एक सुखद, नाम मे ही शीतलता , और सानिध्य बुद्ध का , सहभागी मित्र सत्संगी . एक आश्रम कि यही कल्पना भी है और वास्तविकता भी यही है जो आश्रम की ओर कदम बढ़ चलते है।
जरा सोचिये ! नदी का निर्मल घाट बस आपसे चन्द कदम की दूरी पर , आपका निवास शांत हरियाली और नैसर्गिक सौंदर्य से भरा , पक्षी उड़ते , मछलिया तैरती , मृग विहग आपके चारोँ ओर सिर्फ़ आपको निहार रहे है प्रेम से , और इन्तजार मे है कि आपका ध्यान समाप्त हो और आप उनको भोजन दें,
या समंदर का किनारा , स्वक्छ तेज चलती समुद्री हवाएँ , बरबस मन खिंचा चला जाता है , किसी सुन्दर जगह कि तरफ। जहाँ सिर्फ शांति हो , सिर्फ़ प्रेम हो , संसार की सांसारिकता से अलग कुछ पल जीवन के जीने कि इक्छा सभी की होती है।
पर क्या वास्तव मे ऐसा आश्रम है ? आत्मा क्यों भटकती हैँ इधर उधर ? क्या चाहिए आखिरकार ? जरूर कुछ मिलता भी होगा , अधिक धन खर्च करके थोड़ा चैन , थोड़े सुकून , इसीकारण तो लोग लालायित रहते है।
शायद स्वयं से वो निर्मित नहीं कर पा रहे है ऎसी व्यवस्था , इसीलिए कहीं की भी सुचना मिलते ही , प्यास से छटपटाते हाजिर हो जाते है , थोड़े से शीतल जल की इक्छा लिये।
पर हर किसी को ऐसा मनोवांछित मनोहर स्थान सुलभ भी नहीं, फ़िर क्या करें ?
मित्रों भटकने से लाख गुना अच्छा , मन को स्थिर करें , मस्तिष्क को समझे , स्थिर ह्रदय के साथ हर स्थान उतना ही मनमोहक बन जाता है ,
"अपना मन चंगा तो कठौती मे गंगा "
श्रम भी बचेगा , धन भी बचेगा , और आप अनावश्यक भीड़ तथा धोखे से भी बच सकेंगे।
एम्बिएंस तो अपना काम है , जहा खड़े एम्बिएंस बना लिया। सब कुछ अपने ही अंदर है , हजारों इक्छाओं से लिप्त धागे जितने उलझे और दुष्कर दिखते है , दरअसल उतने ही सुलझे और एक एक करके हर धागा अंदर को ही जाता है। वहीं उसका मूल उद्गम है। वहीँ आश्रम वहीँ ज्ञान , वहीं गुरु , वहीं प्रेम सब कुछ वहीं है , इस बार ध्यान से देखिएगा !
कहीं नहीं भटकना , प्रेम से अपनी ही जगह पे आसन लग के , प्रेम मुद्रा के साथ , गहरी साँसे लेते हुए , स्वयं को भेंट करना है स्वयं अपने आपको।
ॐ ॐ ॐ
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