Friday 10 April 2015

अर्पण तर्पण करती चलती हाय मेरी मधुशाला



आज एक स्वप्न देखा  जिसको यहाँ इस सन्दर्भ  में लिखना आवश्यक है , या यूँ कहे   वो स्वप्न ही इस लेख का आधार है तो भी सही है ,  सुबह का स्वप्न भोर काल का " छोटे छोटे पौधे  जिनकी  जड़ में  छोटे  छोटे  विकसित चने लगे है , और मुझे उनको ही  निकाल के  अलग करने का आदेश  हुआ है , एक एक चने को  निकल के  ऐसे  पात्र  में इकठा  करना है  जहाँ से ये कहीं  और  किसी और के द्वारा ले जाये जायेंगे ( वो मेरे संज्ञान  में नहीं  मुझे बस चने अलग कर पात्र  में डालने है  )   और  फिर  देखते है पास ही बड़े से  ढेर  रूप में  छोटे छोटे गेहूं  एकत्रित है  जिनमे से मुठी भर के भी नहीं ---एक--एक ---गेहूं  उठा बीन चुन  के  पास खड़ी ट्रक गाडी में डालना है , सोच सकते है  कितना बड़ा उस कार्य का विस्तार होगा ।  स्वप्न में ही ख्याल भी  की चना  जड़ में कब से उगने लगा ? और ये संदेह आते ही आँख खुल गयी।  अवश्य  वो चना साधारण नहीं था। उस चने का  पौधे की जड़ में लगना  उसके बीज तत्व का इशारा था  ,  और उस चने के निकलते ही वो पौधा स्वस्थ हो गया।  यानी जड़ में लगा चना ही उस पौधे के लिए हानिकारक था।  

और  इसके साथ ही  मधुशाला की इन पंक्तियों  का  भी अर्थ बदल गया अर्पण तर्पण करती चलती हाय मेरी मधुशाला।  * अर्पण  का अर्थ स्वेक्छा  से किये दान से  और * तर्पण   से  अर्थ  है मृत्यु  पश्चात  जो  आत्ममुक्ति के लिए क्रिया कांड   के भी पश्चात  जल में  जल की  बुँदे संकल्प के साथ समर्पित  की जाती है।  एक एक वासना  का एक एक  अहंकार का  और एक एक  मायावी  लालसाओं का   अर्पण  और तर्पण करती चलती  मेरी मधुशाला , मेरी मधुशाला  यानि मेरी देह  जो   संसार के नशे में उन्मत्त है  ऐसी  इन्द्रियों के सहयोग से  मैं ही मधुशाला बन गया हूँ।  अपनी ही  विषयवासनाओं को  एक एक करके परमप्रिय को  अर्पण  और तर्पण करती चलती  मेरी मधुशाला।  

और चार्वाक ऋषि ने  अपनी  बौद्धिक  स्थति  के अनुसार  जनसामान्य से  कहा , " भस्मीभूतस्य  देहस्य पुनरागमनः कुतः , यज्जम जीवेत सुखम जीवेत त ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत। "  इसका भी  मूल  अर्थ  उससे जुड़ता है  जिसने  अर्पण और तर्पण का कार्य या तो  समाप्त कर लिया  या के  थोड़ा ही बचा है।

श्लोक/sholk :

भस्मीभूतस्य  देहस्य पुनरगमनः कुतः , 
यज्जम जीवेत सुखम जीवेत त ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।  
bhasmIbhUtasya dehasya punarAgamanaH kutaH |
yAvajjIvaM sukhaM jIvet R^iNaM kR^twA ghR^itaM pibet||


प्रतिपदा अर्थ :- 
भस्मीभूतस्य bhasmIbhUtasya = of totally burnt (burnt to ashes);राख हो चुका 
देहस्य्  dehasya = of the body; शरीर 
पुनरगमनः punarAgamanaH = return; वापसी 
कुतः kutaH = whence? कहाँ ?
यावत् जीवेत yAvaj jIvaM = till the end of life (till death); जब तक जियो 
सुखम sukhaM = comfortably; सुख से 
जीवेत  jIvet = to be lived; जियो 
ऋणं R^inaM = take a loan, borrow;उधार 
कृत्वा kRitwA = being done; करके 
घृतं ghR^itaM = ghee, by product of cow's milk; घी 
पिबेत pibet = to be drunk;पियो 
तात्पर्य / tAtparyaH:
From where would the totally burnt body to ashes return.(Hence), till death, 
(one has to)live comfortably and has to consume ghee, even if it is taken 
as a loan or borrowed.
एक प्रचलित अर्थ है :
मौज से जियो , ऋण ले के घी पियो , मरने के बाद कौन लौटता है।  
Height of materialistic attitude. I would put it. The author clearly says 
that he/she does not care nor believe that there is rebirth (punarAgamanaH, 
indocates that). So, live comfortable with onely one endowed life and enjoy 
the luxuries (normally, ghee is an item available in the households of well 
off people) even if it is borrowed from some one else.
यहाँ  एक  ध्यान  देने वाली है की एक ज्ञानी ऋषि  जब कोई विषय  कहते है तो उनकी सोच से निकले शब्द  हमारी सोच तक आते आते अर्थ गुण सब परिवर्तित हो जाते है। ऋषी  स्वयं  ज्ञानी है  परन्तु सभी उस जैसे अनुभवी हो  आवश्यक नहीं , वरन  विरले होते है  जिनमे आत्ममंथन  बुद्ध की तरह जगता है।  इसी लिए आम बुद्धि  ने इस वाक्य को ग्रहण करते ही  अर्थ का अनर्थ कर डाला , और धन लोलुप  व्यवसायी बुद्धि ने तो सत्यानास  कर दिया।  उचक्कों के वारे न्यारे हो गए  की  ऋषि से आज्ञा मिल गयी यानी धर्म से ठप्पा लग गया , चलो अब मन माना कर्म करते है  और मौज में जीते है !
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नहीं नहीं !  जरा रुकिए ! पुनर्विचार की जरुरत है , कोई ऋषि  समाज के विपरीत बात कह ही नहीं सकता।  जिन्होंने  अच्युत को  जान लिया  वो ऐसा  सामान्य  आचरण  जी ही नहीं सकते ! 

चार्वाक  ऋषि ने
* राख होने के बाद पुनरागमन-मिथ्या की  बात की
* ऋण लेके  घी पीने की बात की 
* और उन्होंने सुख से जीने की बात कही 
तर्क बुद्धि से नहीं वरन तनिक ज्ञान बुद्धि से आईये  विचार करें ,ऋषि कहना क्या चाहते है ! अब जब  सुगंध  किसकी है !  किस फूल से ये  इत्र बना  ये जानना हो तो  बीज के गुणधर्म तक पहुंचना ही पड़ता है। तभी इत्र की  मूल  मौलिक विशेषता  का भान हो पाता है। 
उल्लेखित है :-
भस्मीभूतस्य :- तत्व  और ऊर्जा से निर्मित  इस देह में तुम्हारा निवास है।  यहाँ ऋषि सीधा ऊर्जा को सम्बोधित कर रहा है।  तात्विक विष और विषयों को नहीं। वो कह रहा है , ये तत्व  अग्नि के संपर्क में  राख में बदल  जाएंगे। ऊर्जा स्वतंत्र हो जाएगी। ऐसी देह में निवास करते हुए  तुम इसी को सत्य मानो। 
पुनरागमन कुतः :- एक ज्ञानी  अपनी तपस्या से वो बिंदु छू के आया है  जो ऊर्जा पुंज है  और उसको छूते  ही उसको भान हो गया की ऊर्जा की स्थति देह त्याग के पश्चात क्या है।  अब वो ज्ञानी  संदेह या किसी जिज्ञासा में नहीं जी रहा।  माया से सने सभी  वाक्यों से  अब वो मुक्त है।  जन्म मृत्यु  को वो स्वीकार कर रहा है  परन्तु पुनर्जन्म को इसी भाव और देह में पुनः पुनः जन्म  के भाव के साथ  वो स्वीकार नहीं कर रहा , क्यूंकि वो जानता है की ईश्वर की एक रचना का इसी गुणधर्म और ऊर्जा के संयोग से  ऐसा ही जन्म , ऐसा  संयोग दोबारा  हो ! असंभव  है।  इतना तो एक बालक भी जानता है की तत्व और ऊर्जा दो के संयोग से जीव प्रकट होता है।  किन्तु ऋषि इससे भी कहीं अधिक  अनुभव करके  कहता है की  ऊर्जा और तत्व का ये संयोग दोबारा संभव नहीं , ये जीवन  अनूठा है , दिव्य है। इसको  जो जैसा है वैसा ही प्रेमपूर्वक पूर्णस्वीकृति और आभार के साथ जिया जाना चाहिए।  गमन और आगमन , तथा पुनरागमन  के रहस्य को  मात्र अनुभव किया जा सकता है , इस अति गहन  विषय को शब्दों में बांधना संभव नहीं।  शायद  इसी लिये जनसामान्य को ऋषि ने इस उहापोह से बाहर ही रखा।  और सीधे  सरल शब्द में समझाया  की जो नहीं है जो भविष्य में छिपा है ऐसे पुनरागमन की चिंता न करो मिला हुआ ये जीवन प्रेम से जियो। पर जैसी मति वैसी ही  सोचने की प्रवर्ति। सोचा गया  सारे  आचरण  दुराचरण की छूट  है , अब दोबारा लौट के आना किसे है ? वाह !  अवश्य ही चार्वाक के इस कथन के पीछे भी गहरा आशय है सोचने समझने वाली बात है  की योगी सन्यासी   समाज में अनाचार कैसे  फैला सकता है ? 
यज्जम जीवेत सुखम जीवेत :-  जब तक जियो सुख से जियो।  ये तो महा वाक्य है किसी को यदि सुख मिल जाये  तो और क्या चाहिए !  पर सुख मिलता किसे है  ये भी सोचने वाली बात है। सुख  से  जीने के  सन्दर्भ  एक  गृहस्थ के अलग  है , व्यवसायी के अलग है , बालक के अलग है , दुराचारी के अलग है , और एक वृद्ध के अलग है।  और इन सब परे  एक सन्यासी के अलग है , एक योगी के अलग है  और एक बुद्धा के अलग है।  यहाँ एक बुदध पुरुष जो कह रहा है  वो एक अलग ही प्रकाश देता है , सुख से जीना यानी चिंता मुक्त प्रेम और आनंद से जीने का मिश्रित स्वरुप है।  
ऋणं कृत्वा :-
यहाँ समझने वाली बात ये है की ऋण कौन लेगा ? जिसके पास जोड़ी हुई सम्पदा है वो तो ऋण के लिए  उचित है ही नहीं  अवश्य ही वो जिसके पास संग्रह  नहीं है यानि के  जो  सग्रह प्रवृत्ति से मुक्त है , ऐसा ही जीव जिसका पात्र  खाली है , वो  ऋण से  घी  पियेगा। अब समझने वाली बात है  की ज्ञानी  माया  इकठी करने की बात नहीं करता , बल्कि  माया भाव से मुक्ति की बात करता  है।  जो माया भाव से मुक्त है  , जिसका पात्र (देह) विषयवासना से खाली ( मुक्त ) है।  ऐसा व्यक्ति ऋण लेता  है। " ऋण " समझने वाली बात है  की इसका क्या अर्थ है , व्यक्ति  खाली है  तो ऋण लेने योग्य है।  अब  यहाँ भी देह से अधिक भाव की प्रधानता है, योगी क्षणिक देह की बात प्राथमिक रूप से करता ही नहीं है  वो तो तरंग की बात  करता है  और तरंग से बात करता है ,  देह तो नश्वर है  परिवर्तनशील है। एक व्यक्ति सामाजिक है मनुष्य जन्म में एक दूसरे पे निर्भर है किन्तु अज्ञानतावश  उसका ह्रदय पात्र  विष से भरा है  तो  अमृत कैसे आएगा ! विषयवासना से खाली हो चुके व्यक्ति को क्या चाहिए ! आनंद  प्रेम  अब वो ले सकता है  और ये भी ऋण ही है क्यूंकि बाहर से आ रहा है उसका अपना नहीं है  उसे दूसरों से मिल रहा है।  उदाहरण के लिए  बुद्ध का जीवन  दूसरों  के प्रेम से भरा हुआ है।  
घृतं पिबैत :-  
घी  परिणीति है गाय के कर्म की , और जो  सभी को स्वस्थ्य  देती है। इन अर्थों में घी अमृत तुल्य है  आसानी से  सबको उपलब्ध नहीं। सामान्य  समाज में घी का खाना  सम्पन्नता  की निशानी है , महँगी  उपलब्धि है , गरीब के घर घी  नहीं होता।  सही है , पर सन्यासी की दृष्टि में  घी का अर्थ और घी के होने का अर्थ ही बदल जाता है।  जब एक योगी ज्ञानी गाय के घी को सिर्फ थोड़ा खाने की नहीं  वरन पीने की बात कहता है तो प्रतीक रूप में उसका सीधा अर्थ आत्मिक संपन्न होने से है, यहाँ ऋषि सामान्य  प्राणी से अपनी बात गहराई से कहने की बात कर रहा है जिस उदाहरण को जनसामान्य  समझ सकते है उन्ही की भाषा में समझने की बात कर रहा है ।  
अंत में  ऋषि  जो स्वयं निर्भार  है वो सभी को  निर्भार  होने का  सन्देश देता है , जीवन को सम्पूर्णता से जीने का सन्देश देता है  और  सबसे बड़ा  सन्देश  की कुछ भी अपना नहीं है , मिला हुआ है  कुछ समय के लिए  इसके लिए आभार  समर्पण और कृतज्ञता में  प्रेम पूर्वक जीवन जीने का सन्देश देता है।  छिपा हुआ संदेश  ये भी है  की कोई शॉर्टकट  नहीं।   ज्ञान और अनुभव का  कोई शॉर्टकट नहीं।  सुना हुआ  सुना हुआ ही है, सुने हुए को कहने के लिए जिव्हा  तोता  बन सकती है ज्ञान का अनुभव उसे आवश्यक नहीं  किन्तु अनुभव अपना ही है। जो सम्पूर्ण उपलब्धि  का आभास करता है वो मौन द्वारा उपलब्ध अपना ही अनुभव है।  अपनी जीवन यात्रा , अपना गंतव्य , अपना जन्म और अपनी मृत्यु।  यही अंतिम सच है।  
ओम प्रणाम 

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