जैसे माला के मनकों में धागा अनुस्यूत होता है। मनके दिखाई पड़ते हैं, धागा दिखाई नहीं पड़ता--वह है होश।कबीर उसको ही सुरति कहते हैं। और जिस व्यक्ति का होश सध जाए, फिर उसे कोई असहज क्रम नहीं करना पड़ता उलटा-सीधा।
कबीर कहते हैं, न तो मैं नाक बंद करता, न आंख बंद करता, न उलटी-सीधी सांस लेता, न प्राणायाम करता, न उलटा सिर पर खड़ा होता, न शीर्षासन करता; कुछ भी नहीं करता; सिर्फ होश को सम्हालकर रखता हूं। सिर्फ सुरति को बनाए रखता हूं। बस, सुरित का दीया भीतर जलता रहता है। और जीवन पवित्र हो जाता है।सुरति का दीया भीतर जलते-जलते एक ऐसी घड़ी आती है, जब निष्कंप हो जाता है। उस घड़ी का नाम समाधि।
शुरू-शुरू में सुरति का दीया कंपता है। पुरानी वासनाओं के झोंके आएंगे, पुरानी आदतों के झोंके आएंगे, पुराने संस्कार के झोंके आएंगे। बहुत बार दीया झुकेगा, कंपेगा, लौ कंपित होगी, जीवन भीतर चंचल रहेगा, भान कभी रहेगा, कभी छूटेगा, कभी होश सम्हलेगा, कभी नहीं भी सम्हलेगा, कभी गिरोगे, कभी उठोगे, शुरू में स्वाभाविक है।तो सुरति की दो स्थितियां हैं। जब भीतर की चेतना कंपती रहती है, उस स्थिति का नाम ध्यान। और जब भीतर की चेतना अकंप हो जाती है, उस स्थिति का नाम समाधि।
और कबीर कहते हैं, सहज ही सध जाती है; तुम व्यर्थ के उपद्रव क्यों कर रहे हो?और यही मैं तुमसे भी कहता हूं। क्योंकि कबीर को भी सुननेवाले तुम ही थे, तुम ही हो। लेकिन तुम तरकीबें निकाल लेते हो। कबीर से बच जाते हो, बुद्ध से बच जाते हो, कृष्ण से बच जाते हो, तुम बचे चले जाते हो।बुद्ध ने जो स्त्री से बचने को कहा, वही तुम बुद्धों के साथ व्यवहार कर रहे हो! पहले तो बुद्ध दिखाई पड़े तो बच कर निकल जाना! अगर मजबूरी आ जाए और देखना ही पड़े, पास से निकलना पड़े तो आंख झुकाकर निकल जाना! अगर फिर भी मजबूरी खड़ी हो जाए और आंख भी न झुका पाओ तो छूना मत! अगर छू भी लो, तो होश रखना कि यह आदमी बुद्ध है, अछूत है, बीमारी है! यह तुम्हें मिटा डालेगा।इस भांति तुम चल रहे हो। इससे तुम चूकते गए हो। और जितना तुम चूकते हो, उतना ही तुम सोचते हो कठिन होगा, कठिन होगा, तभी तो हम चूक रहे हैं। तुम चूक रहे हो चालाकी से।सत्य कठिन नहीं है, तुम्हारी चालाकी बड़ी जटिल है।
कबीर कहते हैं, न तो मैं नाक बंद करता, न आंख बंद करता, न उलटी-सीधी सांस लेता, न प्राणायाम करता, न उलटा सिर पर खड़ा होता, न शीर्षासन करता; कुछ भी नहीं करता; सिर्फ होश को सम्हालकर रखता हूं। सिर्फ सुरति को बनाए रखता हूं। बस, सुरित का दीया भीतर जलता रहता है। और जीवन पवित्र हो जाता है।सुरति का दीया भीतर जलते-जलते एक ऐसी घड़ी आती है, जब निष्कंप हो जाता है। उस घड़ी का नाम समाधि।
शुरू-शुरू में सुरति का दीया कंपता है। पुरानी वासनाओं के झोंके आएंगे, पुरानी आदतों के झोंके आएंगे, पुराने संस्कार के झोंके आएंगे। बहुत बार दीया झुकेगा, कंपेगा, लौ कंपित होगी, जीवन भीतर चंचल रहेगा, भान कभी रहेगा, कभी छूटेगा, कभी होश सम्हलेगा, कभी नहीं भी सम्हलेगा, कभी गिरोगे, कभी उठोगे, शुरू में स्वाभाविक है।तो सुरति की दो स्थितियां हैं। जब भीतर की चेतना कंपती रहती है, उस स्थिति का नाम ध्यान। और जब भीतर की चेतना अकंप हो जाती है, उस स्थिति का नाम समाधि।
और कबीर कहते हैं, सहज ही सध जाती है; तुम व्यर्थ के उपद्रव क्यों कर रहे हो?और यही मैं तुमसे भी कहता हूं। क्योंकि कबीर को भी सुननेवाले तुम ही थे, तुम ही हो। लेकिन तुम तरकीबें निकाल लेते हो। कबीर से बच जाते हो, बुद्ध से बच जाते हो, कृष्ण से बच जाते हो, तुम बचे चले जाते हो।बुद्ध ने जो स्त्री से बचने को कहा, वही तुम बुद्धों के साथ व्यवहार कर रहे हो! पहले तो बुद्ध दिखाई पड़े तो बच कर निकल जाना! अगर मजबूरी आ जाए और देखना ही पड़े, पास से निकलना पड़े तो आंख झुकाकर निकल जाना! अगर फिर भी मजबूरी खड़ी हो जाए और आंख भी न झुका पाओ तो छूना मत! अगर छू भी लो, तो होश रखना कि यह आदमी बुद्ध है, अछूत है, बीमारी है! यह तुम्हें मिटा डालेगा।इस भांति तुम चल रहे हो। इससे तुम चूकते गए हो। और जितना तुम चूकते हो, उतना ही तुम सोचते हो कठिन होगा, कठिन होगा, तभी तो हम चूक रहे हैं। तुम चूक रहे हो चालाकी से।सत्य कठिन नहीं है, तुम्हारी चालाकी बड़ी जटिल है।
Kahe Kabir Diwana - 16
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