Tuesday 9 September 2014

तर्पण : एक भाव



"मात्र एक ही सत्य "

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
Om poornamadah poornamidam poornaat poornamudachyate

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
Poornasya poornamaadaaya poornamevaavashishṣyate

ये अनुभूति  बहुत  कीमती  है  , इसका  दूसरा  अंग्रेजी  नाम   self realisation , दूसरे  अर्थो  में सत्ता  का पूर्ण  स्वीकार और अपनी पहले  से  ही  निरंतर  कम  होती  सीमाओं  का  भी  ज्ञान  ... शारीरिक क्षमताये  , मानसिक  अवरोध  आयु  के साथ बढ़ती  ज्यादा  अहसास कराती जाती है  .... सहज  भाव  से  , पीड़ा  रहित भाव  , बस  " जो  है  सो  है "  का  उचित भाव उपयोगी है  , यही  सहज  दर्शन  , सहज जागरूकता  , और सहज  योग  अध्यात्म  ही  तो  है  , और  क्या  कोई  अलग ज्ञान अलग  दर्शन  अलग व्यक्ति  अलग  शक्ति है  ... न  न  !

इस उपर्लिखित मन्त्र  और तत्जनित  बहुमूल्य भाव को अपने साथ रखे ! 
पूजन को  मात्र रीतिगत  दायित्व न बनने दें , 
न भ्रमित करे  न स्वयं को होने दें ! इतना तो कर सकते है न सब ! 




पूर्ण ; पूर्ण में मिल गया, और संपूर्ण हो गया ! 


इस भाव के साथ ही हम अपनी आगे की यात्रा शुरू करते है , जहाँ अक्सर लोगों को रहस्यमयी  शक्तियों  और जीव की गति को लेकर असमंजस  होता है , जन्म से  दिए संस्कार  तो कभी  स्वयं का जातक के प्रति प्रेम , कुछ भी कहीं से  भी छोटा सा सूत्र अज्ञानता का प्रवेश पा  ही लेता है।

जरा  विचार को स्थान दीजिये , सोचिये !   जब की  अंतिम  पूजन की पराकाष्ठा  मात्र भाव है , भक्ति  भी भाव पे समाप्त हो जाती है।  तो और क्या बचा ?  क्या कुछ भी कृत्य ऐसा है , जो बिना भाव के किया जाये  प्रदर्शन के साथ  और फल आपको आपकी इक्षा से मिले , असंभव है !  फल भी  भाव के ही अधीन है।  

विषय संवेदनशील है , " पितृ पूजा " अथवा श्राद्ध , हमारे हिन्दू समाज में  अनेक कारणों से  इस पर्व की मान्यता है , जीव के साथ  भावनात्मक जुड़ाव तो है ही , साथ ही  अन्य कारन भी है  जो कभी कभी विषयगत सहमति न होने पर भी , जीवित  मनुष्य बाध्य होते है , इसको संस्कार रूप में करने को , तो कई मात्र इसलिए कर देते है , की ऐसा करने में जाता क्या है ! 

सब ठीक है , कुछ गलत नहीं , भाव कोई भी हो , किया गया  अथवा नहीं भी किया गया , इसीसे भी  जाने वाले जीव को फर्क नहीं पड़ता।  कुछ हद तक भाव स्वयं के ही सहायक है , सबसे बड़ा लाभ ये है  की  दिवंगत के प्रति  आभार प्रकट करना है  जो एक अन्य सूत्र भी देता है , सम्बन्ध वृक्ष की श्रृंखला  को  हरा भरा रखता है

परन्तु संस्कार यदि  भरी ह्रदय से , पंडित को  गाली देते हुए  मज़बूरी में किया जा रहा है , तो ऐसे
व्यक्तियों को अपना ज्ञान थोड़ा  और बढ़ाना चाहिए।  मैं  नहीं कहती की  की श्राद्ध  का मूल ( प्रचलित सतही )  भाव  सही है या गलत  . क्यूंकि यहाँ  श्रद्धा  और प्रेम  काम करता है , ज्ञान नहीं।  यदि आप मृतक को याद करना चाहते है कीजिये पर इसी जुडी कथाओं और दिया दान  आसमान  में कितने परत ऊपर तक जायेगा , अथवा  आपका वो दान लेने कितने ऊपर अथवा नीचे से  जीव निकल के आएगा।   इनमे  फसना  ही अज्ञानता है।  वो भी आधे ज्ञान के साथ।  

पितरों के प्रति दिया गया दान  में भाव  ज्यादा  और धन कम दिखना चाहिए।   और  कोई पंडित ही करवायेगा  ऐसी भी बाधा  नहीं , आप स्वयं पूर्ण श्रद्धा से उसे  दान कर सकते है।  क्यूंकि हम सभी जानते है , की कौन सा धन  उस लोक में साथ जाता है , तो ये भी पता होना चाहिए  की पितरों को कौन सा दान चाहिए !  

बहुत लोग ये कह के भ्रमित करते है  की आपका बहुमूल्य सहयोग है  उनकी मुक्ति में , ये भी अद्भुत भ्रम है , जो विश्वास भी करने जैसा लागता है।  शायद हमारी ही कोई भावना  तृप्त होती है।   वास्तव में  अगर ये भाव न दिए जाए , तो मनुष्य के लौकिक स्वार्थी होने में  पल भी नहीं लगता , तो बहुत सी भावनाए सिर्फ इसलिए है की हम मानव है और मानव ही बने रहे।  

* ज्ञान का प्रकाश  आवश्यक है , पर  अज्ञान के साथ ज्ञान का प्रकाश भी  धूमिल हो जाता है , और अज्ञान की ही तरह  व्यवहार करने लगता  है।  और अज्ञानी ज्ञान  इस दम्भ में की " मै तो ज्ञानी हूँ ", वो  जानता ही नहीं  की कभी का उसका ज्ञान अज्ञान   के  कोहरे से आच्छादित हो चुका है,  अपने स्वयं के  ध्यान से अपने ज्ञान को  दिव्य ज्ञान का प्रकाश दें।  

* मानव बनिए  ... जरुर बनिए पर  मानवता  के साथ , संवेदनशीलता के साथ , प्रदर्शन के लिए नहीं , दिखावे के लिए नहीं।  मनुष्य की संवेदनशीलता ही उसे मनुष्य बनाती है। 

* साल के कुछ दिन किये  चार  दाने और बूँद बूँद जल   कैसे उनकी  भूख मिटा सकेंगे ?  जबकि हम और आप तो दिन में  चार बार भोजन लेते है। प्रश्न  भी है  और उत्तर भी इसी में है। व्यक्ति जो भी तर्पण अर्पण करता है  उसका ९९  प्रतिशत  स्वयं के भावनात्मक  संतुष्टि  के लिए  और मात्र एक प्रतिशत  दिवंगत  के लिए  भाव सहित।  इससे  बड़ा सच दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।  जीव के सारे कर्त्तव्य  सारे प्रयास स्वयं के लिए ही है।  

गरुड़  पुराण का अपना अर्थ है , भावनाओ से विचलित जीव को समझने का  एक मनोवैज्ञानिक तरीका है , जहाँ अधीर दुखी हृदय जीव की  पारलौकिक यात्रा को  स्वीकार करता है  और ह्रदय से  उसके आगे की यात्रा के लिए  सद्भाव रखता है  उसकी सदगति  के लिए प्रार्थना करता  है।  

श्राद्ध  का पखवाड़ा हर साल इन्ही दिनों  मनाया जाता है , दिनों के हिसाब से  आत्माओं को  तर्पण देने की प्रथा है , यदि  इन दिनों  के महत्त्व को समझे और जाने  तो  हर किसी  दिवंगत को इस  तर्पण  के आयोजन में सम्मलित किया गया और स्थान दिया गया है, इस धरती में प्रकर्ति  में जन्मे  हर किसी के प्रति  श्रद्धा और सम्मान  ही श्राद्ध का मुख्यदायित्व है, मनुष्यों  में भी बालक के लिए   बुजुर्गों के लिए , माता के लिए  , पिता के लिए, इसमें  प्रथम दिन  मामाँने (माता के परिवार) के पक्ष के लिए , इसे प्रतिपदा भी कहा गया ,  फिर भरणी शरद चौथे दिन और पांचवे दिन  यम के लिए  माना  गया  ऐसा कहा जाता है की यम इन दिनों  अति शक्तिशाली होते है  भरणी और  प्रतिपदा नक्षत्र  यम के शासन के  जाने गए ,  और नवां दिन  स्त्रियों के लिए दसवां दिन पुरुषों  के लिए , बारहवां दिन सन्यासियों   और तेरहवां दिन जो अकाल मृत्यु को गए ,अंतिम दिन अमावस्या का जिसे महालय अमावस्या या  सर्व पितृ मोक्ष  अमावस्या भी कहते है , सभी के लिए प्रेम  सभी के लिए सम्मान और सभी की सद्गति के लिए  प्रार्थना , यदि आडंबर को परे  रख दे , तो मूल अर्थ यही है।  संभवतः , रोज रोज किसी के लिए इतना सम्मान और याद शायद न  रहे , इसी कारण दिन  नक्षत्रो  और  ऋतू के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए तै किये गए। इनके बीतने साथ ही पवित्र दिनों का शुभारम्भ भी माना  गया।  सबका अपना विश्वास  और भाव।  सब ठीक है सब उचित है , बस अज्ञानता स्वयं के लिए ही कष्टकारी है और स्वयं के साथ ही आस पास को भी  अज्ञानता प्रभावित करती है।  कृपया सभी अपने अपने ज्ञान को और प्रकाशित करे , और भाव को समृद्ध करें।  

( पढ़िए  .... सोचिये ..... जानिए  .... फिर  मानिए , और किसी भी  अज्ञात भय से  स्वयं को मुक्त रखिये , क्यूंकि जो हो रहा है वो अचानक नहीं घट रहा  , जीव की गति का ही  एक रूप है , जो होना ही है , सो भय  निरर्थक  है , और  जिस परमात्मा के आगे  समर्पण  किया है उसके राज्य में भय का कोई स्थान नहीं  , भयभीत को तो वो अपनी शरण में भी नहीं लेता , उसके राज्य का पहला नियम है , समर्पण और  सर्वभयमुक्ति और हो रहे के प्रति  सर्व स्वीकारोक्ति  ) 

संस्कारों का मनोवैज्ञानिक महत्त्व न भूलें  ! किसी ज्ञान अथवा अंद्विस्वास में स्वयं को न उलझने दें , अन्धविश्वास की भी लम्बी शृंखला है , फंसना  आसान है , मनोरंजक है पर निकलना  और अन्धविश्वास की बेडी  काटना  दुष्कर हो जाता है , सैकड़ों अनिष्टकारक  भय घेरते है , हमारा छोटा सा मन अनिष्ट की आशंका  से भर जाता है,  ये न किया तो ?  वो न किया तो ? 

श्राद्धों की अपनी परंपरा  है , पूर्णतः मनोवैज्ञानिक है।  जीव का इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं , सब जीवित जीव  की दिलासा है।  इस महान रहस्य को कोई नहीं जान सकता , वे भी नहीं , जो आपको समझाते  है क्रिया कर्म  के लिए कहते है  , वे भी कहीं से सुन के आये है जो आपको सुना रहे है।  

पूर्ण  संस्कार के मूल में एक ही भाव  वैज्ञानिक है  वो है  जीवित का जीवन सुख और शांति से चले , कैसे भी करके , उसको समझ आना ही है  की आगे जीवन भी है और जिम्मेदारी भी।  

और साल दर  साल  इस संस्कार का आयोजन   बहुतों  की  स्वाभिमान को बहुत  तरीके से शांत करता है , जैसे रुपिए का बिना विचार प्रदर्शन दान  का मुख्या अंग हो जाता है , फिर बिचारे पंडित ने क्या बिगाड़ा है वो भी बहती गंगा में हाथ धो ही लेता है  , तो इस प्रदर्शन से अलग  बहुत के प्रियजन वियोग  दग्ध  हृद्या भाव को शांति मिलती  है जब वो जरूरतमंद को सहायता करते है , उनको लगता है  किसी न किसी रूप में दिवंगत  सुखी होगा और आशीर्वाद देगा।  



वास्तिविक  श्राद्ध ह्रदय का ह्रदय से है , भाव का भाव से है आत्मा का आत्मा से है।   रसायन विज्ञानं भी यही  सलाह देता है रासायनिक मिश्रण  के गुणात्मक मेल  के मिलान  उचित परिणाम के लिए आवश्यक है । 

Be Safe  Be Wise "

ॐ 

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