Tuesday 25 November 2014

मनोवैज्ञानिक ध्यान प्रभावी - विपस्‍सना ध्‍यान की तीन विधियां

ध्यान का प्रयोग और आत्म-सम्मोहन :- और एक मित्र ने इधर पूछा है कि यह जो ध्यान की बात है, यह कहीं आटो-हिप्नोसिस, आत्म-सम्मोहन तो नहीं? 
ओशो :- आत्म-सम्मोहन से बहुत दूर तक मेल है, आखिरी बिंदु पर रास्ता अलग हो जाता है। हिप्नोसिस से बहुत दूर तक संबंध है। सारे तीनों चरण हिप्नोसिस के हैं, सिर्फ साक्षी-भाव हिप्नोसिस का नहीं है। वह जो पीछे पूरे समय विटनेसिंग चाहिए--कि मैं जान रहा हूं, देख रहा हूं कि श्वास आई और गई; मैं जान रहा हूं, देख रहा हूं कि शरीर कंपित हो रहा है, घूम रहा है। मैं जान रहा हू, देख रहा हूं--यह जो भाव है, वह सम्मोहन का नहीं है। वही फर्क है। और वह बहुत बुनियादी फर्क है। बाकी तो सारा सम्मोहन की प्रक्रिया है। सम्मोहन की प्रक्रिया बड़ी कीमती है, अगर वह साक्षी-भाव से जुड़ जाए तो ध्यान बन जाती है; और अगर साक्षी-भाव से अलग हो जाए तो मूर्छा बन जाती है। अगर सिर्फ हिप्नोसिस  का उपयोग करें तो बेहोश हो जाएंगे; अगर साक्षी-भाव  का भी साथ में उपयोग करें, तो जाग्रत हो जाएंगे। फर्क दोनों में बहुत है, लेकिन रास्ता बहुत दूर तक एक सा है, आखिरी बिंदु पर अलग हो जाता है  

ओशो:- सोचते ही हम तत्काल स्वभाव के बाहर हो जाते हैं। तो विचार जो है वह स्वभाव के बाहर छलांग है--लेकिन विचार में ही! इसलिए मूलतः हम कहीं नहीं गए होते, गए हुए मालूम पड़ते हैं। तो ताओ की साधना का अर्थ हुआ: सोच-विचार छोड़कर खड़े हो जाना। जहां कोई विचार न हो, सिर्फ चेतना रह जाए, सिर्फ होश रह जाए। तो वहां से जो ठीक है वह न केवल दिखाई पड़ेगा बल्कि होना शुरू हो जाएगा। इसलिए ताओ को जीनेवाला आदमी न नैतिक होता, न अनैतिक होता; न पापी होता, न पुण्यात्मा होता। क्योंकि वह कहता है कि जो हो सकता है वही हो रहा है। मैं कुछ करता नहीं । - ओशो....


क और यात्रा है--ध्यान की, अंतर्गामी--कि तुम अपनी खोज में निकलते हो। तुम स्वयं की पहचान को अपना अभियान बनाते हो और जिस दिन कोई व्यक्ति स्वयं को पहचान लेता है, उसकी दिन उसके जीवन में कल्याण की वर्षा हो जाती है। और वह वर्षा एक जैसी है। वह वर्षा न तो देखती है कि यह छत मुसलमान की है, कि हिंदू की है, कि जैन की है। वर्षा के बादल को क्या लेना। तुम्हारी तैयारी चाहिए। और ध्यान का सूत्र छोटा-सा है। सभी सूत्र छोटे होते हैं। ध्यान को छोटा-सा सूत्र है: अपने भीतर इतनी शांति, कि विचार कीकोई तरंग भी न उठे। कोई लहर न हो ऐसा सन्नाटा; ऐसा शून्य, जहां बस तुम हो और कुछ भी नहीं है। जहां यह भाव भी नहीं है कि मैं हूं। उसी क्षण यह सारा विश्व तुम्हारे ऊपर ईश्वर बन कर बरस पड़ता है। ईश्वर को खोजना नहीं पड़ता। जो लोग ईश्वर को खोजने निकलते हैं। - ओशो.

ह यह कभी हमारे खयाल में नहीं है। आंख बंद कर लो, कल्पना लोक साक्षात लोक से ज्यादा मनोहारी है , ज्यादा गहरे प्रभाव देता है , क्यूंकि मनुष्य मन अधीन है , पहाड़ पे जा के घूमना इतना तरोताजा न कर सके , जितना पहाड़ के मनोरम चित्रो को देख के मन खुश हो जाता है , इसलिए नहीं की दृश्य में कमी है , वरन इसलिए की दृष्टा की सीमा है। दृष्टिगत भी और शारीरिक सामर्थ्य गत भी , मन की सीमा नहीं , ये सीमा रहित है। थकता भी नहीं यदि मनोवांछित कार्य मिले। और मनवांछित न मिले तो सहयोग भी नहीं करता। अन्य दृष्टि सीमा में सुन्दर फूल आँखों के आगे खिला हो तो शायद कही चूक हो जाये उसका सौंदर्य पूरा देखने में दृष्टिगत मामला है कही नजर पड़ी कहीं नहीं पड़ी , किन्तु चित्र या बंद आँख से विचार ज्यादा चोट करता है , सुन्दर शांत समुद्र हो या अशांत हर चित्र कल्पना में प्रभावी है , वर्ना अशांत समुद्र के किनारे खड़ा रह पाना कठिन है , इतना सोचने का अवसर ही नहीं मिलेगा , लहरे ही अपने साथ बहा ले जाएंगी। 

वैसे ही कुण्डलनी का अपना एक भाव है जो सात चक्रो में फैला है   , अंदरुनी चोट लगती है जो कल्पना की है पर सही जगह पे सही वक्त पे अपना असर दिखाती है। असल में, प्रत्येक सेंटर की अपनी कल्पना है। समझे न ? प्रत्येक सेंटर की अपनी इमेजिनेशन है। और अगर उसकी इमेजिनेशन के करीब तुमने इमेजिनेशन करनी शुरू की तो वह सेंटर तत्काल सक्रिय हो जाएगा। तुम्हारे जिन-जिन केंद्रों पर चोट होगी, वहां-वहां से व्यक्तित्व का नया आविर्भाव होगा। और जब सारे केंद्र सक्रिय होते हैं एक साथ, उसका मतलब है कि जब सबके भीतर से ऊर्जा एक सी प्रवाहित होती है, तब पहली दफे तुम अपने पूरे व्यक्तित्व में जीते हो। हममें से कोई भी अपने पूर व्यक्तित्व में साधारणतः नहीं जीता। और हमारे ऊपर के केंद्र तो अछूते रह जाते हैं। तो श्वास से इन केंद्रों पर भी चोट पड़ेगी। और 'मैं कौन हूं' का जो प्रश्न है, वह भी चोट करनेवाला है; वह दूसरी दिशा से चोट करनेवाला है। इसे थोड़ा समझो। श्वास से तो खयाल में आया। अब 'मैं कौन हूं', इससे कुंडलिनी पर कैसे चोट होगी? क्योंकि कल्पना की जो चोट है वह तुम्हारे भीतर से जाकर सेंटर को छूती है। प्रत्यक्ष की जो चोट है वह भीतर से जाकर नहीं छूती, बाहर से तुम्हें सीधा छूती है। और मनुष्य चूंकि मन में जीता है, इसलिए मन से ही गहरी चोटें कर पाता है। - ओशो विषय प्रेरित भाव लेख 

सत्य को पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना सत्य के लिए ठीक अर्थों में प्यासे हो जाना है। वह भी एक आनंद है। जो क्षुद्र के लिए प्यासा होता है, वह क्षुद्र को पाकर भी आनंद उपलब्ध नहीं करता। और जो विराट के लिए प्यासा होता है, वह उसे न भी पा सके, तो भी आनंद से भर जाता है।

इसे पुनः दोहराऊं--जो क्षुद्र के लिए आकांक्षा करे, वह अगर क्षुद्र को पा भी ले, तो भी उसे कोई शांति और आनंद उपलब्ध नहीं होता है। और जो विराट की अभीप्सा से भर जाए, वह अगर विराट को उपलब्ध न भी हो सके, तो भी उसका जीवन आनंद से भर जाता है।


जिन अर्थों में हम श्रेष्ठ की कामना करने लगते हैं, उन्हीं अर्थों में हमारे भीतर कोई श्रेष्ठ पैदा होने लगता है।
कोई परमात्मा या कोई सत्य हमारे बाहर हमें उपलब्ध नहीं होगा, उसके बीज हमारे भीतर हैं और वे विकसित होंगे। लेकिन वे तभी विकसित होंगे जब प्यास की आग और प्यास की तपिश और प्यास की गर्मी हम पैदा कर सकें।


मैं जितनी श्रेष्ठ की आकांक्षा करता हूं, उतना ही मेरे मन के भीतर छिपे हुए वे बीज, जो विराट और श्रेष्ठ बन सकते हैं, वे कंपित होने लगते हैं और उनमें अंकुर आने की संभावना पैदा हो जाती है। 


भीतर 'ध्यान' का दिया जला हो तो... 
तुम चाहे पहाड़ पर रहो या बाज़ार में... 
कोई अंतर नहीं पड़ता..
तुम्हारे पास 'ध्यान' हो तो 
कोई गाली तुम्हे छूती नहीं! 
ना अपमान, ना सम्मान, ना यश, ना अपयश ...
कुछ भी नहीं छूता...
अंगारा नदी में फेंक कर देखो...
जब तक, नदी को नहीं छुआ
तभी तक अंगारा है,
नदी को छूते ही बुझ जाता है!...
तुम्हारे ध्यान की नदी में...
सब गालियाँ, अपमान, छूते ही मिट जाते हैं...
तुम दूर अछूते खड़े रह जाते हो...
इसी को परम स्वतंत्रता कहते हैं!
जब बाहर की कोई वस्तु, व्यक्ति, क्रिया...
तुम्हारे भीतर की शान्ति और शून्य को डिगाने में
अक्षम हो जाती है...
तब जीवन एक आनंद है!


ओशो 


विपस्‍सना ध्‍यान की तीन विधियां—


विपस्‍सना ध्‍यान—

विपस्‍सना का अर्थ है: अपनी श्‍वास का निरीक्षण करना, श्‍वास को देखना। यह योग या प्राणायाम नहीं है। श्‍वास को लयबद्ध नहीं बनाना है; उसे धीमी या तेज नहीं करना है। विपस्‍सना तुम्‍हारी श्‍वास को जरा भी नहीं बदलती। इसका श्‍वास के साथ कोई संबंध नहीं है। श्‍वास को एक उपाय की भांति उपयोग करना है ताकि तुम द्रष्‍टा हो सको। क्‍योंकि श्‍वास तुम्‍हारे भीतर सतत घटने वाली घटना है।

अगर तुम अपनी श्‍वास को देख सको तो विचारों को भी देख सकते हो।

यह भी बुद्ध का बड़े से बड़ा योगदान है। उन्‍होंने श्‍वास और विचार का संबंध खोज लिया।

उन्‍होंने इस बात को सुस्‍पष्‍ट किया कि श्‍वास और विचार जुड़ हुए है।

श्‍वास विचार का शारीरिक हिस्‍सा है और विचार शरीर का मानसिक हिस्‍सा है। वह एक ही सिक्‍के के दो पहलु है। बुद्ध पहले व्‍यक्‍ति है जो शरीर और मन की एक इकाई की तरह बात करते है। उन्‍होंने पहली बार कहा है कि मनुष्‍य एक साइकोसोमैटिक, मन:शारिरिक घटना है।

विपस्‍सना ध्‍यान की तीन विधियां—

विपस्‍सना ध्‍यान को तीन प्रकार से किया जो सकता है—तुम्हें कौन सी विधि सबसे ठीक बैठती है, इसका तुम चुनाव कर सकते हो।

पहली विधि—

अपने कृत्‍यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने ह्रदय के प्रति सजगता। चलो, तो होश के साथ चलो, हाथ हिलाओ तो होश से हिलाओ,यह जानते हुए कि तुम हाथ हिला रहे हो। तुम उसे बिना होश के यंत्र की भांति भी हिला सकेत हो। तुम सुबह सैर पर निकलते हो; तुम अपने पैरों के प्रति सजग हुए बिना भी चल सकते हो।

अपने शरीर की गतिविधियों के प्रति सजग रहो। खाते समय,उन गतिविधियों के प्रति सजग रहो जो खाने के लिए जरूर होती है। नहाते समय जो शीतलता तुम्‍हें मिल रही है। जो पानी तुम पर गिर रहा है। और जो अपूर्व आनंद उससे मिल रहा है उस सब के प्रति सजग रहो—बस सजग हो रहो। यह जागरूकता की दशा में नहीं होना चाहिए।

और तुम्‍हारे मन के विषय में भी ऐसा ही है। तुम्हारे मन के परदे पर जो भी विचार गूजरें बस उसके द्रष्‍टा बने रहो। तुम्हारे ह्रदय के परदे पर से जो भी भाव गूजरें, बस साक्षी बने रहो। उसमें उलझों मत। उससे तादात्म्य मत बनाओ, मूल्यांकन मत करो कि क्‍या अच्‍छा है, क्‍या बुरा है; वह तुम्‍हारे ध्‍यान का अंग नहीं है।

दूसरी विधि—

दूसरी विधि है श्‍वास की; अपनी श्‍वास के प्रति सजग होना। जैसे ही श्‍वास भीतर जाती है तुम्‍हारा पेट ऊपर उठने लगता है, और जब श्‍वास बहार जाती है तो पेट फिर से नीचे बैठने लगता है। तो दूसरी विधि है पेट के प्रति—उसके उठने और गिरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के उठने और गिरने का बोध हो……और पेट जीवन स्‍त्रोत के सबसे निकट है। क्‍योंकि बच्‍चा पेट में मां की नाभि से जूड़ा होता है। नाभि के पीछे उसके जीवन को स्‍त्रोत है। तो जब तुम्‍हारा पेट उठता है, तो यह वास्‍तव में जीवन ऊर्जा हे, जीवन की धारा है जो हर श्‍वास के साथ ऊपर उठ रही है। और नीचे गिर रही है। यह विधि कठिन नहीं है। शायद ज्‍यादा सरल है। क्‍योंकि यह एक सीधी विधि हे।

पहली विधि में तुम्‍हें अपने शरीर के प्रति सजग होना है, अपने मन के प्रति सजग होना है। अपने भावों, भाव दशाओं के प्रति सजग होना है। तो इसमें तीन चरण हे। दूसरी विधि में एक ही चरण है। बस पेट ऊपर और नीचे जा रहा है। और परिणाम एक ही है। जैसे-जैसे तुम पेट के प्रति सजग होते जाते हो, मन शांत हो जाता है, ह्रदय शांत हो जाता है। भाव दशाएं मिट जाती है।

तीसरी विधि—

जब श्‍वास भीतर प्रवेश करने लगे, जब श्‍वास तुम्‍हारे नासापुटों से भीतर जाने लगे तभी उसके पति सजग हो जाना है।

उस दूसरी अति पर उसे अनुभव करो—पेट से दूसरी अति पर—नासापुट पर श्‍वास का स्‍पर्श अनुभव करो। भीतर जाती हई श्‍वास तुम्‍हारे नासापुटों को एक प्रकार की शीतलता देती है। फिर श्‍वास बाहर जाती है…..श्‍वास भीतर आई, श्‍वास बहार गई।

ये तीन ढंग हे। कोई भी एक काम देगा। और यदि तुम दो विधियां एक साथ करना चाहों तो दो विधियां एक साथ कर सकते हो। फिर प्रयास ओर सधन हो जाएगा। यदि तुम तीनों विधियों को एक साथ करना चाहो, तो तीनों विधियों को एक साथ कर सकते हो। फिर संभावनाएं तीव्र तर होंगी। लेकिन यह सब तुम पर निर्भर करता है—जो भी तुम्हें सरल लगे।

स्‍मरण रखो: जो सरल है वह सही है।

सरल विधि—

विपस्‍सना ध्‍यान की सरलतम विधि है। बुद्ध विपस्‍सना के द्वारा ही बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए थे। और विपस्‍सना के द्वारा जितने लोग उपलब्‍ध हुए हे उतने और किसी विधि से नहीं हुए। विपस्‍सना विधियों की विधि है। और बहुत सी विधियां है लेकिन उनसे बहुत कम लोगों को मदद मिली है। विपस्‍सना से हजारों लोगों की सहायता हुई है।

यह बहुत सरल विधि है। यह योग की भांति नहीं है। योग कठिन है, दूभर है, जटिल है। तुम्‍हें कई प्रकार से खूद को सताना पड़ता है। लेकिन योग मन को आकर्षित करता हे। विपस्‍सना इतनी सरल है कि उस और तुम्‍हारा ध्‍यान ही नहीं जाता। विपस्‍सना को पहली बार देखोगें तो तुम्‍हें शक पैदा होगा, इसे ध्‍यान कहें या नहीं। न कोई आसन है, न प्राणायाम है। बिलकुल सरल घटना—सांस आ रही है, जा रही है, उसे देखना बस इतना ही।

श्‍वास-उच्‍छवास बिलकुल सरल हों, उनमें सिर्फ एक तत्‍व जोड़ना है: होश, होश के प्रविष्‍ट होते ही सारे चमत्‍कार घटते है।

1 comment:

  1. मैंइस समय साक्षी की साथना ध्यान प्रयोग कर रहा हूँ 1. 10मिनिट गहरी श्वास लेना ,श्वास बाहर फेकना 2 10स्वीकार भाव 3 10 भाव करना मैं मर गया ........इस प्रयोग से होना मात्र रह जाता है ।। स्वामी अमृतोउत्सव

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