Saturday 21 December 2013

आध्यात्म का एक अति विशिष्ट रूप : भाव_योग - Note

आध्यात्म एक ऊर्जा एक शक्ति एक भाव मध्य में संतुलन का और इस बे रोकटोक भागते हुए दिमाग (विचार ) और ह्रदय (भाव ) की गति पे ही विराम लगाने की प्रक्रिया का नाम  है  ...........

अच्छा और बुरा  , दो  विरोधी  से  लगते  शब्द  जान  पड़ते  है  ... जैसे  खूबसूरत  और  बदसूरत  ... ये  भी  दो  विरोधी  से  लगते शब्द है .... जबकि है एक ही  धागे के दो अति  सिरे ...........

कब तक !
जब तक  हम  इन  धागे  रुपी  शब्दो  के  इस  ओर  या  फिर  उस  छोर  पे   मानसिक  रूप  से  खड़े  है . तभी  तक इनका  प्रभाव और महत्त्व  है  . जैसे सातो रंगो   में एक रंग का एक अति_रंग सफ़ेद  और दूसरा अति_रंग काला।  

जिस क्षण  मन  इन दोनों  की  अत्तियों बीच  में  स्थिर  हो  गया  , ये  विपरीत  शब्द  भी  जादू  जैसे  गायब  हो  जाते  है  .. 

ये तो  आप  सभी  भी जानते  ओ  समझते  है ; कोई  नयी  बात  नहीं  ..  नयी बात है स्वयम का  इन अत्तीयों के मध्य सहज स्थिर हो जाना।   

फिर  खुद  को  मूर्ख  ही  समझा  जा  सकता  है  .. हा  हा  हा और  कोई  शब्द  बचता  ही  नहीं  , इस  तन  और  मन  को  सजाने सवारने  के  लिए ।

ये  व्यर्थ  की  भागम  भाग  ही  तो  इंसान  को  थका  के  कुछ  और सोचने  पे  मजबूर  करती  है  , और  हम अध्यात्म के   पहले पायदान पे खड़े हो जाते है।  

यहाँ  एक  और  चूक  हो  सकती  है  (अक्सर  हो  भी  जाती  है  ) की  इंसान  इसी  भागमभाग  में  अध्यात्म  को  भी  जोड़ लेते  है  ...या फिर कहे  की  मन  का  (मन जिसमे भाव और विचार दोनों है और  दिमाग  (विचार है तर्क है )का  मंकी_डांस   चलता  रहता  है  .. 

मंकी डांस  के लिए स्पष्ट कर दूँ ताकि आप अन्यथा न लें -    साल  दर साल  अपना धन  श्रम  और भाव  जब  किसी एक ५ तत्व के पुतले पे  दूसरे पुतले लुटते  है  और अंत में निराशा हाथ में लिए वापिस  चले आते है।  और फिर  चुप कैसे बैठने , गलत होगा ,  फिर गालियों का सिलसिला शुरू हो जाता है  उसी व्यक्ति के लिए  जिस पे कभी भक्ति लुटाई थी।  )

मज़े  की  बात  देखिये  , ये  नृत्य  भी गुरु  और शिष्य  के मध्य  पूरे  आनंद  भाव  और  विश्वास  के  साथ  चलता  है  ... 

श्रध्हा - सुमन का  सप्रेम अर्पण
श्रध्हा - सुमन का सप्रेम अर्पण

संसार का  हर तर्क उसके पक्ष में प्रस्तुत  रहता है , बस भाव को और विचारों  को चोट नहीं लगनी चाहिए , बिलकुल वैसे ही  जैसे हम अपने शरीर को सँभालते है , किसी भी  बाहरी चोट से , वैसे ही हम  अपने दिमाग और  भावो को आतंरिक चोट से सँभालते है , इसी भाव को  दूसरे शब्दो में  घमंड  या कभी कभी विचारो की अति कठोरता भी कहते है।  

जबकि  यदि  शब्द  देना  ही  चाहे  तो  अध्यात्म  को  " तो  कह  सकते  है  , सारी  उठापटक   समाप्त  करके  ह्रदय  के  मध्य  में अपनी  वैचारिक अत्तीयों  को  स्थिर  कर  लेना (यही भाव योग है ) , विचार  माने  दिमाग  , एक बार स्थिर हुए  ह्रदय में भाव के साथ .. अब  मज़ा  देखिये , बहुत ही  आनंददायक  यात्रा प्रतीत होती है , सभी  शुध्हियाँ और अशुध्हियाँ  सपष्ट होने लगती है , अब देखिये  दौड़ते हुए  विचारो के घोड़ो को और मज़ा लीजिये वास्तविकता का   ............. 


दिमाग  को  अपने  ह्रदय के मध्य में स्थिर  कर  लेने  का  अर्थ  भी  आप  ब् खूबी  समझते  है  .. 


प्रणाम  .

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