Thursday 2 April 2015

ऊर्जा प्रवृत्तियों की भूमिका

"अखिरी क्षण तक भी होश नहीं आता। गफलत में, बेहोशी में; अपने ही हाथ से आदमी अपने को समाप्त कर लेता है। कितना ही धन कमाओ, कितनी ही पद-प्रतिष्ठा मिले, मौत सभी कुछ साफ कर देती है। मौत सब मिटा देती है, तुम्हारे बनाए सब घर ताश के पत्तों के घर सिद्ध होते हैं। और तुम्हारे द्वार तैराई गई सभी नावें कागज सिद्ध होती हैं। सब डूब जाता है। जिसे यह होश आना शुरू हो गया कि मौत है, उसी के जीवन में धर्म की किरण उतरती है। मौत का स्मरण धर्म की प्राथमिक भूमिका है। अगर मृत्यु न होती तो संसार में धर्म भी न होता। मृत्यु है, इसलिए धर्म की संभावना है। और जब तक तुम मृत्यु को झुठलाओगे तब तक तुम्हारे जीवन में धर्म की किरण नहीं उतरेगी।अगर मौत का पता चल जाए कि आज ही सांझ हो जाने वाली है, तुम्हारे जीवन का सारा अर्थ, तुम्हारे जीवन का सारा प्रयोजन, तुम्हारे जीवन का सारा ढंग और शैली बदल जाएगी। मौत का जरा- सा भी स्मरण तुम्हें वही न रहने देगा जो तुम हो। और तुम जो हो, बिलकुल गलत हो।" 
Osho 
साभार: ओशो वल्र्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली



ओशो का  विचार पढ़ा , बात  बिलकुल  सही है ,  उचित  है ,  परन्तु  कुछ है  जो अव्यक्त है और  जिसने  कुछ दिन पहले ही गहन अनुभूति के पश्चात लिखे गए लेख का स्मरण करा दिया ,  कुछ भी भाव  ऊपर के कथन में है   उसका भी  ऊर्जा  के  गुणात्मक प्रकटीकरण  से सम्बन्ध  है  , गहरा सम्बन्ध है। उस लेख का लिंक  है 


 

यदि आप पुनः पढ़ेंगे  तो  पाएंगे  इस  उपर्युक्त  लेख में भी बार बार  यही कहने की कोशिश थी  की ऊर्जा के मौलिक भेद दो ही है , और उर्जाये गुण  रूप में अपने ही तात्विक आकर्षण में बंधी एक दूसरे से  चुम्बक की तरह आकर्षित है  और सहायक है , जो  अपने मौलिक  रंग के असंख्य तालमेल  के साथ प्रकट होती है और इन अर्थों में जैसे जैसे हम  उनके मूल गुण  की ओर  बढ़ते हुए तपस्या  से  आह्वाहन करते है  वे आकर्षित होती है   और सहयोगी भी  , अपने गुणात्मक रूप में  वे ही हमारे  पूर्वजो के रूप में  स्पष्ट है।  

ओशो का कहना है , मृत्यु  स्मरण है  जीवन का , मृत्यु  स्मरण है  यहाँ किये गए कर्मो का , मृत्यु का जरा सा भी स्मरण  तुम्हे वो ही नहीं रहने देगा  जो आज तुम  विस्मरण  की अवस्था में हो।

पर विचार करने वाली ये बात  है की  आखिर इतने  भिन्न भिन्न  अर्थ एक ही शब्द के हुए कैसे ? किसने किये ? और ये प्रश्न / जिज्ञासा  से मिले उत्तर  फिर वही ले जा के जोड़ते  है  जो की इन सब  मौलिक गुणों का उद्गम स्रोत  है ,  केंद्र  है , और उसमे से निकली दो गुणात्मक उर्जाये आसुरी  और सुरी  ,  इनके मिश्रित  मिश्रण  ही गुणात्मकता  के साथ   देह में  व्याप्त है  और इन्द्रियां  बनती है पहले विचार और पश्चात कर्म के  प्रकट होने का  माध्यम।

किन्तु यहाँ भी तत्वों की देह में कैद मौलिक प्रवृत्ति युक्त  ऊर्जा के ही फल मिलते देखे गए है , मनोवैज्ञानिक  विषय रूप  से यदि  इसको समझना है  तो  बच्चे की जन्मजात-प्रवृत्ति से जाना देखा  जा सकता है ,  एक ही परिवार में  एक साथ इकठी उर्जाये सकारण है  और कही  उनके गुणात्मक  उर्जात्मक सम्बन्ध है  तभी वो एक साथ है और  कार्मिक  सहयोगी  भी ।  इस नाते  यहाँ भी पूर्वजों से सम्बन्ध  स्पष्ट है , पर ये भी संकीर्ण  सम्बन्ध है , क्यूंकि ऊर्जा  व्यापक है , अनंत  है , शक्तिशाली है।

एक ही विषय के  एक ही वाक्य को समूह में  बैठे लोग  भिन्न भिन्न  तरीके से  ग्रहण करते है , उस वाक्य  के शब्द को   न  जाने  कितने विस्तार मिलते  है , निश्चित है  की यहाँ ग्रहणकर्ता  की भूमिका और उसका अपना मौलिक स्वभाव  भी महत्त्व पूर्ण है। आप  अक्सर उन अभिभावकों को  सलाह देते मनोवैज्ञानिकों  की बात को भी  इससे जोड़ सकते है की  बच्चे की मौलिक  प्रवृत्तियों  को उभारने   में  स्कूल के  साथ अभिभावकों  से भी  यही कहते है , की सभी  बालको की  एक नैसर्गिक  प्रतिभा है    सहयोगी बने  तो  बच्चे  अधिक  संतुष्ट  और स्वस्थ जीवन जी सकते है।  और उसी दिशा में  उनका  अधिकतम  निर्विरोध  विकास भी  संभव है।  

इस अर्थ में  एक ही शब्द जिस चेतना के तल पर गिरता  है   उसी तल  पे  ग्राह्यता  के अनुसार  अर्थ   अपना  आकर  ले लेते है   मानो  गीली मिटटी हों  जिस साँचे में ढालो  वे ढल जायेंगे , निश्चित ये साँचा  मन का तल है  बुद्धि का तल है  जो ग्राह्यता  सुनिश्चित  करता है  , भाषा और  शब्द  ताकतवर है  परन्तु  बुद्धि और मन के  जमीनी  आधार पे तो  जल के समान प्रतीत होते है , जिस रंग में मिला दो वैसे ही दिखने लगते है , तो फिर  ये भी सत्य है  की मृत्यु  जैसे परम सत्य से साक्षात्कार के पश्चात भी  अनुभव धरातल पे  भिन्न भिन्न हो जाते है , और कर्म  तो मात्र  संकेत है  जो विशिष्ट  भाव की सुचना देते है।

जरा एक नजर  उन  महान आत्माओं पे  जो मृत्यु योग से  परिचित है , जिन्हे  मृत्यु का भय सताता  नहीं।  अब वे  माया मोह से  अलग है , और अपने अपने कर्म के शीर्ष पे है !  जैसे  संत - साधू  जैसे  विषय ज्ञानी ,  महान आध्यात्मिक योगी  ,   पीठस्थल  पे  तैनात  शंकराचार्य जैसे पद को सँभालते धर्मवीर ,  और  परम वीर और अंततोगत्वा शहीद  की उपाधि से सम्मानित   देश  के लिए  लड़ने को तैयार  मरने और मरने वाले या फिर , सिधान्तो के लिए  लड़ने वाले समाजसेवी जो अपने ही  उठाये गए अन्धविश्वास निर्मूलन जैसे बीड़े के अंतिम  मृत्यु परिणाम से परिचित है  अथवा  अपने  वर्चस्व की स्थापना में  सक्रीय  शहादत को  अपना जीवन  का उद्देश्य बनाने वाले छोटे छोटे  गुटो में  बिखरे  जिनको आम भाषा में लोग  अपराधी कहते है , या फिर  सारे संसार को अपने आतंक से भयभीत करने वाले  लाखों  हत्या की  जिम्मेदारी  अपने सर लेने को तैयार बड़े आतंकी समूह  , ये सभी वे लोग है मृत्यु जो भय से  ऊपर उठ चुके है।  जिनको अंतिम सत्य का  भय छूट चूका है।

यदि  इसी  भाव  को  ध्यानावस्था में  और  भी  बृहत् स्तर  पे देखें  तो ,  धरती के  एक ही टुकड़े पे , दो गुणों  की सर्वव्याप्तता   वैसे ही दिखाई पड़ेगी  जैसे  सूर्य  का प्रकाश  और रात का अंधकार   दोनों का स्वामित्व  धरती की  परिधि के  पे टिका हुआ है  , और दोनों के प्रभाव्  में धरती  मात्र  अपनी धुरी पे घूम रही है , यहाँ  सगुन  का  स्वामी होके रहता  सन्यासी भी है   और  दुर्गुण  भी अपना स्वामी  होक   दुराचारी   रूप में  वास   करता है  , दोनों ही योगी है  दोनों ही अभ्यासी  और पराकर्मी , दोनों ही   मृत्यु जैसे सत्य से  साक्षात्कार कर चुके है , एक  परोपकार के शीर्ष पे बैठा है तो दूसरा  धूर्तता  के  गिरोह का सरगना  बन   बेधड़क  संसार  चला  रहा है। इसी भाव को  और गहराई  , तथा व्यापकता से जाने  तो आप स्वयं देख पाएंगे  , अगर अध्यात्म  शीर्ष पे बिठा सकता है  तो आतंक भी उसी शीर्ष पे बिठाता है  ,  मात्र  ग्राह्यता और भाव  के स्रोत का ही अंतर है  ,  एक  विराग को प्राप्त हुआ  तो संसार के दुःख निवारण  के लिए   अपना जीवन समर्पित कर देता है  ,  और दूसरा  भी  विराग को प्राप्त हो  संसार को  बिना ह्रदय और विचार के नष्ट करने में लग जाता है  . यहां आप पाएंगे  की दोनों ही  अपने अपने स्तर पे   ह्रदय और बुद्धि पे विजय पा चुके है  , किन्तु   कर्म  के भेद  है  और उससे भी  ज्यादा  कर्म से उत्पन्न फल के भेद।   वो ही निर्धारित करते है  है वस्तुतः ग्राह्यता  का भाव   देव पक्ष में है या  राक्षस पक्ष में  , और ऊर्जाओं में   किस  गुण की प्रधानता है।  

यहाँ आप एक और उदहारण से और स्पष्ट देख पाएंगे  कि  एक ही संस्थान में पढ़े  एक ही शिक्षक से  शिक्षा  लिए दो भिन्न व्यक्ति  जो मित्र होते हुए  भी  अलग अलग प्रतिभाओं के  स्वामी होते है क्यूंकि मित्रता के मापदंड  स्वार्थ प्रेरित  होते है जब स्वार्थ पूरा  तो मित्रता  के तल भी बदल जाते है  , या अपवाद स्वरुप  नहीं भी  अगर गुणात्मक अर्थ में उर्जाये  संयुक्त है  तो  सहयोगी भी  और मित्र रह भी सकते है।

इसको पुनर्विचार में लीजिये की  जहां  ऊर्जाएं  गुणात्मक समानता  के साथ आकर्षित होती है  वो ही परिवार बन जाते है , जिनमे उर्जाओ के जन्म का भी कारण है उनका  गर्भ चयन  गुणात्मक आधार पे होता है , मौलिक भाव समानता के बाद भी ये बौद्धिक रुचियों कर्मो और उपलब्धियों में  भिन्नता  में  रहती है। ( मानव समाज में  और ऊर्जाओं में  परिवार की  परिभाषा  जरा अलग है , समाज में खून के  डी न ए का   मिलान होना एक  शरीर से दूसरे  शरीर की उत्पति  परिवार खानदान  आदि आदि  का ये आधार है , किन्तु ऊर्जाओं के लिए मात्र  गुणों का आकर्षण  और एक ही  गुण  का आधार है  जिसकी परिणीति  परिवार के रूप में दिखती है )

अपने अपने गुणों  की प्रधानता अनुसार   ग्राह्यता  है  और ये  दो  मुख्य गुण   तरंग रूप में  व्योम  में  व्याप्त है  , यहाँ तक की   सुदूर  स्थित नक्षत्र  तारामंडल  आदि भी   इन्ही से  आवृत्त  हो के अपना प्रभाव हम तक पहुंचाते है।   और  केंद्र  इनमे  स्वयंभू  स्वभाव में स्थित   संतुलन करता रहता है।

* पहला ये असंभव है  की  दो प्रमुख  ऊर्जाओं  में से किसी भी एक गुणात्मक ऊर्जा को समूल समाप्त किया जा सके  , इनमे संतुलन ही किया जा सकता है , क्यूंकि इनका  दोनों का जन्म स्थान एक ही है।

* दूसरा  अपने इसी संतुलन  गुण धर्म के कारन मनुष्य प्रजाति विशिष्ट है , प्रकति  भी  इसी संतुलन में कार्यरत है  , किन्तु मनुष्य  अगर  सृजन में सहयोगी है तो विध्वंस में भी  उतना ही सहयोगी है।  और अपने इसी स्वभाव के कारण  वो पुनः  देवाधिदेव आदिदेव के  सबसे नजदीक है।

* अध्यात्म , धर्म  तथा अनेक विषय  संतुलन की उपयोगी  स्थति  को ही उत्पन्न करते है ,  यहाँ भी विषयों का उपयोग  प्रवृत्तियाँ  अपनी अपनी गुणात्मकता के अनुसार  करती है ,  जैसे  एक ही   हथियार से  जान ली भी जाती है  और जान बचायी भी जाती  है।   ये  नैसर्गिक गुण  ही है  जो देह को प्रेरित करते है ( वस्तुतः देह निर्दोष है और ऊर्जा को  दंड देना संभव नहीं  , ऊर्जा की प्रेरणा का दंड देह ही पाती है ) , और  फिर वो ही इसको भी  विज्ञान से समझना  रुचिकर आसान है  ,लौह कण  मध्य में रखे है  समूह में   वे कर्म में लिप्त नहीं  हो सकते , किन्तु सम्भवनाये और आकर्षण के बीज  उनमे है चुम्बक के पास आते  ही  गुणात्मक  आकर्षण की अनुभूति  होते ही लौह कण   अपने अपने  केंद्र की ओर भागते है ।   फिर उनके लिए  बौद्धिक   निर्देश कार्य नहीं करते , उनका अपना नैसर्गिक स्वभाव है।

यहां फिर मैं दोहराऊंगी  ,  यदि  सगुणात्मक ऊर्जा  का आशीष  हो तो  आभार के साथ  उस ऊर्जा को सहयोग के लिए आह्वाहन करें ,  वो ऊर्जा ही आपको आपके  गुणधर्मी  चेतना  पूर्वज से  भेंट करवाएगी , और   समर्पण आभार  की प्रार्थना  गुणात्मक  मिश्रण को  धीरे धीरे  अपनी इक्षाशक्ति की  तपस्या से   अपनी ऊर्जा को  मध्य में संतुलित  करना ही  धर्म है।   देवत्व  की ओर कार्मिक  झुकाव   अथवा  आसुरी  प्रवृत्ति की ओर झुकाव  दोनों ही ऊर्जा के  असंतुलन   को  दर्शाते है।   शिवा की  स्थति  मध्य में है।  और  महायोगी का योग भी यही है।


अब  इस  वाक्य को एक बार  फिर से पढ़िए पुरे भाव के साथ " प्रार्थनाएं ही एकमात्र  सहारा है " जो प्राप्त इतिहास  अनुसार  हमारे ऋषियों  से चला आ रहा है  और  नीचे  पीढ़ी  उतरने के क्रम में  अनेक  आध्यात्मिक  व्यक्तियों  द्वारा  पुनः पुनः  कहा गया।  ये प्रार्थनाएं  सहयोगी ऊर्जा का आह्वाहन ही है।  किन्तु  अन्धविश्वास को न बढ़ाये , पुजारियों से  या किस   नियम के तहत  प्राथनाएं  विशेष फल  नहीं देती  वरन  अपनी भाव यात्रा  से और संचित प्रारब्ध से  फल मिलते है।


ओम प्रणाम





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