Wednesday 12 November 2014

ध्यानप्रयोग-प्रकाश के अनुभव (Osho)


एक मित्र ने पूछा है: जब आप ध्यान में कहते हैं कि प्रकाश के सागर में डूब जाएं, तो हमें तो यही पता चलता रहता है कि जमीन पर पड़े हैं, तो सागर में कैसे डूब जाएं?
निश्चित ही पता चलता रहेगा कि आप जमीन पर पड़े हैं, अगर आपने इससे पहले के दो चरणों में पूरा श्रम नहीं उठाया। यदि पहले चरण में आप अपने को बचा कर कीर्तन करते रहे हैं, अगर कीर्तन में पूरे नहीं डूबे; अगर कीर्तन के बाद पंद्रह मिनट में, जब आपको कहा है कि आप अब कीर्तन की धुन पर सवार हो जाएं, अगर उस पर सवार नहीं हुए, अगर उस लहर में बहे नहीं, तो तीसरे चरण में आप पाएंगे कि आप जमीन पर ही पड़े हैं।
लेकिन इसमें जमीन का कोई कसूर नहीं है। इसमें आपका ही कसूर है। आपने अगर पहले दो चरणों में शरीर को छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई, तो जमीन पर पड़े हैं, इसका अर्थ ही यही है कि आप शरीर से ज्यादा अपने को जरा भी अनुभव नहीं कर रहे हैं। और कोई अर्थ नहीं है। आप शरीर हैं तो जमीन का अनुभव होगा, अगर आप शरीर से भिन्न कुछ भी हो जाएं तो तत्काल जमीन भूल जाएगी। क्योंकि जमीन का जो ग्रेविटेशन है, जो कशिश है, जो आकर्षण है, वह शरीर से ज्यादा नहीं जाता है। जब तक आपका ऐसा अनुभव है कि मैं शरीर हूं, तब तक जमीन का आपको अनुभव होगा। जैसे ही आपको अनुभव होगा कि मैं शरीर नहीं हूं, अगर जरा सा भी हिस्सा आपके भीतर मुक्त हो जाए शरीर से, तो उतना हिस्सा प्रकाश के सागर में डूब जाएगा।
आपकी कठिनाई मैं समझा। लेकिन इसका इतना ही अर्थ है कि आप पहले और दूसरे चरण में और हिम्मत लगाएं। जमीन खो जाएगी, शरीर के खोते ही। जब तक शरीर का स्मरण है, तब तक जमीन का स्मरण है। क्योंकि जमीन का ही हिस्सा है शरीर। जमीन का ही एक टुकड़ा है। कल तक जमीन में था, कल फिर जमीन में मिल जाएगा। आप जब तक शरीर हैं, तब तक पृथ्वी बड़ी महत्वपूर्ण है। और जैसे ही आप शरीर न रहे कि परमात्मा महत्वपूर्ण हो जाता है। जैसे जमीन की कशिश, जमीन का ग्रेविटेशन, आकर्षण शरीर को खींचता है, वैसे ही परमात्मा की ग्रेस, उसका आकर्षण आत्मा को खींचता है। आप कौन हैं, इस पर निर्भर करेगा कि कौन सी कशिश आप पर काम करेगी। अगर आप शरीर हैं, तो जमीन काम करेगी। अगर आप आत्मा हैं, तो परमात्मा काम शुरू कर देगा। दो चरण पहले इसीलिए हैं कि आप शरीर को भूल पाएं।
लेकिन आप भूल नहीं पाते। एक मित्र आए हैं, वे कहते थे मुझसे कि अगर कहीं थक गए तो? अगर ज्यादा मेहनत की और थक गए तो?
थक ही जाएंगे तो क्या बिगड़ जाएगा? एक-दो घंटे विश्राम कर लेना। अगर थक भी गए तो क्या बिगड़ जाने वाला है? दो घंटे विश्राम कर लेना। एक-दो घंटे ज्यादा सो जाना आज।
शरीर को बचा कर चलेंगे तो जमीन बच रहेगी। आखिर में आप पाएंगे जमीन पर पड़े हैं। सागर का आपको पता नहीं चल पाएगा--जिस प्रकाश के सागर की मैं बात कर रहा हूं। -

और दूसरा सवाल पूछा है कि आप कहते हैं, प्रकाश की छाया होकर आनंद आता है, आनंद के पश्चात परमात्मा चारों ओर दिखाई पड़ता है। किस प्रकार का यह आनंद है और परमात्मा का रूप किस प्रकार का है? क्या जो रूप हम मंदिर में देखते हैं वही?
प्रकाश का अनुभव न होगा तो आनंद का अनुभव नहीं हो पाएगा। एक क्रमिक गति है अंतर्यात्रा में, उसके पड़ाव हैं। प्रकाश का अनुभव न होगा...
यह उन्हीं मित्र का सवाल है जिन्होंने पूछा है कि जमीन पर पड़ा हुआ अनुभव होता हूं, कोई प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता।
तो पहले तो प्रकाश की फिक्र करें। अभी आनंद की चिंता न करें। और परमात्मा दूर है। पहले प्रकाश की ही फिक्र करें। पहले शरीर को ही छोड़ने की चिंता करें, तो जमीन छूट जाए। और शरीर के छूटते ही प्रकाश हो जाता है।
अगर ठीक से समझें तो शरीर में होना ही अंधकार है। आध्यात्मिक अर्थों में, टु बी इन दि बॉडी, टु बी दि बॉडी, इज़ डार्कनेस। शरीर में होना, शरीर होना ही अंधकार है। शरीर बड़ा घना अंधकार है। शरीर से छूटते ही प्रकाश की यात्रा शुरू हो जाती है, प्रकाश फूटना शुरू हो जाता है। और जिस क्षण पता चलता है कि शरीर है ही नहीं, उसी क्षण प्रकाश का सागर हो जाता है। सब सीमाएं टूट जाती हैं शरीर के साथ। शरीर ही सीमा है। और फिर जो प्रकाश अनुभव होता है, वह असीम है, अनंत है। उसकी कोई सीमा और ओर-छोर नहीं है। वह कहीं समाप्त नहीं होता और कहीं प्रारंभ भी नहीं होता।
लेकिन पहले शरीर से मुक्त होने की चेष्टा करें, फिर प्रकाश का अनुभव सहज ही होगा। और प्रकाश का अनुभव जब गहन होता है, तो प्रकाश की ही गहनता एक सीमा पर आनंद बन जाती है। इनटेंसिटी ऑफ लाइट बिकम्स ब्लिस। आनंद कोई और चीज नहीं है, प्रकाश जब बहुत सघन हो जाता है तो आनंद बन जाता है। प्रकाश की सघनता ही आनंद बन जाती है। अंधकार की सघनता ही दुख है।
इसलिए मृत्यु बहुत घबड़ाती है हमें। क्योंकि मृत्यु में गहनतम अंधकार हमें घेरता है, सघन अंधकार हमें घेरता है। इसलिए मृत्यु दुख जैसी प्रतीत होती है।
बीमारी में आप घबड़ाते हैं। शायद आपने सोचा न होगा कि बीमारी में इतनी घबड़ाहट क्या है? जितने आप बीमार होते हैं, उतने ज्यादा शरीर हो जाते हैं। क्योंकि बीमारी में शरीर की स्मृति सघन हो जाती है। अगर आपके सिर में दर्द होता है तो ही सिर का पता चलता है। अगर सिर में दर्द नहीं होता तो सिर का पता ही कहां चलता है! अगर पैर में तकलीफ होती है तो पैर का बोध होता है। अगर पैर में तकलीफ नहीं होती तो पैर का बोध भी नहीं होता।
संस्कृत में जो शब्द है 'वेदना' दुख के लिए वह बहुत अदभुत है। दुनिया की किसी भाषा में वैसा शब्द नहीं है। वेदना के दो अर्थ होते हैं। वेदना का एक अर्थ तो होता है ज्ञान, क्योंकि वह वेद से ही बना है। और दूसरा अर्थ होता है दुख। दुख में ही ज्ञान होता है आपको शरीर का, अन्यथा कभी ज्ञान नहीं होता। जो पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति है उसे शरीर का पता ही नहीं चलता है कि शरीर है। पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति विदेह की अवस्था में होता है, बॉडीलेसनेस में होता है।
इसलिए हमारा शब्द 'स्वस्थ' भी बहुत अदभुत है। स्वस्थ का मतलब है: स्वयं में स्थित। अंग्रेजी का शब्द 'हेल्थ' उसका अनुवाद नहीं हो सकता। स्वस्थ का अर्थ है: स्वयं में स्थित। जब कोई व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ होता है तो शरीर बिलकुल भूल जाता है।
शरीर का पता चलने के लिए बीमारी जरूरी है। तो जितनी ज्यादा बीमारी होती है, शरीर का उतना पता चलता है। और शरीर का जितना पता चलता है, उतना आदमी अस्वस्थ होता है, स्वयं के बाहर हो जाता है। फिर स्वयं में नहीं ठहरा रह सकता। अगर पैर में एक कांटा गड़ रहा है, तो जहां कांटा गड़ता है, सारी आत्मा वहीं इकट्ठी हो जाती है। बीमारी से इसीलिए दुख मिलता है।
लेकिन जो व्यक्ति बीमारी में भी स्वस्थ रह सके, स्वयं में स्थित रह सके, बीमारी से उसे दुख नहीं मिलता। क्योंकि बीमारी फिर अंधकार नहीं ला सकती। अंधकार शरीर में केंद्रित होने से ही पैदा होता है। और जो व्यक्ति बीमारी में स्वस्थ रह सके, वह मृत्यु में भी स्वस्थ रह सकेगा। फिर मृत्यु भी अंधकार नहीं ला सकती। क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं में स्थित है, वह परम प्रकाश में है। अंधकार का वहां उपाय नहीं।
शरीर अंधकार है। और शरीर का जितना गहन बोध होता है, उतना ही दुख पैदा होता है। आत्मा प्रकाश है। इसलिए जितना ही प्रकाश की तरफ हम यात्रा करते हैं, उतना ही दुख विसर्जित होता है। और जब दुख पूरा विसर्जित हो जाता है, तो जो शेष रह जाता है उसका नाम आनंद है।
इसलिए बुद्ध ने तो आनंद शब्द का उपयोग भी नहीं करना पसंद किया। वे तो कहते थे: दुख-निरोध। कहते थे, इतना ही काफी है--निगेशन ऑफ मिजरी। आनंद शब्द का ही उपयोग नहीं किया, क्योंकि उसकी करने की कोई जरूरत नहीं है। इतना भी कहना काफी है कि जहां अंधकार नहीं है। बस बात काफी हो गई। प्रकाश को कहने की भी जरूरत नहीं है।
बुद्ध ने आत्मा शब्द का भी उपयोग नहीं किया। इतना ही कहा--जहां देह नहीं है। उसके कहने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि वह उसका दूसरा अनिवार्य हिस्सा है। जहां देह नहीं अनुभव होती, वहां जो अनुभव होता है वह आत्मा है।
जहां दुख, अंधकार अनुभव नहीं होता, वहां जो अनुभव होता है वह आनंद है। प्रकाश की सघनता आनंद है।
ऐसे भी, बाहर के जगत में भी प्रकाश की सघनता के साथ ही प्रफुल्लता अवतरित होती है। और अंधकार की सघनता के साथ ही उदासी सघन हो जाती है। बाहर के जगत में भी। सांझ रात उतरती है, वृक्ष के पत्ते सिकुड़ जाते हैं, फूल बंद हो जाते हैं, प्राण संकुचित हो जाते हैं, सारा जगत तंद्रा में लीन हो जाता है, उदास हो जाता है, मुरझा जाता है, मूर्च्छित हो जाता है। सुबह सूरज निकलता है, वृक्षों के पत्ते पुनरुज्जीवित हो जाते हैं, कलियां खिल पड़ती हैं, पक्षी गीत गाने लगते हैं। जीवन फिर सजग हो जाता है। सब जगह जीवन करवट लेकर फिर जाग जाता है।
बाहर के जगत में भी प्रकाश और जीवन संयुक्त हैं, अंधेरा और मृत्यु; अंधेरा और नींद, प्रकाश और जागरण। भीतर के जगत में भी ऐसा ही है। जब हम भीतर के प्रकाश को उपलब्ध होते हैं तो परम जागृति और परम आनंद को उपलब्ध होते हैं। प्रकाश की सघनता आनंद बन जाती है। और आनंद जब सघन होता है तो परमात्मा की उपस्थिति अनुभव होती है।
इसे ऐसा समझें, जब दुख सघन होता है तो पदार्थ की अनुभूति होती है। इसलिए दुखी आदमी शरीर-बोध से भर जाता है। और शरीर-बोध से भरा हुआ आदमी पदार्थों की तलाश में निकल पड़ता है। इकट्ठा करता चला जाता है चीजों को। उसका पदार्थ-बोध भारी हो जाता है। वह अपने को बेच सकता है, चीजों को नहीं। वह चीजें पाने के लिए अपने को बेच सकता है। वह अपने को रिक्त कर लेता है, लेकिन घर में सामान बढ़ाता चला जाता है। जब भी कोई आदमी वस्तुओं के पीछे पागल होता है तो वह इस बात की खबर देता है कि उसका शरीर-बोध इतना सघन हो गया है कि अब पदार्थ के अतिरिक्त कोई चीज उसके लिए मूल्यवान नहीं।
ठीक इससे उलटी घटना घटती है, जब आनंद सघन होता है, प्रगाढ़ होता है, कनसनट्रेटेड होता है, तब जो प्रतीति होनी शुरू होती है, उस प्रतीति का नाम परमात्मा की उपस्थिति है। उस परमात्मा का आपके मंदिर में रखी हुई मूर्तियों से उतना ही लेना-देना है, जितना अग्नि शब्द से अग्नि का, जितना भोजन शब्द से भोजन का, जितना आंख शब्द से आंख का। वह जो मंदिर में प्रतिमा रखी है, वह प्रतीक मात्र है।
अग्नि शब्द से अग्नि पैदा नहीं होती। और आप कितना ही चिल्लाएं--आग, आग, आग--कोई आग पैदा नहीं होती। फिर भी आग शब्द का आग से संबंध है। और आग पैदा बिलकुल नहीं होती। फिर भी संबंध है, प्रतीक का संबंध है, सिंबल का संबंध है। अभी यहां कोई जोर से चिल्ला दे--आग लग गई! तो कुछ लोग भागना तो शुरू कर देंगे। आग लगी हो, न लगी हो। और जब कुछ लोग भागना शुरू करेंगे तो और भी कुछ लोग भागना शुरू कर देंगे। और अगर आस-पास धुआं भी दिखाई पड़ जाए, चाहे आग न भी लगी हो, तो भी भगदड़ तो हो जाएगी। आग शब्द भी आपको दौड़ा तो सकता ही है।
और मरुस्थल में आप भटक रहे हों और प्यास लगी हो, तो पानी शब्द से प्यास नहीं बुझती। लेकिन कोई कह दे--घबड़ाओ मत, बस मील भर के फासले पर पानी है। तो भी 'पानी' प्यास को थोड़ा हलका और धीमा कर जाता है--शब्द। घबड़ाहट कम हो जाती है। भला मील भर पर पानी न हो।
तो शब्द तो शब्द ही है, यथार्थ नहीं है, लेकिन फिर भी काम करता है। वह जो मंदिर की मूर्ति है, वह परमात्मा नहीं है। कोई मूर्ति परमात्मा नहीं है। लेकिन कोई भी मूर्ति परमात्मा की तरफ इशारा बन सकती है।
तो जब आप इस सघन अनुभव को उपलब्ध होंगे तो किसी मंदिर की मूर्ति आपको नहीं दिखाई पड़ेगी। और दिखाई पड़ती हो तो आप समझना कि आप अभी मन के ही विचारों में खोए हुए हैं। अभी आप उस सघन अनुभूति के पास नहीं पहुंचे जो प्रकाश के कंडेंस होने से उपलब्ध होती है, आनंद के कंडेंस होने से उपलब्ध होती है। उस अनुभूति पर आप नहीं पहुंचे।
उस क्षण में क्या होगा? पूछा है मित्र ने कि मैं कुछ बताऊं कि उस क्षण में कैसा परमात्मा का अनुभव होगा?
वह नहीं बताया जा सकता। और बताऊंगा तो फिर वह कोई प्रतीक बन जाएगा। और उसका अनुभव नहीं होना चाहिए। प्रतीक का अनुभव वहां नहीं होना चाहिए।
जब कोई पानी पीता है तो पानी शब्द का कोई अनुभव होता है? जब कोई पानी पीता है तो पानी शब्द का कोई अनुभव होता है? जैसा भाषाकोश में 'पानी' को देखा था, वैसा कोई अनुभव होता है? जब कोई घोड़े पर सवार होकर दौड़ता है, तो भाषाकोश में जो 'घोड़ा' लिखा था वैसा कोई अनुभव होता है? जब कोई अस्तबल में जाकर घोड़े को देखता है, तो भाषाकोश में 'घोड़े' शब्द को देखा था वैसा कोई अनुभव होता है? नहीं होता। उससे कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी अस्तबल तक जाने में घोड़ा शब्द सहयोगी हो सकता है। घोड़े को पहचानने में भी घोड़ा शब्द सहयोगी हो सकता है।
उस क्षण में परमात्मा की कैसी उपस्थिति अनुभव होगी, इसे कहना कठिन है। इसे अब तक नहीं कहा जा सका और कभी नहीं कहा जा सकेगा।
प्रकाश के अनुभव को हम थोड़ा समझ सकते हैं, क्योंकि बाहर हमने प्रकाश को देखा है। कुछ इससे मिलता-जुलता, यद्यपि बहुत भिन्न, भीतर अनुभव होगा। आनंद शब्द को हम थोड़ा समझ सकते हैं, क्योंकि दुख हमने देखा है, उससे कुछ विपरीत घटित होगा। लेकिन परमात्मा शब्द को हम बिलकुल ही नहीं समझ सकते हैं, यह शब्द मनुष्य की भाषा में सबसे ज्यादा बेबूझ शब्द है। क्योंकि हमने न परमात्मा से मिलती-जुलती कोई चीज देखी है और न परमात्मा से विपरीत कोई चीज देखी है। परमात्मा से विपरीत कुछ हो नहीं सकता, क्योंकि सभी में वह छिपा है। और परमात्मा के समान भी कोई नहीं हो सकता, क्योंकि वह अकेला ही है। इसलिए उसे तो अनुभव से ही जानना होगा।
और अच्छा है यही कि हम उस संबंध में कुछ भी न कहें। प्रकाश को समझ लें, उसको सघन करें। आनंद को समझ लें, उसे सघन करें। परमात्मा को छोड़ दें। और जैसे ही आनंद सघन होगा, आप अचानक उस जगह पहुंच जाएंगे, जहां उसका परम साक्षात है। न कोई मूर्ति होगी वहां, न कोई आकृति होगी वहां। वहां होगी सिर्फ अनुभूति। ठीक होगा यह कहना कि वहां हमें परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव नहीं होता, बस एक उपस्थिति का अनुभव होता है जिसे हम परमात्मा का नाम देते हैं।
थोड़ा जटिल है। इट इज़ नॉट दैट वी फील दि डिवाइन प्रेजेंस, रादर इट इज़ ए प्रेजेंस व्हिच वी काल डिवाइन। कोई मौजूद होता है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। कुछ! 'कोई' भी कहना शायद ठीक नहीं। कुछ मौजूद होता है, जिसे हम पीछे लौट कर परमात्मा कहते हैं। वह परमात्मा की मौजूदगी नहीं है। क्योंकि परमात्मा की मौजूदगी कहना गलत है। जो कभी गैर-मौजूद न हो सकता हो, उसकी मौजूदगी कहने का कोई अर्थ नहीं है। जो सदा ही मौजूद है। जो कभी गैर-मौजूद हुआ ही नहीं।
आप कह सकते हैं कि मैं यहां मौजूद हूं, क्योंकि घड़ी भर पहले मैं मौजूद नहीं था और घड़ी भर बाद फिर मौजूद नहीं रह जाऊंगा। लेकिन जो यहां मौजूद है ही, उसकी मौजूदगी कहने का कोई अर्थ नहीं होता।
लेकिन उस तक तो जाना पड़े। उसमें तो प्रवेश करना पड़े।
आप पहले चरणों का खयाल रखें, अंतिम मंजिल को भूल जाएं। वह याद रखने के लिए नहीं है। वह जानने के लिए है। अगर आपने पहले चरण पूरे किए हैं, तो वह अंतिम घटना घटती ही है। उसकी आप चिंता छोड़ दें सकते हैं।
कोई मित्र सिर्फ देखने आ गए हों, तो वे कुर्सियों पर चले जाएं--चुपचाप, जल्दी से।

(इसके बाद एक घंटे तक ओशो के सुझावों के साथ ध्यान-प्रयोग चलता रहा।) - "ओशो"...
Dhyan Ke Kamal – 07

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