कुछ बुनियादी भावो में से एक भाव , जिसको समझना किसी पहेली से अलग नहीं , और जो इस तरह से जीवन चादर की बुनाई में समायी है जैसे हजारो धागों में फैला और एक धागे के अंदर के रेशे के अंदर समाया हुआ सम्मोहन .... ये गंभीर विषय ऐसा है जैसे कोई बीज मन्त्र का पाठ करते करते उसके लिए उस मंत्र का गाया जाना और सामान्य गाने में और बीज मन्त्र में भेद ही न रह जाए। इस गंभीर विषय पे इतना सुनते है इतनी चर्चा में है की इस शब्द ने अपना मूल अर्थ और प्रभाव ही खो दिया। जनसामान्य के लिए सिर्फ एक आकर्षक विषय के रूप में विस्थापित है। एक ऐसा विषय जिसमे आश्चर्यजनक रूप से चमत्कारिक परिणाम छिपे हुए है।

माया का अचूक हथियार ..... सम्मोहन एक ऐसा शब्द है या विधि है जो निहायत ही प्राकृतिक है , जन्म से हम सभी को उपहार के रूप में प्रकृति से मिली है , और जिसको मनोवैज्ञानिकों द्वारा मानसिक गाँठ को सुलझाने के लिए उपयोग में लाया जाता रहा है।
आत्म सम्मोहन या स्व_सम्मोहन को समझना अति कठिन है , कैसे भाव आएगा ? कैसे कोई बीज जानेगा की उसमे कैसा फल लगने वाला है ! साक्षी जानेगा जो सब जानता है , जो वृक्ष के विविध प्रकार और जाति धर्म से परिचित है , फूलों की विवधताओं से परिचित है , वो साक्षी जान पायेगा की इस बीज का वृक्ष कैसा होगा। इसमें फूल लगेगा या फल लगेगा फिर तो कोई योजना भी काम आएगी , उसके बाद ही बागवानी की कला का उपयोग है। उसके पहले तो माली स्वयं बीज बना बैठा हुआ है।
{ और आत्म सम्मोहन या स्व_सम्मोहन को समझना अति सरल भी बिकुल ठीक वैसे ही , स्वप्न में जागना कठिन लगता है , किन्तु इसी सघन अवस्था में या तो शरीर की चेतना ज्ञान देती है , या फिर कोई अति बैचैन अवस्था अचानक नींद के टूटने का कारन बनती है , और इस नींद के टूटते ही ,' ये मात्र नींद है,' का भाव रह जाता है। }
हम सब ऐसे ही बीज है , नींद में हिलते डोलते खिलोने , नींद में झगड़ा करते प्रेम करते , नींद में व्यवहार करते। उनका ही स्वागत करते है जो हमारे ही समान सोये हुए है , मित्रता बनाते है , विचार बांटते है , और वाह-वाह भी करते है , जिसकी निंद्रा टूट गयी , वो तो अपने समाज का ही नहीं लगता , समाज में विचरण भी एक तरीके की गहन सम्मोहित निद्रा है। जिसमे हर व्यक्ति जो थोड़ा भी सोच सकता है , सबसे पहले जान जाता है की कुछ भी स्थिर नहीं , सब बदलता है। और इस जानने के साथ सबसे पहला भाव जगता है "जो है सो है " उसके बाद दूसरा स्वयं को समझाता है "प्रेम करो "
सच है ! विद्वान भी तो यही कहता है , फिर फर्क क्या है ? फर्क सिर्फ दृष्टि का और स्वप्न का है , एक स्वप्नवस्था में स्थिर अपनी खैर मना रहा है , चलो अच्छा हुआ कोई तो मिला जिसके पास बैठ के मैं वो सुन पा रहा हूँ जो सुनना चाह रहा हूँ , ये सब मुझे संसार से अलग नहीं करता सिर्फ हल्का करता है , तो .. अच्छा ही है न ! जिंदगी भी और ज्ञान भी दोनों हांथो में लाडू , .............. आप ध्यान दीजियेगा , यहाँ आस्था भी सम्मोहित है , समर्पण है में भी सम्मोहन है , जीवन जीने की मजबूरी भी है क्या करे ! कर भी क्या सकते है ! वो ये भी मान रहा है की " प्रेम प्राथमिक आवश्यकता है ," ..... यहाँ " साक्षी होना है " बात भी कई कई बार कानो में उत्तर रही है , जिससे सुन रहा है उसको माला भी पहना रहा है ताली भी बजा रहा है , अति गहरे में उसका हर कृत्य और सोच एक निंद्रा के अंतर्गत घटित हो रहा है।
कैसे ? क्यूंकि जैसे ही दृश्य बदला , भाव बदल जाते है , कर्म बदल जाते है , सोच बदल जाती है। वो ही व्यक्ति जो सत्संग और भजन में शामिल था , वो ही सत्संग और भजन दुसरो को दिखने के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा बन जाता है , और जो सुना , उसका उपयोग सिर्फ इतना की जब भाव ज्यादा परेशान करेंगे तो दोबारा निर्मल होने के लिए थोड़ी देर बैठ जाएंगे। ज्ञान भी चलेगा और कारोबार भी चलेगा।
यही है सम्मोहन , जिस वास्तविकता को जान कर भी , जानने का दिल नहीं करता , देखकर भी देखने का दिल नहीं करता , छद्म मनोहारी गुजरते पल ज्यादा सुखकर लगते है बिलकुल वैसे ही जैसे एक मनोवांछिंत चित्रपट चल रहा हो तो एक बार में दिल नहीं भरता , कई कई बार भी देखना बुरा नहीं लगता, पैसे भी उसी अनुपात में इकठा हो जाते है , साधन , मित्र सब सहयोगी होते है।
उस ज्ञाननुभूति का स्पर्श बाह्य है , उसका श्रवण दिल तक नहीं जाता , उसको देखने सुनने और ह्रदय तक उतारने की मात्रा और योजना , ध्यान दीजियेगा ! ये जो मात्रा और और योजना का निर्धारण कर रहा है , यही मस्तिष्क है जो हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है , ये इस तरह से अपना कार्य कर रहा है की लगता है की वो हम कर रहे है। हम कौन ? जी हम वो है जो जन्म से पूर्व आप थे और जन्म के बाद सिर्फ वो ही आपके साथ होगा। ये जीवन भी किसी सत्ता के नशे से कम नहीं , प्रधानमंत्री अपने गुरुर में मंत्री अपने दम्भ में , एक एक कार्यकर्ता की अपनी नींद है। वो पता ही तब चलता है , जब चुनाव का वख्त आता है , सबकी नींद टूटती है, ऐसे ही हमारा जीवन है। नींद टूटती है , सम्मोहन भी समाप्त होता है , पर हम अशक्त हो चुके होते है , और सिर्फ आश्चर्य का भाव रह जाता है , " ऐसा भी होता है " और एक ही प्रार्थना " हे प्रभु दया करो " .......................
……… दया होती भी है , और हम बेहोश हो जाते है , प्रकृति अपना ऑपरेशन शुरू कर देती है। यही सम्मोहन है ! इसका एक पता तब चलता है , पता क्या आभास होता है , झलक मिलती है , तब जब हम साक्षी भाव साध के नींद के शुरुआत में अथवा टूटते वक्त में उस भाव से मिलते है , जैसे उस जीवन पे हमें हंसी आती है , वैसे ही एक मरता हुआ इंसान अपने इस सम्मोहन पे हँसता है।
उस गहन नींद में भी दर्द पीड़ा छटपटाहट प्रेम द्वेष क्रोध हंसी सब है , दर्द ऐसा दर्द होता है की उसका आभास जागते वख्त भी बचा रह जाता है , यही है सम्मोहन। गहरा सम्मोहन। जितना गहरा सम्मोहन उतना ही गहरा प्रभाव महसूस होता है नींद खुले के बाद। इस के विपरीत नींद यदि नींद का भाव है तो उठते ही वो सब खेल हो जाता है। मुस्कराते है और रोज के काम काज में व्यस्त हो जाते है। यही तो करते आ रहे है , वर्षों से। सम्मोहित से हम सब जानते है , उससे एक और भाव का उदय होता है वो है " माया जनित ज्ञान का " ये ज्ञान ऐसा है जैसे एक शिक्षक को विषय के बारे में बहुत पता है , पर उसका मूल कार्य सिर्फ सामने वाले को सुना के अगले पाठ की तैयारी में लग जाना , क्यूंकि कल किसी और विषय पे बोलना है , नहीं तो लोग सुनेंगे कैसे ? भीड़ नहीं होगी , धन नहीं होगा , प्रचार नहीं होगा ,……। आप समझ रहे है न ! परन्तु फिर भी सम्मोहन इतना गहरा है की माया का प्रभाव हटाने केलिए विशेष प्रयास करते रहने ही पड़ते है। हजारो उदहारण में से ये तो मात्र एक उदाहरण है , हमारा जीवन ही सम्मोहन है। जन्म से जैसे ही पहली निर्बोध दृष्टि हम अपने चारो तरफ सबसे पहली दृष्टि से चेहरों को देखते है, माया अपना काम शुरू करदेती है , और आखिरी सांस तक माया का प्रयास जीव को भ्रमित रखना ही है। ध्यानदीजिएगा !! अंत में वो ही निर्बोध दृष्टि फिर मिलती है , पर समय ही नहीं होता की अपना अनुभव सुनाया जा सके , और अगर किसी ने बहुत प्रयास करके सुना भी दिया तो उसकी बात सुनने से ज्यादा लोग सहानुभूति दिखाते है , चुप रहने की सलाह देते है , और साथ में ये भी की , चिंता मत करो जल्दी ही स्वस्थ हो जाओगे सब ठीक हो जायेगा।
अब भला उस जाते हुए जीव के दिल से कोई पूछे , वो किस दृष्टि से अपने आस पास खड़े मूर्खों को देख रहा है ? और इनकी मूर्खता को दूर करने का उपाय भी कर रहा है , पर कौन सुने और किसकी सुने ? छिपकली को लग रहा है इंसान उल्टा है और इंसान कहता है छिपकली उलटी है।
यही माया , यही सम्मोहन , और जागरण की कला का आधार ही साक्षी भाव कहलाता है।

माया का अचूक हथियार ..... सम्मोहन एक ऐसा शब्द है या विधि है जो निहायत ही प्राकृतिक है , जन्म से हम सभी को उपहार के रूप में प्रकृति से मिली है , और जिसको मनोवैज्ञानिकों द्वारा मानसिक गाँठ को सुलझाने के लिए उपयोग में लाया जाता रहा है।
आत्म सम्मोहन या स्व_सम्मोहन को समझना अति कठिन है , कैसे भाव आएगा ? कैसे कोई बीज जानेगा की उसमे कैसा फल लगने वाला है ! साक्षी जानेगा जो सब जानता है , जो वृक्ष के विविध प्रकार और जाति धर्म से परिचित है , फूलों की विवधताओं से परिचित है , वो साक्षी जान पायेगा की इस बीज का वृक्ष कैसा होगा। इसमें फूल लगेगा या फल लगेगा फिर तो कोई योजना भी काम आएगी , उसके बाद ही बागवानी की कला का उपयोग है। उसके पहले तो माली स्वयं बीज बना बैठा हुआ है।
{ और आत्म सम्मोहन या स्व_सम्मोहन को समझना अति सरल भी बिकुल ठीक वैसे ही , स्वप्न में जागना कठिन लगता है , किन्तु इसी सघन अवस्था में या तो शरीर की चेतना ज्ञान देती है , या फिर कोई अति बैचैन अवस्था अचानक नींद के टूटने का कारन बनती है , और इस नींद के टूटते ही ,' ये मात्र नींद है,' का भाव रह जाता है। }
हम सब ऐसे ही बीज है , नींद में हिलते डोलते खिलोने , नींद में झगड़ा करते प्रेम करते , नींद में व्यवहार करते। उनका ही स्वागत करते है जो हमारे ही समान सोये हुए है , मित्रता बनाते है , विचार बांटते है , और वाह-वाह भी करते है , जिसकी निंद्रा टूट गयी , वो तो अपने समाज का ही नहीं लगता , समाज में विचरण भी एक तरीके की गहन सम्मोहित निद्रा है। जिसमे हर व्यक्ति जो थोड़ा भी सोच सकता है , सबसे पहले जान जाता है की कुछ भी स्थिर नहीं , सब बदलता है। और इस जानने के साथ सबसे पहला भाव जगता है "जो है सो है " उसके बाद दूसरा स्वयं को समझाता है "प्रेम करो "
सच है ! विद्वान भी तो यही कहता है , फिर फर्क क्या है ? फर्क सिर्फ दृष्टि का और स्वप्न का है , एक स्वप्नवस्था में स्थिर अपनी खैर मना रहा है , चलो अच्छा हुआ कोई तो मिला जिसके पास बैठ के मैं वो सुन पा रहा हूँ जो सुनना चाह रहा हूँ , ये सब मुझे संसार से अलग नहीं करता सिर्फ हल्का करता है , तो .. अच्छा ही है न ! जिंदगी भी और ज्ञान भी दोनों हांथो में लाडू , .............. आप ध्यान दीजियेगा , यहाँ आस्था भी सम्मोहित है , समर्पण है में भी सम्मोहन है , जीवन जीने की मजबूरी भी है क्या करे ! कर भी क्या सकते है ! वो ये भी मान रहा है की " प्रेम प्राथमिक आवश्यकता है ," ..... यहाँ " साक्षी होना है " बात भी कई कई बार कानो में उत्तर रही है , जिससे सुन रहा है उसको माला भी पहना रहा है ताली भी बजा रहा है , अति गहरे में उसका हर कृत्य और सोच एक निंद्रा के अंतर्गत घटित हो रहा है।
कैसे ? क्यूंकि जैसे ही दृश्य बदला , भाव बदल जाते है , कर्म बदल जाते है , सोच बदल जाती है। वो ही व्यक्ति जो सत्संग और भजन में शामिल था , वो ही सत्संग और भजन दुसरो को दिखने के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा बन जाता है , और जो सुना , उसका उपयोग सिर्फ इतना की जब भाव ज्यादा परेशान करेंगे तो दोबारा निर्मल होने के लिए थोड़ी देर बैठ जाएंगे। ज्ञान भी चलेगा और कारोबार भी चलेगा।
यही है सम्मोहन , जिस वास्तविकता को जान कर भी , जानने का दिल नहीं करता , देखकर भी देखने का दिल नहीं करता , छद्म मनोहारी गुजरते पल ज्यादा सुखकर लगते है बिलकुल वैसे ही जैसे एक मनोवांछिंत चित्रपट चल रहा हो तो एक बार में दिल नहीं भरता , कई कई बार भी देखना बुरा नहीं लगता, पैसे भी उसी अनुपात में इकठा हो जाते है , साधन , मित्र सब सहयोगी होते है।
उस ज्ञाननुभूति का स्पर्श बाह्य है , उसका श्रवण दिल तक नहीं जाता , उसको देखने सुनने और ह्रदय तक उतारने की मात्रा और योजना , ध्यान दीजियेगा ! ये जो मात्रा और और योजना का निर्धारण कर रहा है , यही मस्तिष्क है जो हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है , ये इस तरह से अपना कार्य कर रहा है की लगता है की वो हम कर रहे है। हम कौन ? जी हम वो है जो जन्म से पूर्व आप थे और जन्म के बाद सिर्फ वो ही आपके साथ होगा। ये जीवन भी किसी सत्ता के नशे से कम नहीं , प्रधानमंत्री अपने गुरुर में मंत्री अपने दम्भ में , एक एक कार्यकर्ता की अपनी नींद है। वो पता ही तब चलता है , जब चुनाव का वख्त आता है , सबकी नींद टूटती है, ऐसे ही हमारा जीवन है। नींद टूटती है , सम्मोहन भी समाप्त होता है , पर हम अशक्त हो चुके होते है , और सिर्फ आश्चर्य का भाव रह जाता है , " ऐसा भी होता है " और एक ही प्रार्थना " हे प्रभु दया करो " .......................
……… दया होती भी है , और हम बेहोश हो जाते है , प्रकृति अपना ऑपरेशन शुरू कर देती है। यही सम्मोहन है ! इसका एक पता तब चलता है , पता क्या आभास होता है , झलक मिलती है , तब जब हम साक्षी भाव साध के नींद के शुरुआत में अथवा टूटते वक्त में उस भाव से मिलते है , जैसे उस जीवन पे हमें हंसी आती है , वैसे ही एक मरता हुआ इंसान अपने इस सम्मोहन पे हँसता है।
उस गहन नींद में भी दर्द पीड़ा छटपटाहट प्रेम द्वेष क्रोध हंसी सब है , दर्द ऐसा दर्द होता है की उसका आभास जागते वख्त भी बचा रह जाता है , यही है सम्मोहन। गहरा सम्मोहन। जितना गहरा सम्मोहन उतना ही गहरा प्रभाव महसूस होता है नींद खुले के बाद। इस के विपरीत नींद यदि नींद का भाव है तो उठते ही वो सब खेल हो जाता है। मुस्कराते है और रोज के काम काज में व्यस्त हो जाते है। यही तो करते आ रहे है , वर्षों से। सम्मोहित से हम सब जानते है , उससे एक और भाव का उदय होता है वो है " माया जनित ज्ञान का " ये ज्ञान ऐसा है जैसे एक शिक्षक को विषय के बारे में बहुत पता है , पर उसका मूल कार्य सिर्फ सामने वाले को सुना के अगले पाठ की तैयारी में लग जाना , क्यूंकि कल किसी और विषय पे बोलना है , नहीं तो लोग सुनेंगे कैसे ? भीड़ नहीं होगी , धन नहीं होगा , प्रचार नहीं होगा ,……। आप समझ रहे है न ! परन्तु फिर भी सम्मोहन इतना गहरा है की माया का प्रभाव हटाने केलिए विशेष प्रयास करते रहने ही पड़ते है। हजारो उदहारण में से ये तो मात्र एक उदाहरण है , हमारा जीवन ही सम्मोहन है। जन्म से जैसे ही पहली निर्बोध दृष्टि हम अपने चारो तरफ सबसे पहली दृष्टि से चेहरों को देखते है, माया अपना काम शुरू करदेती है , और आखिरी सांस तक माया का प्रयास जीव को भ्रमित रखना ही है। ध्यानदीजिएगा !! अंत में वो ही निर्बोध दृष्टि फिर मिलती है , पर समय ही नहीं होता की अपना अनुभव सुनाया जा सके , और अगर किसी ने बहुत प्रयास करके सुना भी दिया तो उसकी बात सुनने से ज्यादा लोग सहानुभूति दिखाते है , चुप रहने की सलाह देते है , और साथ में ये भी की , चिंता मत करो जल्दी ही स्वस्थ हो जाओगे सब ठीक हो जायेगा।
अब भला उस जाते हुए जीव के दिल से कोई पूछे , वो किस दृष्टि से अपने आस पास खड़े मूर्खों को देख रहा है ? और इनकी मूर्खता को दूर करने का उपाय भी कर रहा है , पर कौन सुने और किसकी सुने ? छिपकली को लग रहा है इंसान उल्टा है और इंसान कहता है छिपकली उलटी है।
यही माया , यही सम्मोहन , और जागरण की कला का आधार ही साक्षी भाव कहलाता है।
ॐ ॐ ॐ
No comments:
Post a Comment