Monday 2 March 2015

एक सूफी दरवेश-कथा - Osho


एक दरवेश
प्राचीनकाल में एक दरवेश होता था। जिसके अंतर की किरण दरवेश का अभिनंदन किया, कहा—कोई वरदान मांग लीजिए। आप जो चाहेंगे, वह मिलेगा।
दरवेश ने कहा—मांगने के लिए कुछ है नहीं, कुछ भी तो नहीं चाहिए। आपकी कृपा है, जो आप आए।
देवताओं ने कहा—अब आए है, तो कुछ देना ही होगा। आप बोलिए कुछ भी बोलिए।
दरवेश—मन में कुछ आता नहीं, मांगने के लिए, यही कह सकता हूं कि जो आप देंगे वही ले लुंगा।
देवताओं ने कहा—हम आपको यह वरदान देते है कि आप जिस व्‍यक्‍ति को स्‍पर्श करेंगे, वह कितना ही बीमार हो, राज़ी हो जाएगा। यहां तक कि मुर्दा भी हो तो जीवित हो जाएगा। उसमें प्राण आ जाएंगे।
दरवेश ने कहा—इससे तो मेरे लिए बहुत मुश्‍किल हो जायेगी। मुर्दा तो जी जाएंगा। लेकिन मैं मर जाऊँगा। मुझे ऐसा करते-करते यह लगने लग जायेगा की मैं कर रहा हूं। मैं का अहंकार आते ही मैं मर जाऊँगा।
देवताओं ने कुछ सोचकर कहा—अच्‍छा,फिर ऐसा होगा कि जिस पर भी आप की छाया पड़ेगी, आपकी परछाई, वहीं व्‍यक्‍ति राज़ी हो जायेगा, उसका दुःख-रोग कट जाएगा…..’
दरवेश ने फिर कहा—तो ऐसा कीजिए कि मेरी गर्दन हमेशा सीधी बनी रहे। वह पलट कर पीछे की और न देख सके।
देवताओं ने कहा—अच्‍छी बात है, ऐसा ही होगा।
कहते है कि वह दरवेश जहां से गुजर जाता, सूखे पेड़ हरे हो जाते, फुल खिलनें लगते। बीमार लोगों का दुःख-दर्द रोग दूर हो जाता। जहां कहीं सूखा पडा होता, वहीं पानी बरसने लगता किसी कुएं में नमकीन पानी निकलता होता, तो वह मीठा हो जाता…..।
और बरसों बाद जब दरवेश अपनी काया को छोड़ने लगा था। उसका अंतिम समय था कि देवता लोग आए, पूछने लगे—हमने जो वरदान दिया था। वह पूरा हुआ की नहीं?
मैं कह नहीं सकता, क्‍योंकि मैं पीछे मूड कर देख ही नहीं सकता। और न मैंने देखने की कोशिश की। इसलिए मैं नहीं जानता। की क्‍या हुआ आपके वरदान का। मैं तो तब से सीधा अपनी राह चलता रहा…..
ओशो :- सत्य यदि शब्द से पाया जा सके, तो भाषाशास्त्री धर्मशास्त्री हो जाए। सत्य तक अगर शब्द की सीढ़ी पहुंचती हो, तो व्याकरण काफी है, योग और ध्यान की कोई भी जरूरत नहीं है; क्योंकि तब शुद्ध भाषा ही मार्ग होगी। लेकिन सत्य का शब्द से कोई संबंध नहीं है, न भाषा से कोई नाता है। व्याकरण से तो कोई दूर का...दूर का संबंध भी नहीं हो सकता। लेकिन अक्सर यह हुआ है कि धर्म, भाषा में कैद हो गया। सत्य, सिद्धांत की कारागृह में बंद हो गया। और लोगों ने समझा कि शास्त्र को पढ़ लिया तो जो जानने योग्य था, वह जान लिया। लोगों ने सिद्धांतों की समझ को सिद्धावस्था समझ लिया।
इस भ्रांति के पीछे कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि सत्य को पाना अति कठिन है; शब्दों को समझ लेना बहुत सरल है। कोई भी समझ ले सकता है। सत्य की व्याकरण तो बड़ी कठिन है, शब्द की व्याकरण बड़ी सुगम है। सत्य तक जाना हो, तो जीवन का व्याकरण बदलना पड़े। शब्दों को समझ लेने के लिए भाषा-विज्ञान पर्याप्त है। भाषा की शिक्षा दी जा सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं होती। भाषा दूसरा भी समझा सकता है, धर्म को दूसरे के द्वारा समझाए जाने का कोई उपाय नहीं है।
धर्म तो गूंगे का गुड़ है; जिसने स्वाद लिया, वह गूंगा हो गया। उसे बोलना मुश्किल है, बताना मुश्किल है। उस संबंध में कुछ भी कहने की सुगमता नहीं है।
"जो कहे, समझ लेना उसने जाना नहीं है।"

बुद्ध भी बोलते हैं, लाओत्से भी बोलते हैं, कृष्ण भी बोलते हैं। लेकिन जो भी वे बोलते हैं, वह धर्म नहीं है। वह धर्म तक पहुंचने का सिर्फ इशारा मात्र है, इंगित मात्र है। वे मील के पत्थर हैं, जिन पर तीर बना होता है। लेकिन मील के पत्थर को कोई मंदिर समझकर बैठ जाए, तो पागल हो जाएगा। पर बहुत लोग बैठते हैं। गीता के पास जो बैठे हैं, वे मील के पत्थर के पास बैठे हैं। कुरान पर जो सिर टेके बैठे हैं, मील के पत्थर के पास बैठे हैं। उन्होंने मील के पत्थर पर लगे तीर को मंदिर समझ लिया है, फिर वे वहीं रुक गए हैं।

सब शास्त्र इंगित करते हैं: शून्य की तरफ। लेकिन, शून्य का तो कोई भी शास्त्र नहीं हो सकता है। सभी शास्त्र कहते हैं: "मौन हो जाओ', लेकिन मौन को प्रकट करनेवाला तो कोई शब्द नहीं हो सकता।

इस बात को ठीक से समझ लें, तो यह दरवेश-कथा समझ में आ जाए।

दूसरी बात खयाल में ले लेनी जरूरी है: क्या तुम कहते हो, वह सवाल नहीं है; क्या तुम्हारा भाव है, यह सवाल है।भाव मूल्यवान है, तो वर्णमाला भी मंत्र बन जाती है। और भाव भीतर न हो तो महामंत्र भी राख हैं, उनमें कोई जीवन नहीं है। और धर्म का संबंध "क्या तुम सोचते हो'--इससे नहीं; "क्या तुम हो, क्या तुम्हारी भावना है, क्या तुम्हारा हृदय है'--इससे है।
तुम्हारे मस्तिष्क में कितने विचार हैं, कितना तर्क है, कितनी समझ है, इसका कोई मूल्य धर्म के बाजार में नहीं है। तुम्हारे हृदय में कितनी प्यास है, कितनी प्रार्थना है, कितना प्रेम है...?
परमात्मा को खरीदने जो चला हो, वह हृदय की पूंजी पर भरोसा रखे। बुद्धि की पूंजी वहां नहीं चलती। वे सिक्के वहां काम नहीं आते। वहां पंडित पिछड़ जाते हैं। वहां कभी-कभी हृदयपूर्वक अज्ञानी भी प्रवेश कर जाता है। 

Sahaj Samadhi Bhali - 11

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