मित्र की जिज्ञासा संदेह और पीड़ा , सब कुछ इसमें दिख रहा है , ये जिस मानसिक अंतर्द्वद्व में है , उसपे मुझे एक वाकया याद आरहा है , एक व्यक्ति घर से चला मिठाई लाने , सोचता होगा , एक दो होंगी तो अड़चन नहीं आएगी कोई एक पसंद करके खरीद लेंगे , संजोग से राह में बड़ी दुकान से सामना हो गया , बड़ा हलवाई था , सुन्दर सुन्दर मिठाई सजा रखी थी , ग्राहक आएंगे पसंद करके ले जायंगे , अपने अपने स्वादानुसार , पर ये बंधू को चक्कर आ गया , लालच भी और दुविधा भी , क्या छोड़े और क्या ले ! फिर क्या था सभी मिठाई पसंद करके एक एक किलो तौलवा ली , मिठाई वाला भी खुश , वाह क्या ग्राहक है ! , फिर इन्होने आदेश किया , अब सब मिला दो ! , हलवाई चकराया , पर खरीदार का आदेश था सो माना , मिला दी सब मिठाई , अब , इनके चेहरे पे संतुष्टि आई , चलो एक काम तो हुआ , सब अच्छी मिठाई भी खरीद गयी और कौन अच्छी और कौन खराब के निर्णय से बचे , .... हलवाई खुश की ग्राहक खुश और बिकवाली भी हो गयी , जब वो बंधने लगा तो फिर इन्होने कहा , भाई , अब इसमें से मुझे एक पाव दे दो। अब तो आप स्वयं सोच सकते है क्या हुआ होगा !
जिज्ञासा , संदेह और भ्रम में और लोभ में भी अक्सर ऐसा निर्णय हो जाता है , क्या छोड़े और क्या माने !
धर्म , योग, अध्यात्म, सूफी, संत साधु , नागा , बाहर से देखने पे ये बिलकुल अलग दिखाई देते है , लेकिन जो अंतर्धारा है वो एक ही तरफ जा रही है , गृहस्त भी अपनी भाव श्रद्धा से वहीं जा रहा है और इनमे बहने वालों मे जो एक बात सामान्य है वो है अपने_अपने प्रगाढ़ विश्वास और भक्ति। मूल रूप से यही सही है। जो धर्म से किसी धार्मिक को मिला , वो ही अध्यात्म से आध्यात्मिक को , और सूफी को अपने चक्कर में उसी के दर्शनहुए , संत ने अपनी भक्ति में वो ही दर्शन किये , साधु और नागा को अपनी धारा में वो ही दिखा , कुछ अलग नहीं है , एक ही धागा है , एक ही माला है , मोती अलग अलग समझ आ रहे है।उचित है , सभी नदिया , छोटी या बढ़ी , सभी समुद्र की तरफ ही जा रही है। हर धारा में जो फलित हो रहा है वो है " विश्वास और भक्ति " वो चाहे भक्ति सीधे परम से हो या फिर सूफी चक्कर में या गुरु में या फिर किसी धर्म में या अध्यात्म में। विश्वास और भक्ति तो इतना बड़ा सूत्र है की पत्थर में दिखे तो पत्थर भी भगवन हो जाते है , इंसान में दिखे तो इंसान भी भगवान वाले ही फल देने वाले होते है। भगवन यानि भगवत्ता जहाँ दिख गयी। परम के दर्शन हो गए।
ध्यान दीजियेगा इस "लगता " शब्द पे , एक शुद्ध आध्यात्मिक को लगता है उसका मार्ग सही , एक शुद्ध योगी को लगता है वो ही सही , एक शुद्ध धर्मिक को भी यही लगता है , एक सूफी को लगता है की उस ईश्वरत्व के वो सबसे करीब , एक भक्त और संत को भी लगता है की ईश्वर उनके ही पास है एक गृहस्थ एक सन्यस्थ को भी यही लगता है और एक उलझन में घिरे इंसान को लगता है की उसका संशय सही। एक नागा , एक तांत्रिक एक पोप एक शंकराचार्य की गद्दी पे बैठा मठाधीश एक इस्लाम का इमाम (ज्ञानी है ) परन्तु ईश्वर के उतने ही करीब जितने की आप। चूँकि उनके भाव ऐसे है कठोरता है दृढ़ता है उनके प्रेम में इसी कारन उनके तर्क में भी उतना ही बल है , हर कोई अपना पक्ष रखता है और यही चमत्कार भी है , सब अन्धो को लगता है की हाथी को उन्होंने समझ लिए , इसीलिए अंधे जोर देते है, ' हमारी तरफ से आके देखो हम जो कह रहे है वो ही सही ' (अपनी तरफ से वो सही भी है ) परन्तु जिसको पूरा हाथी दिखाई देता है , उसको सहज ही दिख जायेगा की अंधे छू छू के बता रहे है। समझा उसने ही जिसने समझने के प्रयास छोड़ दिए और जिसने सम्पूर्ण सत्ता के दर्शन कर लिए ...... और समर्पित कर दिया उसकी सत्ता में स्वयं को। कोई एक धारा उसकी है ही नहीं , सम्पूर्ण कायनात उसकी ही है। सम्पूर्ण जगत में उसका सामान वास है , और यही भाव है की एक एक कण में ईश्वर है , उसकी सृष्टि उसकी ही बनायीं है , परन्तु वो हमारे ख्यालों जैसा भी नहीं , आकृति विहीन विशुद्ध ऊर्जा का रूप है। एक दिन अचानक सारी प्रकति आपसे वार्ता करेगी , एक एक कण सत्य को उजागर करेगा।
मित्र, आप अपनी श्रद्धा और विश्वास पे भरोसा रक्खें ! किसी बाह्य उलझन में मत उलझना , सब आवरण ही है ...... वास्तव में , जो भी मदत मिल रही है वो अंततोगत्वा स्वयं को स्वयं से ही मिल रही है , बाहर से जो भी दिख रहा है वो सिर्फ इशारा मात्र है , साधना स्वयं की ही है , अंतरयात्रा अपनी ही है , उपलब्धिया अपनी ही है , अपने विश्वास को टोटले , आपकी श्रद्धा किस धारा का अनुसरण करना चाह रही है , अपनी श्रद्धा का अनुसरण करे , सारे रस्ते एक ही दिशा में जा रहे है।
आपके प्रश्न उठेंगे , समाधान को बाहर ढूंढेंगे , होने दीजिये ये स्वाभाविक है.... ऐसा लगेगा की हर प्रश्न नया समाधान ले के आरहा है , पर फिर नए प्रश्न और नए समाधान उठते ही रहेंगे , क्युकी, मस्तिष्क सक्रिय है-'प्रश्न में भी और समाधान में भी', बिलकुल समंदर में उठती लहरो की तरह प्रश्न आएंगे ... लौट जायेंगे , निरंतर समाधान भी मिलेंगे , फिर धीरे धीरे जैसे जैसे आप की अंतर यात्रा गहरी होती जाएगी , प्रश्न स्वतः शांत होते जायेंगे, समाधान की आकांशा समाप्त हो जाएगी , ये शुन्य ही आपको आपके समस्त जाल से छुटकारा दिलाएगा।
ध्यान दीजियेगा ! कोई बाहर से आपके अंदर के जाल काटने वाला सक्षम नहीं हो सकता , अभिमन्यु के सामान आपको स्वयं अपने संशय के एक एक घेरे भेदने होंगे।
ये संशय .. ये प्रश्न ... ये समाधान .... अंत में ; ये भी माया के ही रूप है पर आपकी यात्रा के रस्ते के स्टेशन भी है जो अनुभव देते जायेंगे .... माया का एक एक फेरा आपको स्वयं ही काटना होगा। बाहर से दिखने वाले गुरु समेत समस्त उपाय निष्फल हो जायेंगे ,क्यूंकि एक स्तर पे आपको सब छोड़ते जाना होगा यहाँ तक की जिन गुरु का आपने सबसे ज्यादा सहारा लिया उनको भी छोड़ना होगा। एक दम अकेले जैसे जन्म के समय थे , रिश्ते तो बाद में समझ आये , और मृत्यु शैय्या पे होंगे , अध्यात्म की यात्रा अकेले की यात्रा है ... वस्तुतः , अध्यात्म भी शब्द है , आप कोई भी शब्द अपने भाव श्रद्धा का जोड़ सकते है।
अंततोगत्वा सिर्फ और सिर्फ आप ही अपने फेरे काट सकेंगे। अंतरयात्रा की राह पे एक दिन ऐसा आएगा जब आपके ह्रदय और बुद्धि में लड़ाई समाप्त हो जाएगी , मस्तिष्क शांत हो जायेगा, मन के घोड़े आपके काबू में होंगे आपके अंदर स्वयं ही गुणफल प्रकट होने लगेंगे जैसे सहजता , सरलता , करुणा , प्रेम आदि ऐसे ही गुण है। ये सब होगा आपके अपने प्रयास से। और उस दिन आपको दिव्य परम के साक्षात्कार होंगे , नामो के भेद समाप्त होंगे और भी कई संशय आपको माया जनित फेरे ही प्रतीत होंगे , दृष्टि स्पष्ट हो जाएगी , आप सहज विचलित नहीं होंगे , आपको कोई भ्रमित नहीं कर पायेगा। सारे ही मार्ग आपको एक ही दिशा में जाते दिखंगे इतना सब तो अवश्य होगा ...
*** बस एक बात का विशेष ध्यान रखना है की मार्ग से सुगंध आनी चाहिए , दुर्गन्ध आ रही है तो मार्ग के विषय में पुनर्विचार की आवश्यकता है।
असीम शुभकामनाओ के साथ
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