Wednesday 25 March 2015

उर्जापूर्वज और जन्म-मृत्यु चक्ररहस्य

मानो या न मानो अपनी बुद्धि अपना विश्लेषण अपने साथ ही रहेगा ...  
** कुछ भी पढ़े आत्मसात वो ही होगा जो आपके अन्तस्तम को मान्य और ग्राह्य होगा ऐसा मेरा व्यक्तिगत मानना है , वैसे अपने पूर्वजों से मिलना , पहचान बनाना अच्छा ही है , आगे की तपस्या को सहयोग शक्ति तथा राह मिलती है....इस अनुभव से गुजरने के बाद , मुझे यही आभास हुआ है , और अपने इस आभास को आप सबसे बाँटना चाहती हूँ , मुझे यकीं है , समान ऊर्जा तरंगे अवश्य आकर्षित होंगी , जिनको जितनी भी आवश्यकता होगी मेरी तपस्या का वो भाग उन तक जायेगा भी। इसी विश्वास के साथ इस मंथन यात्रा को आरम्भ करती हूँ।
प्रस्तुत है :-
स्वयं शिवपुत्र  नामक  मेरे एक साधु ज्ञानी मित्र  से मैंने फिर कुछ अलग सुना है - 
23 March at 19:48 · 

'दैत्यराज हिरण्यकशिपु' (भक्त प्रहलाद के पिता) इस जन्म में अपने स्थूल शरीर से मृत्यु को प्राप्त हुआ। 
.Datyaraaj Hiranyakashipu (Bhakta Prahlad's father) died from their physical body in this lifetime. 

वे पहले भी ऐसे कई उद्घोष कर चुके है , द्वापर  युग में जन्मे  धृतराष्ट्र  कृष्ण माता देवकी  और कर्ण देहधारी आदि आदि को लेकर , मुझे विश्वास है मेरे संपर्क में आने से पूर्व भी  इसके पहले भी वो ऐसी घोषनाये अवश्य अनेकानेक कर चुके होंगे। क्यूंकि जन्म से देह  में सिमित हुए देवता और दैत्य  असंख्य है।  और मेरे समान  उनकी भी तो प्रवृत्ति और उनके भी तो तरंग रूप में अदृश्य सहयोगी है। 

अपनी यात्रा के लिए  मैं आभारी हूँ  शिवपुत्र  जी की  मित्रवत उन्होंने मेरे विचारों को न सिर्फ गति दी वरन भवसागर के रहस्य को समझने में  मुझे मदद भी मिली।  उनके  सहयोग और  साथ के लिए आभार ! 

… अत्यंत आभार ।  एक और जलकुम्भी अस्तित्वविहीन हुई। 

निम्न प्रसंग में मैंने  पाया  अनेक प्रश्नो के समाधान एक साथ ,  जन्म मृत्यु चक्र ,  भाग्यफल  भोग चक्र , कारण और निवारण , वास्तविकता और मिथ कल्पना।  अनेक जिज्ञासा  जनसामान्य के की हर बालक का अपना भाग्य अपना भोग अपना चक्र  होता है , तो फिर ज्योतिष विज्ञानं द्वारा  छोटा  जनम कुंडली का खाका इनके असंख्य वजूद  को समेटता  कैसे है ? तो क्या  छोटा सा खाका इन निरंतर द्विगुणित होती अनगिनत  ऊर्जाओं को कैसे ईमानदारी से , वास्तविकता से  अपने  आलिंगन में  बाँध पाता  है ?  क्या है  धर्म का सार।  क्या है इन  आत्माओं  और दिव्य आत्माओं का अस्तित्व ?  आदी  अनेक समाधान यहाँ मुझे मिल गए।  कैसे ?  मात्र  एक सत्र  को पकड़ने से वो है ऊर्जाओं के अस्तित्व को  धरती के मूल से  पकड़ना  और नेति नेति द्वारा एक एक करके  परम केंद्र तक पहुंचना , कोई जल्दी नहीं  ऊर्जा का कोई छोर  छोड़ना नहीं  और यदि दिमागी पकड़ कही है  तो उसको ढीला करना  है  एक दम स्वतंत्र  भाव से  तत्व भाव से मुक्त हो  उर्जात्मक भाव से भर  अपने  ही  समान  गुणधर्म ऊर्जाओं के संग  यात्रा  करें। सभी रहस्य  अनावृत होते है , क्यूंकि आवरण उनपे नहीं  , हमारे ऊपर है , वे सदैव से  अनावृत ही है , हमारा ज्ञान ही उनको देखने नहीं देता , आश्चर्य है  इन्होने  हमें कभी नहीं छोड़ा , हम ही  इनको  महसूस नहीं कर पाये। बिलकुल परमात्मा रुपी  मुख्य ऊर्जा के समान , सभी  ऊर्जाएं अपने सभी गुणधर्म को लिए हुए  हमारे  अंदर  हमारे आसपास  वातावरण में और सम्पूर्ण जगत में  समायी है।  
 

नेति नेति के इस प्रयोग  से अपने अधिकतम  संकुचन में दो गुणात्मक उर्जाओ  का अस्तित्व ही बचता है  एक विशाल  और भव्य  ऊर्जा के पुंज के रूप में जिनमे  एक देव (सुर ) है दूसरा  राक्षस ( असुर ) और  अपने अधिकतम विस्तार में ऊर्जाएं  कण कण में  अपनी प्रवृत्ति के साथ व्याप्त है तो इस प्रकर्ति के तत्वों से मिल के बना  मनुष्य इनसे अलग कैसे होगा ? मानव  देह भी तो  तत्व और ऊर्जा का ही मेल है  मानव देह  में भी ये ऊर्जाएं  अपने अपने प्रभाव्  के साथ रहती है , अपने जन्म का आधार भी अपने प्रारब्ध और भाग्य के सहयोग से यही ऊर्जाएं  सुनिश्चित करती है , और यही इनके जन्म काल से  लेकर मृत्यु तक  कर्म, कर्म के विषय ,  तत्जनित  फल  का लेख जोखा  नियत करती है , सभी समान गुणधर्म उर्जाये मूलरूप से संयुक्त है और आकर्षित  भी है ,  इसीकारण सहयोगी भी  है जन्म में हो या अजन्मी अवस्था में , ये सदैव संपर्क में रहती है।  और इस नाते  ये  ऊर्जारूप ही वास्तिवक  पूर्वज  है सम्बन्धी है , स्थूल रूप में जागृत परिवार के आपसी आकर्षण  का भी इसी नियोजन में  गहरा सम्बन्ध है।  और  नक्षत्र  भी इन्ही ऊर्जाओं के गुणधर्म से व्याप्त है , निर्मित है।  पूरे ब्रह्माण्ड में  दो ही  वर्गीकरण है  एक तत्व दूसरा ऊर्जा , तत्व  निरर्थक है  ऊर्जा से सयुक्त होके  चेतन बनता है और कर्म में संयुक्त  होता है।  

 इस यात्रा  में  दो मूल प्रवृत्तियों पे अपनी पकड़ बना के रखनी है,  चलिए इसी छोटे से हिरण्यकश्यप के इस जनम के मृत्यु के समाचार को आधार  बिंदु  को आधार बना के  पुनः विचार मंथन शुरू करते है , और गुणात्मक ऊर्जा के तंत्र जाल को  नए सन्दर्भ में समझने का प्रयास करते है या फिर  अपने  मौलिक और वास्तविक सम्बन्धियों से साक्षात्कार करते है :- 

आज के सन्दर्भ में  देखे तो  राक्षस और उनका गठबंधन  अलग ही रूप में मिलता है ,  कभी छितरे हुए है  आम  जनसामान्य के बीच  सामान्य जीवन जीते हुए  तो कही  शक्तिशाली हो के   विध्वंस  में   और शक्ति बढ़ने में व्यस्त है , कहीं  मनुष्यों के बीच छिपे हुए  सभी संबधो को  जीते हुए  आभारहीन  से जीवन जीते हुए  अपनी ही मौलिक प्रवत्तियों से बाधित और आकर्षित है।  ये कहीं भी मिल सकते है  अकस्मात्  और वार भी करते है , कभी कभी इनकी  प्रवर्त्तियां अपने उचित समय पे उजागर होती है  उससे पूर्व सुप्त होती है।  ये तो सामान्य सा सच है।  इस की डोर पकड़ के  महान सच को  अनावृत करते है 

आज  राक्षस समुदाय की परिभाषा  और भी विस्तृत  है ,  सभी उपलब्ध वर्गीकरण में इनका वास है , और मौलिक रूप से इनका शासन भी है अपना क्षेत्र भी है  साम्राज्य भी है  जहाँ ये अति प्रबल  और अधिकतम खूखार लड़ाकू  के रूप में स्थापित है। …  वस्तुतः सामान्य भाषा में समाज में  आम जन्मित आत्माएं अज्ञानतावश  बिना विचार किये  कर्मानुसार जन्म और मृत्यु के चक्र में है , भोग भी रही है , कर्म भी कर रही  है। अज्ञानता  में  अप्रकट संभावनाओं के साथ जन्म लिया  भी है  किन्तु  अज्ञानता / सुप्त /  अथवा मदहोशी  कुछ भी कह लें , बिना स्वयं का उद्देश्य जाने प्रस्थान का समय आ जाता है ......  ( यहाँ  मैं एक बात और स्पष्ट कर दूँ  जब उच्तम  आत्माएं भी जन्म मृत्यु के  चक्र से बाहर नहीं तो हम  तो बिलकुल भी नहीं।  प्रचलित मोक्ष की परिभाषा स्वयं के प्रति गहरा षड्यंत्र  है ,  फिर ज्ञान क्यों ?  मोक्ष क्या ? मोक्ष आनंद से जुड़ा है  जन्म के उद्देश्य से जुड़ा है  और जीवन के  तथाकथित  न होने वाले दुःख की प्रतीति से जुड़ा है , ज्ञानी इस प्रतीति से बाहर है वो मात्र जन्म के उद्देश्य से सम्बद्ध है , अन्य  विचार उसके है ही नहीं , आना जाना  उसकी चिंता करना  अब वो बाहर है ये उसका प्रश्न ही नहीं , संभवतः अब उसके कोई प्रश्न नहीं )

ऊर्जाएं किसी  भी गुणधर्म की हों  पर निरुद्धेशय बिलकुल  नहीं हो सकती क्यूंकि देह-जन्म से या कहें गर्भ के सुनिश्चित जन्म से  ही  प्राप्त इनकी  मौलिक प्रवृत्तियों में ही इनके  जन्म के उद्देश्य और सकारण -तपस्या के आधार छिपे है।  इस भूले  से प्रसंग को ही  जानना समझना अनुभव करना  या कहें पुनर्स्मरण में लेना ही अध्यात्म का मूल उद्देश्य है। 

इस सन्दर्भ में हिरण्यकश्यप  ने कब जन्म लिया था  कितनी बार जन्म लिया था  और वो फिर से अपनी ही प्रवृत्त्यों के संग दोबारा मर गया  इससे आज के सन्दर्भ में क्या और कितना  फर्क पड़ता है ? आईए  समझे ये प्रसंग आध्यात्मिक अर्थ में हमारे कितने काम का है ! 

इस जन्म में हिरण्यकश्यप (प्रहलाद पिता) अपने स्थूल शरीर  को त्याग दिए है , जन्म के साथ अपनी प्रवृत्ति को लिए जीवन जीते रहे।  ये  सुन कर  की राक्षसी प्रवर्ति लिए  कोई मर गया ; अब   कुछ  कुछ  सुन्न   सा  महसूस  होता  है  , न  प्रसन्नता  न  दुःख  , क्यूंकि  जन्म  मृत्यु  , कर्म  भोग  , आना  - जाना  तो  प्रकृति  सदृश  नियमित  है  .. ऊर्जा  प्रस्फुटित  होती  है  फुलझड़ी  सी  , जिनकी  गिनती  करना  असंभव  है .. शरीरों  का  नाम  रख  दिया  ऊर्जा  का  नाम  कैसे  रख्हा  जाये  । मौलिक  प्रवृत्तियाँ  बस  जन्म   ले रही  है  और  मिट  रही  है .. और बीच में तथाकथित जीवन का मध्य-काल अपनी  अपनी वृती- प्रवर्ति -अनुसार  प्रकट  भी  हो  रहा  है , जो कर्म और भोग का  दूसरा ही खेल खेल रहा है  .. और  इसी  नियम  के  अंदर  हम सब  भी  अपनी  मौलिक  प्रवृत्ति  के  साथ  प्रकट  ही  तो  हुए  है  .... सिमित  दृष्टा  /सिमित  कर्ता  / और तदनुसार  तैयार होता  भोक्ता का फलचक्र में घूमते अनवरत हम  मात्र अकारण (बृहत् अर्थ में ) सकारण ( संकुचित अर्थ में ) जन्म लेते  और भोगते नए कर्म का निर्माण करते और मिटते पुनः  जीवन के  लिए उत्सुक  अतृप्त  अज्ञानी से हम।

मानव के द्वारा  समझे गए इस नियम के अनुसार  उर्जाये संख्या  से ज्यादा प्रवृती में बंधी है , फिर  चकमक का  घर्षण और ऊर्जा का प्रस्फुटन संख्या में सिमित हो भी नहीं सकता , जनसँख्या  गणना  मानव निर्मित है  गिनती योग्य है और उनको जन्मदर अनुसार  बांटा भी गया है , बहुत सारे  वर्गीकरण   मानव की द्वित्व में बनती बुद्धि का परिणाम मात्र है , जैसे  वर्ग समुदाय लिंग भेद  आदि आदि।

शायद  आपने  जादू की रोटी  के बारे में सुना हो  सत्तर के दशक में काफी प्रचलित  थी , जिसके पास सभी रोगों का इलाज था , मेरी बुद्धि से  उस संकेत मे  मेरी सभी जन्म मृत्यु सम्बंधित  उलझनों का सुलझाव है।  एक रोटी में क्षमता थी  द्विगुणित करते जाने की , अपने ही गुण रूप को अनगिनत रूप में  प्रकट करने की क्षमता थी ,  प्रवृत्ति  ज्यादा महत्वपूर्ण है , जिस प्रवर्ति  से  प्राकर्तिक मिलान होगा  वो ही प्रवर्त्ती  को जन्म मिलेगा , शरीर मात्र  प्रवृत्तियों का माध्यम है।  प्रवृत्तियाँ  कर्ता और भोक्ता भी  शरीर के ही माध्यम से है।  वस्तुतः  प्रवर्त्तियां  ही जन्म और मृत्यु के चक्र में बंधी है और जन्म से मृत्यु काल में  अपने ही  छिपे मौलिक गुणों से प्रकट होती है।

शरीर की सीमायें है  परन्तु  प्रवर्त्तियां सीधी  ऊर्जा है , शरीर को माध्यम बना  इन्द्रिओं के  सहयोग से  अपने गुणधर्म को प्रकट करती है।  यही कारन है  सशरीर   योद्धा हो या कलाकार अथवा  वैज्ञानिक  अथवा दार्शनिक  ये  भी प्रवृत्तियाँ ही है जो स्वयं को  आकर्षित और प्रेरित करती है और  देह त्याग के बाद  भी ये प्रवृत्तियाँ  उर्जापुंज के रूप में  जागृत और देहधारिओं के लिए  गुणरूप और तपस्या के अनुसार  सहयोगी और शक्तिवान  सिद्ध होती है।  आह्वाहन हो तो  इनके लिए  चयन आसान होता है , आह्वाहन न भी हो  तो चुंबकत्व धर्म से आकर्षण  संभव हो पाता है।  यानि की ज्ञाता को अपना मौलिक गुण धर्म ज्ञात हो अथवा अज्ञानता में हो , बालक अथवा युवा  या वृद्ध   महिला हो या पुरुष , मनुष्य हो या अन्य योनि  में जन्मित , ऊर्जा प्रवत्तियुक्त   ही प्रस्फुटित  होती है।  और ये प्रवर्त्तियां  नैसर्गिक है।  जो मूल रूप से  अपने मूल केंद्र से लेकर उस परम मूल केंद्र से  तथाकथित  चांदी  के तार द्वारा जुडी है। अब ये अलग विषय है  की चांदी ही क्यों ? सूक्ष्म रूप से  इतना ही कहना पर्याप्त होगा  की तरंगो की दुनिया को शब्दों में ढालना  स्वयं में  साहस  भरा है , पर्याप्त  शब्द ही नहीं मिलते  जो उस तत्व को कह पाएं , यहाँ चांदी  का तार कहना भी  सांकेतिक उदाहरण है  क्यूंकि  चाँदी  अपने मूल रूप में  शांति  का श्वेत  किरणों को समाहित  करती है और शांति का प्रतीक है।  इनको समझना  एक अलग अध्याय को खोलना है , और मूल भटक जायेगा।

अर्थात  किसी भी रूप में जागृत अथवा सुप्त  ऊर्जा-पुंज  स्व गुणधर्म से आकर्षित होते है  और जुड़ते है  ये प्राकृतिक वैज्ञानिक स्वगुणधर्म है।

धर्म में इसी परा-अनुभव को रहस्यवाद  के रूप में दिखाया है, और जनसामान्य के मध्य इसी गुण  को  दिव्य  , देव  और राक्षस  योनि के रूप में प्रेषित किया  गया और जनसामान्य  को  मात्र  प्रार्थनाओं पे जीवन जीने का सरलतम उपाय दिया गया मंत्ररूप में समान गुणऊर्जा आह्वाहन को सूक्ष्मतम  सरलतम  कर दिया ।  क्यूंकि वास्तविक धर्मज्ञाता अधिष्ठाता  भी  जानता है  की  हर आत्मा दिव्य  है , हर जन्म दिव्य है और इसी दिव्यता गुण से  परम केंन्द्र  जुड़ा  है , प्रवत्तियां  भी सहयोगी प्रवत्तियां  ही खोजती है , इसी कारन  उच्च सगुणात्मक आत्माओं को  गुणभेद का भय नहीं होता  , क्यूंकि स्वयं इन के विपरीत  प्रवृत्तियाँ भी इनको नहीं चाहती  वे भी समान गुणधर्म की खोज करती है। देहधारी को सहयोग करना  उसके तेज को  बढ़ाने जैसा है। जो संभवतः  देहधारी भी नहीं जानता  और अचानक मिले  इस तेज पुंज के सहयोग से  माया भ्रमित  हो जाते है।

( मानव स्वयं में कल्पनाशील जीव है  अनोखी लम्बी ऊँची से ऊँची उड़ान कल्पना  के द्वारा भरने में सक्षम है  अपने इसी गुण  का उपयोग करके  विज्ञानं स्थापित  हुआ , अध्यात्म की जड़ें गहरी हुई  लौकिक व्यावसायिक जगत में किया  तो काल्पनिक कथाएं सामने आई  जादू टोने  सामने आये , परेशान करते  भूत प्रेत कथा रूप में सामने आये  और इनके साथ ही व्यवसयिक तांत्रिको /पंडितों/ ज्योतिषियों के समुदाय को बढ़ावा भी मिला , वस्तुतः ज्योतिष  ऊर्जा पुंजो  की स्थिति  और चाल गणना पे आधारित  है  और विज्ञानं तंत्र जैसे  प्रेम  और योग अनुष्ठान  के पवित्रतम आधार पे असंसार की और ले जाने वाले  जैसे  गहन  और महान विषय की  सत्यता  पे  संदेह नहीं  , बस  अज्ञानता में  अवांछित से टकराहट की सम्भावना जरुर है , वह सावधानी रखनी ही चाहिए, आपो  गुरु आपो भवः का सूत्र और आदिशिवा  का आह्वाहन  मात्र उपाय है , वे ही ज्ञान मार्ग सुगम कर सकते है )

मूल मौलिक गुण एक ही है जिसको मैं परम केंद्र कहती हूँ  ....... प्रवर्त्तियां  लौहकण  के समान है  जो अपने-अपने मौलिक पोल  की और न सिर्फ आकर्षित हो के  खीँचती  है वरन स्वयं भी खिंचती है।  ये अत्यंत नैसर्गिक  है।   महान  और विशाल अर्थ में  ये समझ में भी आता  है।  क्यूंकि मानव जीवन  और इस धरती पे घटने वाला हर  भाव  सांकेतिक है , आप जीवों के इकठे  समुदाय  में ये  भाव  सहज देख सकते है , समान समुदाय में   देहधारी उर्जाये सुरक्षित और शक्तिशाली महसूस करती है  , ये समुदाय  मुख्यतः योनि जन्म से  , देह से ,   जाति वर्ग से पाये गए है , चूँकि  मनुष्य इन सबमे  बुद्धिमान है   इसलिए उसने इसी समुदाय की दैवी विभाजन की प्रक्रिया को  अपने समाज में  अंदर  गहरे उतरा है जैसे  सर्वप्रथम  योनि लिंग  से , फिर  देह (बल सौष्ठव बुद्धि  ) से  , फिर जाति से , फिर राजनैतिक  बल से  फिर अर्थ बल  से  और पृथ्वी की महानतम  दुर्घटना धर्म से  भी  बांटा है  , अन्य आप स्वयं समझ सकते है, क्यूंकि  धर्म भी फिर से आतंरिक रूप से   बंटे है १- मनुष्य धर्म ,  २- लौकिक धार्मिकता का धर्म , ३- धर्म के अंदर  अनेक वर्गीकरण,  स्वयं के जीवन को सहज करने के लिए  ये संसार वर्गीकरण में सिमटता गया । वर्गीकृत करते करते  प्रवृत्तियों  का  मौलिक  अर्थ ही मिट गया मात्र  मनोवैज्ञानिक अर्थ ही रह गया  विषय में सिमित होके ।  वो मूल रूप में प्रकट ही तभी है जब पुनः वापसी की यात्रा  उस एक केंद्र की जाये  . उस  यात्रा में  प्रवत्तियां स्वयं को मूल स्वरुप में प्रकट करती है।  और कहती है , मैं मात्र अपने गुण धर्म से ही आकर्षित  हूँ अन्य  को स्पर्श भी नहीं करुँगी।  हाँ ! प्रवत्तियों के  गुणधर्म के  अपने प्रभाव से इंकार भी नहीं , पर वे ही  प्रभावित होंगे जो  कमजोर प्रवत्तियों के स्वामी होंगे  ,  बलवान  प्रवृर्ति स्वयं से  आकर्षित है  और स्वगुण ऊर्जा को ही आकर्षित करती है।  तथाकथित देव और दानव  दोनों ही इसमें अपनी समस्त कलाओं समेत  शामिल है।



सारांश :-

इस दृष्टि से देखे  तो केंद्र के लिए भी  देह  कर्म-भोग का  प्रयोजन मात्र है , जहाँ से वो स्वयं भी जन्म लेने को बाध्य है।  क्यूंकि केंद्र की भी अपनी मौलिक प्रवृत्ति  है।  इसी अनुसार  केंद्र की मौलिक प्रवर्ति के ही विभाजन है  देव और दैत्य , जो स्वयं में  प्रवत्ति के उर्जापुंज है।   अब ये ऊर्जा पुंज अपने अपने चुंबकत्व को धारण करते है  और अपने अपने  गुणात्मक चुंबकत्व से आकर्षित  भी , जिनको सामान्य भाषा में  तरंगित जगत का आकर्षण  कहते है ,  इनका  देह  धारण करना  और गुण  प्रस्फुटन   निश्चित है  वैज्ञानिक है ,  देह के तत्व तत्जनित कमजोरिया और आंतरिक बल के द्वार  इन्ही मौलिक प्रवर्त्तियों से ही बाधित है  , जन्म , काल  और  समूह  ( परिवार ) ,  क्षेत्र  स्वयं इन प्रवर्त्तियों  के  आकर्षण निर्धारित करते है ( यहाँ मैं स्पष्ट  कर दूँ  की जन्म से पूर्व और  मृत्यु  के बाद प्रवृत्तियाँ  निहायत  नैसर्गिक और  मौलिक  है  सांसारिक अशुद्धियों का मेल नहीं है  हां  अनियंत्रित मस्तिष्क राजा हो तो अलग ही खेल खेलता है  जो गुणात्मक रूप से  मौलिक  प्रवृत्ति  से प्रेरित होता है क्यूंकि मनुष्य शरीर के  इन्द्रियजनित प्रलोभन और ताकतें  अलग ही है  उनका   अलग मनोवैज्ञानिक पहलू  है  जो इन मौलिक  प्रवृत्ति से  हो के गुजरता है  किन्तु स्वयं में इन्द्रियजनित कर्म उनका  अलग अस्तित्व  है जिनसे व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण भी होता है, सरलतम रूप में  इनको  व्यक्तित्व के बीज रूप में जाना जा सकता है जिनको वृक्ष रूप  व्यक्ति अथवा जीव अपने कर्मो से देते है  और यही वो बिंदु है जहाँ पे समान  ऊर्जा का अदृश्य / दृश्य सहयोग भी मिलता है   )  मौलिक प्रवृत्तियाँ  जन्म से पहले और जन्म के बाद भी अपने  चुम्बिकय -आकर्षण अथवा  तरंग रूप में कार्य करती है  , अपनी इन्ही शक्तियों  के आकर्षण बद्ध  जीव को जीवन-कर्म क्षेत्र में इन्हे अदृश्य शक्तियों के  सहयोग भी मिलते है । इनके जो  देहजीवित-समूह बनते है  जो सृजन और संहार का कार्य करते है।  मौलिक   रूप से  ये मात्र दो गुणात्मक पुंज है , विभाजित अर्थ में  जन्म के सन्दर्भ में  असीमित जन्म की  रक्तबीज  सदृश सम्भावनाये है , जो  गणना रहित है। ऊर्जावान दैव-फुलझड़ी  से कितनी चिंगारियां आएगी और समाप्त हो जाएँगी   अंदाजा लगाना  असंभव है।   किन्तु गुणसूत्र  समझना कठिन नहीं।   प्रवृत्त्यों का मूल गुण समझना दुष्कर नहीं , सब सांकेतिक  है जो  हमारे सामने उदहारण रूप में बिखरे है।  संभवतः जन्म मृत्यु  का मूल गुण इसी से  जुड़ा है।  भोग कर्म पहल चक्र इन्ही प्रवृत्त्यों  से स्वयं बनता है , जो इनके जन्म और अवधि का निर्धारण करता है ,  विशिष्ट आधा जागृत  और आधा सुप्त  गोल-चक्र का निर्माण होता है ,   संभवतः  जागृत काल तपस्या का काल  है , अर्जन  और कर्म का  काल है।  जो इत्र रूप में इनकी देह में स्थित  शक्तियों को न सिर्फ बढ़ाता  है  और मृत्यु पश्चात  जीव के  साथ जाता है।  इसी लिए  नैतिक अर्थ में  समस्त जीवन का महत्त्व और प्रयोजन है  और वो भी मनुष्य जीवन का  महत्त्व तो अत्यधिक है।

अज्ञानतावश  समाज में इन्ही ऊर्जाओं  के विभिन्न  अर्थ प्रचलित है , जो अज्ञानियों के  लिए  चालाक द्वारा शोषण  का कारन  बनते  है  , वास्तविक अर्थ में ये ऊर्जाएं निर्दोष है  प्राकतिक है  और मात्र अपने ही चुंबकत्व से आकर्षित है  फलित है और समान ऊर्जा के  सहयोग में संलग्न होती  है। इस अर्थ में  विचार का एक और कोण सुनिश्चित हो जाता  है ; वो है  दो  मौलिक  ऊर्जाएं ही  मूल रूप से  उद्भव  और आपसी सम्बन्ध का प्रतीक है ,  और यही कारन है की लौकिक सम्बन्ध इनकी विस्तृत परिभाषा पे खरे नहीं उतरते , अगर कोई  खरा उतरता है  तो वो है  समान गुणात्मक ऊर्जा का गठबंधन और आकर्षण और सहयोग ।  ये कहीं भी हो अपने समान सम्बन्धियों को  ढूंढ  ही लेती है , सम्बन्ध भी बनाती है और सहयोग भी करती है।   देह में स्थति  इस ऊर्जा की तपस्या से उसकी शक्तियों को विकसित करने का अवसर भी देती है।   और यहाँ  ओशो का कहा एक वाक्य  और भी गहरा  और स्पष्ट हो जाता है , '  जीवन एक अवसर है और देह एक  प्रयोगशाला है। "

क्रमशः -




4 comments:

  1. * The austerity means not only sit meditate on hills or to become finest yogi Spiritually , each and every creature by knowing or unknowing Born Soul is in moving on the path of austerity . by born innocent and natural qualities . either any filed doesn't matter . lord knows and attached with only born qualities of Soul . ( now in present life this soul is create further karma and collect karma for further ) and here i must want to quote the lord time is not as ours lords clock is much vast and bigger in time frame .. so the birth and rebirth is some times energies decision for manifestation and to support for same magnetism where they find to connect , they can as energies ..

    *While reading above writ-up ; the thought comes up ,deity and devil are two energies further grows in human body through penetrate their born qualities .. it means this is a kind of balance also if strong devil get appear in any part of earth it should be equal powerful deity also takes place , its a balance natural and nature known best .. ( i am talking about frequencies not as noun in body of any )

    * Find as a born tiny energy drop in body-cage , believe on your connection with divine Ocean cos you are drop of that Ocean .

    * Have trust on your journey ! and Trust on Center is essential for soul for Divine reason !!

    thank you for reading

    ReplyDelete
  2. "Each human being is a multiplicity of miracles. Eyes that see thousands of colors, shapes, and forms; ears that hear a bee flying or a thunderclap; a brain that ponders a speck of dust as easily as the entire cosmos; a heart that beats in rhythm with the heartbeat of all beings. When we are tired and feel discouraged by life's daily struggles, we may not notice these miracles, but they are always there.”

    -Thích Nhat Hanh

    ReplyDelete
  3. Raman Maharshi once said that if a person believes in rebirth and believes himself as individual to be reborn, that is the case for him. Buddha also used to say , " As there is no self, there is no transmigration of self, but there are deeds and continued effects of deeds. There are deeds being done, but there is no doer. There is no entity that migrates, no self is transferred from one place to another, but there is a voice due to attachment to body-mind, and the echo of it comes back."

    ReplyDelete
  4. It is commonly understood that people take several births and evolve but this is not completely true. The birth does take place but not of any individual, for the individual is born out of identification and that identification is lost in death. However the tendencies, the essence, the character and the spirit of life is carried over in the new life in the seed form, that may or may not sprout depending on the circumstances in the new life ahead. Once the circumstances are favorable these seeds germinate in the new individual.

    Buddha is believed to have said that there is no soul. Now this concept of Anant sri given by Buddha does not deny consciousness but what it means is that there is no continuity of the individual self but there is continuity in the form of life force.

    And at the same time it is Buddha only who gave the experiments of past life regression to the seekers. Remembering past lives would show a person several lives as different identities and bring them to the innate question that which of these would be their actual identity. The present life is one identity, the past life was a different identity and if twenty lives are known by a person all twenty lives will be different identities. It is not the same person continuing, but it is the same life force that is coming in the form of various persons or various identities.
    This would enable people to know that in various lives the same life force has undergone those various life patterns in the form of different individuals and with each pattern life has become rich and prosperous. But this growth, this evolution is not of the individual; rather it is collective, with the individual just playing his part in the process.

    And once this is clearly understood their identification with their present individuality also becomes loose and withers off. This then makes the person turn towards his being and with that this life becomes a leela, a role to play.

    ReplyDelete