बड़ा पेचीदा और शोचनीय विषय है की ज्ञाता की तरह कब क्या किससे उसकी योग्यता अनुसार कहा जाये या के सुझाव दिया जाये (या फिर जिज्ञासु की तरह किस से उचित सुझाव लिया जाये) ...... उचित ज्ञान होने के कारन शायद मनोवैज्ञानिक इस गुत्थी को आसानी से सुलझा पाएंगे एक व्यक्ति कहता है , मैं मर रहा हूँ मुझे जीवन चाहिए , एक कहता है की मैं डूब रहा हूँ मुझे सहारा चाहिए , एक कहता है की मैं उंचाईं से गिर रहा हूँ फिसलन से रुकने के लिए मुझे सहारा चाहिए। उसको शास्त्र और मन्त्र , विधियां और उपयोग क्या समझ आएंगे ! अंततोगत्वा विधियां ही उलझी हुई है , वस्तुतः सरलता और सहजता ही निदान है।
उसको वो वातावरण चाहिए जहाँ वो थोड़ी शक्ति पुनः जुटा सके और जीवन का संचार हो सके यद्यपि ज्ञाता उचित है , वो मूल जानकारी दे रहा है, ज्ञाता कहता है की मर रहे हो तो ये दवा का फार्मूला है , डूब रहे हो तो तैरने की विधि मैं बता देता हु , ऊंचाई से गिर रहे हो तो रुको जरा पहले मेरी बात सुनो पैराशूट खोलने की विधि जरा सुनो , ..............पर नहीं , इन अति गहन अवसाद के क्षणों में व्यक्ति विधि नहीं निदान ढूंढता है , उसका मन भटकता है उन शब्दो को सुनने के लिए , जो उसके लिए जीवन औषधि का काम कर सकें।
यहाँ एक बात तो निश्चित है जीवन से प्रेम सभी को है , कोई ना होगा जो स्वजीवन से प्रेम न करे , यदि कोई ऐसा कह रहा है निश्चित कहीं गहरे में उसका संतुलन बिगड़ गया है और ये प्रेम का धागा प्रेम और घृणा के दो छोर में बदल चुका है , परन्तु चाहता फिर भी वो ही है , अभी भी वो चाहता यही है की उसके प्रेम स्वाभाव को कोई पुनः जागृत कर दे , ताकि जीवन प्रेम मय हो जाये। वो कहता है की मुझे विधि मत बताओ मेरा हाथ पकड़ो , मुझे सहारा दो !
देखने वाली बात ये है की , इस स्थिति में उसकी सारी उसकी पकड़ और मनोदशा बाह्य्गामी हो चुकी है , और इसी चित्त दशा के कारण वो सहारे भी बाहर ही खोज रहा है जब की शीतल जल का स्रोत तो उसके स्वयं के अंदर ही है , यहाँ " ध्यान " सहायक है ..................... समस्त बाह्य चेतनाएं चाहे वो चिकित्सक हो अथवा गुरु रूप किसी भी रूप में हो , वो तभी कारगर होती है , जब व्यक्ति के अंदर की जीवन शक्ति प्रयास कर रही है। उसकी स्व चेतना ही उसको उबारती है। अब या तो मूल स्व_चेतना उसको निर्देश करे ( जिसकी आवाज़ उस तक पहुँच ही नहीं पा रही ) या बाह्य उपस्थित चेतना उसको उसके ही अस्तित्व से परिचय कराये।
बाह्य उपस्थित चेतना भी वो ही करेगी वो सिर्फ आपको आपकी शक्तियां मात्र याद दिलाएगी , क्यूंकि इस राह पे दो तो चल ही नहीं सकते , चलना तो स्वयं ही होगा और रुक सकते नहीं , रुकने का मतलब मृत्यु को स्वीकार करना , इसलिए चलना तो है ही , सिर्फ स्वयं से पहचान करनी है। इस स्व पहचान की ही समस्त विद्यां और ताने बाने है। ये रास्ता बहुत निजी है। समस्त मन बांधने की बाह्य विधियां , शास्त्र , धर्म , सामाजिक प्रयास , ध्यान , योग , सन्यास , गृहस्थ धर्म , ये सब रास्ते है जो उसी एक तरफ बढ़ रहे है। सबका एक ही प्रयास है, 'आप मन और बुद्धि को काबू में करके , सभी जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए , प्रसन्नता और ज्ञान पूर्वक अपना जीवन यापन करे '……
मन बुद्धि के काबू में आते ही परम रहस्य प्रकट हो जाता है। और जिस दिन परम रहस्य प्रकट होता है उस दिन के बाद माया के जाल आपको त्रस्त नहीं कर पाते।
( और एक बात , कोई जादू नहीं है, कोई ऐसा चित्र भी नहीं है जैसा आप व्याख्या के दौरान देखते है ,या आपको ध्यान केंद्रित करने के लिए जो चिन्ह दिए जाते है , सब मात्र संकेत है ....... सब छोड़ने है , कुछ भी पकड़ने जैसा नहीं , सिवाय शुन्य के। अनुभूतियाँ , तरंगो के रूप में प्रवेश करती है , सुगंध का,कोई चित्र हो ही नहीं सकता, सिर्फ परिणाम सफलता की उद्घोषणा करते है , जिस प्रकार एक अच्छी सुगंध आपके चहरे पे मुस्कराहट लाती है , उसी प्रकार , दिव्य चेतना भी जबप्रकट होती है तो वो ही दिव्य-शांति लाती है , और सौम्य मुस्कराहट छोड़ जाती है )
उसको वो वातावरण चाहिए जहाँ वो थोड़ी शक्ति पुनः जुटा सके और जीवन का संचार हो सके यद्यपि ज्ञाता उचित है , वो मूल जानकारी दे रहा है, ज्ञाता कहता है की मर रहे हो तो ये दवा का फार्मूला है , डूब रहे हो तो तैरने की विधि मैं बता देता हु , ऊंचाई से गिर रहे हो तो रुको जरा पहले मेरी बात सुनो पैराशूट खोलने की विधि जरा सुनो , ..............पर नहीं , इन अति गहन अवसाद के क्षणों में व्यक्ति विधि नहीं निदान ढूंढता है , उसका मन भटकता है उन शब्दो को सुनने के लिए , जो उसके लिए जीवन औषधि का काम कर सकें।
यहाँ एक बात तो निश्चित है जीवन से प्रेम सभी को है , कोई ना होगा जो स्वजीवन से प्रेम न करे , यदि कोई ऐसा कह रहा है निश्चित कहीं गहरे में उसका संतुलन बिगड़ गया है और ये प्रेम का धागा प्रेम और घृणा के दो छोर में बदल चुका है , परन्तु चाहता फिर भी वो ही है , अभी भी वो चाहता यही है की उसके प्रेम स्वाभाव को कोई पुनः जागृत कर दे , ताकि जीवन प्रेम मय हो जाये। वो कहता है की मुझे विधि मत बताओ मेरा हाथ पकड़ो , मुझे सहारा दो !
देखने वाली बात ये है की , इस स्थिति में उसकी सारी उसकी पकड़ और मनोदशा बाह्य्गामी हो चुकी है , और इसी चित्त दशा के कारण वो सहारे भी बाहर ही खोज रहा है जब की शीतल जल का स्रोत तो उसके स्वयं के अंदर ही है , यहाँ " ध्यान " सहायक है ..................... समस्त बाह्य चेतनाएं चाहे वो चिकित्सक हो अथवा गुरु रूप किसी भी रूप में हो , वो तभी कारगर होती है , जब व्यक्ति के अंदर की जीवन शक्ति प्रयास कर रही है। उसकी स्व चेतना ही उसको उबारती है। अब या तो मूल स्व_चेतना उसको निर्देश करे ( जिसकी आवाज़ उस तक पहुँच ही नहीं पा रही ) या बाह्य उपस्थित चेतना उसको उसके ही अस्तित्व से परिचय कराये।
बाह्य उपस्थित चेतना भी वो ही करेगी वो सिर्फ आपको आपकी शक्तियां मात्र याद दिलाएगी , क्यूंकि इस राह पे दो तो चल ही नहीं सकते , चलना तो स्वयं ही होगा और रुक सकते नहीं , रुकने का मतलब मृत्यु को स्वीकार करना , इसलिए चलना तो है ही , सिर्फ स्वयं से पहचान करनी है। इस स्व पहचान की ही समस्त विद्यां और ताने बाने है। ये रास्ता बहुत निजी है। समस्त मन बांधने की बाह्य विधियां , शास्त्र , धर्म , सामाजिक प्रयास , ध्यान , योग , सन्यास , गृहस्थ धर्म , ये सब रास्ते है जो उसी एक तरफ बढ़ रहे है। सबका एक ही प्रयास है, 'आप मन और बुद्धि को काबू में करके , सभी जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए , प्रसन्नता और ज्ञान पूर्वक अपना जीवन यापन करे '……
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दो ही सत्य है जो परम का साक्षात्कार करवाते है " मौन और शुन्य "
मन बुद्धि के काबू में आते ही परम रहस्य प्रकट हो जाता है। और जिस दिन परम रहस्य प्रकट होता है उस दिन के बाद माया के जाल आपको त्रस्त नहीं कर पाते।
( और एक बात , कोई जादू नहीं है, कोई ऐसा चित्र भी नहीं है जैसा आप व्याख्या के दौरान देखते है ,या आपको ध्यान केंद्रित करने के लिए जो चिन्ह दिए जाते है , सब मात्र संकेत है ....... सब छोड़ने है , कुछ भी पकड़ने जैसा नहीं , सिवाय शुन्य के। अनुभूतियाँ , तरंगो के रूप में प्रवेश करती है , सुगंध का,कोई चित्र हो ही नहीं सकता, सिर्फ परिणाम सफलता की उद्घोषणा करते है , जिस प्रकार एक अच्छी सुगंध आपके चहरे पे मुस्कराहट लाती है , उसी प्रकार , दिव्य चेतना भी जबप्रकट होती है तो वो ही दिव्य-शांति लाती है , और सौम्य मुस्कराहट छोड़ जाती है )
ॐ ॐ ॐ
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