जीवन में सभी कुछ अज्ञात है--वह सब भी, जो हम सोचते हैं कि ज्ञात है।
सुकरात का वचन है कि जब मैं युवा था तो सोचता था, बहुत कुछ जानता हूं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, जानना भी बढ़ा। लेकिन एक अनूठी घटना भी साथ-साथ, कदम से कदम मिलाते हुए चली। जितना ज्यादा जानने लगा, उतना ही अनुभव होने लगा कि कितना कम जानता हूं। और अंततः जीवन की वह घड़ी भी आई, जब मेरे पास कहने को केवल एक शब्द था कि मैं सिर्फ इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। यह सुकरात के अंतिम वचनों मग से हैं। जीवन भर की यात्रा, ज्ञान की खोज, और परिणाम एक बच्चे का भोलापन: जिसे कुछ भी पता नहीं है।
यूनान में डेल्फी का मंदिर है। उन दिनों बहुत प्रसिद्ध था, अब तो सिर्फ उसके खंडहर बाकी हैं। डेल्फी के मंदिर की जो पुजारिन थी, वह रामकृष्ण जैसी रही होगी। कभी-कभी गीत गाते-गाते, नाचते-नाचते बेहोश हो कर गिर पड़ती थी। और उस बेहोशी में जो कहती थी, वह होशवालों को होश गुम कर देते। जब सुकरात ने यह वचन कहा था, उसके थोड़े ही दिन बाद डेल्फी की पुजारिन ने घोषणा की कि सुकरात दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है।
लोगों ने सुना, हैरानी में पड़े। सुकरात कहता है, मैं कुछ भी नहीं जानता, बस इतना ही जानता हूं। और डेल्फी की पुजारिन की बात कभी झूठ नहीं गई थी। और वह कहती है, सुकरात जगत का सबसे बड़ा महाज्ञानी है। वे लोग सुकरात के पास आए। सुकरात से निवेदन किया कि देवी की आविष्ट अवस्था में यह उदघोष हुआ है। सुकरात ने कहा, देवी बेहोश थी, मैं होश में हूं। मैं फिर कहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। देवी गलत हो सकती है, सुकरात गलत नहीं हो सकता। देवी मुझे बाहर से जानती है, मैं स्वयं को भीतर से जानता हूं। लौट जाओ और देवी को कहना कि तुम्हारी एक भविष्यवाणी गलत हो गई। कम से कम एक तो निश्चित ही गलत हो गई। लोग वापिस लौटकर देवी से कहे और देवी हंसी। उसने कहा, कहना सुकरात से कि मैंने तुम्हें महाज्ञानी इसीलिए तो कहा था कि तुमने जान लिया है कि जगत में सभी कुछ अज्ञात है और रहस्यमय है। मेरे वक्तव्य में और तुम्हारे वक्तव्य में कोई विरोध नहीं है।
हम जन्मते हैं, पता नहीं क्यों? कौन सी अज्ञात शक्ति हमें जीवन में लाती है। हम जीते भी हैं, पता नहीं क्यों! हम एक दिन मर भी जाते हैं और शायद यह चक्र अनंत बार घूम चुका है और हमें कोई भी पता नहीं कि क्यों?
यह प्रश्न भद्रा का है; चूंकि रोज मैं उसकी चोटी खींच रहा था कि भद्रा पूछ, भद्रा पूछ, बामुश्किल किसी तरह प्रश्न बनाकर ले आई है।
जगत एक रहस्य है, एक ऐसा शास्त्र जो पढ़ा नहीं जा सकता। और जो दावा करते हैं जानने का, उनसे बड़े अज्ञानी इस दुनिया में दूसरे नहीं हैं। और जिनकी समझ में यह आ जाता है कि हम एक अज्ञात, अपरिसीम, अव्याख्य शक्ति की तरंगें हैं--न जिनके प्रारंभ का कोई पता है, न जिनके अंत की कोई खबर है, वे ही थोड़े से लोग अपने भीतर अचानक पाते हैं, जैसे चुंबक बन गए हों।
भद्रा पूछ रही है, वह कौन सी अज्ञात शक्ति है, जो हमें आपकी ओर खींचती है? वह वही अज्ञात शक्ति है, जो तुम्हारे भीतर है और मेरे भीतर है। न मैं उसका नाम जानता हूं, न तुम उसका नाम जानती हो, लेकिन मैं इतना जानता हूं कि वह अज्ञात है और बेनाम है। और तुम्हें अभी भी यह भ्रम है कि शायद किसी दिन तुम उसे पहचान लोगी, उसके नाम को जान लोगी। जिस दिन यह भ्रम टूट जाएगा, उस दिन तुम भी एक अपूर्व आकर्षण और चुंबक का केंद्र बन जाओगे। तुम्हारे भीतर भी वह कशिश होगी। तुम्हारे शब्दों में भी वही अधिकार होगा, क्योंकि तब तुम नहीं बोलते, तक तुम्हारा गीत तुम्हारा गीत नहीं है। तब तो तुम सिर्फ बांस की पोली पोंगरी हो। ओंठ किसी और के हैं और गीत किसी और का है। तुम्हारा धन्यभाग इतना कि तुम उस गीत को अपने भीतर से प्रवाहित होने देते हो। और यह प्रवाह इस जगत का सबसे बड़ा आनंद है। ज्ञान की खोज मत करो, आनंद की खोज करो। आनंद है जो तुम्हें खींचता है मेरी ओर। मेरा मिट जाना है जो खींचता है तुम्हें मेरी ओर। और मिट कर ही तुम आनंद को पा सकते हो।
हम सब नामों से चिपके हैं--झूठे नाम। पैदा हुए थे। तो साथ में न कोई आइडेंटिटी कार्ड था, न कोई नाम की छोटी सी स्लिप थी। अज्ञात तुम आए थे। नाम तो हमने चिपका दिए हैं। लेबल हैं जो हम पर लगा दिए हैं। और जिस दिन तुम जाओगे, उस दिन उन लेबलों को हम अलग कर लेंगे। क्योंकि फिर तुम अज्ञात में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन इन दो अज्ञातों के बीच में भी जो था, वह भी अज्ञात था। नाम, प्रतिष्ठा, सम्मान, उपाधियां, वे सब चिपकायी हुई बातें थीं, जो सब उखड़ जाएगी।
मैं यह कहना चाहता हूं कि जगत को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। ज्ञात, द नोन; अज्ञात, द अननोन; और अज्ञेय, द अननोएबल। जो आज ज्ञात है, कल अज्ञात था। जो आज अज्ञात है, शायद कल ज्ञात हो जाए। विज्ञान केवल दो कोटियां मानता है: ज्ञात की और अज्ञात की। विज्ञान सोचता है कि एक दिन आएगा, एक घड़ी आएगी--उनके हिसाब से शुभ की घड़ी, मेरे हिसाब से दुर्भाग्य का क्षण--जिस दिन सब अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगी। उस दिन जीवन अर्थहीन होगा। उस दिन जीवन के पास न कोई नयी चुनौती होगी, न खोज के लिए कोई नया आयाम होगा। नहीं, यह घटना कभी नहीं घटेगी। क्योंकि एक और कोटि है अज्ञेय की: जो सदा अज्ञेय है। जो पहले भी अज्ञेय था, अब भी अज्ञेय है और कल भी अज्ञेय रहेगा। तुम वही हो: अननोएबल। और अपने को इस भांति पहचान लेना कि मेरे भीतर अज्ञेय का वास है, स्वयं को मंदिर में बदल लेना है। क्योंकि अज्ञेय ईश्वर का दूसरा नाम है। हम उसका रस तो पी सकते हैं। उपनिषद कहते हैं--रसो वे सः। हम उसका स्वाद तो ले सकते हैं, लेकिन उसकी व्याख्या, उसकी परिभाषा, उसे नाम नहीं दे सकते।
मैंने उस रस को चखा है। और तुम्हारे भीतर भी उस रस को चखने की जन्मों-जन्मों से प्यास है। वही प्यास तुम्हें खींच लाती है तुम्हारे बावजूद, क्योंकि खतरा है अज्ञेय में प्रवेश का। ज्ञात से तो आदमी संतुष्ट होता है: जानता है, पहचानता है। अज्ञात से भी इतना डर नहीं लगता, आज नहीं कल जान लेंगे। लेकिन अज्ञेय? वहां तो सिर्फ खो जाना है। इस अज्ञेय को हमने देकर बड़ी भूलें कीं। किसी ने ईश्वर कहा, किसी ने खुदा और किसी ने परमात्मा और किसी ने यहोवा। और हजार-हजार नाम हमने दिए, जो सब झूठे नाम हैं। हम उसे जानते ही नहीं, जान सकते भी नहीं; लेकिन जी सकते हैं, जी रहे हैं। वह हमारी सांस-सांस में है, हमारी आंखों की झलक-झलक में है
तो जानने की यात्रा के लिए मेरा आमंत्रण नहीं है। मेरा आमंत्रण है होने की यात्रा के लिए। वही तुम्हें खींच लाता है। वही तुम्हारे लिए आकर्षण है। मैं तुम्हें ज्ञानी नहीं बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम उतने निर्दोष हो जाओ, जितने निर्दोष जन्म के पहले क्षण में थे। आंखें खुली थीं, सब दिखाई पड़ता था; लेकिन कोई नाम न था, कोई शब्द न था।
ईसाइयों की बाइबिल में एक अनूठी बात है, जिसका मैं विरोध करता रहा हूं। बाइबिल कहती है, सबसे पहले शब्द था, शब्द के साथ ईश्वर था और शब्द ही ईश्वर था। मैंने बड़े से बड़े ईसाई पंडितों से पूछा है कि शब्द मग और ध्वनि मग क्या अंतर है? पहाड़ से जलप्रपात गिरता है उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। घने जंगलों में से हवाएं सरसराती हुई गुजरती हैं, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। क्योंकि शब्द का अर्थ होता है ऐसी ध्वनि, जिसको अर्थ दे दिया गया। तो प्रथमतः शब्द तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पहले किसी की जरूरत पड़ेगी जो उसे अर्थ दे। शब्द से बेहतर होगा कि कहें पहले ध्वनि थी। भूल थोड़ी कम हो जाती है लेकिन मिट नहीं जाती। क्योंकि ध्वनि को सुनने के लिए भी कोई कान चाहिए। जब कोई भी सुनने वाला नहीं है तो ध्वनि का भी कोई अस्तित्व नहीं होता। शायद तुम सोचते होओगे कि जंगलों में गिरते हुए जल प्रपातों का वह स्वर-संगीत तुम्हारे चले जाने पर भी वैसा ही बना रहता है--तुम गलती में हो। तुम गए कि वह भी गया। वह दो के बीच था। तुम्हारे कान जरूरी थे।
ध्वनि भी नहीं हो सकती। तो कौन था जो सबसे पहले था? उपनिषद? उपनिषद बहुत ईमानदार हैं। उपनिषदों से ज्यादा ईमानदार किताबें इस जमीन पर दूसरी नहीं हैं। उपनिषद कहते हैं वह कौन था जो पहले था, किसी को भी कोई पता नहीं है। कैसे हो सकता है पता? वह कौन था जो था? उसका कोई भी तो साक्षी नहीं है। और कौन है जो अंत में रह जाएगा? उसका भी कोई साक्षी नहीं है। और अगर प्रारंभ में अज्ञेय है और अंत में अज्ञेय है तो बीच में भी अज्ञेय ही है। तुम्हारे सब नाम-धाम झूठ हैं। तुम्हारी जाति, तुम्हारे धर्म, तुम्हारी दीवारें झूठी हैं। तुम्हारे राष्ट्र और तुम्हारे सारे भेद झूठे हैं।
ध्यान एकमात्र प्रक्रिया है उस अज्ञेय में उतर जाने की, जहां तुम अचानक मौन हो जाते हो। क्योंकि जो तुम देखते हो उसको कोई भी शब्द नहीं दिया जा कसता। और उस अज्ञेय से ही आकर्षण पैदा होता है।
हजारों लोग बुद्ध के पास मधुमक्खियों की तरह चले आए। न कोई विज्ञापन था, न कोई खबर थी, लेकिन जब फूल खिलते हैं तब मधुमक्खियों को पता चल ही जाता है। इतना मैं तुमसे कह सकता हूं कि मैंने अपने भीतर झांका है और उस शून्य को अनुभव किया है, जिसका कोई नाम नहीं है, कोई धर्म नहीं है। वही है तुम्हारा आकर्षण। और ईश्वर करे कि तुम भी उसको भीतर अपने जान लो। जितने ज्यादा लोग जान लें, जितने ज्यादा फूल खिलें, उतनी करोड़ों मधुमक्खियों के जीवन में बहार आ जाए।
सुकरात का वचन है कि जब मैं युवा था तो सोचता था, बहुत कुछ जानता हूं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, जानना भी बढ़ा। लेकिन एक अनूठी घटना भी साथ-साथ, कदम से कदम मिलाते हुए चली। जितना ज्यादा जानने लगा, उतना ही अनुभव होने लगा कि कितना कम जानता हूं। और अंततः जीवन की वह घड़ी भी आई, जब मेरे पास कहने को केवल एक शब्द था कि मैं सिर्फ इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। यह सुकरात के अंतिम वचनों मग से हैं। जीवन भर की यात्रा, ज्ञान की खोज, और परिणाम एक बच्चे का भोलापन: जिसे कुछ भी पता नहीं है।
यूनान में डेल्फी का मंदिर है। उन दिनों बहुत प्रसिद्ध था, अब तो सिर्फ उसके खंडहर बाकी हैं। डेल्फी के मंदिर की जो पुजारिन थी, वह रामकृष्ण जैसी रही होगी। कभी-कभी गीत गाते-गाते, नाचते-नाचते बेहोश हो कर गिर पड़ती थी। और उस बेहोशी में जो कहती थी, वह होशवालों को होश गुम कर देते। जब सुकरात ने यह वचन कहा था, उसके थोड़े ही दिन बाद डेल्फी की पुजारिन ने घोषणा की कि सुकरात दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है।
लोगों ने सुना, हैरानी में पड़े। सुकरात कहता है, मैं कुछ भी नहीं जानता, बस इतना ही जानता हूं। और डेल्फी की पुजारिन की बात कभी झूठ नहीं गई थी। और वह कहती है, सुकरात जगत का सबसे बड़ा महाज्ञानी है। वे लोग सुकरात के पास आए। सुकरात से निवेदन किया कि देवी की आविष्ट अवस्था में यह उदघोष हुआ है। सुकरात ने कहा, देवी बेहोश थी, मैं होश में हूं। मैं फिर कहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। देवी गलत हो सकती है, सुकरात गलत नहीं हो सकता। देवी मुझे बाहर से जानती है, मैं स्वयं को भीतर से जानता हूं। लौट जाओ और देवी को कहना कि तुम्हारी एक भविष्यवाणी गलत हो गई। कम से कम एक तो निश्चित ही गलत हो गई। लोग वापिस लौटकर देवी से कहे और देवी हंसी। उसने कहा, कहना सुकरात से कि मैंने तुम्हें महाज्ञानी इसीलिए तो कहा था कि तुमने जान लिया है कि जगत में सभी कुछ अज्ञात है और रहस्यमय है। मेरे वक्तव्य में और तुम्हारे वक्तव्य में कोई विरोध नहीं है।
हम जन्मते हैं, पता नहीं क्यों? कौन सी अज्ञात शक्ति हमें जीवन में लाती है। हम जीते भी हैं, पता नहीं क्यों! हम एक दिन मर भी जाते हैं और शायद यह चक्र अनंत बार घूम चुका है और हमें कोई भी पता नहीं कि क्यों?
यह प्रश्न भद्रा का है; चूंकि रोज मैं उसकी चोटी खींच रहा था कि भद्रा पूछ, भद्रा पूछ, बामुश्किल किसी तरह प्रश्न बनाकर ले आई है।
जगत एक रहस्य है, एक ऐसा शास्त्र जो पढ़ा नहीं जा सकता। और जो दावा करते हैं जानने का, उनसे बड़े अज्ञानी इस दुनिया में दूसरे नहीं हैं। और जिनकी समझ में यह आ जाता है कि हम एक अज्ञात, अपरिसीम, अव्याख्य शक्ति की तरंगें हैं--न जिनके प्रारंभ का कोई पता है, न जिनके अंत की कोई खबर है, वे ही थोड़े से लोग अपने भीतर अचानक पाते हैं, जैसे चुंबक बन गए हों।
भद्रा पूछ रही है, वह कौन सी अज्ञात शक्ति है, जो हमें आपकी ओर खींचती है? वह वही अज्ञात शक्ति है, जो तुम्हारे भीतर है और मेरे भीतर है। न मैं उसका नाम जानता हूं, न तुम उसका नाम जानती हो, लेकिन मैं इतना जानता हूं कि वह अज्ञात है और बेनाम है। और तुम्हें अभी भी यह भ्रम है कि शायद किसी दिन तुम उसे पहचान लोगी, उसके नाम को जान लोगी। जिस दिन यह भ्रम टूट जाएगा, उस दिन तुम भी एक अपूर्व आकर्षण और चुंबक का केंद्र बन जाओगे। तुम्हारे भीतर भी वह कशिश होगी। तुम्हारे शब्दों में भी वही अधिकार होगा, क्योंकि तब तुम नहीं बोलते, तक तुम्हारा गीत तुम्हारा गीत नहीं है। तब तो तुम सिर्फ बांस की पोली पोंगरी हो। ओंठ किसी और के हैं और गीत किसी और का है। तुम्हारा धन्यभाग इतना कि तुम उस गीत को अपने भीतर से प्रवाहित होने देते हो। और यह प्रवाह इस जगत का सबसे बड़ा आनंद है। ज्ञान की खोज मत करो, आनंद की खोज करो। आनंद है जो तुम्हें खींचता है मेरी ओर। मेरा मिट जाना है जो खींचता है तुम्हें मेरी ओर। और मिट कर ही तुम आनंद को पा सकते हो।
हम सब नामों से चिपके हैं--झूठे नाम। पैदा हुए थे। तो साथ में न कोई आइडेंटिटी कार्ड था, न कोई नाम की छोटी सी स्लिप थी। अज्ञात तुम आए थे। नाम तो हमने चिपका दिए हैं। लेबल हैं जो हम पर लगा दिए हैं। और जिस दिन तुम जाओगे, उस दिन उन लेबलों को हम अलग कर लेंगे। क्योंकि फिर तुम अज्ञात में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन इन दो अज्ञातों के बीच में भी जो था, वह भी अज्ञात था। नाम, प्रतिष्ठा, सम्मान, उपाधियां, वे सब चिपकायी हुई बातें थीं, जो सब उखड़ जाएगी।
मैं यह कहना चाहता हूं कि जगत को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। ज्ञात, द नोन; अज्ञात, द अननोन; और अज्ञेय, द अननोएबल। जो आज ज्ञात है, कल अज्ञात था। जो आज अज्ञात है, शायद कल ज्ञात हो जाए। विज्ञान केवल दो कोटियां मानता है: ज्ञात की और अज्ञात की। विज्ञान सोचता है कि एक दिन आएगा, एक घड़ी आएगी--उनके हिसाब से शुभ की घड़ी, मेरे हिसाब से दुर्भाग्य का क्षण--जिस दिन सब अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगी। उस दिन जीवन अर्थहीन होगा। उस दिन जीवन के पास न कोई नयी चुनौती होगी, न खोज के लिए कोई नया आयाम होगा। नहीं, यह घटना कभी नहीं घटेगी। क्योंकि एक और कोटि है अज्ञेय की: जो सदा अज्ञेय है। जो पहले भी अज्ञेय था, अब भी अज्ञेय है और कल भी अज्ञेय रहेगा। तुम वही हो: अननोएबल। और अपने को इस भांति पहचान लेना कि मेरे भीतर अज्ञेय का वास है, स्वयं को मंदिर में बदल लेना है। क्योंकि अज्ञेय ईश्वर का दूसरा नाम है। हम उसका रस तो पी सकते हैं। उपनिषद कहते हैं--रसो वे सः। हम उसका स्वाद तो ले सकते हैं, लेकिन उसकी व्याख्या, उसकी परिभाषा, उसे नाम नहीं दे सकते।
मैंने उस रस को चखा है। और तुम्हारे भीतर भी उस रस को चखने की जन्मों-जन्मों से प्यास है। वही प्यास तुम्हें खींच लाती है तुम्हारे बावजूद, क्योंकि खतरा है अज्ञेय में प्रवेश का। ज्ञात से तो आदमी संतुष्ट होता है: जानता है, पहचानता है। अज्ञात से भी इतना डर नहीं लगता, आज नहीं कल जान लेंगे। लेकिन अज्ञेय? वहां तो सिर्फ खो जाना है। इस अज्ञेय को हमने देकर बड़ी भूलें कीं। किसी ने ईश्वर कहा, किसी ने खुदा और किसी ने परमात्मा और किसी ने यहोवा। और हजार-हजार नाम हमने दिए, जो सब झूठे नाम हैं। हम उसे जानते ही नहीं, जान सकते भी नहीं; लेकिन जी सकते हैं, जी रहे हैं। वह हमारी सांस-सांस में है, हमारी आंखों की झलक-झलक में है
तो जानने की यात्रा के लिए मेरा आमंत्रण नहीं है। मेरा आमंत्रण है होने की यात्रा के लिए। वही तुम्हें खींच लाता है। वही तुम्हारे लिए आकर्षण है। मैं तुम्हें ज्ञानी नहीं बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम उतने निर्दोष हो जाओ, जितने निर्दोष जन्म के पहले क्षण में थे। आंखें खुली थीं, सब दिखाई पड़ता था; लेकिन कोई नाम न था, कोई शब्द न था।
ईसाइयों की बाइबिल में एक अनूठी बात है, जिसका मैं विरोध करता रहा हूं। बाइबिल कहती है, सबसे पहले शब्द था, शब्द के साथ ईश्वर था और शब्द ही ईश्वर था। मैंने बड़े से बड़े ईसाई पंडितों से पूछा है कि शब्द मग और ध्वनि मग क्या अंतर है? पहाड़ से जलप्रपात गिरता है उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। घने जंगलों में से हवाएं सरसराती हुई गुजरती हैं, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। क्योंकि शब्द का अर्थ होता है ऐसी ध्वनि, जिसको अर्थ दे दिया गया। तो प्रथमतः शब्द तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पहले किसी की जरूरत पड़ेगी जो उसे अर्थ दे। शब्द से बेहतर होगा कि कहें पहले ध्वनि थी। भूल थोड़ी कम हो जाती है लेकिन मिट नहीं जाती। क्योंकि ध्वनि को सुनने के लिए भी कोई कान चाहिए। जब कोई भी सुनने वाला नहीं है तो ध्वनि का भी कोई अस्तित्व नहीं होता। शायद तुम सोचते होओगे कि जंगलों में गिरते हुए जल प्रपातों का वह स्वर-संगीत तुम्हारे चले जाने पर भी वैसा ही बना रहता है--तुम गलती में हो। तुम गए कि वह भी गया। वह दो के बीच था। तुम्हारे कान जरूरी थे।
ध्वनि भी नहीं हो सकती। तो कौन था जो सबसे पहले था? उपनिषद? उपनिषद बहुत ईमानदार हैं। उपनिषदों से ज्यादा ईमानदार किताबें इस जमीन पर दूसरी नहीं हैं। उपनिषद कहते हैं वह कौन था जो पहले था, किसी को भी कोई पता नहीं है। कैसे हो सकता है पता? वह कौन था जो था? उसका कोई भी तो साक्षी नहीं है। और कौन है जो अंत में रह जाएगा? उसका भी कोई साक्षी नहीं है। और अगर प्रारंभ में अज्ञेय है और अंत में अज्ञेय है तो बीच में भी अज्ञेय ही है। तुम्हारे सब नाम-धाम झूठ हैं। तुम्हारी जाति, तुम्हारे धर्म, तुम्हारी दीवारें झूठी हैं। तुम्हारे राष्ट्र और तुम्हारे सारे भेद झूठे हैं।
ध्यान एकमात्र प्रक्रिया है उस अज्ञेय में उतर जाने की, जहां तुम अचानक मौन हो जाते हो। क्योंकि जो तुम देखते हो उसको कोई भी शब्द नहीं दिया जा कसता। और उस अज्ञेय से ही आकर्षण पैदा होता है।
हजारों लोग बुद्ध के पास मधुमक्खियों की तरह चले आए। न कोई विज्ञापन था, न कोई खबर थी, लेकिन जब फूल खिलते हैं तब मधुमक्खियों को पता चल ही जाता है। इतना मैं तुमसे कह सकता हूं कि मैंने अपने भीतर झांका है और उस शून्य को अनुभव किया है, जिसका कोई नाम नहीं है, कोई धर्म नहीं है। वही है तुम्हारा आकर्षण। और ईश्वर करे कि तुम भी उसको भीतर अपने जान लो। जितने ज्यादा लोग जान लें, जितने ज्यादा फूल खिलें, उतनी करोड़ों मधुमक्खियों के जीवन में बहार आ जाए।
Koplen Phir Phoot Aayeen - 03
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