मानव थे , जो तत्कालीन चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र थे उन्होंने बेहद चतुराई से तत्कालीन समाज का उल्लेख किया और तत्कालीन सामाजिक दायरों और कायदों में सब गुण और अवगुण दोनों को ही समेट लिया और एक सुन्दर सामाजिक व्यवस्था के रूपमे स्वस्थ समाज के लिए निर्देश करते हुए धार्मिक सामाजिक धर्मग्रन्थ की रचना कर दी।

{{ कुछ ऐसा ही समझिए जैसे आज राज माता इंदिरा गांधी के पोते और रानी सोनिया पुत्र राहुल गांधी , वैसे तो अब राजतन्त्र नहीं है प्रजातंत्र है ; अगर होता तो , राहुल गांधी के एक एक विचार और कर्म को नियम और व्यवस्था में बदल देना बाबा रामदेव जी सरीखे धर्म गुरु के लिए कोई बड़ी बात नहीं होती , क्यूंकि तब के समाज में , राजपुत्रों की शिक्षा दीक्षा तथा सामान्य समाजिक नियम और व्यवस्था राज पुरोहित (ऋषि ) के हाथो में थी और धर्म ही नियम और कानून का और भगवान का भी रूप माने जाते थे }}

ध्यान दीजियेगा , बात सही या गलत से भी ऊपर है , इतिहास में जय गाथा , विजयी की होती है हारे हुए का कोई इतिहास नहीं होता , ये भाव इससे भी ऊपर है की हारने वाला सही था या जीतने वाला । राजाओं के प्रभाव, वर्चस्व को और चरित्र को आज की तारिख में भी समझ पाना कठिन नहीं। आज भी मानव अपनी उन्ही अच्छाई और बुराई के साथ खड़ा हुआ है। 

ऋषि दधीचि के जीवन का उल्लेख है , अपनी पत्नी के प्रति सम्मान था प्रेम था , परन्तु जब देह त्याग का समय आया तो उन्हें स्मरण ही नहीं आया के भावनात्मक रूप से पत्नी कितना आहत है , उनके जाने के बाद वो अपना जीवन कैसे व्यतीत करेगी, उनको इक्षा मृत्यु का वरदान प्राप्त था किन्तु वज़्र के लिए उन्हें इंद्र को अस्थि दान करनी थी इसीकारण मृत्युका वरन करना था स्वयं शिव को उन्हें याद दिलाना पड़ा की अपनी पत्नी से आज्ञा ले के फिर देह त्याग का विचार करें। आपके जीवन में और आपके निर्णयों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। 

द्वापर युग : श्री कृष्ण सभी कलाओं से पूर्ण , स्त्रीओं का सम्मान करने वाले प्रेम करने वाले , परन्तु एक एक स्त्री करते करते , हजारों स्त्रियों से उनके मित्रवत सम्बन्ध रहे , और किसी से भी भावनात्मक सम्बन्ध वो नहीं बना सके (कृपया सिर्फ स्त्री का सन्दर्भ याद रखें , अन्य सभी रहने दें ) अपनी हजार पत्नियों को छोड़ के राधा से अमर प्रेम किया जो किसी और की पत्नी थी , द्रौपदी से भी उनका सच्चा सखा भाव था। उलेखित है की यहाँ सिर्फ श्री कृष्ण का ही उल्लेख है उन्हीके दृष्टिकोण से सारी पटकथा और निर्देशन है , कहीं भी स्त्री के भाव का जिक्र नहीं , उसकी पीडाओ को विरह कथा तथा मायाजाल कह के समाप्त किया गया है। माता कुंती का विवाह से पूर्व सूर्य से गर्भ ग्रहण , स्त्री भावनाओ का निरादर महाभारत युद्ध का प्रमुख कारन था ...... क्यूंकि भीष्म ने अविवाहित रहने का प्रण कर लिया था , किन्तु युद्ध में विजयी हो के अम्बा , अम्बिका , अम्बालिका को उनके विवाह मंडप से अपहरण कर साथ ले आये परन्तु उनसे विवाह नहीं किया इसलिए उन्होंने एक नहीं तीन तीन स्त्रियों का जीवन बर्बाद करदिया , जो अम्बालिका शिखंडी का स्त्री रूप में महाभारत युद्ध में उनकी मृत्यु का कारण बनी। स्वयं सन्यासी व्यास द्वारा बिना विवाह के पुत्र जन्म का दायित्व पूरा करना पड़ा आदि आदि.... उल्लेख मिलते है पांचो पांडव के अपनी अपनी पत्निया थी और द्रौपदी पांचो पांडव की पत्नी बनी. जिसका उपहास दुर्योधन ने उड़ाया , चीर हरण किया और क्रोध में द्रौपदी ने अपने केश खोल दिए , सौगंध के साथ की दुर्योधन के रक्त से अपने केश धोएंगी। यही पृष्ठभूमि थी महाभारत की। 

कलयुग के आते आते तो सीमा ही नहीं रह गयी , मुझे लगता है की स्त्री के भावनात्मक ब्लैकमेल की सीमा किसी भी युग में नहीं थी , सिर्फ उल्लेख नहीं है। 

सिद्धार्थ , जिनके नाम के अधीन सम्पूर्ण बौद्ध धर्म चल रहा है , उनका स्वयं का जीवन यशोधरा के प्रति अन्याय से भरा है , रामकृष्ण की शादी सामाजिक दबाव में हुई , उनकी पत्नी का सारा जीवन बलि चढ़ गया। 

सन्यासी मानसिकता अलग होती है , जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण अलग होते है , किन्तु ईश्वर के इतना करीब होते हुए भी , ईश्वर की अनूठी कृति के प्रति इतना पापमय कर्म कैसे कर सकते है , सम्मान और प्रेम तो मूल है ज्ञानी की करुणा यही से शुरू होती है। मानती हूँ की सांसारिक सम्बन्ध नहीं हो सकते क्यूंकि भाव ही नहीं , परन्तु प्रेम और सम्मान तो हो सकता है। किन्तु प्रसिद्द सन्यासियों के जीवन में यहाँ भी कमी देखि गयी है। 

वैसे तो समाज में उदाहरण भरे पड़े है अधिक उदाहरण के लिए , जिन्होंने विवाह तो किया परन्तु धर्म निभाना तू दूर सामान्य जिम्मेदारी भी नहीं निभा सके , अति गहन भाव अवस्था में भक्त भगवन सदृश हो जाते है आश्चर्य नहीं राम का चरित्र इनके भक्तो में उभर के आ जाये। सर्वोपरि नाम है राम भक्त महात्मा गांधी का , कस्तूरबा के कष्टों का क्या मोल चूका पाएंगे ? माननीय नारायण दत्त तिवारी जी नब्बे साल की उम्र में पहिया कुर्सी पे बैठ के अशक्त भरी मन से स्वीकार कर पाते है की तीस साल पहले बिना विवाह शाब्दिक ब्याह के आधार पे बेटा हुआ था उन्हें , क्या हुआ उस स्त्री का उस स्त्री के बलि चढ़े जीवन का ? तो वहीँ बाल सन्यासी राम भक्त नरेंद्र मोदी भाई जी , आशुतोष जी महाराज .... स्त्रियों को छोड़ दिया अपनी तरह से नारकीय जीवन जीने के लिए , आसाराम जी महाराज , स्वामी नारायण ने पर स्त्री के साथ लिप्त रहते हुए स्वयं धर्म की कमान संभाल ली। कई धर्माधीश पीठाधीश इसी साल दुराचार में लिप्त पाये गए , जिनमे बदरीनाथ धाम के पुजारी का नाम भी उल्लेखित है , स्वयं ओशो का भी इतिहास ऐसा ही है , स्वयं का जीवन प्रयोगशाला बना डाला और जीवन को अवसर इसके साथ ही बिना भावनाओं में लिप्त हुए चीरफाड़ स्त्री की कर डाली। उदाहरण सम्पूर्ण समाज को नहीं समेट सकते सिर्फ इशारा कर सकते है। माँ शीला के अनुसार ओरिगेनो आश्रम के वृत्तांत किस से छिपे नहीं। और पुणे आश्रम भी इसी प्रचार में पीछे नहीं , कहते है संसर्ग से उत्पन्न बिमारियों के इलाज के लिए अस्पताल में बेड कम पड़ गए थे , पुरुषो का तो इस प्रयोगशाला में जीवन अवसर हो गया , परन्तु स्त्रियां जो गर्भवती हुई , उनकी त्रासदी और सामाजिक बहिष्कार का कोई जिक्र नहीं , ये कैसी जिम्मेदारी और ये कैसा धर्माचरण ? जिसमे स्वतंत्रता और भोग सिर्फ पुरुषों के अधिकार में गया। यहाँ भी यही देखने को मिलता है। और स्वयं ओशो ने इसका समर्थन किया और पक्ष लिया की " मेरे सन्यासी स्वस्थ है तो ऐसी घटनाएं तो सामान्य है। " हालाँकि कई जगह उन्होंने ये भी कहा है की " मेरा सन्यासी भगोड़ा नहीं हो सकता ,मेरा सन्यासी जिम्मेदारियों को निभाने वाला होगा। " विरोध है दोनों वक्तव्यों में। यदि किसी को ज्ञात हो तो कृपया अनुभव बाँटें ....कितने ओशो सन्यासी इस प्रायोगिक जीवन से उपजे गर्भ की जिम्मेदारी का वहन स्त्री सहित कर पाये ? 

आधुनिक समाज में निर्भया भी इस कथा से अलग कड़ी नहीं है। नामों का अंत नहीं .....

जब की कहते है स्त्रियों का हिन्दू समाज में अति सम्मान जनक स्थान था और है , ये सम्माननीय स्थान स्त्रियों का किसी और धर्म में नहीं है , संसार के सभी धर्म पुरुषप्रधान है , जहाँ स्त्र्यिों के अधिकार में घर के अंदर की चहारदीवारी आती है। ये किसी इतिहास की बात नहीं , आज भी समाज की यही दशा है। मुस्लिम समाज में तो दशा छिपी नहीं , ब्रिटिश समाज में भी आज भी कानून में पिता ही पुत्र और पुत्री का विवाह नियमतः कर सकता है , पिता के आभाव में उसकी माता को आज्ञा नहीं है , फिर कोई अन्य परिवार का पुरुष ये दायित्व निभाएगा। बहुत ही संक्षिप्त में संसार की ये कथा है .... संसार के हर समाज में स्त्री को परिवार और बच्चो के पालन पोषण की जिम्मेदारिया दी गयी , उचित है। किन्तु इन नियम के घेरे में भावनात्मक और शारीरिक शोषण अनुचित है। 

अंत में निष्कर्ष ये है की साधु ह्रदय होना बहुत अच्छी बात है , सन्यस्थ होना एक भाव है , सन्यास भाव के साथ ही एक भाव और होना चाहिए वो है सम्मान और जिम्मेदारी का। ईश्वर की हर कृति सम्मानीय है , फिर वो स्त्री हो पुरुष हो या अन्य कोई भी रूप , यही अध्यात्म का मूल ज्ञान है , सभी के प्रति करुणा , सभी के प्रति दिव्य प्रेम , और इस जीवन की जिम्मेदारियों के प्रति उचित निर्वाह। 

काश , ये भाव समस्त सन्यासी समेत समस्त विश्व के पुरुषों के ह्रदय में अपना वास करे। इसी भाव के साथ विश्व की समस्त ऊर्जा को प्रणाम।

ॐ ॐ ॐ

2 comments:

  1. ईश्वर की हर कृति सम्मानीय है..................

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