Monday 29 December 2014

कर्ज का दर्द

एक  यौगिक  विकसित दृष्टि की व्याख्या 
                      ध्य स्थिरता का हिन्दू यौगिक मूल-मंत्र  गजब का प्रभावी है , अंदर से  स्थिर हो तो कारगर , बाहर से एक एक कारण पे स्थिरता आये  तो भी उत्तम फलदायी ,लेन देन के कारोबार से मुक्ति तो अंतर्मन से भारहीनता की अनुभूति , इसीका  बृहत् स्वरुप  देखें तो लेन देन का कार्यक्रम उलझने वाला  और लेने  से भी अधिक चुकाने वाला होता साबित होता है।  बिलकुल जरुरत या गैरजरूरत  बैंक के दिए गए धन के समान , निश्चित अवधि पे  कर्ज का मूल  और सूद  चुकाना ही है वर्ना खैर नहीं , यही कर्ज का उसूल भी है और लेनदार देनदार के बीच का गहरा रिश्ता भी , न ! न !  ;  ये  धन की सांख्यकी से ज्यादा जीवन की सांख्यकी है ,संसार में न जाके  अपने ही नजदीक के इतिहास में देखे , मुस्लिम आये  हिन्दू राज्य पे  शासन किया  और बहुत कुछ दिया भी , कला  संस्कृति  भाषा  एक तरफ कट्टरता  की तश्तरी  तो दूजी तरफ सूफी थाली। और बीच में हिन्दू कर्जदार (धर्म की जिरह  पे मत अटक जाना  क्यूंकि मामला  कर्जदार का है ) मुस्लिम स्वयं में  असंतुलित थे जो उनका  धार्मिक और सामाजिक  समग्र व्यक्तिव  बताता  है  धर्म का पलड़ा  और सूफी पलड़ा  दोनों ही अधिक गंभीर  और भारी थे , उनके देने  में जितनी उदारता थी  लेने  में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।  यानी खूब दिया भी  और बहुत खूब  लिया भी  की सांख्यकी सिद्धांत  यहाँ काबिज  है,फिर अंग्रेजों से हमारा लेन देन का खाता नहीं खुला था जब तक उनका  व्यापारिक उत्सुकता से देश में आगमन  नहीं हुआ था,वस्तुतः  अगर मुस्लिम ताकतवर होते  तो शायद  ये व्यापार  व्यापार  ही रहता , खैर , इतिहास के पन्नो में  कुछ और ही दर्ज हुआ , फिर भी उनसे हमारा खाता  चाहे  या अनचाहे  खुल गया , अंग्रेजों ने  भी इसी सांख्यकी के  नियम  का पालन किया , खूब दिया  और दोगुना  लिया वापिस।

                       ये तो पास के  अतीत का हाल है , इसके पहले भी  भारत  स्वयं में ही उलझा हुआ था , हिन्दू स्वयं में एकत्रित नहीं हो पा रहे थे , हमारी धार्मिकता की सीख यही है, संसार के तल  पे कर्त्तव्य पालन , समग्र कण कण  में ईश्वर का दर्शन  हिन्दू धर्म का सार  है , फिर ईश्वर स्वयं के प्रति  कठोर नहीं हो सकता  मात्र जीवनदायी और न्यायप्रिय  स्वाभाविक  गुण   जागृत होते है, सच्चा धार्मिक हिन्दू कभी  मुस्लिम जैसे कठोर और मारकाट की इक्षा शक्ति से इकठा नहीं हो सकते।  फिर भी  कुछ  हिन्दू भी  इस लेन देन के व्यापार में उलझ ही जाते है।  कभी धार्मिक तो कभी राजनैतिक  मंशा से।  यहाँ भी संतुलन का फर्क है , यदि थोड़ा गौर से समझें  तो  अमूमन मुस्लिम समुदाय  में सच्चे धार्मिक की परिभाषा  और हिन्दू में सच्चे धार्मिक की परिभाषा  जरा  अलग ही तराजू  पे  तौलती  है।  मुस्लिम् का एक विशाल समुदाय है जो  शिक्षा से ज्यादा जनसख्या  बढ़ाओ का सिद्धांत  मानता  है  उसी  अनुपात में अंध धर्म को मानने  वालों  संख्या में  भी  अंतर है।यदि  संसार  की मानवजाति को  दो भागों में बाट तराजू के दो पलड़ों पे  रखें   समूची  अन्यधर्म की जातीयां  है तो  एक पे मात्र मुसलमान  समुदाय  आता है ,  यही कारन है  की  आतंक में  भी मुस्लिम वर्ग ही  संसार का सशक्त विशाल समूह है , यद्यपि  किसी भी धर्म का वास्तविक मूल  आतंकी नहीं,सभी धर्म द्वैत से  अद्वैत  की  कील पे ठहरते है।  एक एक  मुस्लमान आंतरिक रूप से एक है जुड़ा हुआ है। जहाँ हिन्दुओं में बलि की प्रथा  मात्र  गिने चुने लोग  या विशेष वर्ग  द्वारा मानी  जाती  है , वही सम्पूर्ण अमीर गरीब मुसलमान वर्ग  इसे  एक उत्सव  के रूप में सामूहिक रूप से घर घर मानता  है।  वैसे तो हिन्दू धर्म  प्रसिद्द है उत्सव  लिए , किन्तु  व्यवहार में  कोई  उत्सव  राष्ट्रिय  रूप से  बाध्य नहीं , क्षेत्र , मान्यता   और तर्क के अनुसार हिन्दुओं में  स्वतंत्रता है।  छोटा सा उदहारण जेहन में आया  है राम और रावण का  दीपावली  जैसा पर्व समूचे भारत में  प्रसिद्द है  किन्तु दक्षिण के  लंका से जुड़े  प्रदेश में रावण का पुतला  जलाने  की  मान्यता में नहीं  आता  वहीं  पूर्वी पश्चिमी उत्तरभारत  में रावण दहन सामान्य  है।  ये तो मात्र  धार्मिक स्वतंत्रता की बात है  जो हिन्दू धर्म में  दिखती है।  कहने का उद्देश्य  मात्र इतना है  की  धार्मिक व्याख्या  जन्म  लिए बालक के समाजीकरण में विशेष भूमिका  निभाती है।  उसके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण पहलू धर्म की छत्रछाया के अधीन विकसित होता है  और फिर सामाजिक  वातावरण जो स्वयं धर्म से प्रभावित है।  और इसी कारण संसार का समूचा मुस्लिम समुदाय  आतंक से दुखी हो सकता है  ( वो भी जब स्वयं पे आघात हो ) अन्यथा सामूहिक रूप से   जीतने की और मुस्लिम साम्राज्य पुनः स्थापित करने की योजना से  उनका कोई  मतभेद नहीं।  और यही वजह है जनसख्या के विस्तार की , स्त्रियां माता से ज्यादा   मुस्लिम बच्चा प्रजनन का कारन है।  ये धार्मिक अनुमोदन ही है  की रिश्ते  कोई भी हो बहुविवाह और असंख्य  बालक के जन्म  धार्मिक परिभाषा में ही है।   वस्तुतः मारकाट भी  उनके प्रचलित  धर्म की  सीख है , ये अलग बात है  गिनी चुनी उन्नत आत्माए सूफी पंथ में आ जाती है।  अपने धार्मिक  स्वातंत्र्य स्वभाव के कारन ही  हिन्दू न तो संगठित  है न ही एकमत ।  ये धार्मिक  स्वतंत्रता  न मुस्लिम  में है न ही  क्रिस्टियन  में।  पर इतिहास  साक्षी है की  मौलिक रूप से  हिन्दू अपने स्वभाव से ही स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं थे  न है  इसका खामियाजा भी  वे स्वयं ही सामूहिक रूप से भोगते ही रहे  है।  यदि आप इसका भी आंकलन करना चाहे  तो  इतिहास  से या फिर आज से आंकड़े  इकठा  करके  स्वयं भी सोच सकते है  की हिन्दू  का आपसी  सामाजिक धार्मिक  तानाबाना ,  व्यवसाय  के प्रति  अधकचरा समर्पण  और बाह्य  व्यावसायिक  गुणात्मक  सम्पूर्णता  के प्रति अत्यधिक आकर्षण  स्वयं की अर्धविकसित चेतना के प्रमाण है।  स्वक्छ भारत  अभियान  छोटी सी सकारात्मक राजनैतिक योजना है।  वस्तुतः  जो हमारी अपनी ही कई  व्यवहारिक खामियों को उजागर करती है।  आज भी विदेशीय व्यापर का स्वागत मात्र  इसलिए है की हम उस विकसित बिंदु तक जाके व्यापार का प्रदर्शन और अधिग्रहण नहीं कर पा रहे ( किसी भी कारन से > आध्यात्मिक सामाजिक  अथवा राजनैतिक या फिर  स्वयं की  अनुवांशिक  विकृतियों के कारन )  यहाँ अध्यात्म का महत्त्व इसीलिए है  क्यूंकि आध्यात्मिक विकसित दृष्टि समग्र होती है , दर्शन एक पक्षीय नहीं बल्कि  चौथा कोण  लिए है  जो पक्षरहित है  , समग्र है।

                       संक्षेप में  , इस वार्ता का उद्देश्य  न तो धार्मिक है  न ही राजनैतिक, हाँ !  इतिहास पे  दृष्टि डाल के मात्र  उस आध्यात्मिक  अविकसित  किन्तु  विकसित होते हुए चैतन्य महत्त्व को समझना है  जो समस्त सांसारिक  व्यापार से परे है  , इतना समझ के (जान के नहीं ) अनुभव करके  अब आपको  वजह नजर आएगी  की क्यों  सन्यासी  सांसारिक व्यापार से अलग हो जाते है , क्यों लेन और देन  सामूहिक रूप से व्यक्ति  देश  और समुदाय के लिए  महंगा सौदा साबित होता है।   क्यों  जबरदस्ती या इक्षा  से  मिले  उधार का मूल चुकाना तो असंभव है  सूद भी भारी होता जाता है । इक्षा में तो फिर योजना शामिल है  जबरदस्ती में तो कोई  परिस्थिति  हो  वो नियंत्रण से बाहर है ,  वापसी की तैयारी  के आभाव में  कोई  योजना भी काम नहीं आती,   पर कर्ज तो कर्ज है   और कर्ज तो  चुकाना ही पड़ेगा।

                        वार्ता  को जब एक योगी की दृष्टि देते है तो विवेचना आसान और दृष्टि विकसित  हो जाती है , फिर ये अस्वस्थ  प्रलाप न बनके , मात्र राजनैतिक धार्मिक बहस न बनके  एक विचारवान  समर्थ  बौद्धिक  भाव के रूप में  निकलती है।  उदाहरण के लिए  तीन सन्दर्भ उदाहरण में लेती हूँ , १-  मनोरंजक  सर्कस  चल रहा है , अंदर दो वर्ग बनते है  एक दर्शक में  और दूसरा  जो  प्रदर्शन करता है।  २-  मेरा सर्कस के दोनों वर्गों से भेद है , न मैं  दर्शक बनना चाहता हूँ न ही प्रदर्शनकारी किन्तु   मैं   अपने मस्तिष्क से  विरोध में होते हुए भी  उनके संपर्क में हूँ  इसलिए  मैं  सर्कस से  बाहर  खड़ा हुआ हूँ  और हर एक को नसीहत भी कर रहां हुँ  की सर्कस  में जाना  बैठना या  प्रदर्शन  दोनों ही घातक है।  ३-  एक और विकसित दृष्टि है  जिसमे  व्यक्ति न तो  तम्बू के अंदर है  न बाहर  बल्कि  ऊपर से  उन सभी  तीनो वर्गों को  खुली  छत  से यूँ   देख पा  रहा है  जैसे  विमान पे बैठा  यात्री  विशाल फैली राजनैतिक  सीमाओं  से परे  मात्र क्षितिज  की सीमा के अंदर   धरती को  देख   ये विकसित   यौगिक बौद्धिक दृष्टि  का  चौथा  कोण है।  योगी के लिए  संसार के सभी धर्म उनके पालनकर्ता , आलोचक वर्ग  उसी क्षेत्र  में आते है , और उसकी दृष्टि चौथा कोण  है।  और इनसबसे परे  वो पांचवां  शक्तिशाली केंद्र है  जो सब के योग का  कारण है।

                       योगी  जब मध्य में स्थिर होता है  तो ये दृष्टि  भी विकसित हो जाती है , वार्ना तो सामान्यतः  लेने में जो मजा है  वो सभी को आकर्षित करता है,किन्तु देने  का विचार आते ही  सोचते है , जब वो मौका आएगा  देखलेंगे !  पर ये भी सच है की  कभी  कभी ये मौका  स्वयं की परिस्थति  इक्षा और मौका  नहीं देखते, और फिर  बस ताउम्र  चुकाते रह जाओ  वो भी सिर्फ ब्याज।

                          एक सिद्ध योगी पूर्ण आंतरिक शक्ति  और संकल्प से  कहता है ' मध्य  में स्थिर हो जाओ ' हर परिस्थिति में  हर काल  में  हर युग में यही सत्य है। ध्यान की आध्यात्मिक शक्ति से अंदर का फाल  अपने ही केंद्र  को सौंप दो।  फिर विकसित दृष्टि से  संसार को पुनः देखो।  तो खुली किताब जैसा संसार  स्वयं को स्वयं के व्यवहार को पूर्ण नंगेपन के साथ अनावृत हो के   कहता , वैसे या भी  गलतफहमी ही  है की आध्यात्मिक कायर है, अजीब से  बात है , ध्यान से आध्यात्मिक जब सत्य को जानता है  तो उसका स्वयं का मूल गुण ( जो भी है  जैसा भी है )  बदलता नहीं  बल्कि स्नान से  स्वक्छ  हो के और निखरता है।   इसीलिए सन्यासी में भी क्रमिकता है ,अति  आक्रामक (लड़ाकू योद्धा )  भी है  और शांत सौम्य ( प्रेमी और  कारुणिक )  भी।  बस ये जान लीजिये  ध्यान में आप की  अपनी  मौलिक चेतना और स्पष्ट होती है।  यदि आप योद्धा है  तो संकल्प और प्रखर होता जाता है।  यदि आप  मौन प्रेमी है  शांत है  तो वो स्वाभाव और स्पष्ट होता जाएगा।  और हाँ  दोनों ही  स्वाभाविक स्थति में  सांसारिक  लेनदेन  से  वितृष्णा  पैदा होगी , मात्र ये  अति स्वाभाविक अज्ञान के ऊपर  बौद्धिक  चेतना की उपलब्धि है।  फिर  उस अवस्था में कृष्ण  का वक्तव्य भी  पीड़ारहित  और अधिक स्पष्ट होगा , "  कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन

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