Thursday 12 December 2013

तेरे मेरे हिस्से के सूरज : सच का आसमान - Note

ये  संसार इतना  अद्भुत  और  अचरज  से  भरा  है  , कि  इसको  जिधर  से  निहारो  सच  ही  जान  पड़ता  है  .. इसीलिए  , पक्ष और विपक्ष में  समुदाय  बन  जाते  है  , और  सभी  अपने अपने  सच को सच  मान  के कह भी   रहे  है  सिर्फ कह ही नहीं  जबर्दस्त तर्क भी कर रहे है , सभी के  " अपने  अपने  सच  . " 


समर्थ   वो  है  , जो  इन  सब  सच  के  ऊपर  तीसरे  सच  को  उसी  प्रकार  देख  सके  ,
जैसे  थाली  में  संसार  और  माया  का  खेल
या फिर  
शिव  के  तीसरे  नेत्र  जैसा  दृष्टिकोण . 


वो  ही  तर्क  से  पार  उतर  सकता  है  और  कुछ  ऐसा  महसूस  कर  सकता  है  , जिसको  अध्यात्म  कहा  जाता है  


देश  देशों  के सच ,राजनीती के सच ,   धर्म के सच , सुख के सच ,  दुःख के सच , रिश्तों के सच , दुश्मनियों के सच ,  तेरे तर्कों का  सच , मेरे तर्कों का  सच , मीरा के सच ,  कबीर के सच , सब सच ही तो है , 

तेरे और मेरे    डूबते और  उगते सूरज की तरह ,  पर एक सच वो भी है  जिसको कोई नकार नहीं सकता , और जहाँ  पर  सब सच मिल जाते है , एक हो जाते है ।  

एक बार जरा उस सूरज से भी तो पूछ ले , वो किसका सच है ? उसका सच क्या है ? वो चंद्रमा...  उसका सच क्या है ? वो किसका सच है ?  ये पृकृति  किसका सच है और उसका सच क्या है ? 

एक भाग उजाला और एक भाग अँधेरा , संसार  की दृष्टि  कितनी छोटी हो सकती है , एक जगह रात और दूसरी जगह दिन   ……   पर  सूरज अपनी धुरी का सच है , और चंद्रमा अपनी धुरी का।  और संसार में रह रहे  आदमी को तो  सांसारिक दृष्टि से उसी एक  घर में रह कमरे की बंद  दरवाजे  की एक दीवाल के उस पार  भी नहीं दिखता  तो फिर हजारो मील दूर जमीन के उस पार की रौशनी को कैसे देखें !   जबकि आज   इस वख्त उसकी जमीन पे अँधेरा है।  


ठीक इसी तरह  स्थिति_परिस्थिति को पृथ्वी की तरह घुमा दो  (दिमाग में )  तो सच का आईना भी बदल जाता  है। 


किसी ने गांधी को महात्मा बना दिया राष्ट्रपिता बना दिया , तो दूजे ने उनका खून करवा दिया।  एक पक्ष  आतंकवाद से पीड़ित है  तो ऐसे भी लोग है  जो आतंकवाद को पनाह देते है , सबके अपने अपने सच। 

किस ने ओशो को भगवान बना दिया तो दूजे ने उनको जेल भिजवा दिया , एक ही इंसान ;  पर देखने समझने  मानने  और जानने वालों  के   सच अलग अलग।  


इसी में  तर्क  और भेद पैदा  हो  जाते  है , बुध्ही ही तो है ! 


अध्यात्म इन सबके ऊपर देखने कि चेष्टा है ,  ये चेष्टा  जो सम्पूर्ण सिर्फ संसार  को नहीं  ब्रह्माण्ड को एक फल के रूप में देखती है  . और जिनकी दृष्टि इतनी विकसित हो जाती है  वो समझ पाते है कि छोटे छोटे  वार्तालाप  कितने सहज और तर्क रहित होने चाहिए  , छोटी छोटी खुशिया , जीवन जीने कि वास्तविक कला।  संक्षेप में जीवन को उत्सव कैसे बनाया जाए। 

फिर  सहज ही  बड़े बड़े  भेद भी  सुलझ  जाते है।  

यही भेद  अध्यात्म में भी सहज दिखायी पड़ता है , कोई किसी को गुरु  मान लेता है , ह्रदय से , तो दूजा  अपने को गुरु  के रूप में स्थापित कर संस्था बना लेता है। . तीसरा   उदाहरण ये भी है कि गुरु के न चाहते हुए शिष्य मिलकर  गुरु को  सिंघासन पे बैठा देते है।  

अब  देखिये , भक्त और भगवान्  का नर्तन , नर और नारायण का नर्तन और तुरंत ही एक और नर्तन शुरू हो जाता है  वो है विपरीत विचारधारा  का।  यही मायाजाल  का  नियम है , कि बुध्ही  उसके आदेश पे अपना  नृत्य शुरू करदेती है।   


बड़ा महीन खेल है , तेरे मेरे सूरज का। 

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