हार शब्द याद दिलाता है पंक्तियों की " मन के हारे हार है मन के जीते जीत " मन हारा जग हारा , मन जीता जग जीता , मन गिरा तो तन गिरा , मन जगा तो जग उठा , एकमात्र इस मन में संसार समाया है .......
हारे तो आखिर हारे क्या ? जीते तो आखिर जीते क्या ? मंथन है ह्रदय का , मथेंगे तो नग मिलंगे ! प्रेम में हार के भी जीत है , और प्रेम की जीत में तो जीत है ही , अहंकार में जीत के भी हार है और हार के जीत।
हार-जीत का भ्रम मन की माया वस्तुतः संसार में खोने को कुछ नहीं न ही पाने को है। प्रकृति प्रदत्त जो है वो मात्र उपयोग के लिए है , जितना उपयोग हो गया , उतना ही स्वारथ बाकि सब निरर्थक ....
समय की वैतरणी नदी का बहाव है , और तिनके से हम बहते जाते है , किस बात का घमंड करे ? किस बात का अभिमान ? पैसे का और जमीं का घमंड होता है और ज्ञान और कला का अहंकार , पर गौर से देखने पे पाते है न ही ज्ञान और कला और न ही धन और जमीं , कुछ भी होते हुए भी नहीं होता , सब उपलब्धियों का नाता सिर्फ शरीर से है , शरीर छूटा सारी कलाएं सारे उपलब्धियों के झंडे एक साथ दफ़न हो जाते है या अग्नि में जल के खाक हो जाते है , रह जाते है तो सिर्फ छाया के स्मृतिचिन्ह ; वो भी उनके जिन्होंने अपने जीवन काल में कुछ अनूठे प्रयोग किये।
अपने-अपने सत्य को समय रहते पहचान लेना ही किसी के लिए भी ; बुद्धिमानी है।
जीव के अपने आत्मिक स्वस्थ्य के लिए जीवन का मर्म समझना और लौकिक पर्दो का उठना अति आवश्यक है।
वो मदिरा अच्छी वो मद अच्छा जो उसका नाच नचाये , वो लोभ अच्छा जो उसको चाहे , वो व्यापर अच्छा जिसमे छाया हो उसी की , अतिक्रमण भागते बे_लगाम अश्वों का हो तो सुन्दर , रुदन भी अच्छा जो प्रिय की प्यास बढ़ाये , दृष्टि अच्छी तो हर भाव अच्छा।
अभी भी समय है ,भाग्यशाली है हम अभी साँसे चल रही है , परम की कृपा और अवसर दोनों ही मौजूद है।
हारे तो आखिर हारे क्या ? जीते तो आखिर जीते क्या ? मंथन है ह्रदय का , मथेंगे तो नग मिलंगे ! प्रेम में हार के भी जीत है , और प्रेम की जीत में तो जीत है ही , अहंकार में जीत के भी हार है और हार के जीत।
हार-जीत का भ्रम मन की माया वस्तुतः संसार में खोने को कुछ नहीं न ही पाने को है। प्रकृति प्रदत्त जो है वो मात्र उपयोग के लिए है , जितना उपयोग हो गया , उतना ही स्वारथ बाकि सब निरर्थक ....
समय की वैतरणी नदी का बहाव है , और तिनके से हम बहते जाते है , किस बात का घमंड करे ? किस बात का अभिमान ? पैसे का और जमीं का घमंड होता है और ज्ञान और कला का अहंकार , पर गौर से देखने पे पाते है न ही ज्ञान और कला और न ही धन और जमीं , कुछ भी होते हुए भी नहीं होता , सब उपलब्धियों का नाता सिर्फ शरीर से है , शरीर छूटा सारी कलाएं सारे उपलब्धियों के झंडे एक साथ दफ़न हो जाते है या अग्नि में जल के खाक हो जाते है , रह जाते है तो सिर्फ छाया के स्मृतिचिन्ह ; वो भी उनके जिन्होंने अपने जीवन काल में कुछ अनूठे प्रयोग किये।
अपने-अपने सत्य को समय रहते पहचान लेना ही किसी के लिए भी ; बुद्धिमानी है।
जीव के अपने आत्मिक स्वस्थ्य के लिए जीवन का मर्म समझना और लौकिक पर्दो का उठना अति आवश्यक है।
ध्यान कीजिए परम सत्ता का , प्राथना कीजिये सारे अँधेरे दूर हो !
प्रश्न कीजिये स्वयं से .... मैं कौन ? ........... मेरा क्या ?
राह दिखाने को उस रौशनी की एक किरण ही पर्याप्त है ,
जीवन वो नहीं जो हम जी रहे है , ये तो मूर्छा है
जिसमे मारकाट है , व्यापार है ,अतिक्रमण है
मद है , लोभ है , अहंकार है , रुदन है .......
जागृत करुणामय है प्रेममय है
जागृत कर्तव्ययुक्त है
जागृत समर्पित है
सत्य का दीप
जला जीवन में
जागृत जीवित
रहता तनमन में !
वो मदिरा अच्छी वो मद अच्छा जो उसका नाच नचाये , वो लोभ अच्छा जो उसको चाहे , वो व्यापर अच्छा जिसमे छाया हो उसी की , अतिक्रमण भागते बे_लगाम अश्वों का हो तो सुन्दर , रुदन भी अच्छा जो प्रिय की प्यास बढ़ाये , दृष्टि अच्छी तो हर भाव अच्छा।
अभी भी समय है ,भाग्यशाली है हम अभी साँसे चल रही है , परम की कृपा और अवसर दोनों ही मौजूद है।
ॐ ॐ ॐ
No comments:
Post a Comment