Thursday 12 December 2013

माया - Note

माया   छलना  है  , सुंदर  है  आकर्षक है  लुभावनी   है मनमोहनी है  ,
कितने ही नाम है , शायद  इसीलिए  परम ज्ञानी  पूर्व  धर्म के अधिष्ठाता  पुरुष  मित्रों  ने  इस माया    में   एक  स्त्री  को  देखा  है क्यूंकि उनके लिए स्त्री की कुछ  ऐसी ही आकृति  उभरी होगी ,  उनका  ज्ञान  और तपस्या  स्त्री  में उलझ गयी होगी  और  कल्पना   में  जहाँ  जहाँ  छल पाया  भ्रम पाया   है  वहाँ  वहाँ  माया देवी   दिखायी  देती  है स्त्री  रूप  में  ,उदाहरण के लिए  श्री  विष्णु  की कल्पना   पुरुष  रूप  में  कि गयी है  जब  वो  संसार  को  पालते  है  , और  स्त्री  रूप  में  जब  वो   किसी  को   माया  से  भ्रमित करते  है , जब वो अवतार लेते है  उनके अलग चित्र  सामने आते है ।

स्त्री  माता रूपा  है इसलिए परिवार को भाव से  पालती है , माँ के भोजन में स्वाद है ऐसा  भावपूर्ण व्यक्ति कहते है सम्बन्धो के  प्रेम में रस है  ऐसा प्रेमी जन कहते है।   प्रकृति  भी जन्म देती है और पालती है इसलिए  वो भी  माता के रूप में जानी जाती है।  पर प्रकृति का  रौद्र  भी है वह उसका जो संहार रूप शिव  है  वो रौद्र है पुरुष रूप है ।  पालन करता विष्णु रूप पुरुष है।   जननी रूप स्त्री है , धन  को स्त्री कहा गया , चंचल है।  प्रेमिका को माया  कहा गया , पथ से भटकाने वाली लक्ष्मी रूपा   माना गया। पथ पे लाने वाली सरस्वती  को भी स्त्री रूप ही  दिया  गया।  

"ये  सब प्रतीक है  कमजोरिया है  इंसानी भावो की  जिनको चित्र और शब्द दिए गए । " 

हर जगह पौरुष  के  लिए पुरुष  और माया के लिए स्त्री को  ही दिखाया गया है .


( मित्रों  ! चित्र और शब्द  भाव और भाषा के  प्रतीक  से  ऊपर  कुछ   नहीं  , पर   इशारे  के  लिए  मानव के लिए  चित्र  से   बेहतर  कोई  उपाय भी  नहीं , मजबूरी है  )  स्त्री भावपूर्ण भी है  इसलिए माता के रूप में भी  स्त्री है , स्त्री प्रेम है , स्त्री  माया है , स्त्री प्रकृति है। स्त्री कमजोरी है , स्त्री ताकत है।  


कल्पनाये जिन्होंने समाज को दिशा दी , व्यवस्था दी , आस्था दी ,पर  पागलपन नहीं  दिया पागलपन  हमारा है  हमारी अपनी इंसानी उपज है ।  

एक इंसान ज्ञानी है , कर्मठ है , नेता है , अभिनेता है , गुरु है , व्यापारी है ,  ये  उसकी भूमिका है , भूमिका  और उसका स्वयं का आत्मरूप  होना ; दोनों साथ साथ है ,  जैसे  एक मंच पे  डांस  करना कलाकार की भूमिका है पर  जो  नाच रहा है  वो इंसान है , और जो उस इंसान के अंदर प्रेरित कर रहा है  वो  दिव्य है।   पर जन्म के साथ ही  वो इंसान  है और म्रत्यु तक इंसान ही रहेगा।  

इस  पूरे   भाव  को  इस  सुंदर   "माया " के   दूसरे  नजरिये  से  भी  मित्र  देखें   (ध्यान  रहे   मित्रों  सब कोई भी अगर विचार है , कोई  भी  तरंग  है  तो  माया  ही  है   ये  भी  और  वो   भी , माया से परे कुछ नहीं , इसी लिए कहा गया है कि माया से परे भगवान् भी नहीं , क्यूंकि वो भी  पैदावार इंसानी ही है  ) 


" माया  अपना  नर्तन  कर  रही  है  " प्रभु  मंद _मंद   मुस्करा  रहे  है  , और  एक  कोल्हू  जैसा  काल  चक्र  चल  रहा  है  जिसमे   हम  सब  घूम  रहे  है  ."

(वस्तुतः ये उपर्युक्त  भाव भी किसी  दिव्य चित्र  की  भाँती दिव्य ही है , क्यूंकि ऐसा कुछ है नहीं ;  पर  इस से  बेहतर  भाव भी  नहीं जिसको शब्दो में  और फिर उन शब्दो को चित्रों में ढाला जाए )

आदि शिवा  और शक्ति  को प्रथम एक ईश्वर के रूप में  प्रस्थापित किया गया , जो स्त्री के गुण और पुरुष के  पौरुष से ओतप्रोत है अर्धनारीश्वर कि कल्पना की गयी जो परम शक्तिशाली है।


सबसे सुंदर  सोलह कलाओं ( सम्पूर्ण ईश्वरत्व  )  से सुशोभित  श्रीकृष्ण  माने गए ,  और  उनके  सामानांतर  जो स्त्री  को स्थान मिला वो राधा  जी  मानी गयी।  एक दूसरे के पूरक , कर्म में और भाव में  दोनों में  एक सिक्के के दो पहलु, राधा कृष्णा ।

मंतव्य  था कि ' श्रध्हा पूर्ण  फलित होती है जब भक्त भगवान् रूप  ही हो जाता है। '

राधाकृष्ण जब किसी ह्रदय में  , व्यवहार में समां जाते है तब भक्ति को  आश्रय मिल जाता है और भक्त को मुक्ति।

इसी भाव का प्रतीक_छाया इन चित्रो से समझी  जा सकती है।


बस  इसके  अतिरिक्त   और  कुछ  नहीं  है  .. 


इस  माया  से  कोई  नहीं  बचा  , न  ज्ञानी  न  ध्यानी  , न  नेता  , न  अभिनेता  ... (ज्ञानी अपने   ज्ञान  में  डूबा  है  तो  माया  है  / ज्ञान  के  बाहर  फिसल  गया  तो  भी  माया ही है  , ध्यानी  ध्यान  में  है  तो  माया है , ध्यान  से  फिसल  गया  तो  भी  माया  ) फिर  दोष  और  गलती  का  सवाल  ही  नहीं  . 

फिर  कौन  किस की   सुने  , जब  धर्म  अधर्म  सब  माया  में  ही  डूबे  है।   हाँ ,   इस माया को जीने के लिए  माया ने व्यवस्था बनायीं है , जो  अपने में ताउम्र जीवन को उलझा  के रखती है।  

यदि  हम  थोड़ी  गुंजाईश  , इंसान  को  इंसान  की  तरह  दे  , तो  सारी  शिकायत  खुद  ब्  खुद  दूर हो     जायेगी  . फिर  वो  कोई भी  हो  , स्वयं कृष्ण  से लेकर  बुधः  और इसी श्रृंखला में  ओशो रजनीश  या फिर क़तर में लगे अन्य  जैसे   भी  माया  के  इसी खेल से  प्रताड़ित  हैं ,  ज़ो जो इंसान इंसानो की  पकड़ में आये  लोगो  ने  भगवान्  बना  डाला , छलक रही  श्रध्धा का घड़ा  जो लुटाना था पर  फिर  भी  थे तो  वो  इंसान  ही। आज भी यही क्रिया दोहराए जा रहे है , नित नए भगवान् बनाये जा रहे है।  

गौर से समझे  तो पाएंगे इस धर्म, धर्मजनित  संस्कार  और जीवन के  महीन बुनावट का रहस्य।

" अनिश्चितताओं के और अनहोनियों के और अज्ञानता  के  भय <> से उपजी <>  श्रध्हा <> से उपजा विश्वास भी हमारी माया देवी की ही खेती की फसल  है "   

उस से उपजी आकृतियां , आकृतियों और भावो  के सम्मिलन से उपजे  अनुष्ठान ,  उन अनुष्ठानो को  रूप  या  संकलन  मिला शास्त्रो का , फिर शास्त्रो के ज्ञाता हुए विद्वान , उनके  भी अनुसरण_करता हुए  शिष्य  और गुरु शिष्य कि वो परंपरा आज भी  देखी जा सकती है .

इस परंपरा में आज भी लोग उलझे हुए सही और गलत को अपनी अपनी  छन्नी  से छान रहे है और महामाया  अपना नर्तन करे ही जा रही है  . 

कभी इक्छा से तो कभी परिस्थिति के फंदे में  
फंस गए वो अज्ञानी , जो नहीं फंसे वो ज्ञानी 
माया महा ठगनी  हम  जानी ,
तिरगुन फांस लिए  कर डोले  बोले माधुरि बानी "

धर्म का काम  भाव देना था वो उसने बखूबी  किया , किसी को कृष्ण राधा  में भाव दिखा और प्रेम में जीवन मिला ....  तो किसी को शिवा शक्ति  में .....  कोई रामायण कि राम सीता  की  सामाजिक धार्मिक व्यवस्था  का कायल हो गया ,  किसी को  शक्ति  स्त्री  दुर्गा  रूप में भाव मिला  तो किसी को  लक्ष्मी  माताके सौंदर्य  में   तो कोई सरस्वती  यानि ज्ञान की देवी को  अपने भाव लुटा बैठा।


पर ऐसा भी नहीं कि इतना जान जाने के बाद वयक्ति  असंस्कारी हो जाये या फिर  मतिभ्रष्ट हो जाये , फिर तो  धर्म का कार्य अधूरा हो जायेगा , हजारो वर्षो पहले  जो सामाजिक व्यवस्था का  ताना बाना बुना गया था जो जीवन की  व्यवस्था  बनायीं गयी वो  घायल हो जायेगी ,नैतिकता का अपना महत्त्व है  वर्ना मानव पशु से ऊपर  कार्य नहीं कर सकेंगे , बहते हुए मानव  काल चक्र में मानवीय  जीवन के सिधान्तो का अपना मूल्य  है , ज्ञान के साथ अज्ञानता का अपना मित्रभाव है । 

यही भक्ति भाव है यही भक्त की श्रध्हा है  ; गुरु पे आयी तो गुरु भक्ति , ईश्वर पे आयी तो  ईश्वर   भक्ति , पत्नी पे आयी तो पत्नी भक्ति  कही भी आ सकती है भक्ति तो सारे तर्क  प्रश्नो से और उत्तर से बाहर है । 

परम सत्य  को  ह्रदय में बिठा के  माया के नर्तन  को समझते हुए  जीवन जीना ही तो जीने की कला है -  " माया देवी हम तुमको पहचान चुके है , नर्तन तुम करो ये तुम्हारा काम है , पर अब हम भी सिध्ह योगी है , विचलित न होंगे !! "


मित्रों !! आपको  मेरे कहने का  कुछ मर्म समझ आया ! या फिर कुछ और चित्र  या शब्द  या फिर पुस्तक  / ग्रन्थ  जरुरी है ? 

ॐ प्रणाम 

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