सबसे पहला अर्थ जो इन शब्दों का है वो अति मौलिक है खर्च और ज़मा , इस संसार मे जो भी अर्जन हो रहा है मूल रूप से या तो बढ रह है या घट रहा है , टिका हुआ जो भी है वो निर्जीव है। गति के उत्पन्न होते ही ऊर्जा अपना काम करती है और प्रकृति अपना।
यहाँ भी जन्म लेते ही , पहली अवस्था से सामना होता है कि जीवन चुक रहा है , पर आने और जाने मे इतना तादात्मय रहता है कि उस जाने का बोध नहीं हो पता, बस नयी नयी उपलब्ध्यियों का स्वागत ही करने मे दिमाग और मन व्यस्त रह्ता है पर अहसास कब होता है , जब ग्रहणशीलता रूकावट आने लगती है, जब शरीर और मन की उपलब्धियॉं चुकनी शुरु होती है और नयी जुड़ती नहीं , तब लगता है कि ग्रहण तो कुछ हुआ नहीं और जो था वो भी साथ छोङ रहा है ! यानि की बैंक के खाते मे राशी अब ज़मा नही हो रही , जमा धन अब सिर्फ़ खर्च हो रहा है , तो चिंता शुरु हो जातीं है। जीवन_खाता अब खाली हो रहा है , रिसाव शुरु हो चला । इस गति को यदि विज्ञान की भाषा मे कहे तो तीव्र गति से घूमती पृथ्वी के अंदर वास करते हुए हमको उसकी गति अंदाजा तब ही हो सकता है जब या तो पृथ्वी रुक जाये या सूरज रुक जाये , दोनो मे गति व्यवस्था मे उचित तारतम्य होने के कारण अंदर बैठे व्यक्ति को आभास ही नहीं होता, जीवन का भी व्यवसाय इतनी ही तीव्रता से ज़मा और खर्च रूप मे ज़ारी रहता है। आभास ही तब होता है जब एक रुक जाता है।
भावनात्मक गुणात्मक सम्बन्धो मे , सांसारिक धन सम्पदा मे , शारीरिक स्वास्थय मे , आध्यात्मिक उत्थान मे , सभी मे एक हीं सिद्धाँत लागु है। कोई मानव इस भाव से अछूता नहीं । संसार की असारता के अनुभव क़ा अन्तिम पायदान हीं आध्यात्मिक उथान की सीढी का पहला कदम है। जब भी इस जीवन में पकड कमजोर पडेगी , तब ही उस जीवन मे पकड मज़बूत होंगी। और ये भी प्यास ! की चुकने वाला जीवन नहीं चाहिये , प्रेम वो चहिये जो सनातन हो। आत्मा को साथ वो चाहिए जो हमेंशा से था और आगे भी रहेगा। यही समूची प्यास है , यही समूची खोज है।
परमात्मा की ऊर्जा गुणात्मक रूप से और हमारी उर्ज़ा उसी गुणात्मक रुप से एक है , और हम सब उसीकी नाभि केन्द्र से जुड़े है उसके सम्पर्क मे है , नाभी का जुडाव कच्चा नही होता , माँ का जुडाव आपने बालको से नाभि का होता है। इस भाव के जुड़ाव की तीव्रता को आप महसूस कर सकते है। इसका उल्टा भी ; सारे संकेत इसी संसार क़ी सांसारिकता के माध्यम से परम आप तक पहुँचे ऱहा है। बालक का जुड़ाव अपनी माँ से थोड़ा कच्चा हो सकता है , परन्तु माँ का जुडाव और आशीर्वाद भाव कभी कम नही होता। वो परम ऊर्जा भी कह रही है , मैं अपने जन्म हुई से जुडी हुई हूँ। और स्वाभाविक रूप से माया वश भूलने के बाद भी , आत्मा का आकर्षण अपने रज से जनमी और नाभी से जुडी ऊर्जा से , जुड़ा हुआ है , सिर्फ़ जुड़ा ही नहीं उसका नैसर्गिक चुंबकीय खिंचाव भी है। उसके सारे प्रयास है कि अपनी तरफ़ अपनी उर्ज़ा अंश को खींच ले। और यही हर जीव की जीवन यात्रा का मूळ उदेश्य भी है कि वो अपने जन्मस्थान का स्मरन करे और समरण होते हि वो स्वयम जुङ जायेगा।
ध्यान का भावार्थ भी यहाँ और स्पष्ट है। ध्यान ऐसी निर्विधि है जो आत्मा को सीधा उसके जन्मस्थान से जोड़ती है। माया काटने का एक ही ऊपाय "माया से साक्षात्कार " . और सांसारिकता से पार पाने का ऊपाय निर्विरोध समर्पण जिसकी शुरुआत आभार से होती है , और आभार तब जागृत होता है जब अपनी वास्तविक स्थति और घांटे नफे का भान होता है , उस जैसा व्यापारी मैने इस संसार मे तो नहीं देखा , देता ही देता जाता है फ़िर भी समूचा लाभ ऊसी के खाते मे , और हम लेते ही जाते है फ़िर भी घाटे मे हमारे हीं ख़ाता आ जाता है मात्र ऊर्जा तत्व को उस परम से जोड़ के , सब कुछ सांसारिक सम्पदा चुक जाने के बाद भी , व्यापार मे घाटा है हीं नही। और यही वो संकेत है जो कह्ता है जो उससे जुड़ गया , फ़िर वो लाभ हानि के चक्रव्युह से बाहर हो ग़या , उसके बाद थोड़ा थोड़ा करके लाभ एकत्रित ही होता चला जाता है , शायद इसीलिए मनस्वी कहते है " परम के व्यापार से जुड़े तो फ़िर घाटा है ही नहीं , आध्यात्मिक संन्यासी जैसा धनवान राजा कोइ नहि।
उस परम की कृपा के छूते ही समस्त नकारातमक ऊर्जा के प्रभाव समाप्त हो जाते है , दग्ध हृदय शीतल हो जाता है . सुगंध स्वतः फैलती है।
(ओह ! परम .... !!! इस शब्दों को कितनी बार सुना , और समझा भी पर हर बार इन शब्दों ने अलग ही तारीके से हृदए को छूआ। आभार !! प्रणाम )
व्यापार एक ही व्यापारी से .....
आध्यात्मिक अर्थ मे इस व्यापार भाव या नफा नुक्सान भाव का अलग ही गुणात्मक प्रयोग है और साँसारिक अर्थ मे अलग. यदि आध्यात्मिक स्वार्थ के साथ इसको जोड़ें तो गुणात्मक गृह्यतां दुगनी हो जाती है।
आध्यात्मिक और साँसारिक सम्पदा का ये गणित सभीं आत्मिक अथ्वा सांसारिक व्यवसाय मे लिप्त व्यापारियों के लिए ,अति श्रृद्धा और विश्वास से सभी के जीवन यात्रा की मंगलकामना के साथ ये लेख समर्पित करती हूँ।
असीम शुभकामनाये !!
यहाँ भी जन्म लेते ही , पहली अवस्था से सामना होता है कि जीवन चुक रहा है , पर आने और जाने मे इतना तादात्मय रहता है कि उस जाने का बोध नहीं हो पता, बस नयी नयी उपलब्ध्यियों का स्वागत ही करने मे दिमाग और मन व्यस्त रह्ता है पर अहसास कब होता है , जब ग्रहणशीलता रूकावट आने लगती है, जब शरीर और मन की उपलब्धियॉं चुकनी शुरु होती है और नयी जुड़ती नहीं , तब लगता है कि ग्रहण तो कुछ हुआ नहीं और जो था वो भी साथ छोङ रहा है ! यानि की बैंक के खाते मे राशी अब ज़मा नही हो रही , जमा धन अब सिर्फ़ खर्च हो रहा है , तो चिंता शुरु हो जातीं है। जीवन_खाता अब खाली हो रहा है , रिसाव शुरु हो चला । इस गति को यदि विज्ञान की भाषा मे कहे तो तीव्र गति से घूमती पृथ्वी के अंदर वास करते हुए हमको उसकी गति अंदाजा तब ही हो सकता है जब या तो पृथ्वी रुक जाये या सूरज रुक जाये , दोनो मे गति व्यवस्था मे उचित तारतम्य होने के कारण अंदर बैठे व्यक्ति को आभास ही नहीं होता, जीवन का भी व्यवसाय इतनी ही तीव्रता से ज़मा और खर्च रूप मे ज़ारी रहता है। आभास ही तब होता है जब एक रुक जाता है।
भावनात्मक गुणात्मक सम्बन्धो मे , सांसारिक धन सम्पदा मे , शारीरिक स्वास्थय मे , आध्यात्मिक उत्थान मे , सभी मे एक हीं सिद्धाँत लागु है। कोई मानव इस भाव से अछूता नहीं । संसार की असारता के अनुभव क़ा अन्तिम पायदान हीं आध्यात्मिक उथान की सीढी का पहला कदम है। जब भी इस जीवन में पकड कमजोर पडेगी , तब ही उस जीवन मे पकड मज़बूत होंगी। और ये भी प्यास ! की चुकने वाला जीवन नहीं चाहिये , प्रेम वो चहिये जो सनातन हो। आत्मा को साथ वो चाहिए जो हमेंशा से था और आगे भी रहेगा। यही समूची प्यास है , यही समूची खोज है।
परमात्मा की ऊर्जा गुणात्मक रूप से और हमारी उर्ज़ा उसी गुणात्मक रुप से एक है , और हम सब उसीकी नाभि केन्द्र से जुड़े है उसके सम्पर्क मे है , नाभी का जुडाव कच्चा नही होता , माँ का जुडाव आपने बालको से नाभि का होता है। इस भाव के जुड़ाव की तीव्रता को आप महसूस कर सकते है। इसका उल्टा भी ; सारे संकेत इसी संसार क़ी सांसारिकता के माध्यम से परम आप तक पहुँचे ऱहा है। बालक का जुड़ाव अपनी माँ से थोड़ा कच्चा हो सकता है , परन्तु माँ का जुडाव और आशीर्वाद भाव कभी कम नही होता। वो परम ऊर्जा भी कह रही है , मैं अपने जन्म हुई से जुडी हुई हूँ। और स्वाभाविक रूप से माया वश भूलने के बाद भी , आत्मा का आकर्षण अपने रज से जनमी और नाभी से जुडी ऊर्जा से , जुड़ा हुआ है , सिर्फ़ जुड़ा ही नहीं उसका नैसर्गिक चुंबकीय खिंचाव भी है। उसके सारे प्रयास है कि अपनी तरफ़ अपनी उर्ज़ा अंश को खींच ले। और यही हर जीव की जीवन यात्रा का मूळ उदेश्य भी है कि वो अपने जन्मस्थान का स्मरन करे और समरण होते हि वो स्वयम जुङ जायेगा।
ध्यान का भावार्थ भी यहाँ और स्पष्ट है। ध्यान ऐसी निर्विधि है जो आत्मा को सीधा उसके जन्मस्थान से जोड़ती है। माया काटने का एक ही ऊपाय "माया से साक्षात्कार " . और सांसारिकता से पार पाने का ऊपाय निर्विरोध समर्पण जिसकी शुरुआत आभार से होती है , और आभार तब जागृत होता है जब अपनी वास्तविक स्थति और घांटे नफे का भान होता है , उस जैसा व्यापारी मैने इस संसार मे तो नहीं देखा , देता ही देता जाता है फ़िर भी समूचा लाभ ऊसी के खाते मे , और हम लेते ही जाते है फ़िर भी घाटे मे हमारे हीं ख़ाता आ जाता है मात्र ऊर्जा तत्व को उस परम से जोड़ के , सब कुछ सांसारिक सम्पदा चुक जाने के बाद भी , व्यापार मे घाटा है हीं नही। और यही वो संकेत है जो कह्ता है जो उससे जुड़ गया , फ़िर वो लाभ हानि के चक्रव्युह से बाहर हो ग़या , उसके बाद थोड़ा थोड़ा करके लाभ एकत्रित ही होता चला जाता है , शायद इसीलिए मनस्वी कहते है " परम के व्यापार से जुड़े तो फ़िर घाटा है ही नहीं , आध्यात्मिक संन्यासी जैसा धनवान राजा कोइ नहि।
उस परम की कृपा के छूते ही समस्त नकारातमक ऊर्जा के प्रभाव समाप्त हो जाते है , दग्ध हृदय शीतल हो जाता है . सुगंध स्वतः फैलती है।
(ओह ! परम .... !!! इस शब्दों को कितनी बार सुना , और समझा भी पर हर बार इन शब्दों ने अलग ही तारीके से हृदए को छूआ। आभार !! प्रणाम )
व्यापार एक ही व्यापारी से .....
आध्यात्मिक अर्थ मे इस व्यापार भाव या नफा नुक्सान भाव का अलग ही गुणात्मक प्रयोग है और साँसारिक अर्थ मे अलग. यदि आध्यात्मिक स्वार्थ के साथ इसको जोड़ें तो गुणात्मक गृह्यतां दुगनी हो जाती है।
आध्यात्मिक और साँसारिक सम्पदा का ये गणित सभीं आत्मिक अथ्वा सांसारिक व्यवसाय मे लिप्त व्यापारियों के लिए ,अति श्रृद्धा और विश्वास से सभी के जीवन यात्रा की मंगलकामना के साथ ये लेख समर्पित करती हूँ।
असीम शुभकामनाये !!
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