Tuesday 21 April 2015

आत्मतत्व को जानने के लिए क्या करें ? Osho


In meditation you are throwing yourself into the cosmos to be purified. All the energy that you throw is purified in the cosmos. The cosmos is so vast and so great an ocean, you cannot make it dirty. In meditation we are not related with persons. In meditation we are related directly to the cosmos. 
Osho
The Supreme Doctrine
Chapter #5
Chapter title: It is Your Being
10 July 1973 pm in Mt Abu Meditation Camp


धर्म और आनंद ( अंश ) :-
बेचारे भगवान क्या कर सकते हैं; आप नचाना चाहोगे, नाचने लगेंगे। लेकिन भगवान वहां बिलकुल नहीं है, आपकी कल्पना ही नाच रही है। और अगर पागलपन बढ़ता चला जाएगा तो बातचीत भी शुरू हो जाएगी दोनों तरफ से, आप ही उत्तर दोगे। और आस-पड़ोस के लोग कहेंगे कि हमें तो नहीं दिखाई पड़ते, तो आप कहोगे, तुम नास्तिक हो, विश्वास की कमी है, तुम्हें नहीं दिखाई पड़ते। हमारी आस्तिकता घनी है। और अहंकार फूल कर बड़ा हो जाएगा कि मैं विशेष व्यक्ति हूं मुझे भगवान नाचते हुए दिखाई पड़ते हैं।

जिस दिन दुनिया अच्छी होगी ऐसे लोगों का हम इलाज करने की व्यवस्था करेंगे। ये धार्मिक लोग नहीं हैं। ये विक्षिप्त लोग हैं, ये एबनार्मल हैं। यह सामान्य चित्त इनका स्वस्थ नहीं रहा, अनबैलेंस्ड हो गया। उसने, मार्ग से च्युत हो गया और गलत रास्ता खोज लिया सपने का। सत्य का रास्ता नहीं खोजा, सपने में खो गया है। शास्त्र को गलत समझने का सवाल नहीं है, शास्त्र को बिलकुल ठीक समझने का भी सवाल नहीं है, समझना है स्वयं को, किसी शास्त्र को नहीं। जानना है अपने को, किसी शास्त्र को नहीं। और जिस दिन आप अपने को समझेंगे, और अपने को समझने की व्यवस्था ही और है।
~ "ओशो "~

किसी और ने भी पूछा: क्या करें? उस आत्मतत्व को जानने के लिए क्या करें?

किसी ने पूछा: वह अल्टीमेट रियलिटी का स्वरूप क्या है? वह आत्यंतिक सत्ता का स्वरूप क्या है? 

किसी ने पूछा कि वह आत्मज्ञान कैसे हो सकता है? सारे लोग, सारे साधु, सारे संत, सारे द्रष्टा, सारे जाग्रतपुरुष उसकी ही बात करते हैं। वह कैसे हो सकता है?

तो मैं आपको कहूंगा, प्रभावित होने का मार्ग बंद करिए; अप्रभावित होना शुरू करिए, मुझसे भी प्रभावित मत होइए। क्योंकि वह भी संस्कार बनेगा। साधु से भी प्रभावित मत होइए, वह भी संस्कार बनेगा। तीर्थंकर से भी प्रभावित मत होइए, वह भी संस्कार बनेगा। वह शुभ संस्कार होगा; लेकिन शुभ भी बांधता है, अशुभ भी बांधता है। महावीर कहे, सोने की कड़ियां बांध भी लेती हैं, लोहे की कड़ियां भी बांध लेती हैं। और खतरा सोने की कड़ियों में ज्यादा है, क्योंकि सोने की होने की वजह से उनको छोड़ने का मन भी नहीं होता। अशुभ संस्कार भी बांधता है, शुभ संस्कार भी बांधता है। कोई संस्कार मत बांधिए। अगर शुद्ध होना है तो शुभ और अशुभ संस्कारों को तिलांजलि दीजिए। शुभ-अशुभ के छूटने पर जो शेष रह जाता है वह शुद्ध है। शुभ-अशुभ दोनों अशुद्ध हैं।

जैसे मैंने कहा कि सुख और दुख बाहर हैं, वैसे ही शुभ और अशुभ भी बाहर हैं। जैसे मैंने कहा: आनंद भीतर है और सुख-दुख बाहर हैं, वैसे ही शुभ-अशुभ बाहर हैं शुद्ध भीतर है। पाप-पुण्य बाहर हैं, धर्म भीतर है। हमें आनंद की तरफ, शुद्ध की तरफ, धर्म की तरफ चलना है। तो जैसे मैंने कहा कि दुख छोड़ना तो सब चाहते हैं, सुख कोई नहीं छोड़ना चाहता। वैसे ही पाप को सब छोड़ना चाहते हैं, पुण्य कोई नहीं छोड़ना चाहता। वैसे ही अशुभ को सब छोड़ना चाहते हैं, शुभ कोई नहीं छोड़ना चाहता। जैसे मैंने कहा कि सुख नहीं छोड़ना चाहता, वह दुख नहीं छोड़ पाएगा; जो पुण्य नहीं छोड़ना चाहता, वह पाप नहीं छोड़ पाएगा; जो शुभ नहीं छोड़ना चाहता, वह अशुभ नहीं छोड़ पाएगा।

अशुभ और पाप और दुख सब छोड़ना चाहते हैं, वह कोई साधना नहीं है। साधना की शुरुआत तो वहां है जहां आप दुख को, पुण्य को, शुभ को भी छोड़ना चाहते हैं। तब आप शुद्ध की ओर उन्मुख होते हैं, तब आप धर्म की ओर उन्मुख होते हैं, तब आप आनंद की ओर उन्मुख होते हैं। जरा गौर से देखिए, सुख-दुख बाहर हैं, तो पाप-पुण्य भी तो बाहर हैं। जब आप किसी कर्म को कहते हैं, यह पाप है, तो किस वजह से कहते हैं? बाहर उसका परिणाम गलत है। जब आप किसी कर्म को पुण्य कहते हैं, तो किस वजह से कहते हैं? बाहर उसका परिणाम गलत नहीं है। बाहर उसका परिणाम प्रीतिकर है तो वह पुण्य हो जाता है; बाहर उसका परिणाम अप्रीतिकर है तो वह पाप हो जाता है। किसी ने पूछा अभी कि वहां जर्मनी में वह जो कैदियों की हत्या की उन्होंने, कनसनट्रेशन कैंप में, तो वह क्या किया?

लोग कहेंगे, वह पाप किया। वह पाप किया इसलिए कि बाहर उसका परिणाम बुरा है। और अगर वैसा न किया जाता कि इन कैदियों को आप मुक्त कर दें, तो वह पुण्य होगा, क्योंकि बाहर उसका परिणाम प्रीतिकर है। बाहर परिणाम प्रीतिकर हो तो पुण्य मालूम होता है; बाहर परिणाम अप्रीतिकर हो तो पाप मालूम होता है। अपने पर परिणाम प्रीतिकर मालूम हो तो सुख मालूम होता है; अपने पर परिणाम अप्रीतिकर मालूम हो तो दुख मालूम होता है।

अगर गौर से देखें, तो जो करने वाले के लिए पाप है वह झेलने वाले के लिए दुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए पाप है वह झेलने वाले के लिए दुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए पुण्य है वह झेलने वाले के लिए सुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए शुभ है या पुण्य है या सुख है वह वैसा परिणाम लाता है। यह जो हमारी शृंखला है बाहर की, इस बाहर की व्यर्थ की शृंखला के पीछे एक अद्वैत भी है जहां कोई द्वैत नहीं है। बाहर जहां भी है सब द्वैत है। इसको स्मरण रखें, चाहे सुख-दुख हो, चाहे पाप-पुण्य हो, चाहे शुभ-अशुभ हो, बाहर सब द्वैत है, बाहर सब डुआलिटी है। भीतर डुआलिटी नहीं है। अगर यूं समझें, तो मनुष्य के जीवन में एक त्रिकोण है, एक ट्राएंगल है। दो कोण बाहर हैं, एक कोण भीतर है। वे दो कोण विरोधी कोण हैं--सुख के, दुख के; पाप के, पुण्य के; शुभ के, अशुभ के। उन दोनों के पीछे एक कोण है, वह ट्राएंगल का जो शीर्ष है, वह अंदर है। वह न शुभ है, न अशुभ है; न पाप है, न पुण्य है; न सुख है, न दुख है। वह आनंद है, वह शुभ है, वह धर्म है। उसकी तरफ चलना है। सुख को असहयोग करना है, पुण्य को असहयोग करना है।

एक भारतीय साधु चीन गया। उसका नाम था, बोधिधर्म। वह जब चीन गया तो वहां के बादशाह ने उसका स्वागत किया। उस बादशाह ने बुद्ध धर्म के प्रचार के लिए, जिसका कि बोधिधर्म भिक्षु था, करोड़ों रुपये खर्च किए थे। बड़ी-बड़ी मोनेस्ट्री, बड़े-बड़े आश्रम, बड़े मठ, बड़े मंदिर, हजारों मूर्तियां, बड़े ग्रंथ उसने प्रकाशित किए थे। उसने स्वागत किया। स्वागत करने के बाद उसने बोधिधर्म से पूछा कि मैंने इतना-इतना किया है--इतने मंदिर, इतनी मूर्तियां, इतने विहार, इतने ग्रंथ मैंने प्रकाशित किए, इतने-इतने करोड़ रुपये मैंने खर्च किए, महाराज, इससे मुझे क्या होगा?

दूसरे साधु जो आए थे उन सबने कहा था कि तुझे बड़ा लाभ होगा, बड़ा तुझे सुख मिलेगा, बड़ा तुझे...होगा। वह बोधिधर्म बोला, कुछ भी नहीं होगा।

वह तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहा: कुछ भी नहीं होगा! यह मैंने सब किया व्यर्थ है?
तो उसने कहा: सार्थक तो वह है जो करने से नहीं मिलता, न करने से मिलता है। तूने जो किया वह बाहर किया, बाहर किया कुछ भी सार्थक नहीं है; सब रेत पर बनाए हुए चिह्नों की तरह हैं। हवाएं पोंछ देंगी। मंदिर तेरे गिर जाएंगे, ग्रंथ तेरे विलीन हो जाएंगे, विहार तूने बनाए धूल में मिल जाएंगे, जिन भिक्षुओं को तूने भोजन दिया उनकी देहें जिन्होंने भोजन ग्रहण किया जल जाएंगी, राख हो जाएंगी। बाहर तो कुछ भी किया हुआ अर्थपूर्ण नहीं, क्योंकि बाहर कुछ भी किया थिर नहीं। बाहर तो पानी पर खींची गई रेखाएं हैं।

आप बैठे हैं नदी के किनारे, पानी पर अपना नाम लिख दिया, आप लिख भी नहीं पाए कि नाम विलीन हो गया। बाहर के जगत पर सब पानी की रेखाओं जैसा है, वहां खींच भी नहीं पाते कि मिट जाता है, वहां बना भी नहीं पाते कि समाप्त हो जाता है, वहां जाग भी नहीं पाते कि नींद आ जाती है, वहां जीवन मिल भी नहीं पाता कि मौत चली आती है। इससे पहले कि वहां बनता है वह मिटना शुरू हो जाता है, इससे पहले कि वहां कुछ खड़ा हो वहां गिरना शुरू हो जाता है। बाहर के जगत में खींची गई कोई रेखा का कोई परिणाम नहीं है। वह रेखा चाहे सुख की हो, चाहे पुण्य की हो, चाहे शुभ की हो, परिणाम तो उसका है जो भीतर है और भीतर कुछ खींचा नहीं जाता।

जब सब खींचना बंद करके जो भीतर जागता है, जब बाहर की सब क्रियाओं को छोड़ कर, निवृत्त होकर कोई भीतर होश से भरता है, जब बाहर सारे क्रिया-कलाप, सारी चिंतनता से शून्य होकर कोई अचिंतन में जागता है तो उसे जानता है जो वहां मौजूद है। जो वहां मौजूद है वह नित्य और शाश्वत है, वही आत्यंतिक सत्ता है, वही अल्टीमेट रियलिटी है। उसमें, उसमें जागना है, उसमें होश से भरना है। और उसमें होश का एक ही मार्ग है, एक ही मार्ग है कि किसी भी भांति बाहर से जो प्रभाव आते हैं...अवेयर रहें, होश में रहें कि उन प्रभावों को हमें संग्रह नहीं करना है। जब कोई गाली दे जाए तो गाली को संग्रह नहीं करना है।

एक भिक्षु, एक संन्यासी एक गांव के करीब से निकलता था। कुछ लोगों ने आकर उसे गालियां दीं, उसका अपमान किया। उसने जब सारी बात सुन ली, उसने कहा: मित्र, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है, अगर तुम्हारी बातचीत पूरी हो गई, तुम्हारा संवाद पूरा हो गया, तो मैं जाऊं, मुझे आज्ञा दें।
वे लोग बोले, हमने तुमसे संवाद नहीं किया, बातचीत नहीं की; हमने तो तुम्हें गालियां दी हैं।
उस संन्यासी ने कहा: तुमने गाली दी वह तुम्हारा काम, मैंने उसे नहीं लिया यह मेरा काम है। देने में तुम स्वतंत्र हो, लेने में मैं भी स्वतंत्र हूं। तुम देते हो तुम जानो, मैं लेता नहीं इतना मैं जानता हूं। अभी पिछले गांव से मैं निकला था, वहां लोग मिष्ठान्न और फल-फूल लेकर आए थे और मुझसे बोले, इन्हें ले लें, मैंने कहा: पेट भरा है, मैंने नहीं लिया। तो उसने पूछा कि फिर उन्होंने उन फूलों का, उन मिष्ठानों का क्या किया होगा? वे लोग बोले, अपने घर ले गए होंगे। तो उसने कहा: तुम भी सोचो, तुम गालियां लेकर आए, मैं कहता हूं कि हम तो लेते नहीं, तो तुम क्या करोगे? गालियां घर ले जाओगे?

जो गाली न ली जाए वह वापस उसी पर लौट जाती है, जो क्रोध स्वीकार न किया जाए वापस लौट जाता है, जो प्रभाव गृहीत न किए जाएं वे अपने आप पीछे कदम वापस हो जाते हैं।

साधना जो आता है उससे लड़ने की नहीं, उसे न लेने की है। लड़ा तब तो लेना शुरू कर दिया। प्रेम करो या लड़ो, लेना शुरू हो जाता है। दुश्मन को भी हम ले लेते हैं और मित्र को भी ले लेते हैं। तो राग भी नहीं उससे, विराग भी नहीं उससे; उससे वीतराग, तटस्थता। न तो राग कि आ जाओ और न विराग कि मत आओ। क्योंकि मत आओ वाला भी घबड़ाया हुआ है, और उसने कुछ न कुछ ले लिया। वह जो घबड़ाहट है वह लेने की सूचना है। आपने मुझे गाली दी, मैंने कहा कि मुझे गाली मत दीजिए। जब मैंने यह कहा कि मुझे गाली मत दीजिए, मैं ले लिया। यह जो उत्तेजना मुझ में आई कि मुझे गाली मत दीजिए, यह तो मैंने ले लिया।

तो न तो मैं कहता हूं कि गाली दीजिए, न मैं कहता हूं कि न दीजिए। यह आपकी मौज है कि आपका गाली देने का मन है आप गाली दे रहे हैं, यह हमारी मौज है कि हम नहीं लेते हैं। अगर थोड़ी सी इस तरफ दृष्टि हो और साधना हो कि हम न लेने की साधना करें, तो आप हैरान होंगे, आप अदभुत हैरान हो जाएंगे। न लेने से तटस्थ चैतन्य के बोध से, साक्षी के बोध से, द्रष्टा के बोध से कि मैं केवल द्रष्टा मात्र हूं। तुमने गाली दी, यह देखा, बस देखा भर, तुमने गाली दी देखा और मैं अपनी राह चल दिया। अगर यह बोध बना रहे, प्रभाव आने बंद हो जाएंगे। नया प्रभाव नहीं पड़ेगा, नया आश्रय नहीं होगा। जब नया आश्रय नहीं होगा, जब नये प्रभाव नहीं पड़ेंगे, तो पुराने प्रभाव मेरे भीतर उठेंगे जिनको मैंने कभी ले लिया था। जब नये प्रभाव नहीं पड़ेंगे, जब नये-नये प्रभाव पड़ते जाते हैं तो पुराने प्रभाव नीचे दबते चले जाते हैं, उनको निकलने का मौका ही नहीं आता। हम रोज नई-नई चीजें इकट्ठी कर लेते हैं, वे और नीचे दब जाती हैं। जब नये प्रभाव मैं नहीं लूंगा, तो पुराने प्रभाव मेरे भीतर जाग्रत होंगे, वे खड़े होंगे। आज क्रोध नहीं लिया लेकिन पुराने जो क्रोध लिए थे उनके संस्कार, उनके कर्म-बंध मेरे भीतर उठेंगे, उनका ही द्रष्टा होना है। उनको भी देखना है कि तुम भी उठे। बाहर से किसी ने गाली दी थी, क्रोध प्रकट किया था, उसको देखा और कहा कि हम नहीं लेते। जब भीतर से तुम्हें उठे क्रोध तब भी उसे देखो, वह भी बाहर है, वह भी देखा जा सकता है। जो भी चीज देखी जा सकती है वह बाहर है।
जब भीतर क्रोध उठे, जब भीतर अपमान उठे, जब भीतर जलन,र् ईष्या उठे, तब कोई पिछले प्रभाव उठ रहें, उनको भी चुपचाप देखो। उनको भी कहो कि तुम भी आओ, तुमको भी हम देखते हैं। बाकी तुमसे भी हम कुछ लेते नहीं, तुम्हारे द्वारा हम सक्रिय नहीं होते। यानी उनका बाहर से लेना भी सक्रिय होना है। और किसी ने गाली दी, मैंने अगर ले लिया, तो मैं सक्रिय हो जाऊंगा। गाली दूंगा या फिर और उपाय करूंगा। भीतर कोई संस्कार उठता है कि वासना उठी है, वासना उठी कि कितना बड़ा महल मेरे पास हो। अगर मैंने उसे गृहीत किया तो मैं महल बनाने की चिंता और योजना में लग जाऊंगा। तो उसे गृहीत नहीं करना। उससे कहा कि तुम उठी, ठीक है, हम देखते हैं और देखेंगे, हमने लेना बंद किया, हम केवल देखने वाले रह गए, हम केवल दर्शक रह गए, हमने कर्ता होने की बात को छोड़ दिया। वह वासना भी तुम्हारे देखने मात्र से उठेगी, फैलेगी, जब वह रास्ता नहीं देखेगी कि आप उसको पकड़ें, जब आपका कोई राग और कोई विराग उससे संबंधित नहीं होगा, तो वह विसर्जित हो जाएगी। जैसे धुआं उठे और विसर्जित हो जाए। निर्जरा होगी उसकी अगर उसके प्रति भी तटस्थ बोध रहा, द्रष्टा का बोध रहा। नये आएंगे नहीं, पुराने धीरे-धीरे विसर्जित हो जाएंगे। नये नहीं आएंगे, पुराने विसर्जित हो जाएंगे, तो धीरे-धीरे निष्प्रभाव चैतन्य का अनुभव होगा, उसका अनुभव होगा जो नहीं है।

अब तक जिसको जाना वह पर्सनैलिटी थी, वे पर्तें थीं। अब जिसको जानेंगे वह इसेंस होगा, वह बीइंग होगा। अभी जिसको हम जानते हैं वह व्यक्तित्व है हमारा। हमारा नाम-धाम, पता-ठिकाना। तब हम उसको जानेंगे जिसका कोई नाम-धाम नहीं, कोई पता-ठिकाना नहीं, वह हमारा इसेंस, वह हमारा बीइंग, वह हमारा आत्मा है। जब हमारा यह तथाकथित मैं, ईगो और अहंकार गिर जाएगा, विलीन हो जाएगा, तब उसका जन्म होगा जो हमारा वास्तविक मैं है। वही आत्यंतिक सत्ता है। तो उसी की तरफ निष्प्रभाव साधना के द्वारा, अनुत्तेजना के द्वारा अपने भीतर निरंतर शांत होने की सतत चेष्टा के द्वारा; बाहर से जब-जब लहरें उठ आने को कोई उत्सुक हों, तब चुपचाप तटस्थ हो जाने के द्वारा व्यक्ति क्रमशः-क्रमशः, शनैः-शनैः आंतरिक में उतरता और अपने में विराजमान होता है। इसी माध्यम से उस सत्य को हम जान सकते हैं जिसे समस्त जाग्रत पुरुषों ने कहा है। 


- "ओशो "...
DHARM AUR ANAND # 01

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