Wednesday, 2 April 2014

अंतर्दृष्टि ; यथा दृष्टि तथा सृष्टि (Note )



Photo: अंतर्दृष्टि ; यथा दृष्टि तथा सृष्टि:
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So i say : मैं  तो उन संतो का दास जिन्होंने मन मार लिया... 

आत्मा परमात्मा  कि चर्चा बढ़ी  तो अंत में  जैसे सब समझते हुए  किसी  मित्र  ने  एक वार्ता के दौरान  ये  शब्द  कहे।  सुन कर ऐसा लगा जैसे अब तक चर्चा  के दौरान  की गयी सारी शाब्दिक यात्रा ही व्यर्थ हो गयी   और फिर हम उसी शुन्य के  शुरूआती  सिरे   पे अटक गए।

यहाँ   , न तो आपमें दास भाव जगा है  ... न ही  उन संतो ने मन मारने जैसा कोई  कष्टकारी कार्य  किया है  आपका कहा बता रहा है कि आप निहायत ही सांसारिक दृष्टि से अपनी बात कह रहे है . और एक और  निरीह इंसान को जिसको आपकी परिभाषा से कोई सरोकार नहीं  उसको परिभाषित करके प्रसन्न हो रहे है  न सिर्फ प्रसन्न वरन संतुष्ट भी हो रहे है।  ये कैसा छल है ? ये आपको भी अच्छी तरह से ज्ञान है , की इस मस्तिष्क  को खोदने वाली चर्चा के बाद आप  अपने  रास्ते हो  जायंगे  और संत !!  उसको तो न इस प्रपंच से सरोकार  न  आपके  उस  जन्मे   मानसिक उपद्रव  से कोई लेना देना वो मात्र  अपना  आज का जीवन जी रहा है।

मित्रों !  ध्यान हमे  अंतर्दृष्टि देता है >  यानि कि लौकिक दृष्टि बंद करनी पड़ती है >  यानि की  द्वित्व  स्थापित करने वाली दृष्टि  बंद करनी पड़ती है ,> यानि की अब हम  वस्तुस्थिति  को  चारो ओर से देख पा रहे है।  सिर्फ  हाथी के कान या  पैर  पूँछ  पकड़ के सम्पूर्ण हाथी की  घोषणा नहीं कर रहे। 

यहाँ  भी   दो  व्यक्तियों के वार्तालाप   है परन्तु  कहने वाला कुछ कह रहा है सुनने वाला वो ही सुन रहा है जो पहले से उसके  मन मस्तिष्क में  आकृति  है।  

वो कह रहा है  मैं उन संतो का दास  जिन्होंने मन मार लिया ! अब  ये तो फिर से   दौड़ शुरू करनी ही पड़ेगी ,  संत अपना मन मारते नहीं  उनका  विचार उनकी दृष्टि  सब पल्लवित है , और ये तो सुना ही होगा यथा दृष्टि तथा सृष्टि , किसी  कि  समझने के लिए  हमको अपनी खिड़की  से झांकने  की दिशा बदलनी होगी   अपना भाव  तो सभी जानते ही है, भाव के बाद ही विचार  और विचार  शब्द  बनते है।  

अब जरा संतो कि दृष्टि से देखिये !  ये कुछ ऐसा ही है कि  हमारे लिए  छत पे लटकी छिपकली उलटी  और छिपकली के लिए हम ,  और खेल गुरुत्वाकर्षण का है सारा।   यहाँ भी आपका खिंचाव सांसारिक  उपलभ्धियो तक सीमित है और संत  इनकी निःसारता  को  जान चुका है , उसके लिए आपके समस्त भाव  बच्चो के हठ जैसे है।  जो आज ये और कल दूसरी शक्ल ले ले लेंगे।  संसार की  गति के साथ व्यक्ति की इक्छायें और वासनाएं  भी  बदलती है , जो कल था वो आज महत्वहीन है , आज किसी और  भाव और उद्वेग ने जगह ले ली , कल कोई और ले लेगा। 

संत आज में जीता है , न कल का उसके पास हिसाब है  न आने वाले कल कि फ़िक्र , परमात्मा ने आज दिया है  सुंदर  ,  और संत परमात्मा का और उनकी दी गयी सामग्री का  ऋणी है  ,  अधिकारी नहीं।  उसके रोम रोम में आभार है  उस दिव्यता के प्रति।  

तो जो मन मरने कि बात  मित्र ने कही  सम्भवतः  अपनी खिड़की से झांक के कही होगी।  मुझे पूरा  यकीं है कि ये शब्द भी उन तक जरुर  जायेंगे , और वो ध्यान में  साक्षित्व द्वारा  अपनी  सारी  उपजी  लौकिक  परिवर्तनशील  जिज्ञासाओं  के समाधान   पा सकेंगे

और एक बात  संत  के बाहरी आवरण से  उसके  साधुत्व का निर्णय न करे  , क्यूंकि साधुत्व बाहरी घटना नहीं , आंतरिक उपलब्धि है , छल  हमेशा  बाह्य गामी होता है।   परन्तु  भाव में मिलावट नहीं होती।  सच्चे संत को किसी परिभाषा की आवशयकता नहीं , उसका जीवन ही संतत्व  है।  

दूसरी महत्वपूर्ण बात,  हम जो आज तक करते आये है , हमारे विचार  हमारी दृष्टि , हमारे स्पर्श  हमारे श्रवण  और हमारी वार्ता , बहिर्मुखी है  उसके परिणाम  भी मिलते आये है , हमारी दृष्टि  बाहर के दृश्य दिखती है  स्पर्श  हम बाहर का करते है   आवाजें हमें  बाहर की सुनने की  आदत है , आलोचनाएं   प्रतियोगिताएं  क्रोध  लोभ  वैमनस्य  आदि  सब बहिर्मुखी हमेशा  बाह्य उन्मुख  इंद्रियों के कारण ही होते है , आज अपनी दृष्टि को बाहर से घुमा के  अंदर की  तरफ मोड़े,  अपनी तरफ देखने का अवसर ही नहीं देते स्वयं को।  यही से आपकी बाह्य वेदनाओं की समाप्ति की घोषणाएं   सुप्त अवस्था में है।  आपके असंतुलन  जो  छिपे हुए है  वो  स्वयं एक एक करके बहार निकलेंगे , और अपना परिचय देंगे।  तब आपको  एक और जगत का दर्शन होगा , जिसमे  आपकी दृष्टि  बदल चुकी होगी , और तदनुसार  दृश्य भी बदल चुके होंगे।   प्रतियोगिताएं स्वस्थ  आलोचनाये  गुणात्मक , क्रोध की मात्रा और गुणवत्ता  बदल चुकी होगी   , मोह  लोभ  वैमनयस्य  कि उपस्थिति  आपके लिए नहीं , अज्ञानी के लिए होगी।   और ये मात्र कल्पना नहीं , जो भी अपनी अंतर्दृष्टि विकसित करते है  उनको अनुभव होजाता है।
 
(ये बात अलग है  की  माया  की उपस्थिति  जरा से  अभिमान से  संत की साधना को  नष्ट कर सकती है , यानिकि सम्भावना कम है परन्तु  सम्भावनाओं से इंकार भी नहीं  है की एक  संत माया देवी  के  जाल में दोबारा  फंस जाए  और छलित  बुध्ही से   फिर संसार को  देखे , ये ज्यादा घातक है , क्यूंकि  बाह्य   रूप से  वो सजग  हो चुका है , छल के मापदंड  वो जानता है।  तो ऐसे   माया  ग्रसित परवर्तित  संत  समाज के लिए घातक है।  ज्ञान के ऊपर अज्ञान का आवरण , ज्यादा प्रदुषण फैलता है, क्यूंकि ये सत्य है  की माया  नष्ट नहीं होती , सिर्फ जानी जाती है।  माया  को जानना ही  उसको  निवारण है , और सच्चा साधू  कभी दोबारा  उसके  चुंगुल में नहीं फंसता ,  पर साधना अधूरी है  तो मायाजाल प्रलोभन  , सांसारिक सौंदर्य  अपना असर दिखाते है। )

यही है एक सच्चे संत की दृष्टि ,  अब आप बताये !  क्या संत  आपसे ज्यादा प्रसन्न और संतुष्ट नहीं ?  उसका तो एक एक पल  खुशबु से महक रहा है।  उसके रोम रोम से  परमात्मा के लिए आभार है ,  और गौर कीजियेगा "आपके लिए  उसको देने के लिए  मात्र " करुणा " का भाव है ...... (बाबा भारती की कथा का स्मरण है आपको ? एक मात्र घोडा  भी जब  डकैत  ले गए  तो वो  कुछ पल दुखी हुए  परन्तु  फिर उसरात वो  घोड़े बेच के सोये  क्यूंकि  अब और खोने को कुछ था ही नहीं )  ........... क्यूंकि  वो आपकी  नकली दयनीयता  और  दिखावटी  वेदना के दूर हो जाने  के  रास्ते भी जानता है  , वो  देख पा रहा है  कि आपकी  भावनाए  छद्म है  छलावा है ,  जो सबसे अधिक आपको छल रही है, और आपको ही  इस छद्मता का अहसास नहीं ।  

और ये  दृष्टि भी हर एक के अंदर है , सहज है , उपलब्ध है , आप स्वयं  इसका अनुभव कर सकते है।   बस थोडा वक्त दीजिये  अपनी अंतर्दृष्टि को ,  तीसरे नेत्र से ध्यान कीजिये ।  आप स्वयं ही अपने सबसे विश्वास योग्य  गुरु हो सकते है , और  हैं  भी  , क्यूंकि इस दृष्टि के बाद  (( यदि दृष्टि बाह्य  हो जाये , सामाजिक हो जाये ,  लोगो का भला करने में  उलझ जाये ,  तो छल सकती है ))  स्वयं को छलना नामुमकिन  है , यहाँ माया देवी  को एक बार जान के  उसका असर आपके इस जीवन के लिए  बेअसर हो सकता है।   

स्वयं  के ज्ञान के बाद जब सिद्धार्थ को  बुध्धत्व  का आभास हुआ,तो   सबसे पहला वाक्य यही कहा  था " आप्पो  गुरु  आपो भवः "  क्यूंकि अपने  ज्ञान  खोज के दौरान उन्होंने  १४  गुरु  बदले  या गुरु  ने उनको , जो भी हो ,  निष्कर्ष यही था।  आपसे बेहतर आपको आपका ज्ञान देने वाला  शायद ही  मिले यदि मिले  तो श्रद्धा कीजिये , आभार दीजिये किन्तु जैसे अंत में आप को स्वयं को भी छोड़ना ही है , गुरु भी  इसी परिभाषा में है  उनको  छोड के आपको अपनी यात्रा  पे  आगे बढ़ना है  ।

ॐ ॐ ॐ


So i say : मैं तो उन संतो का दास जिन्होंने मन मार लिया... 


आत्मा परमात्मा कि चर्चा बढ़ी तो अंत में जैसे सब समझते हुए किसी मित्र ने एक वार्ता के दौरान ये शब्द
 कहे। सुन कर ऐसा लगा जैसे अब तक चर्चा के दौरान की गयी सारी शाब्दिक यात्रा ही व्यर्थ हो गयी और फिर हम उसी शुन्य के शुरूआती सिरे पे अटक गए।

यहाँ , न तो आपमें दास भाव जगा है ... न ही उन संतो ने मन मारने जैसा कोई कष्टकारी कार्य किया है आपका कहा बता रहा है कि आप निहायत ही सांसारिक दृष्टि से अपनी बात कह रहे है . और एक और निरीह इंसान को जिसको आपकी परिभाषा से कोई सरोकार नहीं उसको परिभाषित करके प्रसन्न हो रहे है न सिर्फ प्रसन्न वरन संतुष्ट भी हो रहे है। ये कैसा छल है ? ये आपको भी अच्छी तरह से ज्ञान है , की इस मस्तिष्क को खोदने वाली चर्चा के बाद आप अपने रास्ते हो जायंगे और संत !! उसको तो न इस प्रपंच से सरोकार न आपके उस जन्मे मानसिक उपद्रव से कोई लेना देना वो मात्र अपना आज का जीवन जी रहा है।

मित्रों ! ध्यान हमे अंतर्दृष्टि देता है > यानि कि लौकिक दृष्टि बंद करनी पड़ती है > यानि की द्वित्व स्थापित करने वाली दृष्टि बंद करनी पड़ती है ,> यानि की अब हम वस्तुस्थिति को चारो ओर से देख पा रहे है। सिर्फ हाथी के कान या पैर पूँछ पकड़ के सम्पूर्ण हाथी की घोषणा नहीं कर रहे।

यहाँ भी दो व्यक्तियों के वार्तालाप है परन्तु कहने वाला कुछ कह रहा है सुनने वाला वो ही सुन रहा है जो पहले से उसके मन मस्तिष्क में आकृति है।

वो कह रहा है मैं उन संतो का दास जिन्होंने मन मार लिया ! अब ये तो फिर से दौड़ शुरू करनी ही पड़ेगी , संत अपना मन मारते नहीं उनका विचार उनकी दृष्टि सब पल्लवित है , और ये तो सुना ही होगा यथा दृष्टि तथा सृष्टि , किसी कि समझने के लिए हमको अपनी खिड़की से झांकने की दिशा बदलनी होगी अपना भाव तो सभी जानते ही है, भाव के बाद ही विचार और विचार शब्द बनते है।

अब जरा संतो कि दृष्टि से देखिये ! ये कुछ ऐसा ही है कि हमारे लिए छत पे लटकी छिपकली उलटी और छिपकली के लिए हम , और खेल गुरुत्वाकर्षण का है सारा। यहाँ भी आपका खिंचाव सांसारिक उपलभ्धियो तक सीमित है और संत इनकी निःसारता को जान चुका है , उसके लिए आपके समस्त भाव बच्चो के हठ जैसे है। जो आज ये और कल दूसरी शक्ल ले ले लेंगे। संसार की गति के साथ व्यक्ति की इक्छायें और वासनाएं भी बदलती है , जो कल था वो आज महत्वहीन है , आज किसी और भाव और उद्वेग ने जगह ले ली , कल कोई और ले लेगा।

संत आज में जीता है , न कल का उसके पास हिसाब है न आने वाले कल कि फ़िक्र , परमात्मा ने आज दिया है सुंदर , और संत परमात्मा का और उनकी दी गयी सामग्री का ऋणी है , अधिकारी नहीं। उसके रोम रोम में आभार है उस दिव्यता के प्रति।

तो जो मन मरने कि बात मित्र ने कही सम्भवतः अपनी खिड़की से झांक के कही होगी। मुझे पूरा यकीं है कि ये शब्द भी उन तक जरुर जायेंगे , और वो ध्यान में साक्षित्व द्वारा अपनी सारी उपजी लौकिक परिवर्तनशील जिज्ञासाओं के समाधान पा सकेंगे

और एक बात संत के बाहरी आवरण से उसके साधुत्व का निर्णय न करे , क्यूंकि साधुत्व बाहरी घटना नहीं , आंतरिक उपलब्धि है , छल हमेशा बाह्य गामी होता है। परन्तु भाव में मिलावट नहीं होती। सच्चे संत को किसी परिभाषा की आवशयकता नहीं , उसका जीवन ही संतत्व है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात, हम जो आज तक करते आये है , हमारे विचार हमारी दृष्टि , हमारे स्पर्श हमारे श्रवण और हमारी वार्ता , बहिर्मुखी है उसके परिणाम भी मिलते आये है , हमारी दृष्टि बाहर के दृश्य दिखती है स्पर्श हम बाहर का करते है आवाजें हमें बाहर की सुनने की आदत है , आलोचनाएं प्रतियोगिताएं क्रोध लोभ वैमनस्य आदि सब बहिर्मुखी हमेशा बाह्य उन्मुख इंद्रियों के कारण ही होते है , आज अपनी दृष्टि को बाहर से घुमा के अंदर की तरफ मोड़े, अपनी तरफ देखने का अवसर ही नहीं देते स्वयं को। यही से आपकी बाह्य वेदनाओं की समाप्ति की घोषणाएं सुप्त अवस्था में है। आपके असंतुलन जो छिपे हुए है वो स्वयं एक एक करके बहार निकलेंगे , और अपना परिचय देंगे। तब आपको एक और जगत का दर्शन होगा , जिसमे आपकी दृष्टि बदल चुकी होगी , और तदनुसार दृश्य भी बदल चुके होंगे। प्रतियोगिताएं स्वस्थ आलोचनाये गुणात्मक , क्रोध की मात्रा और गुणवत्ता बदल चुकी होगी , मोह लोभ वैमनयस्य कि उपस्थिति आपके लिए नहीं , अज्ञानी के लिए होगी। और ये मात्र कल्पना नहीं , जो भी अपनी अंतर्दृष्टि विकसित करते है उनको अनुभव होजाता है।

(ये बात अलग है की माया की उपस्थिति जरा से अभिमान से संत की साधना को नष्ट कर सकती है , यानिकि सम्भावना कम है परन्तु सम्भावनाओं से इंकार भी नहीं है की एक संत माया देवी के जाल में दोबारा फंस जाए और छलित बुध्ही से फिर संसार को देखे , ये ज्यादा घातक है , क्यूंकि बाह्य रूप से वो सजग हो चुका है , छल के मापदंड वो जानता है। तो ऐसे माया ग्रसित परवर्तित संत समाज के लिए घातक है। ज्ञान के ऊपर अज्ञान का आवरण , ज्यादा प्रदुषण फैलता है, क्यूंकि ये सत्य है की माया नष्ट नहीं होती , सिर्फ जानी जाती है। माया को जानना ही उसको निवारण है , और सच्चा साधू कभी दोबारा उसके चुंगुल में नहीं फंसता , पर साधना अधूरी है तो मायाजाल प्रलोभन , सांसारिक सौंदर्य अपना असर दिखाते है। )

यही है एक सच्चे संत की दृष्टि , अब आप बताये ! क्या संत आपसे ज्यादा प्रसन्न और संतुष्ट नहीं ? उसका तो एक एक पल खुशबु से महक रहा है। उसके रोम रोम से परमात्मा के लिए आभार है , और गौर कीजियेगा "आपके लिए उसको देने के लिए मात्र " करुणा " का भाव है ...... (बाबा भारती की कथा का स्मरण है आपको ? एक मात्र घोडा भी जब डकैत ले गए तो वो कुछ पल दुखी हुए परन्तु फिर उसरात वो घोड़े बेच के सोये क्यूंकि अब और खोने को कुछ था ही नहीं ) ........... क्यूंकि वो आपकी नकली दयनीयता और दिखावटी वेदना के दूर हो जाने के रास्ते भी जानता है , वो देख पा रहा है कि आपकी भावनाए छद्म है छलावा है , जो सबसे अधिक आपको छल रही है, और आपको ही इस छद्मता का अहसास नहीं ।

और ये दृष्टि भी हर एक के अंदर है , सहज है , उपलब्ध है , आप स्वयं इसका अनुभव कर सकते है। बस थोडा वक्त दीजिये अपनी अंतर्दृष्टि को , तीसरे नेत्र से ध्यान कीजिये । आप स्वयं ही अपने सबसे विश्वास योग्य गुरु हो सकते है , और हैं भी , क्यूंकि इस दृष्टि के बाद (( यदि दृष्टि बाह्य हो जाये , सामाजिक हो जाये , लोगो का भला करने में उलझ जाये , तो छल सकती है )) स्वयं को छलना नामुमकिन है , यहाँ माया देवी को एक बार जान के उसका असर आपके इस जीवन के लिए बेअसर हो सकता है।

स्वयं के ज्ञान के बाद जब सिद्धार्थ को बुध्धत्व का आभास हुआ,तो सबसे पहला वाक्य यही कहा था " आप्पो गुरु आपो भवः " क्यूंकि अपने ज्ञान खोज के दौरान उन्होंने १४ गुरु बदले या गुरु ने उनको , जो भी हो , निष्कर्ष यही था। आपसे बेहतर आपको आपका ज्ञान देने वाला शायद ही मिले यदि मिले तो श्रद्धा कीजिये , आभार दीजिये किन्तु जैसे अंत में आप को स्वयं को भी छोड़ना ही है , गुरु भी इसी परिभाषा में है उनको छोड के आपको अपनी यात्रा पे आगे बढ़ना है ।
ॐ ॐ ॐ

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