सनातन धर्म के अपने नियम थे ,जैसा हर वख्त हर समाज में निश्चित होता ही है की सौ प्रतिशत न तो सब अच्छा होता है न ही ख़राब , बस तालमेल संतुलन चलता रहता है। कुछ संस्कार रीती रिवाज़ और कुछ पाबंदिया समेटे हुए थे , कुछ अच्छाईयां और कुछ समाज में कमियां भी थीं , परन्तु समाज की व्यवस्था प्रमुख थी , संतुलन व्यवस्थापन में बौद्ध धर्म ने कुछ व्यक्तिगत आज़ादियाँ दी , किन्तु व्यक्तिगत अध्यात्म ने सामाजिक संतुलन अस्थिर कर दिया था। नतीजन , विवाह व्यवस्था और बालको के जन्म की दर में कमी होने लगी , जैसे ही इस बात को समझा गया , फिर एक सामाजिक लहर आई। देवदासियों का पुनः सम्मान किया जाने लगा , समाज में उनको विशेष सम्मान मिला , मंदिर का बाह्य और प्रांगण प्रकोष्ठ आदि स्त्री पुरुष के सम्बंधो को उजागर करते हुए पत्थर पे आकृतियों का और चित्रों का निर्माण होने लगा। खजुराओ के मंदिर आज भी पर्यटन में विशेष स्थान रखते है , ये उस काल की व्यवस्था को दर्शाते है। बसन्तसेना आदि देवदासियां बहुत अधिक सम्मान की पात्र होती थी , समाज में एक स्थान होता था। वात्स्यायन का कामशास्त्र आज भी अतुलनीय है। ये सब तत्समाज की चित्तदशा का सूचक है। कहते है उस वक्त चोर भी कलाकार होते थे उनकी भी अपनी कला होती थी , जिसको सेंधमारी का नाम दिया गया।
ये भी एक तरीके का सामाजिक संतुलन व्यवस्थापन ही था , जिसको संतुलित करने के लिए जाने अनजाने सम्पूर्ण समाज सहयोगी बनता है।
इस असंतुलन को दुरुस्त करने का प्रयास ही जाने अनजाने में संतुलन को बिगाड़ने मे भी यही व्यवस्था भागीदार बन जाती है । वो स्वर्णिम युग था , वैदिक काल के नाम से भी इस युग को जाना जाता है , क्यूंकि स्त्री का सम्मान इस समाज में अपने शीर्ष पर था , कहते है की इस सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों की दशा में अतुलनीय परिवर्तन और विकास हुआ , स्त्रियां शिक्षित होने लगी , स्त्रियां हर विषय में पुरुषो के साथ योगदान करने लगी , यहाँ तक वीरांगनाएँ जो युद्ध कौशल में पारंगत थी महाराजाओं के संग युद्ध क्षेत्रे में भागीदार बनती थी और कभी स्वयं भी अकेले ही सम्पूर्ण सेना का नेतृत्व करती थी , विदुषी स्त्रियां बड़े बड़े पंडितो के साथ शास्त्रार्थ करती थी , समाज में और परिवार में सभी जगह स्त्रियां बराबर की हक़दार और सम्मानित थी।
पर संतुलन था कि कभी एक पलड़ा ऊपर तो दूसरा नीचे , फिर दूसरा ऊपर तो पहला नीचे , ये वो समय था , जब मुग़ल संस्कृति ने प्रवेश किया , स्त्रीओं की सुरक्षा प्राथमिक हो गयी, अशिक्षा , बाल विवाह , पर्दा प्रथा और स्त्री भ्रूण की हत्या जैसे संगीन अपराध को सामाजिक मान्यता मिली और सामाजिक पाबंदिया बढ़ने लगी। नतीजन अनुकूल वर के लिए बोलिया लगने लगी। स्त्री के पास स्वयं को सिद्ध करने के लिए सौंदर्य मात्र एक स्त्री की धरोहर बची जो स्वाभाविक रूप से प्रकर्ति से मिली थी।
यहाँ भी संतुलन बिगड़ रहा था , फिर एक क्रांति आई , जिसमे पर्दा प्रथा , स्त्री भ्रूण हत्या को रोकना , दहेज़ , अशिक्षा और सामाजिक बेमेल पाबंदियों के लिए प्रयास शुरू हुआ , इस सबको सामाजिक अपराध की श्रेणी में माना गया। यही वो संतुलन है , समाज में जो अभी भी संघर्ष कर रहा है। अपना वर्चस्व जो स्त्री से खो चूका , उसका पुनर्स्थापन का संतुलन आज भी चल रहा है , शहरों में काफी जागरूकता आती देखि गयी है , कस्बों और गावों प्रयास जारी है।
यही सामाजिक संतुलन है जो अपना कार्य करता है अपने तरीके से , सदियों से एक शरीर की तरह स्वयं को संतुलित करता रहता है। इसी लिए इसको " सोशल बॉडी " भी कहा जाता है। जिस तरह पृथ्वी स्वयं को संतुलित करती है उसी तरह समाज अपने को संतुलित करता है , इसीलिए समाज का भी अपना जीवन है , " जीवित संस्था है समाज। "
बिलकुल इसी सामाजिक जीवित शरीर की तरह एक और व्यक्तिगत शरीर है जो अपना संतुलन करता रहता है , प्रकति का सानिध्य इसे अच्छा लगता है , पांच दिशाएँ इसके जीवन में अहम योगदान देती है। इस शरीर का एक मन भी है , जिसको बंधना पड़ता है जिसका संतुलन करना पड़ता है , सतुलन यहाँ भी महत्वपूर्ण है। जब भी इस ह्रदय का भाव-संतुलन होने लगता है , खुशबु और सुंदरता स्वतः स्वयम् के चारों तरह बिखरने लगती है।
ॐ ॐ ॐ
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