Wednesday 17 September 2014

श्री विद्या


Under this pic find very much authentic description Regarding the term Vidya  about Wisdom and Knowledge and Enlightenment and Moksha .. 


कृपया  नीचे  लिखे तो आहिस्ता आहिस्ता  ध्यान पूर्वक पढ़े:- 


क्या आप भगवान् है ? तो फिर धन के कुंडली पर क्यों बैठे है . वहस जारी है.......

यस्याग्या जगत सृष्टा विरंची:पालको हरी:संहर्ता काल रुद्राख्यो नमस्तस्मै पिनाकिने:(जानकी आज्ञा से ब्रह्मा जी इस जगत की सृष्टि तथा विष्णु भगवान् पालन करते है और जो स्वयंग ही काल रूद्र नाक धारण करके इस विश्व का संहार करते है. उन पिनाकधारी भगवान् शंकर को नमस्कार है.” ॐ नम : शिवाय भगवान् शंकर के 30 नाम है ) दक्ष के शीश का प्रत्यारोपण होने के बाद महादेव जी की स्तुति इस प्रकार की : “नमामिदेवं वरेण्यम नमामि देवं च सदा सनातन ; नमामि देवाधिपमिश्वरम हरं नमामि शम्भु जगदेकवंधुम..नमामि विश्वेश्वर विश्वरूपम सनातन ब्रह्म निजात्म रूपं .नमामि सर्व निजभाव गम्यम वंर वरेण्यम वरदं नातोस्मी ”

महादेव जी :- पार्वती को उपदेश देते है.——— निर्गुण ; भगवान् -विष्णु में सब कर्मो का समर्पण कर दे .... मनुष्य संसार बंधन से छुट जाता है.जब शरीर में ममता नहीं रहती तब चित अन्यंत निर्मल होता है और जब श्री हरी में भक्ति योग दृढ होता है. तब कर्म से बंधन नहीं होता.यही उत्तम ज्ञान है.यही उत्तम तप है.और यही उत्तम श्रेय है.की भगवान् कृष्ण को सर्व कर्म समपर्ण कर दिया जाय .यही निर्माण योग है.इसी को निर्गुण कहा गया है.

द्विजो को श्रुतियो और स्मृतियों के अनुशीलन से मोक्ष का मार्ग प्राप्त होता है.यह मोक्ष एक नगर है.जिसके चार दरवाजे है. – शम, दम, सद्विचार,संतोष,और साधू संगत.

योग सिद्ध पुरुष :- जो माया आदि के आवरणों से रहित तथा मिथ्या वस्तु से विरक्त है और कुसंग से दूर रहता है.- वही योग सिद्ध पुरुष है.

बुधि :- त्याज्य और ग्राह्या .

त्याज्य : संसार विषयक बुधि त्याग देने योग्य है / ग्राहय :- पर ब्रह्म के चिंतन में लगने वाली कल्याणमयी बुधि ग्रहण करने योग्य है.

वेद : वेद का सनातन सार तत्व है.द्वादशाक्षर मंत्र है.प्रणव (ॐ ) सब वेदों का आदि है.समस्त ब्रह्मांडो का याजक है. समस्त सिद्धियों का दाता है.–उसका शुक्ल (सफ़ेद) वर्ण है. मधुच्छन्दा ब्रह्मा ऋषि है.परमात्मा देवता है.गायत्री छंद है.शव्द ब्रह्म (ॐ एंव वेद) से द्वादशाक्षर मंत्र प्रकट हुआ है.

ध्यान योग :१ सालंब (सविशेष ) / २. निरालम्ब (निर्विशेष)

सालंब : सगुन साकार विग्रह नारायण का दर्शन सालंब है./ निरालम्ब : ज्ञानयोग है.यह सबका आलम्ब है .रूप रहित  है. अप्रमेय तथा सर्व स्वरुप जो सनातन तेज है . जिसका प्रकाश कोटि कोटि विद्युतो के समान है. ओ सदा उदय्शील और पूर्णतम है. जो निष्कल ,सफल एंव निरंजन्मय है. आकाश के सामान सर्व व्यापक है, सुख स्वरुप एंव तुरीयातीत है. जिसकी कही उपमा नहीं है.वही परमेश्वर का निराकारस्वरूप निरा- लम्ब ध्यान योग के द्वारा चिंतन करने योग्य है.

श्रुतियो के अनुसार :- साकार,निरकार, सर्वव्यापी ,नित्य ,सत्य एंव द्वैत रहित कह कर जिस पर ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है. वे ही भगवान् शिव है. वे समस्त कारणों से परे एंव परात्पर है.ब्रह्म का स्वरुप परमानंदमय है.वे अपने द्वारा आप ही जानने योग्य है.,परम ज्योर्ति स्वरुप है और सबके हृदय में अंर्तयामी स्वरुप से स्थिति है. वे अनंत है.अन्तक स्वरुप है.सर्वज्ञ एंव कर्म शून्य है.

वे अर्ध चन्द्र का मुकुट धारण करते है. भगवान् रूद्र के पर और अपर (सगुन -निर्गुण -अथवा कार्य -कारन ) दो रूप है.जो सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है.वे निराकार होकर भी साकार है. भगवान् शिव भोग और मोक्ष के कारण है. जैसे शिव है. वैसे विष्णु है.जैसे विष्णु है वैसे शिव है.शिव और विष्णु में तनिक भी अंतर नहीं है.( यथा शिवस्ताथा विष्णुस्तथा शिव: / अन्तरं शिव विष्णोश्च मानागानी न विद्यते)

* भगवान् शिव ने सच्चिदानंद रूपणी जगदम्बा के साथ अपने बांये अंग में अमृत की वर्षा करनेवाली दृष्ट डाली . उससे एक त्रिभुवन सुन्दर प्र्रुष प्रकट हुए . जो परम शांत, सत्वगुण से पूर्ण , समुद्र से भी अधिक गंभीर और क्षमावान था. उसके अंगो की कांति इन्द्रनील्मानी के समान श्याम थी.नेत्र विकसित कमल दल के समान सुन्दर थे. उसने सुवर्ण रंग के दो सुन्दर पीताम्बर से अपने शरीर को आच्छादित कर रखा था.वह सुन्दर और प्रचंड युगल बाहू दण्डोसे सुशोभित थे. उसके नाभि कमल से बड़ी उत्तम सुंगध फ़ैल रही थी.वह अकेला ही सम्पूर्ण गुणों का आश्रय और अकेला ही सब पुरुषो से उत्तम था.इसलिए “पुरुषोत्तम ” कहलाया.इस महान पुरुष को देखकर महादेव ने कहा: अच्युत ! तुम कहा विष्णु हो. तुम्हारे नि:श्वास से वेद प्रकट होंगे और उनसे तुम हर कुछ जानोगे.यह कहकर शिव अंतर ध्यान हो गए.इसके बाद से विष्णु तपस्या शुरू की.कठोर तपस्या के बाद शिव पार्वती के साथ प्रकट हुए.शिव ने कहा : वर मांगो.!

विष्णु : मै सदा भवानी के संग आपका दर्शन करता रहू

भगवान् शिव ने कहा:- एवमस्तु .

विश्ल्री व्याप्तौ “धातु है” इसी से विष्णु शब्द की उत्पति हुई है.ये ही हरी है.इन्द्रियों की स्वामी होने से हृषिकेश “कहलाते है.वे ही सर्वत्र स्थित है.

ॐ -कार

ब्रह्म विद्या रूपी -तप,दम और कर्म आदि साधन.वेदानुसार तप,दम और निष्काम कर्म आदि का आचरण करते हुए उसके तत्व का अनुसन्धान करते है. वे ही ब्रह्म विद्या दस सर्वस्व पर ब्रह्म परुशोतम को प्राप्त करते है.
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प्रश्न : मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व है और कुछ लोग कहते है – नहीं है.?

यमराज: आत्म तत्व अत्यंत सूक्ष्म विषय है.इसमें देवताओं को भी संदेह है.वे भी अनजान है.प्रकृति पर्यंत जो भी सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्व है.यह आत्म तत्व उससे भी सूक्ष्म है वह अनित्य है और यह सिद्ध है की अनित्य साधनों से नित्य पदार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकता .

“यह सम्पूर्ण जगत एक अत्यंत दुर्गम गहन वन के सदृश्य है.परन्तु यह पर ब्रह्म परमेश्वर से परिपूर्ण है. वह सर्व व्यापी इसमें सर्वत्र प्रविष्ट है. वह सबके हृदय गुफा में स्थित है.इस प्रकार नित्य तथा साथ रहने पर भी लोग उसे सहज से न देख पाते क्योंकि वह अपनी योगमाया के परदे में छिपा है इसलिए अत्यंत गुप्त है दर्शन दुर्लभ है.

– यह अपर ब्रह्म है.ऋग्वेद स्वरुप है. इसकी उपासना से कर्म -बन्धनों से छुटकर सर्वथा निर्विकार हो जाता है.

शुद्ध-बुधि संपन्न साधक अपने मन बुधि को नित्य निरंतर उसके चिंतन में संग्लन रखता है.वह उस सनातन देवी को प्राप्त करके सदा के लिए हर्ष शोक से रहित हो जाता है. उसके अंत:कारण में हर्ष शोकादि विकार समूल नष्ट हो जाते है.

* एकांत में विचार करके जब मनुष्यों को आत्म स्वरुप की प्राप्ति हो जाती है अर्थात जब वह आत्मा को तत्व से समझ लेता है तव आनंद स्वरुप पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता है.

समस्त वेद, नाना प्रकार के छन्दों से जिसका प्रतिपादन करते है,सम्पूर्ण तप आदि साधनों का जो एक मात्र परम और चरम लक्ष्य है तथा जिसको प्राप्ति करने की इच्छा से साधक निष्ठा पूर्वक ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान किया किया करते है उस पुरुषोत्तम भगवान् का परम तत्व को मै संक्षेप में बतलाता हूँ. यह अवनाशी प्रणव- ॐ कार ही तो ब्रह्म है. यही पर ब्रह्म परम पुरुषोत्तम है. अर्थात ब्रह्म और पर ब्रह्म दोनों का नाम -ॐ-कार है. अत: इस तत्व को समझ कर साधक इसके द्वारा किसी बी अभिष्ट रूप को प्राप्त कर सकता है.पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति के लिए श्रेष्ट और चरम आलम्ब है. इससे परे कोई आलम्बन नहीं है.

मारा जाता है आत्मा का स्वरुप – अनित्य , अविनाशी जड़ शरीर और भोगो से वास्तव में इसका कोई सम्बन्ध नहीं है.आत्मा न तो मरता है और न ही इसको कोई मार सकता है. अनादि अनंत है, न कोई कारण और न कोई कार्य . यह जन्म मरण से सर्वथा रहित,सदा एक रस सर्वथा निर्विकार है.शरीर दे नाश से इसका नाश नहीं होता .सब प्रकार के भोगो की कामना से रहित और शोक रहित हो जाता है.वह परमात्मा की कृपा से यह अनुभव करता है.की पर ब्रह्म पुरुषोत्तम अणु से भी अणु और महँ से भी महान -सर्व व्यापी है. परब्रह्म अचिन्त्य शक्ति है.तथा विरुद्ध धर्मो के आश्रय है. एक ही समय में उनमे विरुद्ध धर्मो की लीला होती है.इसी से वे एक ही साथ सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान से महान बताये गए है.अर्थात परमात्मा सदा सर्वदा सर्वत्र स्थित है.( कठोपनिषद वल्ली -2)

कौथुम के पुत्र : ॐ – अ-कार,= ब्रह्म,उ -कार=भगवान् विष्णु,और म-कार=भगवान् महेश्वर, और मस्तक पर अर्ध मात्रा अर्ध चंद्रकार “(” इन चारो की प्रतिनिधित्व ॐ कर रहा है. यह भगवान् सदाशिव का प्रतीक है.

1 .जिसकी अभिव्यक्त इस बाह्य स्थूल जगत में हो रही है –वह स्वरुप वैश्वानर उन पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का पहला पद है.

2 . पाद- स्व-प्रस्थान ,अंत:प्रज्ञा , सप्तांग ,ऐकोनविशति मुख (उन्नीस मुख वाला) सूक्ष्म जगत का भोक्ता व तैजस (प्रकाश) का स्वामी सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ .

3 . जिसका एक मात्र चेतना (प्रकाश) ही मुख है और आनंद ही भोजन है. वह विज्ञानघन,आनंदमय प्राज्ञ ही उन पूर्ण ब्रह्म का तीसरा पाद है

4 . निर्गुण -निराकार, निर्विशेषरूप को, पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का चौथा पाद बताया गया है.

इस प्रकार जिनका चार पदों में विभाग करके वर्णन किया गया है, वे ही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा है अपर ब्रह्म है.ऋग्वेद स्वरूपा है.इसकी उपासना से -कर्म बन्धनों से छुटकर सर्वथा निर्विकार हो जाता है.

जिस प्रकार ॐ में पहला वर्ण “अ” उसी प्रकार वही “अ” के तरह पर ब्रह्म है. पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर का पहला पद -अ है.उ ,अ और म के वीच यह उभय स्वरुप है. यह तैजस नामक द्वितीय पाद कहा गया है.जो “उ” और तेजोमयी हिरण्यगर्भ रूप के एकता के रहस्य को समझ लेता है.वही स्वयं इस जगत के सूक्ष्म तत्वों को भलीभांति प्रत्यक्ष कर लेता है यह दूसरा पाद है.

“म ” यह मा धातु से बना है.अर्थ है- माप लेना.अर्थात समझ लेना इसमें “अ” और “उ” दोनों का माप इसमें आ जाता है .अत: उनका जानने वाला है यह पूर्ण ब्रह्म का तीसरा पद है.- मांडूक्य उपनिषद् “.

परब्रह्म परमेश्वर की  रचना :

1 . अम्भ जन; तप:और सत्यलोक है .इसका आधार द्युलोक है. मरीचि, अन्तरिक्ष लोक सूर्य ,चन्द्र ,तारागण (भुवर्लोक) 3 . मर: पृथ्वी लोक (मृत्य लोक ) 4 जल : पाताल लोक ( आप:) —ऐतेरेंयक उपनिषद्

परमात्मा का प्रवेश : मनुष्य शरीर की सीमा (मूर्धा) को अर्थात ब्रह्म रंध्र को चीरकर इसके द्वारा उस सजीव मनुष्य शरीर में प्रविष्ट हो गए .यह द्वार विदृति (विदीर्ण किया हुआ द्वार) नाम से प्रसिद्ध है.

परमेश्वर उपलब्ध की तीन स्थान :-

1 . हृदयाकाश 2 . विशुद्ध आकाशरूप परमधाम (सत्यलोक ,गो-लोक ,ब्रह्मलोक ) साकेत कैलाश.3 . ब्रह्माण्ड.
स्वप्न —- 1 . स्थूल. 2 . सूक्ष्म. 3 . कारणरूप

परमात्मा -सृष्टि की रचना करनेवाला- जीव आत्मा :- सजीव पुरुष में परमात्मा ने प्रकट किया है — ऐतरेयोपनिषद.



ॐ — परब्रह्म परमात्मा का नाम होने से साक्षात ब्रह्म ही है.यह ब्रह्म का स्थूल रूप है .यह अनुमोदन का सूचक है — तैतिरीय उपनिषद.

परमात्मा सत्य स्वरुप है.अर्थात सत्ता . यह अनंत है.सीमा रहित है.विशुद्ध आकाश में रहते हुए भी सबके हृदय की गुफा में छिपे हुए है.

जीव आत्मा :- परमात्मा को जीवात्मारूप शरीर का शासन करनेवाला और उसका अंतरात्मा बताया गया है. वे ही वास्तव में समस्त पुरुषो से उत्तम होने के कारण “पुरुष” शब्द के अभिधेय है –ब्रिह्दारंयक उपनिषद (३ /७/२३)

ब्रह्म के विषय में कल्पना केवल उपासना की सुगमता के लिए की जाती है दूसरा कोई उपाय नहीं है — ब्रह्मसूत्र.(3 /3 /12 से 3 /3 /14 तक)

वरुण पुत्र -भृगु ने पूछा :- (अपने पिता से ) : भगवन ! मै ब्रह्म को जानना चाहता हूँ ?

वरुण:- तात ! अन्न, प्राण. नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी ये सभी ब्रह्म के उपलब्धि के द्वार है. इन सबो में ब्रह्मा की सत्ता स्फुरित हो रही है. तुम तप करो. तप ही सुमग मार्ग है. ब्रह्म को जानने के लिए . यह सुन कर भृगु तपस्या पर निकल पड़े. तपस्या के बाद भृगु वापस आये.उन्होंने ने निष्कर्ष निकला:

1 . अन्न ही ब्रह्म है.अन्न से ही वीर्य उत्पन होता है.जीवन सुरक्षित रहता है.मरने के बाद अन्न स्वरुप इस पृथ्वी में प्रविष्ट हो जाता है. वरुण ने कहा पुनः तप करो.

2 . प्राण:- प्राण ही ब्रह्म है.प्राण से प्राणी उत्पन्न होते है.अर्थात एक प्राणी से उसी के सदृश्य प्राणी उत्पन्न होते है.मरने के बाद सब प्राण में प्रवृष्ट हो जाते है. वरुण ने कहा पुनः तप करो.

3 . मन :- मन ही प्राण है.मन से सब प्राणी उत्पन्न होते है.मन ही ब्रह्म है.मरने के बाद इसमें समा जाते है. वरुण ने कहा पुनः तप करो.

4 . जीवात्मा :- जीवात्मा ही ब्रह्म है. समस्त प्राणी जीवात्मा से उत्पन्न होते है.सजीव चेतन प्राणियो से ही प्राणियो की उत्पति प्रत्यक्ष देखी जाती है.यदि जीवात्मा न रहे तो ये मन ,इन्द्रियो ,प्राण ,आदि कोई भी नहीं रह सकते और कोई भी अपना काम नहीं कर सकते है. अत: मरने के बाद ये मन आदि सब जीवात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते है. वरुण ने कहा पुनः तप करो.

5 . आनंद :- आनंद ही ब्रह्म है.ये आनंदमय परमात्मा ही अन्नमय आदि सबके अंतरात्मा है.ये सब इन्ही के स्थूलरूप है.इसी कारण उनमे ब्रह्म बुधि होती है.और ब्रह्मा के आंशिक लक्ष्ण पाए जाते है. आनंद स्वरुप पर ब्रब्म परमात्मा से ही सृष्टि के आदि में उत्पन्न होते है.इन सबके आदि कारण तो वे ही है. वरुण ने कहा पुनः तप करो.– तैतरीय उपनिषद (पृष्ट-380 -388 )

विश्व में तीन ही शक्ति है:-

1 . इश्वर सर्वज्ञ है और सर्वशक्तिमान है.
2 . जीव अल्पज्ञ और अल्प शक्तिवाला है.
3 . प्रकृति ( ये सभी आजन्मा है)

ब्रह्म के रूप

1 . जड़ प्रकृति 2 चेतन 3 . परमात्मा

परम तत्व

परम तत्व :- आत्म विद्या और तप जिनकी प्राप्ति के मूलभूत साधन है.तथा जो दूध में स्थिति घी की भाँती सर्वत्र परिपूर्ण है उन सर्वा अन्तर्यामी परमात्मा को वह पूर्वोक्त साधक जान लेता है. ये ही उपनिषद में वर्णित परम तत्व -ब्रह्म है.श्वेताश्वतरोपनिषद (पृष्ट ४२१)

हिरण्यगर्भ :- हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को प्रत्येक सर्ग के आदि में सब प्रकार के ज्ञानो से पुष्ट करते है.सब प्रकार के ज्ञानो से संपन्न करके उन्नत करते है तथा जिन्होंने सबसे पहले उत्पन्न होते हुए उन हिरण्यगर्भ को देखा था ,वे ही सर्वशक्ति मान सर्वाधार सबके स्वामी परब्रह्म पुरुषोत्तम .

जीव आत्मा : (जीवात्मा) – न स्त्री है, न पुरुष है.और न नपुंसक ही है.यह सर्व भेद शुन्यू है.

स्त्री -पुरुष के परस्पर मोह्पुर्वक ,संकल्प ,स्पर्श और दृष्टिपात के द्वारा सहवास होने पर जीवात्मा गर्भ में आता है.फिर माता के भोजन और जलपान से बने रस के द्वारा उसकी वृद्धि होकर जन्म लेता है.

जगत कारण

स्वभाव काल

अविद्या,दो पुण्य और पापरूप संचित कर्म संस्कार ,सत्व ,रज और तम ये तीन गुण और एक काल तथा मन ,बुधि,अंहकार ,पृथ्वी ,जल तेज ,वायु और आकाश ———ये आठ प्रकृति भेद इन सबसे तथा अंहता,ममता आशक्ति आदि सम्बंधित सूक्ष्म गुणों से जीव आत्मा का सम्बन्ध कराके इस जगत की रचना हुए.——————श्वेताश्वतारोप्निषद
ब्रह्म

सत्ता ही ब्रह्म है.

1 . निर्गुण :- निर्वैयक्ति ,अनादी,आजन्मा,अब्यक्त,ऐक्तात्व,नेति-नेति . यह स्थिर है.
2 . सगुन :-व्यक्तित्व,विकास,बहुत्व,व्यक्त,नाना रूप. यह सृष्टि का विकसित रूप है.यह व्यक्त रूप है.यह क्रियाशील है.

चेतन ब्रह्म तथा जड़ प्रकृति में भेद :-

निर्गुण अवस्था में भी ब्रह्म के अस्तित्व का उसकी सत्ता का रूप सैट-चित- आनंद है.यह सच्चिदानंद रूप निर्गुण ब्रह्म अपनी क्रियाशील अवस्था मा सृष्टि की उत्पति करता है. ब्रह्म से जगत का आदि समझे.; जड़ प्रकृति से जगत का अंत. प्रकृति अव्यक्त ब्रह्म का ही व्यक्त रूप है.यह अव्यक्त से व्यक्त की प्रक्रिया में से गुजरते गुजरते ,प्रकट हो जानेवाला शरीर है.अवतरण की प्रक्रिया अव्यक्त से व्यक्त की ओर है.

ब्रह्म

ज्ञान ( ब्रह्म को जाननेवाला ) विज्ञान ( अनुभव करनेवाला )

जब ज्ञान तथा विज्ञान के द्वारा ब्रह्म को “समर्ग” रूप से जान लेते है तो ब्रह्म स्वरुप हो जाता है.

अपरा प्रकृति - पृथ्वी ,जल,अग्नि,वायु,आकाश,मन,बुधि,अंहकार ,

परा प्रकृति - ब्रह्म का वह चैतन्य रूप है.जिससे इस संसार का धारण होता है.अत: यह परा प्रकृति ही संसार को उत्पन्न कराती है.इसी में सब पिरोया हुआ है.

== जल- में  रस है,सूर्य/चन्द्र में ज्योति है,पृथ्वी में गंध है. वही सब का बीज है . जिस तत्व को हम जीव कहते है.-वह उसी ब्रह्म की परा प्रकृति का अंश है.

उत्पति

ब्रह्मा विष्णु

प्रकृति : सभी क्रिया कर्म, ये सभी प्रकृति है.इसके तीन गुण है — सत्व ,रज ओर तम

पुरुष : पुरुष निष्क्रिय है.अकर्ता है, अभोक्ता है,मुक्त स्वभाव है. प्रकृति के सात्विक ,राजसिक ,तामसिक कर्मो का पुरष में प्रतिबिम्ब पड़ता है.पुरुष को अपने से अलग कर जान लेना ही मुक्ति है. अर्थात प्राण ही पर ब्रह्म है. (गीता पृष्ट-211 )

क्षेत्र क्षेत्रज्ञ

ज्ञान :- क्षेत्र ओर क्षेत्रज्ञ का जो भेद है वही ज्ञान है.

क्षेत्र :- पांच महाभूतो (पृथ्वी,जल,तेज,वायु,ओर आकाश) / अंहकार,बुधि,अव्यक्त मूल प्रकृति, 10 इन्द्रियों;5 ज्ञानेन्द्रिया (आँख,नाक,कान,जीभ,ओर त्वचा ) / पांच कर्मेन्द्रिया –हाथ ,पैर,मुंह ,और दो गुह्वेन्द्रिया / एक मन,इन्द्रिया के पांच विषय:- देखना सुनना सूंघना ,चखना,और छूना,/ इच्छा ,द्वेष,सुख,दुःख,शरीर,का संघात,-पिंड ,चेतना,शक्ति,ध्रितिशक्ति / ये तत्व ब्रह्माण्ड तथा पिंड का क्षेत्र है.

क्षेत्र के विकार – शरीर, चेतना.

शरीर और चेतना के संयोंग से उत्पन्न विकार — इच्छा,द्वेष,सुख,दुःख,धृत,-आदि .ये ही क्षेत्र है.

क्षेत्रज्ञ : क्षेत्र को जाननेवाला ही क्षेत्रज्ञ है.

ब्रह्म्हांड की दृष्टि से यह ” सृष्टि ” क्षेत्र है.

पिंड की दृष्टि से “आत्मा” ही क्षेत्रज्ञ है. >>>> (गीता पृष्ट 473 )

जीव या तत्व : जिससे यह उत्पन्न होता है.जिससे सुरक्षित है.और जिसमे विलीन हो जाता है.वही विशुद्ध तत्व है.वही ब्रह्म है, उसी को अमृत कहते है.इसका अतिक्रमण नहीं हो सकता है. मनुष्य शरीर भी एक लोक है.इसमें पर ब्रह्म परमेश्वर और जीवात्मा –दोनों धुप और छाँव की तरह ह्रदय रूप गुफा में रहते है. अत:मनुष्य को दूसरे लोको की कामना न करके इस मनुष्य शरीर के रहते रहते ही उस पर ब्रह्म परमेश्वर को जान लेना चाहिए.  पिप्पलाद ने भार्गव ऋषि को इस तरह कहते है: शरीर के अवयवो की पूर्ति करने वाले वायु ,अग्नि, जल और पृथ्वी –ये चार तत्व है.दस इन्द्रियाँ और अंत:करण – ये इसको प्रकाश देकर क्रियाशील बनाने वाले है. इन सबसे श्रेष्ट प्राण है. प्राण ही वास्तव में शरीर को धारण करनेवाला है. अर्थात प्राण ही पर ब्रह्म है.

आश्वालय मुनि का प्रश्न :- प्राण किससे उत्पन्न होता है . ?

पिप्पलाद का उत्तर: प्राण परमात्मा से उत्पन्न होता है.यही इसकी रचना करते है.अत: इसकी स्थिति उस सर्वात्मा महेश्वर के अधीन उसी के आश्रित है. मन द्वारा किये हुए संकल्प से वह शरीर में प्रवेश करता है….
वास स्थान — प्राण  ; मुख, नासिकद्वार , नेत्र और कान में निवास करता है.

अपान - गुदा ,और उपस्थ में (रज,वीर्य ,गर्भ ,मल,मूत्र.को निकालना)

समान - शरीर के मध्यभाग — नाभि में .(अन्न के सारभूत रस से ही इस शरीर में सात ज्वालाये – दो,नेत्र,दो कान,दो नासिकाएँ और एक मुख (ये सात द्वार उत्पन्न होते है.)

व्यान - शरीर में 100 मूल भूत नाडियाए है. प्रत्येक नाड़ियो की 100 -100 शाखाएं है. प्रत्येक शाखा नाडी की 72 -72 हजार प्रति शाखाएं है. इस प्रकार इस शरीर में कुल 72 करोड़ नाडियाए है.

उड़ान - 72 करोड़ नाड़ियो के अतिरिक्त एक अलग नाडी है.जिसे सुषुम्ना कहते है.यह हृदय से मस्तक की ओर गई है.इसके द्वारा उदान वायु ऊपर की ओर विचरण करता है. उदान वायु ही पुण्यशाली मनुष्य को स्वर्गादी में ले जाता है.अत: सूर्य ही सबका बाह्य प्राण है.

ब्रह्माण्ड :- पांच महाभूत - आकाश,वायु,तेज,जल,पृथ्वी.मन बुधि,अंहकार चित./ पांच ज्ञानेंद्रियें / पांच कर्मेंद्रिये / अन्न / इसके वाद स्वंग प्रविष्ट किये.अत: ये १६ कलाओं वाले पुरुष कहलाते है.

ब्रह्मा जी ने सबसे पहले ब्रह्म विद्या का उपदेश – महर्षि अथर्वा को दिए.फिर > >अथर्वा ने यह उपदेश अंगी को दिए >> फिर अंगी ने उपदेश भारद्वाज गोत्र के सत्यवाह को दिए > > फिर सत्यवाह ने यह उपदेश अंगीरा नामक ऋषि को उपदेश दिए.

अपरा विद्या -  चार वेद  (ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद ओर अथर्ववेद) तथा शिक्षा,कल्प(यज्ञ-ज्ञाज्ञ संबधित शिक्षा) छंद,निरुक्त,ज्योतिष,विद्या तथा व्याकरण – अपरा विद्या है.

अविनाशी  ब्रह्म :- अत्यंत सूक्ष्म,व्यापक,अंतरात्मारूप से सबमे फैले हुए ओर कभी न नाश होने वाले सर्वथा नित्य है. पर ब्रहम परमेश्वर ही जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत के निमित ओर उपादान के कारण है.

प्रश्न : शौनक ऋषि ने पूछा : किसको जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है ?

उत्तर - उन सर्वशक्ति मान सर्वज्ञ ,सबके कर्ता धर्ता परमेश्वर को जान लेने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है.
देदीप्यमान प्रकाश स्वरुप ,अतिशय,शुक्ष्म,समस्त लोको रहनेवाले समस्त प्राणी स्थित है.वे ही परम अक्षर ब्रह्म है.वे ही परम सत्य ओर अमृत अविनाशी तत्व है. यह सत्य स्वरुप है. ये दिव्य – अलौकिक ओर अचिन्त्य स्वरुप है.अत: जो कोई भी पर ब्रह्म परमात्मा का जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है.

अन्तर्यामी परमात्मा के स्वरुप - : परब्रह्म के मस्तक अग्नि/ कान -समस्त दिशाएं -कान/ नेत्र- सूर्य ओर चन्द्रमा/ वाणी- चारो वेड/प्राण-वायु/ हृदय-चराचर जगत/पैर- पृथ्वी.

जारी है.————————

( संकलन )


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