Wednesday 21 January 2015

अपने रंगो से हमेशा जुड़े रहिये





सौ बातों की एक बात :-

दोस्तों ! 

धर्म , आचरण , शिक्षा , विद्वता , पांडित्य ( ज्ञान दक्षता ) आंतरिक प्रेम भाव , मानसिक और शारीरिक स्वस्थ्य ,बाह्य प्रेम सम्बन्ध , रिश्ते , संतान से सम्बन्ध , या बुजुर्गों से आदर सद्भाव , समाज का चलन , सब संभल जायेगा। यदि आपका आंतरिक सम्बन्ध स्वयं से सुलझा हुआ है। 

इनको चाहे सात रंगो के स्वभाव प्रभाव से समझे या जन्मजात गुण धर्म से या फिर निजी स्वभावगत रुचियों और अभिरुचियों से बात एक ही है , की अपने अंतर्मन से जुड़ना , अपने निजी स्वाभाव से जुड़े रहना , अपने अंदर सातों रंगो की उपस्थ्ति को पहचानना की कौन कौन सा रंग मुखर है , उन रंगो को सशक्त रखना और साथ ही सभी रंगो को यथावत सहजता से जीना। रंग सीधा भावों से जुड़ते है। तो सरलतम शब्दों में अपने भावों को पहचान उनसे जुड़े रहना और उनका यथावत पालन पोषण करना , आंतरिक स्वस्थ्य का मूल मन्त्र है।

जब आप अपने आंतरिक रंग से जुड़ते है तो उसकी संतुष्टि आपके व्यक्तिव में स्पष्ट होती है , आपकी आंतरिक संतुष्टि आपके सम्बन्धो पे भी स्वस्थ प्रभाव देती है। सब संबंध आंतरिक रूप से एक तार से वैसे ही जुड़े है जैसे समूची पृथ्वी की मनुष्यता एक साथ समस्त पृथ्वी की ऊर्जा से जुडी है . और पृथ्वी की ऊर्जा तारागण के प्रभामंडल से और प्रभामंडल का अपना चुम्बकत्व है जो अपने ऊर्जा स्रोत से जुड़ा है। अब आप पुनः सोचिये की सार्वभौम सुखाय के लिए आपका अपने अंतर्मन से जुड़ना कितना आवश्यक है। 

ये आपका अंतर्मन ही है , जो अनुकूल अथवा विपरीत परिस्थितियों में आपका प्रिय मित्र होता है , ये अंतर्मन ही सम्बल है शरीर के लिए भी और आत्मा के लिए भी , रंगो से तात्पर्य स्वभावगत रुचियों से भी है , जो आंतरिक रंगो के बहाव का सहज आईना बनती है , जैसे कोई बच्चा जन्म से कलाकार है तो कोई बच्चा तार्किक , तो किसी में लेखक बनने की चिंगारी छिपी है , तो कोई बचपन से ही शासन प्रवर्ति का मालिक होता है , ऐसे ही अलग अलग गुण धर्म हर बालक में है जिनको उनके माता पिता द्वारा समझा जाता है , फिर एक उम्र आने पे यही बालक स्वयं अपने गुणों से परिचित हो उनमे निखार लाता है। फिर यही गुण उसकी स्वयं की आंतरिक शक्ति बन के भी उभरते है। ऐसा होना चाहिए। ये एक आदर्श स्थति है। पर हमेशा ऐसी ही आदर्श स्थति हो, जरुरी नहीं। रिश्ते जो खूनी है वो जन्म से नियत होते है , जिनका चुनाव नहीं होता ऐसी सम्बन्ध सहज स्वीकृति के अंतर्गत आते है .... ऐसी सूरत में जब बालक का यदि  बुजुर्गों के माध्यम से नहीं तो अक्सर वयस्क होने पर स्वयं ही  स्वयं से सामना होता है और आत्मिक रुचियों का दर्शन होता है जो समय समय पे स्वयं उसका सम्बल बनती है , ऐसे  में स्व- रुचियों और ऐसे  स्व - रंगो को  स्वयं ही प्रौढ़ता से पहचानने की और सवारने की आवश्यकता है। उनसे लड़ना नहीं है न ही उनके विपरीत जाना है। क्यूंकि ये जन्म से प्राप्त  है और जो भी जन्म से प्राप्त है प्रकर्ति की देन है उपहार है , जो जीवन भर तरंगो के रूप में हमेशा साथ रहते है। बिलकुल जैसे शरीर शरीर के अंग उपहार है वैसे ही आँतरिक तरंगे भी उपहार है। 


इसलिए अपने रंगो से हमेशा जुड़े रहिये , जो है अपनी रुचियों को प्रेम कीजिये। और यही तो आपको एक विशेष व्यक्तित्व भी प्रदान करती है, आप और आप जैसे ही हर व्यक्ति को विशेष व्यक्तित्व का भाव ऊर्जा इन्ही से तो मिलती है , जो आपको सामान्य से विशिष्ट बनती है। और इसी सन्दर्भ में हर जीव अनोखा है , विशिष्ट है , प्रकति की अनुपम कृति है। हर देह तो बहुत बड़ी बात है , हर पौधा उसकी अपनी पत्ती उसके अपने वृक्ष पे लगने वाला एक एक फल और उसके अंदर भी बैठे बीज , सभी का अलग अलग विस्तार है , एक एक कण अलग है उसका अपना अलग कार्मिक चक्र है। इन कणो के संगठन के परिणाम स्वरुप आकर और प्रकार गुण धर्म सब कुछ बीज में समाहित है। ठीक इसी नियम के अंतर्गत एक माता पिता की कई संताने आने अलग अलग कार्मिक घेरे में घिरी होती है। सिवाय माता पिता के और स्वभावगत मौलिक गुणधर्म के कुछ भी एक ही परिवार में एक दूसरे से मेल नहीं खाता और इनके भी बच्चे इसी नियम धर्म में अलग अलग ही है। उर्जाये मात्र संगठित होती है , प्रकटीकरण के लिए देह को माध्यम बनाती है। उत्पन्न जीव के इसी मौलिक धर्म को समझना है और व्यवहार में लाना है। प्राकर्तिक भाव मौलिक है , शक्तिशाली है , प्रभावी है और इतना गहरा की शरीर के साथ ही समाप्त होता है। 

आभार ऊर्जा पुंज प्रभु का और तात्विक प्रकर्ति का जिसका अद्भुत संयोग मनुष्य देह में आप है।

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